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Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
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#626788 added December 30, 2008 at 2:49pm
Restrictions: None
Poems / ghazals no. 1-50 in Hindi script
१. मर्दों के लिये ख़तरा—ईकविता, २६ जुलाई २००८

उठाएं अग़र तलवार हम उनको नहीं मंज़ूर
कमसिन से नाज़ुक हाथ हों ये भी नहीं मंज़ूर

नज़रें मिला के तन के अग़र बात हम करें
बनती है बड़ी मर्द ये इलज़ाम हम सहें

नज़रें झुका, पलकें गिरा, नाज़ुक सी हम रहें
ख़तरा हैं मर्दों के लिये फिर भी यही सुनें

मेरे ख़ुदा क्या चीज़ है तूने बनायी मर्द
ऐसी हों या वैसी हों, हैं उसके लिये सरदर्द.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ मार्च २००३







MARDON KE LIYE KHATARAA,

Uthaaen agar talwaar ham,
un ko nahin manzoor;
kamsin se naazook haath hon,
ye bhi nahin manzoor.

Nazarein milaa ke, tan ke agar,
Baat ham karein;
Banati hai badi mard,
Ye ilzaam ham sahein.

Nazarein jhukaa, palkein giraa,
Naazook si ham dikhein,
Khataraa hain mardon ke liye,
Phir bhi yahee sunein.

Mere khudaa kya cheez hai,
Toone banayee mard;
Aisi hon, ya vaisi hon ,
Hain us ke liye sar-dard.

M C gupta, 03-03-03





२. हमें न ये खबर थी एक दिन ऐसा भी आयेगा—RAS—ईकविता, ११ अक्तूबर २००८

हमें न ये खबर थी एक दिन ऐसा भी आयेगा
कि हम पर्दानशीं हैं ये ज़माने को न भायेगा

न वो गुस्ताख इशारे, न वो बदमस्त निगाहें,
सभी इन ज़िल्लतों से इक यही परदा बचायेगा

झलकता है जो औरतपन हसीं साये में चिलमन के
अरे नादान मर्दो कौन ये तुमको बतायेगा

हुयी आज़ाद है औरत वो जो चाहेगी पहनेगी
ज़बर्दस्ती करेगा कोई तो ठोकर ही खायेगा

नसीहत चाहिये हमको नहीं पोशाक के बारे
अग़र मर्ज़ी से पहनेंगी तो पर्दा रास आयेगा

कभी औरत नहीं दुश्मन हुयी बुरके-ओ-घूंघट की
ये परदा हुस्न में उसके इज़ाफ़ा और लायेगा

न तुम इतराओ अपनी फ़ितरतों पर इस तरह मर्दो
बखूबी जानती हैं क्यों न पर्दा तुमको भायेगा

अग़र परवाह हमारी है तो पूछो अपने दिल से कब
दहेजी मौत का मसला ख़लिश तुमको सतायेगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ मार्च २००३
०००००००००००००

Saturday, 11 October, 2008 11:36 PM
From: "Vinay k Joshi" vinaykantjoshi@yahoo.co.in

बहुत अच्छा लगा |
आपके पुराने खजाने में से यदा कदा कोई मोती मिलता रहे तो अच्छा है |
सादर,
विनय के जोशी
०००००००००००००००










३. जहां है प्यार पर कायम सभी से प्यार तुम करना--RAS

जहां है प्यार पर कायम सभी से प्यार तुम करना
सभी से बोल कर मीठा जगत-व्यापार तुम करना

ये भारतवर्ष है मेरा, मोहब्बत पाक से भी है
मुझे लगते हैं सब अपने, नहीं नफ़रत किसी से है

अगर नफ़रत ही करनी है तो अपने आप से करना
बहू ला कर जलाने के घृणित बर्ताव से करना

करे नीलाम बेटे को करो उस बाप से नफ़रत
गिराये गर्भ से बेटी करो उस सास से नफ़रत

कबीरी बोल हैं प्यारे सदा तुम याद ये रखना
बुरा कोई नहीं जग में, बुरा है सिर्फ़ मन अपना.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ मार्च २००३







३A. भरम या अदा—RAS—ई कविता, ३० नवंबर २००८

न हम से मुख़ातिब होते हैं न अपना हुस्न छिपाते हैं
क्या कहिये उन की फ़ितरत को न आते हैं न जाते हैं

उठते होंगे उन के दिल में भी अरमां तो पुरज़ोर मगर
वो शर्म-हया के मारे हैं कुछ कहने से शर्माते हैं

वो पूछ लें ख़ुद अपने दिल से और पूछ के हम को बतला दें
दिल को हम कैसे बहलायें जब ख़्वाबों में तड़पाते हैं

यूं तो बदनाम बहुत हो कर निकले हैं उन के कूंचे से
पर दिल में हैं लाचार बहुत, मुड़-मुड़ कर वापस आते हैं

है कौन ख़ता जो कर बैठे इतना तो बतला दें हम को
मिलना न अग़र वो चाहते हैं तो क्यों ख्वाबों में आते हैं

तदबीर कोई ऐसी होती हम दिल की बात समझ पाते
दिल ही दिल में वो भी हमसे क्या प्यार कभी फ़रमाते हैं

है सिर्फ़ भरम मेरा या फिर इसमें है ख़लिश अदा उन की
दामन उन का गिर जाता है या अपने आप गिराते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ मार्च २००३
नोट—इस कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद यहाँ देखें
http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1280017#sw
००००००००००००००
Sunday, 30 November, 2008 3:38 AM
From: "smchandawarkar@yahoo.com"
खलिश साहब,बहुत खूब! बधाई!
"उज्र आने में भी है और हमें बुलाते भी नहीं
बाइसे तर्क़े मुलाक़ात बताते भी नहीं
खूब पर्दा है, चिल्मन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं नज़र आते भी नहीं"
--दाग़
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर


FANCY OR GESTURE?—Bilingual poem. "FANCY OR GESTURE?-bilingual,award winnerOpen in new Window., 13 March 2003
[Uncertainty in the lover's mind regarding real intentions of the beloved]

Neither she conceals her charm,
Nor does her face unveil;
What to make of this and how
Should I, towards her, feel?

I know that in the heart she
Has a burning desire,
But out of her modesty
She suppresses her fire.

I wish she would ask herself
And, tell me what to do,
When she comes in my dreams and
Torments me all night through.

I have incurred infamy
In love and this I rue;
Yet, I cannot forget her,
This is very much true.

Why is she angry with me?
Let her tell me but once:
If she won’t come to me why,
In my dreams, she returns?

Whether she loves me or not,
How shall I ever know?
Is it that through mock anger,
Her love she wants to show?

Is it my fancy her veil
Slips down innocently?
Or is it a gesture that’s
Done by her prudently?


* Written in abcb 7-6-7-6 format
• Originally written as item no. 761664, which was deleted 19 April 2005 and substituted by entry no. 342109 in the book BILINGUAL POETRY "BILINGUAL POETRY BOOKOpen in new Window.. Re-posted as staic item on 21 June 2007.

M C Gupta
13 March 2003


*****************************************



BHARAM YA ADAA


na ham se mukhaatib hote haiM, na apanaa husn Cipaate haiM
kyaa kahiye un kee fitarat ko, na aate haiM, na jaate haiM


uThate hoMge unake dil meM bhee aramaaM to pur-zor magxar
vo sharm, hayaa ke maare haiM kuC kahane se sharamaate haiM


vo pooC leM khud apane dil se, aur pooC ke ham ko batalaa deM
dil ko ham kaise bahalaayeM, jab khwaabon mein tadxapaate haiM


yooM to badanaam bahut ho kar nikale haiM unake kooche se
Par dil meM haiM laachaar bahut, muDx muDx kar vaapas aate haiM


Hai kaun khataa jo kar baiThe, itanaa to batalaa deM ham ko
Milana na agxar vo chaahate haiM to kyoM khxvaaboM meM aate haiM

tadabeer koee aisee hotee, ham dil kee baat samajh paate
Dil hee dil meM vo bhee hamase kyaa pyaar kabhee faramaate haiM


hai sirf bharam meraa yaa phir isameM hai khxalish adaa unakee
daaman unaka gir jaataa hai yaa apane aap giraate haiM.


MC Gupta ‘Khalish’
13 March 2003




४. वो सुबह कभी तो आयेगी,--RAS-- १ अप्रेल २००३--ईकविता, २३ अप्रेल २००८
[Published at http://kavimanch.blogspot.com/]--submitted in Nov. 2008

वो सुबह कभी तो आयेगी जब दुनिया का रंग बदलेगा
रातों की सियाही जायेगी सूरज का उजाला उंडलेगा

वो सुबह कभी तो आयेगी झूमेगी हवा आज़ादी से
जब हौंठ तराने गायेंगे फिर मिलेंगे दिल बेताबी से

वो सुबह कभी तो आयेगी मन में न किसी का डर होगा
जब ख़ौफ़ ज़ुबां न खायेगी मन चाहा एक डगर होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी मर्द औरत में न फ़रक होगा
बहुओं को जलाने का जिस दिन दुनिया में नहीं करतब होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी जब ख़ून की होली न होगी
बच्चे न भूखे सोयेंगे सपनों से नींद भरी होगी

वो सुबह कभी तो आयेगी अमरीका जब पछतायेगा
मिट्टी के घरों पर अम्बर से बम-गोले न बरसायेगा

वो सुबह कभी तो आयेगी होगा जब राज गरीबों का
शाहों के महल ढह जायेंगे मुफ़्ती का नहीं होगा फ़तवा

वो सुबह कभी तो आयेगी जब एक ख़ुदा सब का होगा
न यीशु, राम और अल्लाह से लड़ने का सबब पैदा होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी सब मिल कर रहना सीखेंगे
सब एक खु़दा के बंदे हैं ये धर्म निभाना सीखेंगे.

