Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
301. जब छलके तडपे नज़र तो बनती गज़ल स्वयं (गंगा प्रसाद अरुण जी की मूल भोजपुरी गज़ल का खडी बोली में अनुवाद. मूल गज़ल की विशेषता है कि उस में एक भी मात्रा नहीं है( जब छलके तडपे नज़र तो बनती गज़ल स्वयं जब खुद ही लहके डगर तो बनती गज़ल स्वयं जब घेर-घोट में पनघट पर ही पसर गये सौ सौ लहरायें लहर तो बनती गज़ल स्वयं दर्पण चटके नैना दमके शोला बन के और काल जाये जब ठहर तो बनती गज़ल स्वयं हो ज़ुल्फ़ जवां और मस्त नज़र तन मनहर हो बहके लख के हर उमर तो बनती गज़ल स्वयं जब दर्द बना अजगर बैठा हो सीने पर और सांसों का मेला हो बनती गज़ल स्वयं अर्पण हो जब सर्वस्व रसीली अनबन में तो क्यों न खलिश बन जाये रसीली गज़ल स्वयं महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 **** मूल भोजपुरी गज़ल छलकत तलफत नजर, त बरबस गज़ल भइल. लहसल लहकत डगर, त बरबस गज़ल भइल. अद-बद पनघट पर जब परबत परस गइल, सइ-सइ लहरल लहर, त बरबस गज़ल भइल. चटकल दरपन चमकल दहक-सहक बन-बन, समय गइल जब ठहर्, त बरबस गज़ल भइल. अलकन पर, मद भरल नयन, मनहर तन पर, बहकल-सहकल उमर्, त बरबस गज़ल भइल. अजगर अइसन उर पर दरद बनल बइठल, पसरल अगर-मगर, त बरबस गज़ल भइल. सरबस अरपन रसगर अनबन पर हरदम, लउकत फरकत बहर, त बरबस गज़ल भइल. गंगा प्रसाद अरुण 302. ज़िन्दगी के मोड पर आप क्यूं खडे़ मिले ज़िन्दगी के मोड पर आप क्यूं खडे़ मिले एक मुलाकात में नैन ये लडे़ मिले आप हम से दूर हैं गुमान था बहुत हमें आप के खयाल दिल में दूर तक गडे़ मिले जब भी याद आप की ढल के आई ख्वाब में आप के गुलाब-ए-रूख हर जगह पडे़ मिले अब न वो फ़िज़ां रही न बाग हैं न ख्वाब हैं खार हैं बस राह में फूल सब झडे़ मिले उन जवां दिनों की याद ही मेरा करार है चार दिन सही खलिश जो हम मिले बडे़ मिले महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 303. दुनिया भरी मैं अकेली रही दुनिया भरी मैं अकेली रही सात भाई की मैं थी बहन इक बनी सब बिआहे न मैं किन्तु दुलहन बनी एक दहेजी प्रथा मेरे आडी़ रही दुनिया भरी मैं अकेली रही समाजों की सीमाओं को त्याग कर तोड कर लाज बन्धन मैं अभिसार कर थाम कर अपने प्रीतम का दामन रही दुनिया भरी मैं अकेली रही न सुख मेरी किस्मत को मंज़ूर था मेरा प्रियतम ज़माने से मज़बूर था वह गया छोड़ और मैं कुंवारी रही दुनिया भरी मैं अकेली रही मैं शिक्षित बडे पद पे हूं कार्यरत मेरी सेवा में अनुचर लगे अनगिनत मैं चेरी किसी की न बन के रही दुनिया भरी मैं अकेली रही मुझे शान शौकत सभी प्राप्त हैं किन्तु मन में व्यथा बस यही व्याप्त है मैं बिना एक घर-बार वाली रही दुनिया भरी मैं अकेली रही. महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 304. यूं तो न मदीह कर कुछ खयाल रख जरा यूं तो न मदीह कर, कुछ खयाल रख जरा इतनी तू खुशी न दे, दिल गया है थक जरा पाक है तेरा चलन, मगर सभी भले नहीं दाद से तू पेशतर, मुझे अभी परख जरा दूर से तो शै सभी, दीखती हैं खुशगवार पास आ के देख ले, छोड़ दे झिझक जरा ज़िन्दगी के साथ की बात जो तू कर रहा जाम मेरे हाथ से एक पल तो चख जरा बन्दिशें ये फ़ासले