Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
२६७. क्या है गलत सही क्या है ये कौन किसे समझायेगा क्या है गलत सही क्या है ये कौन किसे समझायेगा पाप पुण्य में अंतर क्या है कौन किसे बतलायेगा जिन ने अपना जीवन काटा है काले अंधियारों में उन में से ही पहन मुखौटा नेता बन कोई आएगा जिस ने खुद कुछ लिखा नहीं पर आज बना प्राध्यापक है लिखने के गुर गुरु भाव से औरों को सिखलायेगा बहर काफिया और रदीफ हों, अलंकार हों छंदों में भाव हीन हो कविता तो होठों से कौन लगायेगा खलिश हाल होगा एक दिन ये भारत देश महान का आरक्षण डाक्टर रोगी के लक्षण और बढायेगा महेश चंद्र गुप्त खलिश 19 मई 2006 २६८. शायरी दिल-ए-शायर में ऐसे पली--९-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को ९-६-०७ को प्रेषित शायरी दिल-ए-शायर में ऐसे पली सांस के साज़ पे धुन निकलती चली इक परी ने कहा एक शायर से लिख तू गज़ल बज़्म में वो खिली न खिली बेखुदी में वो लिखने को बैठा मगर गोया उस की कलम फिर चली न चली वह थी पुर-अश्क, पुर-रौशनाई नहीं नज़्म की बंदिशों पर फली न फली लफ्ज़ बहते रहे ग़म निकलता रहा पीर सारी हृदय की गली न गली वो ख़यालों में अपने ही खोया रहा न खबर थी कि तुक भी मिली न मिली गुनगुनाता रहा गीत बनता गया शायरी तर्ज़ में गो ढली न ढली गीत दिल की खलिश को बढ़ाता गया दाद चाहे किसी की मिली न मिली. महेश चंद्र गुप्त खलिश २० मई २००६ ed अश्कों के जाम अनगिनत पीता रहा हूं मैं भीतर तलक पर आज भी रीता रहा हूं मैं न जाने मेरी ज़िन्दगी में आये कब बहार सूखे दरख्त की तरह जीता रहा हूं मैं दो लफ़्ज़ प्यार के कभी न हो सके नसीब हर सांस में गोया ज़हर पीता रहा हूं मैं कुर्ता मेरा बदरंग ही पहचान बन गया पैबन्द-दर-पैबन्द ही सीता रहा हूं मैं जो आयेगा कल कुछ ख़बर उस की नहीं मुझे बस ज़िन्दगी भर एक कल बीता रहा हूं मैं अल्लाह मिला ख़लिश न मुझे राम मिल सका पढ़ता बहुत कुरान और गीता रहा हूँ मैं. २६९. अश्कों के जाम अनगिनत पीता रहा हूं मैं —२२ मई २००६, ईकविता, ८ अगस्त २००८--RAMAS अश्कों के जाम अनगिनत पीता रहा हूं मैं भीतर तलक पर आज भी रीता रहा हूं मैं कब जाने मेरी ज़िन्दगी में आयेगी बहार सूखे दरख्त की तरह जीता रहा हूं मैं कुर्ता मेरा बदरंग इक पहचान बन गया पैबन्द-दर-पैबन्द बस सीता रहा हूं मैं दो लफ़्ज़ प्यार के कभी न हो सके नसीब हर सांस में गोया ज़हर पीता रहा हूं मैं जो आयेगा कल कुछ खबर उसकी मुझे नहीं ता- ज़िन्दगी बस एक कल बीता रहा हूं मैं अल्लाह मिला ख़लिश न मुझे राम ही मिला पढ़ता सदा कुरान और गीता रहा हूँ मैं. महेश चंद्र गुप्त खलिश २२ मई २००६ २७०. मेरे पास भला क्या रखा आने में—२२ मई २००६—RAMAS—ई-कविता ९ अगस्त २००८ मेरे पास भला क्या रखा आने में कलियां तुमको हासिल बहुत ज़माने में रंग और रूप और गंध न कुछ अब बाकी है क्या है अपना असली रूप छिपाने में सूखे पत्ते से कब तरु को प्यार हुआ गिर जायेगा किंचित डाल हिलाने में सूरज चन्दा युग-युग से बेमेल रहे कुछ तो तुक हो मिलकर साथ निभाने में कांटों को क्यों चुनते हो फूलों को छोड़ तुमको जीना है संसार सुहाने में इतना ही था साथ हमारा ख़लिश यहां व्यर्थ करो मत जीवन इसे