महेश गुप्त ख़लिश
१ अप्रेल २००३
[ईराक युद्ध के तेरहवें दिन लिखी गयी कविता. युद्ध २० मार्च को आरम्भ हुआ था]




WO SUBAH KABHI TO AYEGI

Wo subah kabhi to ayegi,
Jab duniya ka rang badalega;
Raaton ki siyahi jaayegi
Sooraj ka ujaala undalega.

Wo subah kabhi to ayegi
Tairegi hawa azaadi se;
Jab honth taraane gaayenge,
Dil mileinge phir betaabi se.

Wo subah kabhi to ayegi
Man mein na kisi ke dar hoga;
Jab juban khauf na khaayegi,
Man chaaha ek dagar hoga.

Wo subah kabhi to ayegi
Mard aurat mein na faraq hoga;
Bahuon ko jalaane ka jis din,
Duniya mein na kartab hoga.

Wo subah kabhi to ayegi
Jab raj gareebon ka hoga;
Shaahon ke mahal dhah jaayenge,
Mulla ka nahin fatwa hoga

Wo subah kabhi to ayegi
Jab khoon ki holii na hogi;
Bacche na bhookhe soyenge
Sapnon se neend bhari hogi.

Wo subah kabhi to ayegi
Amrika jab pacchtaayega;
Mitti ke gharon par ambar se
Na bam gole barsaayega.

Wo subah kabhi to ayegi
Jab ek khuda sab ka hoga;
Na Yeeshu, Ram aur Allah se
Ladne ka sabab paida hoga.

Wo subah kabhi to ayegi
Mil kar sab rahana seekheinge;
Sab ek khudaa ke bande hain
Ye dharma nibahna seekheinge.

M C Gupta
1 April 2003
[Thirteenth day of US war on Iraq, which started on 20 March 2003]

०००००००००००००००००००


A DAY WILL COME: award winner –1243040 in 1241894 WAR POEMS AND ARTICLES, Also, 352287 in "BILINGUAL POETRY BOOKOpen in new Window. BILINGUAL POETRY
1 April 2003


[Poem written on thirteenth day of Iraq war]

A day will come when the black world
Will present a different hue;
Darkness of night will be no more,
And sun will all corners imbue.

A day will come certainly when,
Freely the winds of love will blow;
When every lip will sing a song,
And with love every heart will glow.

A day will come certainly when
Terror will haunt us no longer;
When fear will not subdue the speech,
None will be a mischief monger.

A day will come certainly when
Equal will be men and women;
When girls will be no longer killed,
Because they bring evil omen.

A day will come certainly when
The meek will inherit the earth;
When royal palaces will fall,
Mullah’s fatawah will not be heard.

A day will come certainly when
Blood baths and war there will be none;
When children will not sleep hungry,
When their dreams will be full of fun.

A day will come certainly when
The US will be repentant;
When no longer it will shower
Bombs on the desert continent.

A day will come certainly when
All men will worship just The God;
When name of Christ, Allah or Ram
Will not make the people distraught.

A day will come certainly when
In peace will live all, big or small;
When in their heart they will believe
Children of one God are we all.


* Written in abcb 8-8-8-8 format
* Written on the thirteenth day of the US war on Iraq
*Awarded Honorable mention prize in the contest "Gangsta's Paradise ContestOpen in new Window. by Geja got an egg Tnx Laart1




* Son preference is found in many societies in the world giving rise to practices like Pre-conception sex selection, Female foeticide and Female infanticide. As a consequence, birth of a female child is often unwelcome.

• Mullahs are Muslim religious leaders who issue fatawahs or religious edicts on not only religious but also social and political issues and such fatawah or edict is supposed to be binding on Muslims. It is not uncommon for the edicts to stand in the way of progress of Muslim societies towards modernity.

1 April 2003
[Initially posted as independent item no. 840284, which was deleted on 22 March 2005 and entry no. 352287 in book "BILINGUAL POETRY BOOKOpen in new Window. was posted in its place. Reposted as the present independent item on 5 April 2005.








५. तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे –RAS—ईकविता १३ अक्तूबर २००८

तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे

इतनी सनम आज बदहोश क्यों हो
सिहरती, सिमटती, खामोश क्यों हो
सपने बिगड़ के संवरते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे

कह के तुम्हें कोई नागिन पुकारे
कहता रहे, हैं ज़हर के इशारे
इलज़ाम सर अपने धरते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे

यहां मैं, वहां तुम, बड़ी दूरियां हैं
राहे-मोहब्बत में मज़बूरियां हैं
न हार मानेंगे चलते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे.

ज़माना भले लाख बंदिश लगा ले
पांवों में चांदी की ज़ंजीर डाले
हिम्मत न छोडेंगे, लड़ते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे

तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे
नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे.


महेश गुप्त ख़लिश
६ अप्रेल २००३





६. किसे बतलायें कि बरबाद जीवन का सबब क्या है—RAS-- ईकविता १४ अक्तूबर २००८

किसे बतलायें कि बरबाद जीवन का सबब क्या है
नहीं जब दिल ही सीने में कहें क्यों दिल में अब क्या है

बड़े हम शाद फिरते थे उन्हें पाया किये जब हम
बयां कैसे करें असलियत-ए- शीरीं-ए-लब क्या है

बहुत हैं दूर अब पहले सदा पहलू में रहते थे
बताये कोई हमको इश्क करने का ये ढब क्या है

कसम और वायदे ये ज़िंदगी भर साथ रहने के
सभी बेकार हैं, झूठा भला ये शोर सब क्या है

अग़र रुसवाइयां ही हैं ख़लिश किस्मत में आशिक की
ज़रूरत इश्क करने की बताये कोई तब क्या है.

महेश गुप्त ख़लिश
७ अप्रेल २००३
०००००००००००

Tuesday, 14 October, 2008 10:09 PM
From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in

खलिश साहब,

अग़र रुसवाइयां ही हैं ख़लिश किस्मत में आशिक की
ज़रूरत इश्क करने की बताये कोई तब क्या है.

भाई वाह। बहुत सुन्दर। गुस्ताखी माफ। आपके सुर में सुर मिलाते हुए ये पंक्तियाँ-

सभी कहते हैं कण कण में खुदा बसते हैं दुनिया में।
मगर अन्याय भी होते बताये कोई रब क्या है?
०००००००००००००






७. रात-दिन करते रहे बस एक खत का इंतज़ार---RAS—ईकविता १८ अक्तूबर २००८

रात-दिन करते रहे बस एक खत का इंतज़ार
न जवाब आया कोई, हम ख़्वाब बुन बैठे हज़ार

ख़्वाब की दुनिया लुटी इसका नहीं अफ़सोस पर
वक्ते-रुखसत देख भी पाये नहीं हम रुख-ए-यार

यूं गुज़र जाते हैं वो भूले से मिल जायें अग़र
प्यार की दिल पर न आयी ज्यों कभी रंगे-बहार

आयी पतझड़ धुल गये वो चाहतों के रंग सब
न रही उसकी निशानी न रहा है अब वो प्यार

क्या गिला किससे करें जो था लकीरों में, मिला
थी तमन्ना फूल की, पाये ख़लिश हैं सिर्फ़ खार.

महेश गुप्त ख़लिश
१५ अप्रेल २००३

००००००००००००००००००

Saturday, 18 October, 2008 1:12 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

ख़्वाब की दुनिया लुटी इसका नहीं अफ़सोस पर
वक्ते-रुखसत देख भी पाये नहीं हम रुख-ए-यार"

अच्छी लगीं ये पंक्तियां खलिश जी !

सादर शार्दुला
००००००००००००००००






८. बला का हुस्न है ये आपका, कुदरत ख़ुदा की है—RAS-- ईकविता १९ अक्तूबर २००८

बला का हुस्न है ये आपका, कुदरत ख़ुदा की है
इबादत की है कुदरत की, नहीं कोई ख़ता की है

कहां आप और कहां हम, आपके काबिल नहीं चाहे
मग़र बनने की लायक आपके कोशिश सदा की है

नहीं थे आप जब, ये ज़िंदगी बेकार लगती थी
जो देखा आपको जीने की हमने फिर दुआ की है

सहारा सिर्फ़ मय का था हमें तनहाई में अब तक
मिले हैं आप तो अब मय को हमने अलविदा की है

कबूलें आप हमको या ख़लिश इस दर से ठुकरा दें
इबादत हुस्न के दरबार में हमने अदा की है.