रहेंगे कब तलक खलिश आ करीब लूट ले हो के बेधड़क जरा. महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 मदीह = praise; मदीह करना=तारीफ़ करना 305. कुछ नौक झोंक हो रहे आ जाओ बज़्म में कुछ नौक झोंक हो रहे आ जाओ बज़्म में संज़ीदगी इतनी तो न बढाओ बज़्म में जाती तो गुफ़्त-गू है बन्द तुम से आजकल शिकवे गिले हसीन कुछ सुनाओ बज़्म में दुनिया में क्या रखा है चन्द अशआर के सिवा दौर-ए-सुखन में गम-ए-जां भुलाओ बज़्म में सहरा-ए-ज़िन्दगी में बुझ सकी है किस की प्यास भर भर के जाम गज़ल के पिलाओ बज़्म में इस बज़्म-ए-शायरी में खलिश सब हैं दिलजले आओ के तुम भी दाग-ए-दिल सहलाओ बज़्म में. महेश चंद्र गुप्त खलिश 4 जून 2006 306. ये बज़्म-ए-सुखन है यहां बेबाक आइये ये बज़्म-ए-सुखन है यहां बेबाक आइये करने में शेर-ओ-शायरी न हिचकिचाइये पीने-ओ-पिलाने में है रुसवाई तो नहीं ये लुत्फ़ अपनी हद में ही रह के उठाइये अपने ही आप पे न रहे आप का काबू दीवानगी की हद्द से आगे न जाइये छोटा न दिल को कीजिये हो जाये जो गलती आगे की राह देखिये माज़ी भुलाइये है कौन जिस को ज़िन्दगी में गम मिला नहीं खुशियों को कर के याद खलिश मुस्कराइये. महेश चंद्र गुप्त खलिश 5 जून 2006 307. मुख्तसर सी बात है नाकाम रहे हम--sent मुख्तसर सी बात है नाकाम रहे हम ज़िन्दगी गुज़ार दी पर कुछ न कर सके जो कर्ज़ थे हम पर नहीं वो भी उतर सके न मिली खुशी न कोई दूर हुए गम मुख्तसर सी बात है नाकाम रहे हम हम ने नहीं ज़िन्दगी ने ही हमें जिया था ज़हर ही हम ने जो हर जाम में पिया कौन चारागर करे तासीर उस की कम मुख्तसर सी बात है नाकाम रहे हम मत रखो उम्मीद मुझ से इश्क प्यार की क्या तुम्हें दूं है मेरी हर शै उधार की अब नहीं दिल में रहा वो जोश, दम-ओ-खम मुख्तसर सी बात है नाकाम रहे हम माफ़ कर देना तुम्हें हम कुछ न दे सके न किसी की आज तक दुआ ही ले सके भूल जाना कर चले हम जो गुनाह सितम मुख्तसर सी बात है अब हम न रहे हम महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 308. वेदना मेरी तुम्हें क्योंकर खले वेदना मेरी तुम्हें क्योंकर खले तुम सुरा और सुन्दरी के दास हो सब दुखों से दूर सुख के पास हो स्वप्न के संसार में ही तुम भले वेदना मेरी तुम्हें क्योंकर खले क्या तुम्हें मालूम मेरी मुश्किलें ये तुम्हारे वास्ते हैं अटकलें तुम स्वयं से ही रहे अब तक छ्ले वेदना मेरी तुम्हें क्योंकर खले आखिरी है शाम ये भी जा रही याद फिर भी है तुम्हें बुला रही काश आ पल भर को लग जाते गले वेदना मेरी तुम्हें क्योंकर खले महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 309. क्या प्रमाण दूं तुम्हें कि मुझ को तुम से प्यार है? क्या प्रमाण दूं तुम्हें कि मुझ को तुम से प्यार है? तारे आसमान से मैं ला चरण में डाल दूं? या मैं आप के गले में स्वर्ण पुष्प डाल दूं? या कहूं कि मेनका सा आप का सिंगार है? क्या प्रमाण दूं तुम्हें कि मुझ को तुम से प्यार है? क्या तुम्हारी सेवा का व्रत सदा उठाऊं मैं? मांग कर के इन्द्र से कल्पवृक्ष लाऊं मैं? कहूं कि रूप मल्लिका समक्ष मेरी हार है? क्या प्रमाण दूं तुम्हें कि मुझ को तुम से प्यार