बढ़ाने में. महेश चंद्र गुप्त खलिश २२ मई २००६ 271. गलती से उन्हें खत लिख बैठे गलती से उन्हें खत लिख बैठे जाने कैसे ये बला टले उन तक न काश वो खत पहुंचे न उन का संदेसा हमें मिले मालूम नहीं क्या लिख बैठे दीवाने हम भी कम तो नहीं बद-ख्याल हमारे पढ कर के जाने क्या उन पर सित्म ढले कुछ खिंचे खिंचे पहले भी थे अब और खफ़ा हो जायेंगे सिलसिला नये इल्ज़ामों का न जाने कब तक और चले मिलने की नहीं कोई सूरत ना मिल कर उन से चैन नहीं ये इश्क भी एक मुसीबत है न छूटे जो पड जाये गले हम तरसें प्यार की बातों को वो ताने रोज़ सुनाते हैं जुग बीते उन्हें मनाने में इस से तो खलिश बे-इश्क भले महेश चंद्र गुप्त खलिश 24 मई २००६ ००००००००००० from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> date May 24, 2006 9:31 PM Dear Guptaji namaskar kitna achha likha hai aapne? man khush ho gaya. jaise ye kavita aapne apne teen age me likha ho. bahut sundar ati sundar. mai to use bar bar padhti rahungi aur logo ko bhi sunaungi. bahut sundar badhai ho kusum ००००००००००००० from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com date May 24, 2006 9:59 PM Khalish Sahib, jug beete unhen manane men is se to 'Khalish' be-ishak bhale. bahut accha sher hai , jandaar hai, parantu bhaiya , meri salah mano likh dalo aik aur khat unko ,shayad kam bane...'Habeeb' 00000000000 from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com> date May 24, 2006 10:18 PM जुग बीते उन्हें मनाने में, इससे तो खलिश बे-इश्क भले ये सोचा था हमने जब हम खत को बंबे में डाल चले जो मिला संदेसा उनको तो वो और खफ़ा हो जायेंगे फिर सोच लिया इस बार उन्हें हम बिल्कुल नहीं मनायेंगे. सुन्दर रचना लिखी है आपने राकेश 272. जवानी के दिनों की याद बुढा़पे में आती है—२४ मई २००६ जवानी के दिनों की याद बुढा़पे में आती है चमन में ज़िन्दगी इक बार फिर से लौट जाती है पेश-ए-उम्र तकलीफ़ों की गर्दिश भूल जाता हूं तसव्वुर में कोई धुन्धली सी सूरत मुस्कुराती है ये गम जो आज भी तनहाई में आंसू गिराता है किसी कमसिन हसीना से मुलाकातों की थाती है बताएं क्या मगर इस बात का कुछ तो सबब होगा मुझे वीरानगी की आजकल क्यों शै सुहाती है खलिश अरसा हुआ वो अब तलक मंज़र नहीं भूले सुकूं के जाम जिस की याद रह रह कर पिलाती है. महेश चंद्र गुप्त खलिश 24 मई २००६ ००००००००००० from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com date May 24, 2006 11:25 PM Dear Guptaji namaskar ye kavita maine nahi aapne likhi hai lagta hai kuchh aisa hi ghata hoga jab aap teen age me honge vah kya baat hai lekin aisa lagta hai jaise sab hi kabhi na kabhi es daur se gujar chuke hote hain ek baar fir etni achhi gazal ke liye badhai kusum ००००००००००० 273. उन को खत पर खत लिखा किये उन को खत पर खत लिखा किये स्याही और कागज़ चुका किये ना आना था वो ना आये और अश्क हमारे बहा किये उन को हम से है प्यार बहुत हम इसी ख्वाब में जिया किये वो तो हम से खिंचते ही रहे हम ही गफ़लत में