महेश गुप्त ख़लिश
१७ अप्रेल २००३






९. औरत का सवाल, April 17,2003, ईकविता, २६ जुलाई २००८--RAS

तुम आदम जात के क्यों नाम को बेकार करते हो
यहां हव्वा की बेटी का खुला व्यापार करते हो

अग़र हो मर्द तो आंखें मिलाओ आज तुम मुझसे
तमाशा इस तरह तुम क्यों सरेबाज़ार करते हो

किया क्या है ज़रा मुझको बताओ, पूछती हूँ मैं
चढ़ा बोतल नशीली गालियों का वार करते हो

मैं हूँ औरत मुझे औरत ही रहने दो अरे मर्दो
मेरे पर्दे में रहने को बहुत दुश्वार करते हो

धरूं मैं रूप चंडी का, निकल आऊं मैं पर्दे से
मुझे इस बात पर तुम क्यों ख़लिश लाचार करते हो.

महेश गुप्त ख़लिश
१७ अप्रेल २००३


WOMAN’S CHALLENGE—"WOMAN’S CHALLENGE: bilingual poemOpen in new Window., 17 April 2003
[Woman, subdued for centuries, confronts man.]


Man ought to respect woman,
Else he loses respect.
Disrespect to womanhood
Renders manhood suspect.

Why shout at me or hit me?
Why on me all this try?
Come and be a man indeed,
Look at me in the eye.

Tell me what upsets you so?
What foul deed have I done?
Why cork off a bottle and
Call names in drunken fun?

I better be a woman,
It’s better I be veiled.
God forbid if against you
I be fully revealed.

If I come in the open,
And assume Chandi shape,
You will rue your life that day;
Hell fire will be your fate.


* Written in abcb 7-6-7-6 format.

* "Heaven has no rage like love to hatred turned/ Nor hell a fury like a woman scorned. [William Congreve in The Mourning Bride, 1697].

* Translated from my Hindi ghazal, AURAT KA SAVAAL.

* Chandi--- A Hindu goddess, who is the embodiment of power, especially woman power. She personifies invincible womanhood. She, in different forms, is also known as Parvati, Uma, Durga, Kali, Jagadamba etc.


* Initially posted as item 760528, substituted on 12 April 2005 by entry no. 340853 in the book "BILINGUAL POETRY BOOKOpen in new Window.. The current static item was posted on 9 April 2007.

M C Gupta
17 April 2003



Kyon aadam jaat kaa tum naam yuun bekaar karte ho
Kyon havvaa ki betii ko be-ijjatdaar karte ho

Jo ho tum mard to aankhen milaao aaj tum mujh se
Tamaashaa is tarah tum kyon sare baazaar karte ho.

Kiaa kyaa hai jaraa mujh ko bataao, poochhati huun main,
Chadhaa botal galoz-o-gaali ka, vyaapaar karte ho.

Mein aurat huun mujhe aurat hi rahane do zamaane tum,
Kyon parde mein meraa rahnaa are dushwaar karte ho.

Thaan luun ruup Chandii kaa nikal aauun main parde se
Mujhe is baat par kyon tum Khalish laachaar karte ho


M C Gupta
17 April 2003



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१०. जो आशिक हैं कभी वो इश्क का दावा नहीं करते—RAS—ईकविता, २० अक्तूबर २००८

जो आशिक हैं कभी वो इश्क का दावा नहीं करते
भले मंज़िल न मिल पाये कभी हारा नहीं करते

जिया करते हैं आशिक सिर्फ़ ख़्वाबों के भरोसे ही
मग़र ख़्वाबों पे अपना हक वो जतलाया नहीं करते

वो अपने साज़े-दिल पे प्यार का नग़मा सुनाते हैं
कोई दोहराये उसको ऐसा इशारा नहीं करते

उठाते हैं कई तोहमत, ज़िगर पर ज़ख़्म खाते हैं
मग़र वो राज़े-दिल खुल जाये, गवारा नहीं करते

इज़ाफ़ा प्यार में कुछ और होता है जुदाई से
जुदा हो जायें तो वो ग़म से घबराया नहीं करते

वो अपने फ़र्ज़ की धुन में चले जाते हैं मस्ताने
वफ़ा करके मिले धोखा तो पछताया नहीं करते

कभी दिल टूट जाये तो छिपाते हैं वो अश्कों को
ज़माने की नज़र में ग़म का दिखावा नहीं करते

भले हो जायें वो बरबाद राहे-इश्क में फिर भी
ख़लिश इलज़ाम वो दूजे पे लगाया नहीं करते.

महेश गुप्त ख़लिश
३० अप्रेल २००३









११. DHANDHA—deleted




१२. तन्हाई में ज़माने के सभी ग़म भूल जाता हूँ—RAS, ईकविता, २१ अक्तूबर २००८


तन्हाई में ज़माने के सभी ग़म भूल जाता हूँ
मैं सबसे दूर होता हूँ तो अपने पास आता हूँ

जो मुमकिन हो नहीं सकते कभी देखे थे कुछ सपने
कभी वो याद आते हैं तो बस आंसू बहाता हूँ

वफ़ा का बेवफ़ाई से यहां अंज़ाम मिलता है
वफ़ा का नाम सुनता हूँ तो केवल मुस्कुराता हूँ

मैं दीवाना हूँ ये तोहमत मुझे दुनिया लगाती है
मग़र सच है कि इस दीवानगी में चैन पाता हूँ

जो मातम दिल पे आ जाये कभी तो दिल लगाने को
मैं यादों का तसव्वुर में ख़लिश मेला लगाता हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२ मई २००३

00000000000

Wednesday, 22 October, 2008 7:59 AM
From: "smchandawarkar@yahoo.com"

खलिश साहब,
बहुत खूब!

"मैं दीवाना हूं यह तोहमत मुजे दुनियां लगाती है
मगर सच है कि इस दीवानगी से मैं चैन पाता हूं"

क़तील शिफ़ाई का शेर है
"चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वर्ना हम ज़मानेभर को समझाने कहां जाते"
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
००००००००००००००००





१३. Asliyat aur Insaaniyat, 7 May 2003--deleted





१४. ASLI AUR NAKLI, 7 May 2003—deleted


१५. हम अच्छे हैं या बुरे, ज़ुबां से अपनी कुछ न कहते हैं—RAS--ईकविता, २२ अक्तूबर २००८

हम अच्छे हैं या बुरे, ज़ुबां से अपनी कुछ न कहते हैं
जो भला किसी का हो जाये ऐसा कुछ करते रहते हैं

अपनी मरज़ी से नहीं किसी को दुख है पहुंचाया हमने
इलज़ाम ज़माना देता है जो लब सी कर हम सहते हैं

जो मेहनत करते हैं उनको ज़ुल्म और सितम से क्या डरना
गो दुनिया ग़म का दरया है मस्ती से इसमें बहते हैं

सपनों के महल सजायें क्यों, दो रूखी रोटी काफ़ी हैं
ख़्वाबों का क्या है वो तो नित बनते हैं, बन के ढहते हैं

न वक्त टिका है कभी ख़लिश, दुनिया तो पल-पल बदलेगी
नादां हैं जो परिवर्तन से नाहक मन ही मन दहते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मई २००३

०००००००००००००००००

Wednesday, 22 October, 2008 8:11 AM
From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in

खलिश साहब,

आपकी रचना हमेशा की तरह अच्छी है। ज्यादा क्या कहूँ? अपनी तुकबंदी की आदत से मजबूर पेश कर रहा हूँ-

जमाने के सितम सहते हमारा मन भी थक जाता।
हवा के रूख पे हो निर्भर उसी के साथ बहते हैं।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman. blogspot. com
००००००००००००

Wednesday, 22 October, 2008 9:45 AM
"Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

महेशजी, यह पंक्तियां आप और आपकी रचना को समर्पित



जीवन मंथन ने जितना भी दिया हलाहल हमें भेंट में
हमने उसको मुस्कानों की नित्य सुधा में बदल दिया है

ये भी कर सकते थे हम जो दुनिया ने है दिया तजुर्बा
उसे उसी के रंगों रँग कर वापिस दुनिया को लौटाते
कड़वाहट से भरी पीर में डुबो डुबो अपब्ने शब्दों को
हम भी आंसू की सरगम के स्वर में उन्हें सजा कर गाते
लेकिन जितने पाठ पढ़ा कर गई धरोहर संस्कॄतियों की
उसने सिखलाया कांटों में ही गुलाब केवल खिल पाते
और अँधेरा जितना पी लेते हैं दॄग इक काल निशा के
उतनी अधिक रोशनी लाकर प्राची के आँगन रख जाते

इसीलिये हर एक निबोली उगी नीम की चुन चुन हमने
उसे पीतवर्णी खिन्नी का इक मधुरिम ला स्पर्श दिया है

००००००००००००


१६. मंज़िल का निशां मालूम नहीं--RAS--ईकविता, २३ अक्तूबर २००८

मंज़िल का निशां मालूम नहीं
जायेंगे कहां मालूम नहीं

आये तो हैं महफ़िल में पर
महफ़िल की ज़ुबां मालूम नहीं

लगते हैं पराये क्यों हमको
दिल के मेहमां मालूम नहीं

क्यों प्यार में जलने वालों पर
हंसता है जहां मालूम नहीं

है कौन हमारा दुश्मन और
है दोस्त यहाँ मालूम नहीं

बदले कब ग़म और गर्दिश में
ख़ुशियों का समां मालूम नहीं

ये दुनिया है इक कै़द ख़लिश
कब छूटे जां मालूम नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ मई २००३
००००००००००००००

Thursday, 23 October, 2008 9:56 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
क्या बात है खलिश जी, आज आप दुखी लग रहे हैं। अच्छी लगी गजल !
सादर, शार्दुला

००००००००००००००००

Thursday, 23 October, 2008 9:11 AM
From: "T. Ritesh" toritesh.tripathi@gmail.com

badhiyaa hai sir ji,,,bahut badhiyaa,,,

०००००००००००००००००

Thursday, 23 October, 2008 11:28 PM
From: "Banwari lal Gaur" blgaur36@yahoo.co.in

खलिश जी ! " मंजिल का निशां मालूम नहीं " बहुत सुंदर ग़ज़ल है इ बधाई
०००००००००००
From: Anoop Bhargava <anoop_bhargava@ yahoo.com>
Date: Thursday, October 23, 2008, 2:29 PM
खलिश जी:

पूरी गज़ल और खास तौर पर यह शेर बहुत अच्छा लगा :

ये दुनिया है इक कै़द ख़लिश
कब छूटे जां मालूम नहीं.