है? किन्तु, क्यों प्रमाण दूं मैं तुम को अपने प्यार का? तुम ने जब दिया नहीं मुझे किसी प्रकार का हो संदेह से घिरा उस प्रेम को धिक्कार है क्यों प्रमाण दूं तुम्हें कि मुझ को तुम से प्यार है? मैं सरल स्वभाव से याचना में रत रहा प्रेम को करो प्रकट मैने तुम से कब कहा किन्तु केवल प्रश्नमय आप का व्यवहार है सोचता हूं हम में क्या वास्तव में प्यार है महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 310. एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं--sent एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं तुम समझ रहे कि व्यर्थ ही मेरा प्रलाप है अश्रु जल कणों में इक दुखी हृदय की आग है इस का ताप सह सके किसी में इतना दम नहीं एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं सहस्र स्वप्न टूटने से अश्रु एक बन रहा सहन-बांध तोड़ नैन कोर से निकल रहा एक बिन्दु में छिपा क्या अथाह गम नहीं एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं इस अपार राशि का ह्रास आज कर रहे मोल इस का जानने में तुम सदा विफल रहे प्रिय, बनाओ हृदय को यूं कठोरतम नहीं एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं एक त्रस्त आत्मा की यह करूण पुकार है मेरे अश्रु न रुके तो यह तुम्हारी हार है एक दिन तुम्हारे अश्रु भी सकेंगे थम नहीं एक एक अश्रु मेरा मोतियों से कम नहीं महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 ******************************* 311. एक और तनहा शाम आई और चली गयी एक और तनहा शाम आई और चली गयी खिलने से पहले मन्ज़िल-ए-मौत इक कली गयी फ़ितरत-ए-इन्सान और कुदरत का है ये कमाल एक नाज़नी छलने को आई, खुद छली गयी चुनरी सुहाग की अभी तन पे थी सज रही छाती पे मूंग एक दुलहन के दली गयी मेहंदी का रंग हाथ से उतरे कि पेशतर वो जो थी बिन दहेज की, एक दिन जली, गयी मातम कोई करता खलिश क्या ऐसी मौत पर ससुराल वालों ने कहा बला टली, गयी महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 312. चाहत कलेज़े में उठती नहीं चाहत कलेज़े में उठती नहीं गरदन ये सज़दे में झुकती नहीं लाचार हूं दिल की फ़ितरत से मैं रंगत कोई और चढ़ती नहीं. सभी थक गये हैं मेरे चारागर असर अब दवा कोई करती नहीं नाकामियत की जो शोहरत मिली हुईं मुद्दतें पर वो घटती नहीं अधिक मूल से सूद मैं दे चुका रकम कर्ज़ की है उतरती नहीं मेरी शख्सिअत लुट गयी इस कदर अदना सी शै कोई डरती नहीं शायर की दुम इस खलिश की कलम चलती है इतना कि रूकती नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 313. सिगरेट का फ़साना हम किस तरह सुनाएं—६ जून २००६ सिगरेट का फ़साना हम किस तरह सुनाएं सीने में जल रहीं हैं सेहत की सौ चिताएं सिगरेट का फ़साना................. सिगरेट की ही खातिर बरबाद हो गये हम आता नहीं समझ में कैसे इसे छुडाएं सिगरेट का फ़साना.................... कश खींच कर धुएं के, हीरो से लग रहे थे छाती में जम गया वो, अब कैसे पार पाएं सिगरेट का फ़साना.................... गोरे से चेहरे वाले होते हैं दिल के काले अब ज़िन्दगी पे काली छाने लगीं घटाएं सिगरेट का फ़साना.................... कैंसर