रहा किये क्या कहें खलिश अपने हाथों खुद खून-ए-दिल हम किया किये महेश चंद्र गुप्त खलिश 24 मई २००६ २७४. खत नामाबर को दे बैठे खत नामाबर को दे बैठे एक और मुसीबत ले बैठे वो पहुंचे न पहुंचे उन तक शक मन को ये घेरे बैठे जा कर भी दिल से गये नहीं गहरे अंतर मेरे बैठे जाने वाले तो चले गये हम ले कर गम उन के बैठे ये शाम खलिश अब जाती है उठ जायेंगे बैठे बैठे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 24 मई २००६ ००००००००००००० On 5/25/06, Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com> wrote: जब लिख कर दिया सन्देसा है, तब ही तो दुविधा भारी है जो बात न आँखों से करते, उनकी ही यह लाचारी है सन्देश नजर से भेजें तो असमंजस बिल्कुल रहे नहीं तब गेंद है उनके पाले में. उनके लिखने की बारी है. ०००००००००० from srivastava murlimanohar <murlimanohars@yahoo.com> date May 25, 2006 12:47 PM जा कर भी दिल से गये नहीं गहरे अंतर मेरे बैठे bahut aachchee paktiya hain murli manohar 275. नाहक ही चिट्ठी भेजी है नाहक ही चिट्ठी भेजी है हरकारे के हाथ दुविधाएं करती हैं मन में दो दो तिरछे हाथ था दिमाग ने समझाया मत भेजो लिखा पयाम खुद ही मोल मुसीबत ली है दिल से उलटे हाथ बहुत प्रेम जल गहरा है क्यों कूद पडे इस में अब पानी में मार रहे हो उलटे सीधे हाथ इस दलदल में फ़ंसे हुए हैं दुनिया के सब लोग भला बचाने को औरों को किसका उठे हाथ खलिश मोहब्बत की राहों में उलझन हैं भारी इन से कोई उबरे तब ही जब हों पीले हाथ. महेश चंद्र गुप्त खलिश 24 मई २००६ 276. मैं तो भावों का राही हूं मैं तो भावों का राही हूं जिस राह भावना उमड पडी उस राह शब्द कुछ फ़िसल पडे कुछ अश्रु प्रवाहित उधर हुए असहाय करुण एक धार बही भीगा दिल और भीगी पलकें कुछ कलम कवि की भीग गयी और उस से कुछ कलियां उभरीं कवि आज तुम्हारे उपवन की कलियों का ग्राहक कोई नहीं आंसू दूजे की आंखों से जो पोंछे नाहक कोई नहीं पर कवि विश्वास धरो मन में जो आज रौन्दते हैं कलियां अपना कर्तव्य भूल कर जो हैं आज मनाते रंगरलियां उन के पांवों में तन मन में कलियों की गन्ध समायेगी जो रौन्दी गयी कली है वो यादों में यूं बस जायेगी कि अंत समय उस उपवन के माली के हाथों गुलदस्ता उस की ही कलियों, यादों का इक रोज़ थमाया जायेगा. महेश चंद्र गुप्त खलिश 26 मई २००६ 277. यूं नज़र आप की हौसला दे गयी यूं नज़र आप की हौसला दे गयी आप के प्यार का फ़ैसला दे गयी भावनाओं से अब तक अछूता रहा मन को प्रणय की कला दे गयी नींद आती नहीं स्वप्न जाते नहीं एक अनबूझ मुझ को बला दे गयी शुष्क मरुथल में ठन्डी लहर एक उठी अनकहा एक निमन्त्रण खुला दे गयी तुम न तुम ही रहे मैं न मैं ही रहा कैसा अंज़ाम हम को भला दे गयी इक नज़र ने खलिश वो किया है करम मेरे ख्वाबों का मुझ को सिला दे गयी. महेश चंद्र गुप्त खलिश 278. मैं खाली एक कटोरा हूं—२२ मई २००६ मैं खाली एक कटोरा हूं मुझ को कुछ कुछ मिलता ही रहा कुछ भीख मिली कुछ सीख मिली कुछ मैने छीना औरों से अपने में सब भरता ही रहा भरते भरते एक जुग बीता मैं रहा मगर रीता रीता खाली था अब भी खाली हूं मैं बिन उपवन का माली हूं मैं खाली एक कटोरा हूं मुझ में