सादर

००००००००००००००००००००००

Thursday, 23 October, 2008 3:07 PM

"Ms Archana Panda" <panda_archana@yahoo.com>

क्या बात है ! खालिश्जी , बहुत सुंदर |
थोड़ा sad है पर बहुत ही अच्छी रचना है |

Keep it up !
-अर्चना
००००००००००००००


[FAULTY ROMAN VERSION]
Manzil ka nishaan maaluum nahin.
Jaaeinge kahaan maaluum nahiin

Aa baithe hain mahfil mein magar,
Mahfil ki jubaan maaluum nahin.

Jaane waale nahiin aate magar
Jaate hain kahaan maluum nahin

Lagte hain paraaye ham ko kyon
Dil ke mehmaan maluum nahin

Kyon pyaar mein jalne waalon par
Hanstaa hai jahaan maluum nahiin

MC Gupta 'Khalish'
15 May 2003

१७. उनका तसव्वुरे-विसाल कैसे आ गया—RAS—ईकविता, २७ अक्तूबर २००८

उनका तसव्वुरे-विसाल कैसे आ गया
होठों पे आज दिल का हाल कैसे आ गया

वो याद आये तो भला अश्कों के साथ-साथ
चेहरे पे ये रंगे-जमाल कैसे आ गया

वो डालते नहीं थे हमपे भूल के नज़र
फ़ितरत में उनकी ये कमाल कैसे आ गया

था कल तलक पर्दानशीं, पर्दा उतार कर
ये हुस्न बेमिसाल आज कैसे आ गया

सहरा में घर बना चुके तो एक बार फिर
वादी-ओ-चमन का ख़याल कैसे आ गया

जब मौत को गले लगा चुके तो फिर ख़लिश
कुछ और जीने का सवाल कैसे आ गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ मई २००३

000000000000000

Monday, 27 October, 2008 1:15 PM
From: "Sharad Tailang" sharadtailang@yahoo.com
एक एक शे’र काबिले तारीफ़ है । वाह वाह !
शरद तैलंग

००००००००००००००००००
Monday, 27 October, 2008 2:05 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

वाह ! Yeh hui na baat :)

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UN KA TASAVVUR-E-VISAAL KAISE AA GAYAA, 15 May 2003—DISTORTED OLD VERSION


un ka tasavvur-e-visaal kaise aa gayaa
Hothon pe aaj dil ka haal kaise aa gayaa
Sahraa mein ghar banaa chuke to aaj khwaab mein,
Vaadii-e-chaman ka khayaal kaise aa gaya
Jab shauq se hai maut ko gale lagaa liyaa,
Kuchh aur jiine ka sawaal kaise aa gayaa

Aayee jo un ki yaad to ashkon ke saath saath
Chehre pe ye rang-e-jamaal kaise aa gayaa
Wo daalte nahiin the ham pe bhuul kar nazar
Fitrat mein un ki ye kamaal kaise aa gayaa

Jo ab talaq pardaa nashiin ham se rahaa Khalish
Be-pardaa husn be-misaal kaise aa gayaa.

15 May 2003



NA-MUMKIN

Jo dil mein hai use pahluu bithaa saknaa nahin mumkin

Jo pahluu mein hai us ko dil mein laa saknaa nahin mumkin

Dilon ke ishq mohabbat ke masle hain yuun pechiidaa
Inhein lafzon se kahnaa yaa samajh saknaa nahin mumkin

Zubaan merii bayaan-e-galt se parhez kartii hai
Haqiikat ko magar hothon se kah saknaa nahin mumkin

Bahut duniyaa ke rang-o-buu ne ab tak mujh ko bharmaayaa
Khwaabon khwaahishon se ab bahal saknaa nahin mumkin

Bashar azaad apne ko yahaan naa-haq samajhataa hai
Raat-o-din kii uljhan se nikal saknaa nahin mumkin

Khalish lagtaa nahin ab dil yahaan hafiz khudaa yaaro
Duniyaa mein tumharii dil ka lag saknaa nahin mumkin

MC Gupta ‘Khalish’
3 June 2003




१८. मुझे बरबाद रहने दे, सज़ा ये भी मेरी कम है—RAS—ईकविता, २९ अक्तूबर २००८

मुझे बरबाद रहने दे, सज़ा ये भी मेरी कम है
तुझे जो ग़म दिये उनसे मेरा ये ग़म कहीं कम है

मेरी ख़ुशियों पे तूने वार दीं ख़ुशियाँ सभी अपनी
मिटा डालूँ मैं तेरे पर अग़र ये ज़िंदगी, कम है

तुझे घेरा ग़मों ने जब शिकन न दिल पे आयी थी
वो करके याद ग़म अब धार आंसू की बही, कम है

तेरी खातिर मेरे दिल में बताऊं मैं ज़गह क्या है
ज़ुबां से कर सकूं तारीफ़ मैं जो भी वही कम है

ख़लिश कोई वज़ह होगी वफ़ा तुम न निभा पाये
कभी चाहा हमें तुमने, इनायत ये नहीं कम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ जून २००३


एद

जी चुके हम बहुत फ़क्त अपने लिये, ग़र जिये अपनी खातिर

दुनिया में ग़र हम किसी और के, काम आये न तो फिर जिये क्या जिये
हमपे अहसान भारी ज़माने के हैं, न ज़माने की खातिर जिये क्या जिये

आज अपना वतन रास आता नहीं, नौजवां चल पड़े आज परदेस को
इस वतन में ज़हालत, गरीबी सही, बेवतन की तरह ग़र जिये क्या जिये

चाहे आपस में कितनी अदावत रहे, बन चुके हैं जो रिश्ते वो मिटते नहीं
ग़ैर से क्या निभाओगे रिश्ते ख़लिश, ग़ैर के घर में जा कर जिये क्या जिये

आदमी की हवस क्या कभी कम हुयी, जेब जितनी भरी उतनी खाली रही
पैसा पूजे कभी भी ख़ुदा न मिले, पैसे के वास्ते जो जिये क्या जिये

प्यार अपने से और अपने दिल से सभी लोग करते हैं, करते रहे हैं सदा
प्यार सच्चा जो औरों के दिल से करे, हैं वही जो ख़लिश असलियत में जिये



०००००००००००००००००००००००००
जी चुके बहुत फ़क्त अपने लिये, ग़र जिये अपनी खातिर तो फिर क्या जिये
हमपे अहसान भारी ज़माने के हैं, न ज़माने की खातिर जिये क्या जिये

आज अपना वतन रास आता नहीं, नौजवां चल पड़े आज परदेस को
इस वतन में ज़हालत, गरीबी सही, बेवतन की तरह ग़र जिये क्या जिये

चाहे आपस में कितनी अदावत रहे, खून के रिश्ते मिटते नहीं बैर से
रिश्ते ग़ैरों से बन कर भी बनते नहीं, ग़ैर के घर में जा कर जिये क्या जिये

आदमी की हवस क्या कभी कम हुयी, जेब जितनी भरी उतनी खाली रही
पैसा पूजे कभी भी ख़ुदा न मिले, पैसे के वास्ते जो जिये क्या जिये

प्यार अपने से और अपने दिल से सभी लोग करते हैं, करते रहे हैं सदा
प्यार सच्चा जो औरों के दिल से करे, हैं वही जो ख़लिश असलियत में जिये



१९. JIINAA KIS KE LIYE, 4 June 2003

Jee chuke hum bahut faqt apne liye, gar jiye apnii khaatir to phir kyaa jiye
Hum pe ehsaan bhaarii zamaane ke hain, na zamaane kii khaatir jiye, kyaa jiye

Aaj apnaa watan raas aataa nahin, naujawaan chul pade aaj pardes ko
Is watan mein zahaalat, gariibii sahii, bewatan kii tarah gar jiye kyaa jiye

Chaahe aapas mein kitanii adaavat rahe, khuun ke rishte mitate nahin bair se
Rishte gairon se bun kar bhii bunate nahin, gair ke ghar mein jaa kar jiye, kyaa jiye

Aadamii kii hawas kyaa kabhii kum huii, jeb jitanii bharii utnii khaalii rahii
Paisa puuje kabhii bhii khudaa na mile, paise ke waaste jo jiye kyaa jiye

Pyaar apne se aur apne dil se sabhii, log karte hain karte rahe hain sadaa
Pyaar sacchhaa jo auron ke dil se kare, hain wahii jo Khalish asliyat mein jiye

MC Gupta ‘Khalish’
4 June 2003


.