की असलियत को यूं आज हम ने जाना जीना है और कितना, कैसे खलिश बताएं सिगरेट का फ़साना हम किस तरह सुनाएं सीने में जल रहीं हैं सेहत की सौ चिताएं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 6 जून 2006 314. क्या लडकी थी वो भी अजीब एक झलक दिखा कर चली गयी--sent क्या लडकी थी वो भी अजीब एक झलक दिखा कर चली गयी कायम है अब तक नज़रों में वो चमक दिखा कर चली गयी दुनिया बदली हम भी बदले वो भी तो बदल गयी होगी पर जो न बदल पायी अब तक वो ललक दिखा कर चली गयी हम उसे ढूंढने की खातिर खुद अपने को ही भूल गये मंज़िल जिस की मिलती ही नहीं वो सड़क दिखा कर चली गयी जाने कब मिलना हो उस से कहते हैं जहां हैं और अभी वो दोनों हम को यहां सरग और नरक दिखा कर चली गयी दिल पर मरने वालों का तो है खलिश हश्र भूखे मरना हासिल और ख्वाबों का हम को वो फ़रक दिखा कर चली गयी महेश चंद्र गुप्त खलिश 9 जून 2006 315. कोई एक मुकाम तो ज़िन्दगी में आएगा कोई एक मुकाम तो ज़िन्दगी में आएगा एक दिन असर कभी बन्दगी में आएगा फिर रहा हूं अब तलक कभी इधर कभी उधर जो दिखा दे राह वो किस घडी़ में आएगा दौलतों के ढेर थे तो फ़िक्र भी हज़ार थीं मस्त जीने का मज़ा मुफ़लिसी में आएगा रोशनी तो आम है छिपाती है ये लाख गम याद उन का हर शबाब तीरगी में आएगा महफ़िलों के लायक मैं अब नहीं रहा खलिश आंसुओं का रंग ही मेरी हंसी में आएगा महेश चंद्र गुप्त खलिश 9 जून 2006 316. अब नहीं कुछ पास मेरे, मत बुलाओ तुम मुझे अब नहीं कुछ पास मेरे, मत बुलाओ तुम मुझे फिर तराने प्यार के ये मत सुनाओ तुम मुझे तुम से हो के दूर अब मैं आ गया हूं खुद के पास ख़ुद मुझे मेरे ही दिल से मत चुराओ तुम मुझे कुछ गिला तुम से नहीं तुम जाओ पर ख़ुश ही रहो याद बीते ख्वाब की पर मत दिलाओ तुम मुझे ग़म नहीं कि प्यार मांगा पर नहीं तुम ने दिया कम से कम नज़र से अपनी मत गिराओ तुम मुझे प्यार के सरूर से ख़लिश रहे हैं बेखबर जाम ज़िन्दा मौत का मत पिलाओ तुम मुझे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 9 जून 2006 317. आज मेरी ज़िन्दगी में एक नयी बहार है आज मेरी ज़िन्दगी में एक नयी बहार है आ रही कहीं से कोई प्यार की पुकार है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा इस तरह बदल गया गम भी मेरे दिल को आज दे रहा करार है ख्वाब भी अज़ीब कुछ दिख रहे हैं इस कदर जैसे डालता गले में कोई मेरे हार है इश्क का तराना आज उठ रहा है खुद-ब-खुद धीरे धीरे बज रहा कोई दिल का तार है एक तर्फ़ का खलिश है अभी तो मामला किस तरह प्रकट करें कि हम को उन से प्यार है. महेश चंद्र गुप्त खलिश 9 जून 2006 318. जानते हैं सब कि मेरी कोई भी गलती नहीं जानते हैं सब कि मेरी कोई भी गलती नहीं पर इज़ाज़त छूटने की कैद से मिलती नहीं कुछ हैं मेरे भी असूल और कुछ ज़माने के रिवाज़ फ़ासला करने की कम सूरत कोई झलती नहीं सह नहीं सकता कतल ज़महूरियत का जीते जी शम्म कुरबानी की दिल में बेवजह जलती नहीं सच है शायर की कलम में है असर शमशीर का क्या करूं बहरे दिलों पर तेग ये चलती नहीं हश्र क्या होगा खलिश ऐसे वतन-ओ-कौम का जिन को अपनी दफ़्न-ए-आज़ादी भी अब खलती