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Today's Human
ओ! बनावटी इन्सान




क्या संस्क्रति? क्या सभ्यता? क्या संस्कार? और सम्मान
रह गया क्या अस्तित्व इसका? बस बातों का इन्सान

था कभी वो राम और कभी प्रतनु का उपधान
स्वार्थ की तिमिर छाया में खो गया इन्सान

पहले तो अपनों को ठगता, फिर दूजों को कह अपना
लालच की धूसर चादर में, लिपटा सूजान इन्सान

वेद-पुराण और मानवता का, था करता वह ज्ञान-ध्यान
योजनों अब दूर इन से, फंसा अविद्या-चक्र में इन्सान

"मैं, मेरा, मुझको और मुझसे", रहता और सबसे अन्जान
क्यूँ करे चित्त का चिन्तन? वो भौतिकी इन्सान

सिमट गई दूरी मर्यादा की, कभी जो थी वितान
रहा नही खुद "खून" का भी, ओ! बनावटी इन्सान......
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