२० [OLD२१]. जो लोग जान बूझ कर नादान बन गये—sent to HK, ८ जून २००३

जो लोग जान बूझ कर नादान बन गये
हम उन की मेहरबानी से नाकाम बन गये

हम ने तो दिल दिया मगर बदले में न मिला
बस यूं हुआ कि संग-दिल इन्सान बन गये

दिल ले के ठुकराने से हासिल क्या तुम्हें हुआ
तुम भी तो मेरे साथ ही बदनाम बन गये

अब है ये आलम हर शहर कूचे-ओ-गली में
सामान-ए-हंसी आज सरेआम बन गये

महफ़ूज़ रहो तुम खलिश हर गम-ओ-सितम से
बरबादी से हमारी तुम गुलफ़ाम बन गये

महेश गुप्त खलिश
८ जून २००३














२१ [OLD २२]. महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १ अक्तूबर २००६को प्रेषित, ९ जून २००३--RAMAS

महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये
मज़बूर हो के हमने ठिकाने बदल लिये

वो मय रही न आज, न साकी में ताब है
लो दिलक़शी के हमने बहाने बदल लिये

सांसों का साज़ है वही पर लय बदल गयी
तो ज़िंदगी के हमने तराने बदल लिये

आंखें वो नीमबाज़ जिन्हें ताकते रहे
क्या कीजिये उन्हींने निशाने बदल लिये

हासिल ख़लिश न हो सकी मंज़िल वो प्यार की
हमने भी दिल के ख़्वाब सुहाने बदल लिये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ जून २००३


Ooooooooooooooooooo

From: Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu>
Date: Oct 1, 2006 9:18 PM

बहुत ख़ूब खलिश जी, बहुत खूब:

"मन्ज़िल न दिल की हो सकी हासिल हमें खलिश
प्यार की राहों ने फ़साने बदल लिये."

लक्ष्मीनारायण

000000000000000000

From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in>
Date: Oct 1, 2006 11:34 PM

Khalishji,

Bahut purasar misre hain:

महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये
लाचार हो के हम ने ठिकाने बदल लिये

जिन नीमबाज़ आंखों से हटती न थी नज़र
क्या कीजिये उन्हीं ने निशाने बदल लिये

Ghazal Behre Mazaria me hai,221,2121,1221,212
jo khaaskar mushaairon me bahut chalti hai.

In panktiyon me beher thik nahi lagti.Zara dekh lijiye.

वो मय रही न अब न, अब साकी में ताब है ( na ab)
हम ने भी आज अपने पैमाने बदल लिये (paimaane)

खत्म न होगा कभी दुनिया का ये सफ़र(khatm na hogaa)
गो ज़िन्दगी ने अपने तराने बदल लिये

manzil
मन्ज़िल न दिल की हो सकी हासिल हमें खलिश
प्यार की राहों ने फ़साने बदल लिये.(pyaar kee raahon ne)
Thodi see sadhaar se ghazal aur acchee ho jaaegee
Sasneh,
mona

०००००००००००००००००००००००००००००

From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in> Signed-By: yahoogroups.com | Mailed-By: returns.groups.yahoo.com

Reply-To: ekavita@yahoogroups.com
To: ekavita@yahoogroups.com
Date: Oct 2, 2006 9:05 PM
mona_hyderabadi@yahoo.co.in
Khalishji,

Shukriya ke aap ne meri sujhaav ko sweekaar kiya.
Main ne koshish kee hai ke kuch sudhaar karoon. Dekhiye

221,2121, 1221,212

महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये
लाचार हो के हम ने ठिकाने बदल लिये OK

Wo मय रही na aaj, न साकी में ताब है
खुशरंग हम ने आज पैमाने बदल लिये
(is me paimaane kaafiya nahi le sakte jo 222 hai jab puraane, Tikaane 122 hai)

Yun ज़िन्दगी ने साज़ को रोका नहीं कभी
ये और बात है कि तराने बदल लिये

जिन नीमबाज़ आंखों से हटती न थी नज़र OK
क्या कीजिये उन्हीं ने निशाने बदल लिये

हासिल खलिश न हो सकी मन्ज़िल वो प्यार की OK
हम ने भी आज दिल के फ़साने बदल लिये.

Beher seekhna bahut mushkil nahi hai agar lagan ho. R.P.SharmaJ Mehrishji ki kitaab ke baare mejo maine bataaya tha, wo aapko behad laabhdaayak hogi, jaise mere liye hui thi.Magar kaafi practice bhi karni hogi.Jahaan tak hoha, main aapki madad kar sakti hoon.
Sasneh,
mona
0000000000

From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in>
Date: Oct 3, 2006 2:47 PM
Khalishji,

Ab ghazal aur nikhar gayi hai aur beher me bhi hai.Mubaarak .
Sasneh,
mona






२२. SAAL BIITE DIL SE MERE JAA NA PAAYE TUM, 9 June 2003
[Typed in Hindi. That’s better]
saal biite dil se mere jaa na paaye tum
shaam kii tanhaaii mein phir yaad aaye tum

Har subah paayaa tumhein khayaalon mein dil ke paas
Raat ko khwaabon mein aa kar muskaraaye tum

Lagate ho apne hii jab tum jaa base ho duur
Jaane kyon lagate the pahle kucch paraaye tum

pyaar ham se behisaab thaa tumhein phir bhii
umr bhar ham se rahe nazarein churaaye tum

jab talaq tum saath the shikawe lage rahe
kucch nahiin ho ab mohabbat ke siwaai tum

thak gayaa huun zindagii kii raah mein Khalish
kaash mil jaate kahiin nazrein bichhaye tum.

MC Gupta ‘Khalish’
9 June 2003
www.writing.com/authors/mcgupta44


Nice thoughts....

bahut achchaa likhaa hai ...bhaav aur shabd ..bahut hi
achche hain...

"Har subah paayaa tumhein khayaalon mein apne paas"
sahaj aur saral...padhne waloN ke mann chhoo jaayeN
aisii...aur bhi sunayiye pls..

Regards
Astha






२३. उन को हम से प्यार है ये खुद को समझाते रहे, १२ जून, २००३
Hard copy available






२४.कैसे जीयें ये बहुत देर से अन्दाज़ आया, १५ जून २००३

कैसे जीयें ये बहुत देर से अन्दाज़ आया
ज़िन्दगी जी भी चुके आज समझ राज़ आया

नहीं मंज़िल है कोई यूं ही चला जाता हूं
खाकेराह को भी तरस मुझ पे बहुत आज आया

ठोकरें खा के ज़माने की मेरे दिल ने कहा
क्यों न मैं शौक-ए-मोहब्बत से कभी बाज आया

जिन को हासिल है ज़माने में ख़ुशी के तोहफ़े
उन का रुखसार नज़र किसलिये ग़मसाज़ आया

क्या कहें कौन खता उन से ख़लिश कर बैठे
मिलने आया है मग़र दिल से वो नाराज़ आया.

१५ जून २००३


२५. उदास हूं मगर मुझे उदासियों का गम नहीं, 18 June 2003

२६. SAUDA, --This has been much changed in Hindi version

Main udaas huun to sahii magar mujhe is ka koii ghum nahiin
Dil tuutane ke baad ab jhuthii wafaa ka bharam nahiin

Yeh dil bhii shai ajeeb hai jo lage to de hai dard-e-ishq
Aur tarq-e-ishq pe de hai ye tadap bhii dil ko kam nahiin

Kahaan dil ko le ke jaaiye, ise kis tarah bahalaaiye
Jo sakuun dil ko de sake, kahiin aisaa koii sukhan nahiin

Dhadakataa hai dil seene mein, to kareinge pyaar hazaar baar
Koii tohmatein lagaaye kyuun, koii dil lagaanaa zuram nahiin

Dil de chuke unhein Khalish, aur un kaa dil bhii le liyaa
Saudaa sar-e-bazaar huaa, milaa kisii ko maram nahiin.