नहीं महेश चंद्र गुप्त खलिश 12 जून 2006 ३१९. अब मेरी आंखों में कोई ख़्वाब मंडराते नहीं—RAMAS, ईकविता ११ अगस्त २००६ अब मेरी आंखों में कोई ख़्वाब मंडराते नहीं खै़रख्वाह अपने मुझे कोई नज़र आते नहीं ख़्वाहिशें मेरे भी दिल में थीं कभी बेइन्तहा दिल में भूले से भी अब अरमान मुस्काते नहीं जानते थे हमसे मिलने के बहाने जो हज़ार अब गुज़र के भी हमारे पास से जाते नहीं वायदों का दम भरा करते थे जो हर सांस में प्यार की कसमें कभी भूले से अब खाते नहीं किसलिये नादान बनते हो मोहब्बत में ख़लिश वो बतायेंगे नहीं लिख कर कि तुम भाते नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश १३ जून २००६ ************* 320. चली कहां गजगामिनी चली कहां गजगामिनी देख मुझे जो मुस्काई हो क्षण भर ठहरो कामिनी तुम चलते सब ओर निहारो घन मेघों में दामिनी खंड कर दिया पन्डित मन को तुम हो अन्तर्यामिनी अपने में ही खोई खोई लज्जास्मित-गौरांगिनी धरादर्शिनी नतग्रीवा हे निज स्वरूप-अभिमानिनी क्यों कुछ भी न कहती हो तुम हे भावी-गृहस्वामिनी शांत करो इस मन की ज्वाला तुम्हीं कामज्वर-हारिणी लघु वस्त्रों से नयनास्त्रों से सज्जित मनोविलासिनी तिरछे वाण चलाओ फिर फिर चपल मारुति-वाहिनी. * श्री नित्य गोपाल कटारे जी की नीचे दी गयी मूल संस्कृत कविता का हिन्दी रूपान्तरण महेश चंद्र गुप्त खलिश 13 जून 2006 ************ गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ । हँससि किमर्थं त्वं माम् दृष्ट्वा , तिष्ठ क्षणं हे कामिनि। मार्गे चलसि सर्वतः पश्यसि , हे घनविद्युद्दामिनि। खण्ड-खण्डितं पण्डित हृदयं मम मन-अन्तर्यामिनि।। स्वात्मानं पश्यन्त्यादर्शे , लज्जास्मित-गौरांगिनि। अधोमुखी विलोकयसि धरणीं ,निज स्वरूप-अभिमानिनि।। कथयसि कथं न किं कामयसे, हे भावी-गृहस्वामिनि। शीघ्रं कुरु हर मम परितापं , कामज्वर-अपहारिणि।। हे लघु वस्त्रे हे नयनास्त्रे , हे मम मनोविलासिनि। मा कुरु वक्र-दृष्टि-प्रक्षेपं भो भो मारुति-वाहिनि।। ******************** 321. इतनी जो है मनोहर सुन्दर तुम्हारी काया इतनी जो है मनोहर सुन्दर तुम्हारी काया तारीफ़ तो है उस की जिस ने तुम्हें बनाया सौन्दर्य तुम से पा कर संसार खिल उठा है सब ओर छा रही है केवल तुम्हारी माया संताप हारिणी है क्षण भर झलक तुम्हारी कितने ही दिलजलों को नित दे रही है साया जो तीर खा तुम्हारा पानी तलक न मांगे वो सोचता है तीनों लोकों को उस ने पाया हो लक्ष्मी तुम्हीं तुम दुर्गा सरस्वती हो संज्ञान ये खलिश को बरसों के बाद आया महेश चंद्र गुप्त खलिश 14 जून 2006 322. मेरे महबूब के होठों से मानो फूल झरते हैं मेरे महबूब के होठों से मानो फूल झरते हैं मगर बचना जरा तिरछे से उन के तीर चलते हैं हमारी ज़िन्दगी में रोज़ यूं तूफ़ान आते हैं निगाह से जीते हैं उन की, निगाह फेरें तो मरते हैं हमारा दिन उन्हीं के ख्याल में अकसर गुज़रता है हमारी रात के साये में उन के ख्वाब ढलते हैं इबादत में असर है मौलवी ने हम को समझाया इसी से हम इबादत हुस्न की दिन रात करते हैं किया महफ़िल में सज़दा उम्र भर उन की वो न पिघले दरख्त-ए-ज़िन्दगी से लो खलिश हम आज झरते