रामायण भरी गयी गीता भी मुझ में रखी गयी कोरा कागद है कोरा ही था शून्य अभी भी शून्य रहा मैं खाली एक कटोरा हूं अब मैं हूं बस एक सूनापन एक खालीपन एक रीतापन अब कुछ भरने की चाह नहीं परिवर्तन की कुछ राह नहीं यूं ही मुझ को अब जीना है सूनेपन का विष पीना है जो पाया सब खोया मैने चेहरे कितने पहने मैने पर अपना कुछ भी पास नहीं अब भरने की कुछ आस नहीं मैं छिद्र समान जिया केवल मैं रहा एक खाली लेबल मैं खाली एक कटोरा हूं महेश चंद्र गुप्त खलिश 26 मई २००६ 279. मैं आज अकेले यहां पडी़ मैं आज अकेले यहां पडी़ साजन मेरे परदेस गये धरते होंगे कुछ भेस नये मैं बाट जोहती रही खडी़ मैं आज अकेले यहां पडी़ मन मेरा आज अकेला है तन में भी कुछ अलबेला है क्या कहूं लाज से रही गडी़ मैं आज अकेले यहां पडी़ जुग बीता वो कब आयेंगे जाने संग किस को लायेंगे चिन्ता मुझ को है बहुत बडी़ मैं आज अकेले यहां पडी़ श्वासें तो आती जाती हैं सब विश्वासों की घाती हैं आयेगी कब वो मिलन घडी मैं आज अकेले यहां पडी आशा भी दामन छोड चली मेरा न कोई और अली मन की पीडा हर रात बढी़ मैं आज अकेले यहां पडी़ महेश चंद्र गुप्त खलिश 26 मई २००६ 280. कभी कभी फूलों से अच्छे कांटे लगते हैं कभी कभी फूलों से अच्छे कांटे लगते हैं चन्द लकीरों ने सब सुख दुख बांटे लगते हैं कुछ फूलों में पलते कुछ चलते कांटों में हैं मिले किसे को लाभ किसी को घाटे लगते हैं भरी जवानी में सब दुनिया रंगीं लगती है आये बुढापा तभी वक्त के चांटे लगते हैं प्रतियोगी तो प्रतिभाशाली होते हैं कितने किन्तु जीतने वाले तो सब छांटे लगते हैं बॉस ऑफ़िस में बरस रहे हैं न जाने क्यूं आज जैसे कि अपनी पत्नी के डांटे लगते हैं महेश चंद्र गुप्त खलिश 26 मई २००६ 281. मैं केवल कविता करता हूं मैं केवल कविता करता हूं कविता में एक कोमलता है भावुकता और सरसता है मन का संसार संवरता है स्वप्नों की दुनिया रचता हूं मैं केवल कविता करता हूं संसार विकट दावानल है न पियो ये अभिशापित जल है ज़हरीला इस का हर पल है मैं जग से बच कर चलता हूं मैं केवल कविता करता हूं मुझ को तो केवल यही जंचा सब ओर है हाहाकार मचा हर व्यक्ति यहां है खिंचा खिंचा न संग किसी के पलता हूं मैं केवल कविता करता हूं मेरा जीवन मेरी कविता है अकसर मुझ को यूं लगता मैं कविता बिना न जी सकता मैं कविता से दम भरता हूं मैं केवल कविता करता हूं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 27 मई २००६ *********************** 282. मुझे वृक्ष बनने की इच्छा नहीं मैं तो छोटा सा पौधा ही रह जाऊंगा मुझे वृक्ष बनने की इच्छा नहीं मैं तो छोटा सा पौधा ही रह जाऊंगा चोटियों से मैं क्यों घोषणाएं करूं मैं तो हौले से सन्देश कह जाऊंगा सुनने वाले के मन में अगर भाव हो, एक शब्द एक इशारा है उस को बहुत मेरे मीठे वचन जो किसी को चुभें उस के कटु वाण हंस के मैं सह जाऊंगा मैं तो अपने हृदय की छिपा कर व्यथा आंसुओं को सदा पौंछता ही रहा जो तुम्हें सुख न दे पाऊं तो फिर दुखी नैन से बन के अश्रु मैं बह जाऊंगा कामना मैं बडप्पन की क्योंकर करूं मैं तो राही हूं अनजान वनवीथि का जानता हूं शिखर पर चढा मैं अगर एक झोंके में धरती पे ढह जाऊंगा अनवरत प्रेम का