MC Gupta ‘Khalish’
18 June 2003




२७. MAT PUUCHH MUJH SE DOST TUU, MUJHE DIL LAGAA KE KYAA MILAA, 18 June 2003


Mat puuchh mujh se dost tuu, mujhe dil lagaa ke kyaa milaa
Ye dil ki daulatein hain dil jo na kho sakaa use kyaa milaa

Ye nahiin zaruurii ke dil milein, aur ho bicchudnaa kabhii nahiin
Parwaanaa shamma mein kho gayaa, koii soche to kise kyaa milaa

Ye to zindagii kii raah hai, yahaaan gul bhii hain aur khaar bhii
Ye naseeb apnaa apnaa hai, kise gul-o-khaar mein kyaa milaa

Har simt gar insaan dhuundhegaa mahaz bulandiyaan
Gahraaiyon mein na jaa sakaa, use zindagii se kyaa milaa

Ye kaarvaan na ruke Khalish ki kadam badhaate jaaiye
Har ek kadam pe na puucchiye ye kadam uthaa ke kyaa milaa

MC Gupta ‘Khalish’
18 June 2003





२८. TAKHALLUS KA TAKAAZAA, 22 June 2003

Khalish huun main, nahiin khaalis
Faqt insaan maamuulii
Na de kar naam khaalis ka
Chadhaao mujh ko tum suulii

Kisii ko naam paak-o-saaf
Zamaanaa jab ye detaa hai
Sazaa maasuumiat kii wo
Samajh lo us ko detaa hai

Kahaa aurat ko devii pyaar kii
Karunaa kii muurat hai
Aaraam auron ko detii hai
Khud ko kyaa zaruurat hai

Na us ko dard hotaa hai
Na hii taqleef hotii hai
Maaro yaa jalaao sirf wo
Uupar se rotii hai

Bahut bardaasht ke kaabil
Use rab ne banaayaa hai
Rah kar bhuukhii to us ne
Motaapaa hii ghataayaa hai!

Mujh ko aaj khaalis naam
Jo insaan dete hain
Yakeenan suufii banane kii
Hidaayat mujh ko dete hain

Aye mere dost mujh ko bhii
Saakii-o- jaam pyaare hain
Zindagii kii tanhaaii mein
Yahii to bas sahaare hain

Nahiin darkaar, samhaalo
In apne khitaabon ko
Karo khaalis na Khalish ke
Bahut rangeen khwaabon ko.

MC Gupta
22 June 2003
www.writing.com/authors/mcgupta44
[On being told by friends that let him not be only Khalish, but, also, khaalis]



TAKHALLUS KA TAKAAZAA
[the call of my nom de plume]


Khalish huun main, nahiin khaalis
Faqt insaan maamuulii
Na de kar naam khaalis ka
Chadhaao mujh ko tum suulii

[I am Khalish, not jkaalis, which means pure. Please don’t give me a pure name and then the cross]

Kisii ko naam paak-o-saaf
Zamaanaa jab ye detaa hai
Sazaa maasuumiat kii wo
Samajh lo us ko detaa hai
[Whenever people give a noble name to a person, it is often a prelude to inflict punishment on him]


Kahaa aurat ko devii pyaar kii
Karunaa kii muurat hai
Aaraam auron ko detii hai
Khud ko kyaa zaruurat hai

[A good example is that of a woman. Man has labeled her as the goddess of love, as kindness incarnate, one who gives comfort to others. Why should she need comfort herself?]

Na us ko dard hotaa hai
Na hii taqleef hotii hai
Maaro yaa jalaao sirf wo
Uupar se rotii hai

[She certainly does not feel pain or suffering. You may thrash her or even burn her; all those tears are only superficial].

Bahut bardaasht ke kaabil
Use rab ne banaayaa hai
Rah kar bhuukhii to us ne
Motaapaa hii ghataayaa hai!

[God has bestowed her with a very high level of tolerance. Even when she remains hungry, that is merely her conscious device to reduce weight].

Mujh ko aaj khaalis naam
Jo insaan dete hain
Yakeenan suufii banane kii
Hidaayat mujh ko dete hain

[Those who give me the label of pure are certainly keen on instructing me to become a sufi].

Aye mere dost mujh ko bhii
Saakii-o- jaam pyaare hain
Zindagii kii tanhaaii mein
Yahii to bas sahaare hain

[O my friend, I too love wine and women / bar-maid. In fact, only these are what give me support in this lonely life of mine].

Nahiin darkaar, samhaalo
In apne khitaabon ko
Karo khaalis na Khalish ke
Bahut rangeen khwaabon ko.

[Come on, I have no need for these noble appellations of yours; please take them back.Don’t make khaalis / pure out of Khalish and, thereby, deprive him of his colourful dreams].

MC Gupta
22 June 2003




२९. होठौं को छूने से पहले प्याला छूट गया, 23 June 2003

३०. ZAHAR KAA GHUUNT, [Hindi version is better]

Haath aane se pahale meraa paimaanaa chhuut gayaa
Mulaakaat se pahale meraa mehboob ruuth gayaa

Nazaron ke aaiine mein sochaa, khud ko dekh luun
Dekhane se pahale meraa aaiinaa tuut gayaa

Baad intezaar aayii mere dil mein thii bahaar
Saayaa koii anjaan merii bahaar luut gayaa


Kyaa kyaa sajaaye khwaab kuuche mein nasiib ke
Maanind khwaab ke meraa nasiib phuut gayaa


jam-e-mohabbat pii chuke to yuun lagaa jaise
Zahreelaa Khalish halak mein mere ghuunt gayaa


MC Gupta ‘Khalish’
23 June 2003






३१. MUJHE PYAAR MEIN TERE KYAA MILAA, 3 July 2003
[Hindi version is better]
Mujhe pyaar mein tere kyaa milaa, kyaa ye pyaar ek merii bhuul hai
Tu ne pyaar mein mujhe jo diyaa, mujhe ghum wo teraa kabuul hai

Tujhe dil mein apne bithaayaa thaa, kucch mere bhii armaan the
Wo sabhii bikhar ke raha gaye, ab zikr un kaa fizuul hai

Mujhe tum se koii gilaa nahiin, tum kyon chalo mere saath hii
Haasil tumhein hai gulistan, haasil mujhe bus dhuul hai

Kabhii dikh gaye jo raah mein, bach ke nikal jaayenge hum
Wo thaa Khalish ek khaar jo, sochaa thaa hum ne phuul hai.


MC Gupta ‘Khalish’
3 July 2003






३२. ZINDAGII KE RAASTE, 3 July 2003


Ye hain zindagii ke raaste, ye zindagii se alag nahiin
Kyon in se yuun ghabaraaiye, kyaa zindagii ki talab nahin

In raaston pe chalegaa jo, wahii zindagii jee paayegaa
Gar mushkilon se saham gaye, chalne kaa koii sabab nahiin

Ye na sochiye, mile khaar jo, to zindagii mein kyaa milaa
Phuulon mein hii jo gar jiye, jeene kaa koii garab nahiin

Phalasphaa hai ye zindagii, aur raaste kitaab hain
Samajh aayegaa in ke bagair, phalasphe kaa matlab nahiin

In raaston par chal pade, manzil kii jab talaash mein
Apnaa lo tum in ko Khalish, maano ki ab koii ghar nahiin.


MC Gupta ‘Khalish’
3 July 2003



३३. MERAA DILDAAR, 3 July 2003

puurii botal hi chadhaa ke mera dildaar aayaa
us ko lautaayaa magar phir bhi kaii baar ayaa

mai ki har waqt talab us ko yuun rahtii hai
Ghar banaa ke mai-kade mein karaar aayaa

Mujhe aaiine mein dekhaa to use chuumaa kiyaa
Mujh se badh ke meri tasweer pe hi pyaar aayaa

Yuun to mastaani bahut chaal thi mere aashiq kii
Siidhe rakhnaa do kadam aaj hai dushwaar aayaa

Jin ke diidaar ko ham raat bahut jaagaa kiye
Haay saagar mein unhein meraa hi diidaar aayaa.


MC Gupta ‘Khalish’
3 July 2003






३४. YEH HINDU HAI, WO MUSLIM HAI, KAB TAK YEH DAUR CHALEGAA YUUN,
8 July 2003

Hindi hard copy available
Yeh hindu hai, wo muslim hai, kab tak yeh daur chalegaa yuun
Kab tak ye saayaa mazhab kaa, sab kaa vishwaas chhalegaa yuun

Nanhe bacche ko bachapan se, mazhab kaa zahar pilaate ho
Kyaa taajjub ban kar mard jawaan, le kar talwaar ladegaa yuun

Jab raam rahiim ke biich diwaarein uunchii chun dii jaayeingii
Tab kyon na us ek maalik kaa chehraa dohraa jhalkegaa yuun

Petrol chhidak ke railon mein, bhakton ko jalaayaa jayegaa
To best bakery par un kaa, gandaa gussaa utaregaa yuun

Badle ki aag mein kab tak in jai maataa kahne waalon ka
Burke mein simtii bahnon ki ismat par haath uthegaa yuun

O majhab ke thekedaaro, baa-karam tumhaare kitne din
Ye firqaa-parastii ka aalam insaan ke dil mein rahegaa yuun

Kucch sharm karo apne uupar, kucch khauf khudaa kaa tum khaao
Ek roz Khalish aayegaa jab, na wazuud tumhaaraa bachegaa yuun.


MC Gupta ‘khalish’
8 July 2003





३५ [OLD 32A]. पहचान-ए-मोहब्बत न मुलाकात से होती, ८ जुलाई, २००३

Mohabbat kii nahiin pehchaan mulaakaat se hotii, --?9 September 2003


Mohabbat kii nahiin pehchaan mulaakaat se hotii
Hai waqt-e-rukhsat aankh ke jazbaat se hotii

Chamak-o- rang to kaagaz ke phuulon mein bhi hote hain
Kadr phoolaun kii un main band khushbuaat se hotii

Wafaa ki kasm khaane ki rasam to sab nibaahte hain
Wafaa kii asliyat maluum dil-e-barbaad se hotii

Sacchhii dostii ka yuun to waadaa sab hi karte hain
parakh us ki bahut mushkil magar haalaat mein hotii

Khalish hum bhii mohabbat ke bahut parcham udaate gar
Mohabbat duniyaa mein haasil dil-e-faryaad se hotii.