हूं पुजारी खलिश बन के परवाना शम्म पे मंडरा रहा अग्निपथ से किनारा मैं कैसे करूं ये अलग बात है पल में दह जाऊंगा. महेश चंद्र गुप्त खलिश 28 मई २००६ 283. मुझे वृक्ष बनने की मत दो दुआ मुझे वृक्ष बनने की मत दो दुआ मैं तो नन्हा सा छोटा सा पौधा भला ये ज़रूरी नहीं सब व्यवस्थित रहें थाल तारों का लगता है औंधा भला स्वर्णमंडित महल हैं ये बन्दीगृह इन से तो फूस का निज घरौन्दा भला सातसागर परे के परीदेश से अपने आंगन की माटी का लौन्दा भला है नज़र गैर की जब पडी हिन्द पर कौन है जिस को न इस ने रौन्दा भला चाहे जुगनू तिमिर में विलीन हो गया पर खलिश एक पल को तो कौंधा भला. महेश चंद्र गुप्त खलिश 28 मई २००६ *********************** 284. हम हैं तुम्हारे, तुम्हारे रहेंगे हम हैं तुम्हारे, तुम्हारे रहेंगे जब तक ये चान्द और सितारे रहेंगे जियेंगे तो पहलू में बस इक तुम्हारे नहीं तो उमर भर कुंवारे रहेंगे न ठुकराओ तुम दिल के मारों को ऐसे कहां हम मोहब्बत के मारे रहेंगे न तड़पाओ इतना इन्हें इश्क में तुम जां छोड कर ये बिचारे रहेंगे निकले थे घर से यही सोच कर हम किसी की नज़र के दुलारे रहेंगे आंखों में होंगी उलफ़त की बातें निगाहों में रंगीं इशारे रहेंगे न सोचा था हम ने कभी ख्वाब में भी सितम प्यार में इतने सारे रहेंगे नहीं जानते थे खलिश यूं भी होगा जीते मगर फिर भी हारे रहेंगे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 29 मई २००६ 285. हम केवल लिखते रहे प्यार की कविताएं—२९ मई २००६ हम उन को लिखने लगे प्यार की कविताएं कविताओं ने उन का दिल कुछ इस तरह छुआ उन के मन में भी रंग प्यार का प्रकट हुआ वाज़िब था इश्क बढ़ाएं हम, न कतराएं हम केवल लिखते रहे प्यार की कविताएं पा कर के उन को पास बहुत सकुचाते थे नज़रें टकरातीं तो हम बहुत लजाते थे यह हुआ न हम से आगे कदम बढ़ा पायें हम केवल लिखते रहे प्यार की कविताएं कोई दूजा ही ले गया उन्हें कर के जादू हम रह गये मौन किया जबरन दिल पर काबू अब कैसे अपने टूटे दिल को समझायें हम केवल लिखते रहे प्यार की कविताएं बिखरा बिखरा अब मेरे दिल का आलम है लगता है सभी ज़माना मेरा ज़ालम है हम खलिश उन्हें कैसे इस दिल से ठुकरायें हम केवल लिखते रहे प्यार की कविताएं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 29 मई २००६ २८६. तुम्हारे ही दम पे गुज़ारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे तुम्हारे ही दम पे गुज़ारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे, जीवन को तुम से संवारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे, दुनिया ने हम को बहुत है सताया, हमें रूप इस का समझ में न आया दुनिया से अब हम किनारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे मन है बहुत साईं चंचल हमारा, हमें चाहिये साई आंचल तुम्हारा हर पल तुम्हारा नज़ारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे गरदन झुका के पुकारा है तुम को, गीली नज़र से निहारा है तुम को तुम्हारी ही मूरत निखारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे. तुम को न दिल में अभी तक बिठाया, तभी तो नहीं चैन दिल का है पाया दीदार अब हम तुम्हारा करेंगे, तुम्हें साई बाबा पुकारा करेंगे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 29 मई २००६ 287. काम चुकता नहीं वक्त बढ़ता नहीं काम चुकता नहीं वक्त बढ़ता नहीं कैसे होगा गुज़र हल निकलता नहीं हैं समस्या बहुत चन्द श्वासें बचीं जीत पाऊंगा विश्वास पलता नहीं हर कदम पर मैं इतना छ्ला हूं गया कोई हो बेवफ़ा आज खलता नहीं ज़िन्दगी से नहीं है मुझे कुछ गिला सर को धुनता या मैं हाथ मलता नहीं मैं भी पाबन्द अपने असूलों का हूं गर्म सांसों से तप कर पिघलता नहीं है अकर्मण्यता फ़ितरत-ए-कायरी दोष देती खलिश पर विफलता नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 29 मई २००६ ************** २८८. हम रहे पटाते लड़की कोरी कविता से –ईकविता २० मई २००८ हम रहे पटाते लड़की कोरी कविता से थे मजनू और बहुत उसको चाहने वाले ठन्डी कारों में पिकनिक ले जाने वाले वे प्यास बुझाते रहे रूप की सरिता से हम रहे पटाते लड़की कोरी कविता से सोचा था वो पटरानी इस दिल की होगी इक प्रीत लहर उस के दिल में उठती होगी बेखबर रही वो मेरे दिल की चिन्ता से हम रहे पटाते लड़की कोरी कविता से मालूम न था कि एसा भी दिन आयेगा बाहों में भर के और कोई ले जायेगा हो गये ध्वस्त इस अप्रत्याशित तडिता से हम रहे पटाते लड़की कोरी कविता से खुश रहो ख़लिश यह रंग जाल अब नष्ट हुआ क्या है जीवन का सत्य आज ये स्पष्ट हुआ तुम को केवल मोह था अपनी कविता से ये भ्रम था लड़की पटती केवल कविता से. महेश चंद्र गुप्त खलिश ३० मई २००६ 289. कहने को बहुत कुछ है तुम से पर कैसे कहें दिल की बातें कहने को बहुत कुछ है तुम से पर कैसे कहें दिल की बातें तुम रहते हो कुछ खिंचे खिंचे तनहाई में कटती रातें माज़ी में बस रहते हैं हम न आज है न कल अपना है अब सपनों में आते हैं जो करते थे रोज़ मुलाकातें क्या दिन थे अलग हम दुनिया से वादी-ए-प्यार में रहते थे कुछ नज़रों से कुछ बातों से होती थीं नित दिल पर घातें अब दुनिया मेरी बदल गयी न प्यार रहा न वादी है बाकी हैं केवल कुछ बिखरी बिखरी धुन्धलायी सी यादें नाशाद हैं हम तुम शाद रहो सदियों सदियों आबाद रहो हो कर के भी बरबाद खलिश कैसे हम तुम को बिसरा दें. महेश चंद्र गुप्त खलिश 1 जून 2006 २९०. कविता का मतलब क्या है लिखने बैठे तो समझे—RAMAS—ईकविता, १० अगस्त २००८ कविता का मतलब क्या है लिखने बैठे तो समझे शम्म की हकीकत क्या है जलने बैठे तो समझे हम भी अकसर कहते थे दुनिया से कूच करेंगे ये काम नहीं है आसां मरने बैठे तो समझे सोचा था इश्क करेंगे हम मजनूं से भी ज्यादा होते हैं प्यार में ग़म भी, करने बैठे तो समझे ख़्वाहिश तो चुक न पायी, रीतापन ही बेहतर था जब अपने दिल में ख़ुशियां भरने बैठे तो समझे थे ख़लिश पराये सारे, जिनको भी अपना जाना जब अंत समय अर्थी पर चढ़ने बैठे तो समझे. महेश चंद्र गुप्त खलिश १ जून २००६ 291. कविता लिखना आसान नहीं कविता लिखना आसान नहीं आंसू थमना आसान नहीं मन की पीडा़ का शब्दों में वर्णन करना आसान नहीं दुनिया से छिप कर प्रेम विरह गुपचुप सहना आसान नहीं बीती यादों से तनहाई के पल भरना आसान नहीं मन रोए और मुसकानों का लब से झरना आसान नहीं ये प्रेम पन्थ है खलिश यहां हंस कर चलना आसान नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 1 जून 2006 ********************* 292. मैं प्रेम डगर का राही हूं दिल की दुनिया में रहता हूं मैं प्रेम डगर का राही हूं दिल की दुनिया में रहता हूं एहसासों और जज़्बातों की लहरों में अकसर बहता हूं अश्कों का और मोहब्बत का एक अनबूझा सा नाता है मैं राज़-ए-मोहबत दर्द-ए-दिल बस अपने से ही कहता हूं उन से जुदाई के आलम की शान कोई आ कर देखे चन्दा तारे संग देते हैं जब मैं तनहाई सहता हूं जब जब बा-करम खवाबों के मिलना उन से हो जाता है खुलते ही आंख खयालों की दुनिया से बरबस ढहता हूं क्यों कीजे खलिश गिला कोई कुछ चलन इश्क का ऐसा है बाहर से तो मुसकाता हूं भीतर ही भीतर दहता हूं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 2 जून 2006 293. आज हम स्वतंत्र हैं आओ सब आह्वान है युवा ही महान है नये युग का गान है आज हम स्वतंत्र हैं जानते हैं अपने हक हम डटेंगे बेधड़क रोक देंगे हम सड़क आज हम स्वतंत्र हैं आंग्ल को भगा दिया गांधी को भुला दिया नेहरू को रुला दिया आज हम स्वतंत्र हैं जातिवाद बढ रहा स्वार्थ पींग चढ़ रहा धर्म है उखड़ रहा आज हम स्वतंत्र हैं कौन जो ठोके हमें मरे जो टोके हमें क्यों कोई रोके हमें आज हम स्वतंत्र हैं हम पढ़ाई क्यों करें नक्ल से क्यों न तरें शिक्षकों से क्यों डरें आज हम स्वतंत्र हैं क्या धरा है देश में खादी के परिवेश में क्यों न जीयें ऐश में आज हम स्वतंत्र हैं महेश चंद्र गुप्त खलिश 2 जून 2006 294. हृदय काश पत्थर का होता हृदय काश पत्थर का होता दर्द की ऐसे घात न होती नैनों से बरसात न होती ठन्डी सहमी रात न होती हृदय काश पत्थर का होता दुनिया आखिर बहुत पड़ी है तुम से ही क्या एक कड़ी है मगर मुसीबत यही बड़ी है हृदय काश पत्थर का होता हम भी इठलाते लहराते चोट प्यार की तुरत भुलाते किसी और से नेह लगाते हृदय काश पत्थर का होता एसा हृदय तुम्ही ने पाया वादा तुम ने नहीं निभाया छुआ न तुम को गम का साया हृदय काश पत्थर न होता. महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 295. शायर की हकीकत क्या है पूछे कोई मेरे दिल से शायर की हकीकत क्या है पूछे कोई मेरे दिल से अश्कों में कलम डुबा कर लिखता है गहरे दिल से हर दर्द जिगर का यूं तो तकलीफ़ बहुत देता है वह चीख बहुत है संगीं जो आती कोरे दिल से आशिक के दिल की आहें बरबाद तुम्हें कर देंगी पहले ही उठा लो ज़ालिम ये सारे पहरे दिल से हंटर से काली चमडी में भी सिहरन होती है एह्सास हो कैसे इस का परदेसी गोरे दिल से ताकत-ए-दिमाग-ओ-बाज़ू का उन को बहुत गुमां है क्या खलिश बयां-ए-उल्फ़त कीजे इक बहरे दिल से महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 *************** 296. मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का नहीं चाहिये दौलत मुझ को दुनिया की माफ़िक मुझ को कच्ची क्यारी बगिया की में संगी हूं पुष्पों का भी शूलों का मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का कलियां मुझ को बहुत लुभाने आईं थीं डिगा न पाईं, मायावी परछाई थीं क्यों मैं करूं प्रायश्चित एसी 'भूलों' का मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का