• This ghazal was developed from the following Gujraati sher brought to my notice by a friend:

Badho aadhar chey,enaa jati velaanaa jova par
milan maa nathi hotaa mahobbat naa puravao

[Everything depends one, how she/he looks back(at me) while going
meetings doesnt convey the proof of love]



३६. YAAD, 25 July 2003
--Hard Hindi copy available.

Jab terii yaad aatii hai
badi behisaab aatii hai

siah aur thandii raaton mein
Koi shai muskaratii hai

dil ke ghane andheron mein
bijlii sii kondh jaatii hai

nahiin milnaa to ab kabhi mumkin
Terii suurat hi merii thaatii hai

Tere gesuu bagair bhii ab to
Ye umr kat hi jaatii hai

Na sahii paas tu magar mere
Jeevan kii ab bhii saathii hai

Khalish shikwe se kyaa haasil
Zindagii to guzar hi jaatii hai.


MC Gupta 'Khalish'
25 July 2003




३७. MANZIL, 13 August 2003
--Hindi hard copy, much changed, available

haathon mein le ke jaam chhalkaataa chalaa gayaa
bin piiye main nashe mein hi chhaataa chala gaya

manzil khadii thi ain mere saamne lekin
Par khud hi us se duur mein jaataa chalaa gayaa

Tanhaaii mein jab yaad un ki be-tarah aayii
Un ke khayaal dil se bhulaataa chalaa gayaa

Mein un ke gham ko dil se bhulaane ke vaaste
auron ke gham ko dil mein basaataa chalaa gayaa

Duniyaa ke saamne to kabhii aankh nam na kii
Ashkon ko tanhaaii mein bahaataa chalaa gayaa

Raahon mein zamaane kii mujhe khaar hii mile
Par paaon manzil tak mein badhaataa chalaa gayaa

Kyaa kahiye Khalish thi merii manzil mujhe haasil
Manzil ki tamannaa kaa iraadaa chalaa gayaa.

MC Gupta
13 August 2003


३८. दिल को मेरे कोई शै भाती नहीं-- १६ अगस्त २००३


दिल को मेरे कोई शै भाती नहीं
नीन्द भी अरसा हुआ आती नहीं


जाने वाला ज़िन्दगी से जा चुका
आंख की लेकिन नमी जाती नहीं

हैं कली तो ज़िन्दगी के बाग में
मेरी ख़ातिर कोई मुस्काती नहीं

दिल तो सीने में धड़कता है मग़र
कोई सूरत दिल को उकसाती नहीं

वो मेरे सीने में आतिश है ख़लिश
जिस को अब मय भी बुझा पाती नहीं.

महेश गुप्त खलिश
१६ अगस्त २००३







Kyaa karuun dil ko mere koi bhii shai bhaatii nahiin
Ek arsaa ho gayaa aankhon mein niind aatii nahiin

Jaane waalaa zindagii se meri kab kaa jaa chukaa
Aankh kii merii namii kyon ab talak jaatii nahiin

Yuun to hain kaliyaan bahut is zindagii ke baagh mein
Merii khaatir hi kalii koi bhii muskaatii nahiin

Hai abhii in baajuon mein jor to puuraa magar
Zor-e-aazamaaish kii fitrat dil ko uksaatii nahiin

Le ke siine mein wo aatish aaj phirtaa hai Khalish
Jis ko maikhaane kii saarii mai bujhaa paatii nahiin.


MC Gupta ‘Khalish’
16 August 2003











३९. AAJ RONAA PADAA TO SAMJHE, 17 September 2003



Aaj ronaa padaa to samjhe, ashkon ki hakiikat kyaa hai
Jab dil jal ke pighlaa hai, aansuu ka ruup liyaa haii

Ek waqt thaa jab auron ke ashkon par ham hanste the
Aur aaj ye aalam hai khud, ashkon se pyaar kiyaa hai

Itraate the hum khud par, kahte the hamein khudaa ne
Is faulaadii siine mein, dil bhii lohe kaa diyaa hai

Naa-waakif dard se ab tak, dil thaa meraa bechaaraa
Jab huii intahaa dil mein, aankhon se dard bahaa hai

Insaan ke dard aur dil mein, rishtaahai ek buniyaadii
Jis dil mein dard nahiin hai, nahaq wo Khalish jiyaa hai.



MC Gupta ‘Khalish’
17 September 2003


४०. MUJH SE BAHUT DUUR JAA TO RAHE HO—posted to eb as reply on 15 Aug 05, 5 October 2003

Mujh se bahut duur jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum
khud pe bahut aaj itraa rahe ho, tanhaaii mein khud se bhee ghabaraaoge tum

Abhii zindagii ke nazaare hain dilkash, duniyaa tumhaarii bahut hii hansiin hai
Magar zindagii kii ye raahein kathin hain, in mein akele hi pacchtaaoge tum

Fisal jaao raahon mein, khao jo thokar, to halke se tum mujh ko aawaaz denaa
Jahaan par bhi hoge wahiin mere dil ko, tadaptaa tumhaare liye paaoge tum

Duaa hai khudaa se salaamat raho tum, koii bhii balaa zindagii mein na aaye
Main ye jaanatii huun ki ye dil meraa hai, ise phir mere paas hii laaoge tum.


M C Gupta ‘Khalish’
5 October 2003




४१. MOHBBAT KII SUULII, 7 October 2003

Unhii se dil lagaa baithe jinhe apnaa nahiin sakte
Zamaane ke asuulon se bhi ham takraa nahiin sakte

Zamaanaa hai nahiin bas mein na bas mein dil hi hai meraa
Kisii ko raaz bhi dil ka ham batlaa nahiin sakte

Agar dil ko lagaanaa apne dil ke haath mein hotaa
Kitaab-e-ishq mein majnuu ke charche paa nahiin sakte

Sabab is pyaar ka ham se zamaanaa puuchhataa hai kyon
Ye shai to ho hi jaatii hai, wajah samjhaa nahiin sakte

Zamaane aaj do dil us jahaan ko kuuch karte hain
Khalish dastuur-e-duniyaa jis jahaan tak jaa nahiin sakte.


MC Gupta ‘Khalish’
7 October 2003




४२. US KI YAAD MEIN KUCCH AISAA GHULAA JAATAA HUUN, 9 October 2003

Us ki yaad mein kucch aisaa ghulaa jaataa huun
Khud apnii yaad ko is dil se bhulaa jaataa huun

Main huun ishq kii mahfil kaa bujhtaa charaag
Aakhirii jaam-e-gam mahfil ko pilaa jaataa huun

Parwaane hi shamma ka dam bharte hain
Main jalaa bin kiye koi gilaa jaataa huun

Kucch to taasiir meri wafaa mein hogii
Raunaq-e-mahfil kucch aur jilaa jaataa huun

Koi puuchhe pataa meraa falak kah denaa
Khudaa hafiz teraa ho bhalaa jaataa huun

Milne ka hasiin waadaa janm mein agle
kar ke Khalish aaj chalaa jaataa huun.


MC Gupta ‘Khalish’
9 October 2003








४३. BADAL GAYE, 9 October 2003

Wo riit riwaaz badal gaye
Saaz aur aawaaz badal gaye

Do din ki mohabbat mein un ke
Nakhre andaaz badal gaye

The naaz kabhi karte ham par
Aaj un ke naaz badal gaye

Le baithe meraa dil to magar
un ke hi raaz badal gaye

ek baar bataa dein wo itnaa
kyon ho naarraz badal gaye

khaaii hai chot wo is dil par
Lo ham bhi aaj badal gaye.

Chhodo ai Khalish is duniyaa ye
Duniyaa ke taaj badal gaye.


MC Gupta ‘Khalish’
9 October 2003






४४. Mein so raha tha niind mein kyon aa ke mujh ko jagaa diyaa, 4 October 2003

Mein so raha tha niind mein kyon aa ke mujh ko jagaa diyaa
Mere khwaab kitne hasiin the kyon un pe pardaa giraa diyaa

Sadke mein apne khwaab ke gham-e-zindagii se thaa bekhabar
Kyon dil-fareb fazaaon ke aalam se mujh ko hataa diyaa

Har asliyat se hayaat ki waakif huun mein kucch is tarah
Khoyaa tha apne khayaal mein mujhe asl se kyon milaa diyaa

Maanaa ki main muflis huun mera wazuud aakhir kucch nahiin
Mere khwaab mein thiin daulatein, kyon wazuud un ka mitaa diyaa

Mujhe maut kaa kucch gham nahiin jahaan jiine ke kaabil nahiin
Main jaa chukaa thaa jahaan se mujhe kyon yahaan lautaa diyaa


Taarikiyaan hi miliin Khalish mujhe raunaquon ke bazaar mein
Mere khwaab mujh se yuun chhine ki hakiikaton ne rulaa diyaa.