वह मानव क्यों सोचे जीवन रीता है मान के 'ब्र्ह्मोअस्मि' भाव जो जीता है जग मारा है मरु के काम-बगूलों का मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का खलिश दिया मालिक ने मुझ को भर झोली अंत समय थी खाली मुट्ठी जो खोली हूं मुरीद मालिक के मेहर फूलों का मैं हूं कैदी अपने चन्द असूलों का. महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 297. पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता कल्पना के जाल में स्वप्न था संवारता रंग रूप देख कर मस्त एसा हो गया मानो असलियत से मैं दूर कहीं खो गया जान पाया मैं नहीं कोई खडा़ पुकारता पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता आयेगा भंवर कोई, बताऊं पास आ अली कह रही थी बाट जोहती प्रतीक्षिता कली रस को पी के उड गया पंख को पसारता पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता खेल थक के बचपना परी लोक को गया जूझ यौवन मस्त आंधियों में चूर हो गया दोहरा बुढापा पूर्व स्मृतियां दुलारता पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता किस लिये खलिश भला जी रहे हो अब तलक आंख में झलक रही जिजीविषा की क्यों दमक क्या है तुम जो दे सको जगत सदा धिकारता पुष्प वाटिका को दूर से रहा निहारता महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 298. मत रुको अभी पथ बाकी है मत रुको अभी पथ बाकी है तुम को न मय न साकी है मन में क्यों आज निराशा है किस लिये मौन सब भाषा है क्यों तुम ने दर्द तलाशा है मत रुको अभी पथ बाकी है रूकने से बेह्तर मरना है मत थको अभी पग धरना है लक्ष्य अभिनन्दन करना है मत रुको अभी पथ बाकी है विधवापन से है सौत भली कैसी भी करवा चौथ भली बंजर भूमि में पौध भली मत रुको अभी पथ बाकी है अंतर में तुम्हारे ज्वाला है तुम में विश्वास निराला है तुम को तूफ़ां ने पाला है मत रुको अभी पथ बाकी है. महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 299. किस तरह उन को बतायें हम नहीं अब वो रहे—३ जून २००६ किस तरह उन को बतायें हम नहीं अब वो रहे वक्त के दरिया में बह कर दूर कितने हो रहे जो लुटाते थे कभी जां हर अदा-ओ-नाज़ पर हो के हम से बे-खबर दुनिया में अपनी खो रहे ज़िन्दगी हम ने गुज़ारी उन के इन्तज़ार में इश्क बोतल से जता कर रात भर वे सो रहे लोग तो आगाह किये हम ही मग़र माने नहीं बीज खुद बरबादियों के आप ही हम बो रहे अब ये आलम है जवां हम भी नहीं वो भी नहीं क्या खलिश पछताइये किस्मत को अपनी रो रहे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 3 जून 2006 ************ 300. जवानी से बुढापे तक कुछ ऐसा सिलसिला हुआ जवानी से बुढापे तक कुछ एसा सिलसिला हुआ आम ज्यों पकता गया वो और पिलपिला हुआ जब झटक कर ज़ुल्फ़ चल दी तुनतुना के नाज़नी शेख साहिब पूछते हैं हम से क्या गिला हुआ मुफ़लिसी में है मुबारक पेट भरने की गिज़ा और फिर मिल जाये कुरता जो कि हो सिला हुआ फेर लीं गुरबत में सब ने आंख मुझ से इस कदर जैसे कि शैतान से हो शख्स हर मिला हुआ मिल गया जवाब-ए-खत खुशी के मारे अब खलिश छाती यों फुला रहे हैं ज्यों फ़तह किला हुआ. महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 |