MC Gupta ‘Khalish’
4 October 2003





४५. BULAATE THE JAB HAM UN KO, WO HAM SE DUUR JAATE THE, 9 October 2003

Bulaate the jab ham un ko, wo ham se duur jaate the
Jhukaate ham the sar wo sar jhatak ke ghuur jaate the

Khade rahte the ham raahon mein par nazrein palat kar ke
Guruur-e-husn wo apne nashe mein chuur jaate the

Ishaare bhi kiye, aawaaz dii, bheje sandeshe bhii
Sabhii ham koshishon se ho bade majbuur jaate the

Hamaare paak, saadaa, muflisii dil ke jalaane ko
Hamaare saamne saj dhaj ke wo pur-nuur jaate the

Kabhii raahon mein bhuule se agar paayaa mukhaatib to
Hazaaron naaz se ho kar bade magruur jaate the

Chadhaane ko hamaarii kabr par wo phuul laye hain
Tunak kar jo Khalish ham se maanind-e-huur jaate the.


MC Gupta ‘Khalish’
9 October 2003


एद

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
मैं भी रंगीन नज़ारों में समा सकता था
मैं भी ग़ुरबत के अंधेरों में सिमटने की ज़गह
अपने दिन रात को रंगीन बना सकता था

कभी कभी मेरे चेहरे पे मलाल आता है
मैंने क्यों अजनबी पाओं से भी कांटे नोचे
किसलिये ज़ख्म सितमगर के भी सहला बैठा
गैर की आंख से भी किसलिये आंसू पौंछे

कभी कभी मेरे होठों पे हंसी आती है
किसलिये अपनी ही नज़रों से बेगाना हो कर
सारी दुनिया के किनारों से किनारा कर के-
कुछ पुराने से असूलों का दिवाना हो कर

दिल की राहों पे सफ़र कर के भला क्या पाया
घर मेरा घर न रहा, प्यार की मंज़िल न मिली
मैं बहारों से फ़िज़ाओं से चमन से भी गया
न तो शोहरत ही मिली न मुझे दौलत ही मिली

आज आलम है कि बस आखिरी ये लमहे हैं
ज़िन्दगी की ये चुकी शाम हुयी जाती है
कोई साथी न सहारा न कोई हमदम है
आज हस्ती-ए- ख़लिश ख़त्म हुआ चाहती है.




४४. मेरे दिल में ये कई बार ख़याल आता है--RAS --sent to EK----९ जुलाई २००६ को प्रेषित, २४ अक्तूबर २००३, revised 5-11-08

मेरे दिल में ये कई बार ख़याल आता है
मैं भी रंगीन नज़ारों में समा सकता था
मैं भी ग़ुरबत के अंधेरों में सिमटने की ज़गह
अपने दिन रात को रंगीन बना सकता था

मेरे चेहरे पे कई बार मलाल आता है
मैंने क्यों अजनबी पाओं से भी कांटे नोचे
किसलिये ज़ख्म सितमगर के भी सहलाए थे
किसलिये गै़र की आंखों से भी आंसू पौंछे

मेरे होठों पे कई बार हंसी आती है
किसलिये अपनी ही नज़रों से बेगाना हो कर
सारी दुनिया के किनारों से किनारा कर के-
कुछ पुराने से असूलों का दिवाना हो कर

दिल की राहों पे सफ़र कर के भला क्या पाया
मेरी दुनिया न बसी, प्यार की मंज़िल न मिली
मैं बहारों से, फ़िज़ाओं से, चमन से भी गया
न तो शोहरत ही मिली, न मुझे दौलत ही मिली

आज आलम है कि बस आखिरी ये लमहे हैं
आज इस ज़िन्दगी की शाम चुकी जाती है
कोई साथी न सहारा, न कोई हमदम है
आज हस्ती-ए- ख़लिश ख़त्म हुयी चाहती है.


महेश गुप्त खलिश
२४ अक्तूबर २००३




***

AAKHIRII LAMHE


Kabhii kabhii mere dil mein khayaal aataa hai
Main bhii rangiin nazaaron mein samaa saktaa thaa
Mein bhii gurbat ke andheron se baahar aa kar
Apne din raat pur-nuur banaa saktaa thaa

Kabhii kabhii mere chehre pe malaal aataa hai
Kyon gair ke paaon se bhii kaante noche
Kyon zakhm sitamgar ke bhii sahlaaye
kyon ajnabii aankhon ke bhi aansuu ponchhe

Kabhii kabhii mere hothon pe hansii aatii hai
Kyon khud se bezaar-o- begaanaa ho kar
Saarii duniyaa ke kinaaron se kinaaraa kar ke
Kisii anjaan tamannaa mein diwaanaa ho kar

Dil ki raahon pe safar kar ke bhalaa kyaa paayaa
Meraa ghar chhuut gayaa phir bhi manzil na milii
Main gulshan se bahaaron se fizaaon se gayaa
Na to shohrat paaii, na to daulat hii milii

Ab Khalish aakhirii lamhe hain aur ye aalam hai
Zindagii ki shaam huii jaatii hai
Koi ham-dam koi sahaaraa koi saathii bhi nahiin
Har tamannaa tamaam huii jaatii hai.


M C Gupta ‘Khalish’
24 Ocober 2003














४७. Mujhe zindagii mein bahut kucchh milaa hai, 28 October 2003


mujhe zindagii mein bahut kucchh milaa hai
mujhe zindagii se nahin kucchh gilaa hai

hain tasliim mujhko ye gham zindagii ke
bure kaam kaa to buraa hii silaa hai

na kahnaa ki neki se kyaa faaidaa hai
nek insaan kaa dil ek gulshan khilaa hai

sukh-dukh hain jiivan mein milte sabhii ko
ye gam aur khushii kaa hi ek silsilaa hai

de do mujhe gham jo kucchh aur hon to
nahin tuutne kaa ye dil kaa kilaa hai

aadat si sahane ki gham pad gayee hai
bahut baar ye dil ghamon se chhilaa hai


MC Gupta ‘Khalish’
28 October 2003







४८. Meri zindagii se jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum, 2 November, 2003


Meri zindagii se jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum
Hai taasiir merii mohabbat mein aisii, jo waadaa kiyaa hai nibhaaoge tum

wazuud apnaa maine mitaa hi diyaa hai, jab se tumhein apnaa dil de diyaa hai
hai dil ab tumhaaraa, samhaalo ya todo, magar tod kar phir na muskaaoge tum

Kamsin kalii kii jubaan to nahiin hai, magar raundane par chataktii hai wo bhii
Kalii mere dil kii kuchaloge to phir, sadaa iskii na phir bhulaa paaoge tum

Ye rishtaa dilon ka hotaa hai naazuk, nazaakat ka is kii zaraa khyaal rakhnaa
Ise thes pahunchaa ke zakhmon ko dil ke, taa-zindagii apne sahlaaoge tum.

Jo tum pe lutaa ho na tum us ko luuto, nahiin dostii ke hain dastuur aise
Khalish zindagii pyaar kii chaar din hai, bahut in ko kho kar ke pacchhtaaoge tum.

MC Gupta ‘Khalish’
2 November, 2003
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४९. Chale to gaye ho bahut duur mujh se, khayaalon mein phir bhi mere aaoge tum,
2 November, 2003


Chale to gaye ho bahut duur mujh se, khayaalon mein phir bhi mere aaoge tum
viiraan kar ke merii zindagii ko, khwaabon ki duniyaa sajaaoge tum

kyonkar mujhe tum se ho koi shikwaa, nibahnaa to koii rawaayat nahiin hai
mujhe apne dil mein na chaaho na rakho, magar kaise dil se mere jaaoge tum

Tumhaarii mohabbat se hi waastaa hai, fizaan hijr kii yaa mulakaat kii ho
Tumhein hi faqt chaahaa hai mere dil ne, hakiikat ye kyuunkar mitaaoge tum

Maanaa ki main huun nahiin khuubsuurat, magar mere dil mein jhaanko to dekho
Dil ke har ek kone mein mere, taswiir se apnii takraaoge tum

Palat ke mere paas gar tum na aaye, kabhi khatm ye intezaar ab na hogaa
Khalish jo jahaan is jahaan se pare hai, palkein bicchhaaye wahan paaoge tum.


MC Gupta ‘Khalish’
2 November, 2003
www.writing.com/authors/mcgupta44




५०. Main andhere mein akelaa hi thakaa aataa huun, 2 November, 2003

Main andhere mein akelaa hi thakaa aataa huun
Saarii duniyaa se zudaa khud ko tanhaa paataa huun

Do kadam saath chale, do lamahe mujh se baat kare
Dhuundhataa aise rahbar ko chalaa jaataa huun

Kyaa mere paas hai jo tum ko kabhii de paauun
Main to muflis huun zamaane ka diyaa khaataa huun

Main bhi ek roz shariifon mein shumaar hotaa thaa
Soch kar buund in aankhon mein bhar laataa huun

Merii haalat pe Khalish ashq bahaate kyon ho
Main to khud apne hi ashkon se sharmaataa huun.


MC Gupta ‘Khalish’
2 November, 2003
www.writing.com/authors/mcgupta44




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