हैं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 14 जून 2006 323. वो आई थी आंधी सी तूफ़ां सी चली गयी वो आई थी आंधी सी तूफ़ां सी चली गयी उडती सी ज्यों हवा में वो दिल की कली गयी बैठी न इक पल पास पर एहसास यूं हुआ मेरी कमाई ज़िन्दगी भर की छली गयी पूरी नहीं होती है अकसर इश्क में मुराद इक आस दिल के साथ ही दिल में जली, गयी पूछे न आशिकों से कोई क्या है दिल का दर्द तकलीफ़ कैसे इश्क की दिल से झली गयी माना खलिश कि रूख पे उस के था बला का हुस्न थी वो बला-ए-हुस्न-ओ-इश्क, अब टली, गयी. महेश चंद्र गुप्त खलिश 14 जून 2006 ******************* 324. एक था तनिक सा बीज और पेड बन गया एक था तनिक सा बीज और पेड़ बन गया एक आंख का इशारा ख्वाब कितने बुन गया न तो मुलाकात हुई न तो होंठ ही हिले आलम-ए-खामोशी में ही कैसे दिल ये छिन गया मय की पहली घूंट तो चखी थी खेल खेल में सिलसिला-ए-जाम से जिगर ही मेरा घुन गया कह गये थे चार रोज़ में ही लौट आएंगे एक एक दिन की गिनतियां हज़ार गिन गया वादों पे हसीनों के एतबार क्यों किया ख्वाब के महल खलिश एक पल में चिन गया. महेश चंद्र गुप्त खलिश 15 जून 2006 325. दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन हम आप की बांहों में हो के बेखबर जिये रातों को खत्म होने से आगाह किया किये सोचा न था कि जीयेंगे इक रोज़ आप बिन दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन यूं तो न ज़िन्दगी कभी आसां रही मगर पा कर के साथ आपका हम हो गये निडर कटते नहीं हैं अब ये तनहाई के काल छिन दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन अपनों का साथ छोड कर हम आप से मिले शिकवे भुला के सारे लगे आप के गले हर रात है बितायी हम ने बस सितारे गिन दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन न आप ही रहे न आप की वो मोहब्बत दिल में बची हैं आप की ही याद अब फ़कत हैं खाक ख्वाबों के महल जो हम रहे थे चिन दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन महेश चंद्र गुप्त खलिश 15 जून 2006 ****************** 326. बीते बरस बहुत लेकिन मैं तुम को भूल नहीं पाया हूं बीते बरस बहुत लेकिन मैं तुम को भूल नहीं पाया हूं क्यों पैठी है व्यथा हृदय में इस का मूल नहीं पाया हूं रहा डूबता उतराता दुख सुख की इस जीवन सरिता में काश पार इस को कर पाता, अब तक कूल नहीं पाया हूं सुमन प्रेम और श्रद्धा के मन मेरा करता रहा समर्पित अपनी झोली में अब तक मैं कोई फूल नहीं पाया हूं तुम से जो कुछ भी मिल जाता स्वर्णिम याद मेरी बन जाता मैं तो भूले से भी तुम से कोई शूल नहीं पाया हूं साथ तुम्हारा मिल जाता यह खलिश भाग्य में नहीं लिखा था प्रेम पंथ में चला मगर चरणों की धूल नहीं पाया हूं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 16 जून 2006 327. साठ पार कर चुके तो आज हुआ हाल है साठ पार कर चुके तो आज हुआ हाल है झुर्रियां बदन पे और डगमगाई चाल है गौर अंग धारिणी के बाबा हम बने हैं आज चूंकि सिर का गौर वर्ण एक एक बाल है पास हम बुलायें तो कहती हैं बूढे शर्म कर अब तुम्हारे सिर पे तो रहा विराज काल है आज भी रगों में है जवान खून बह रहा क्या हुआ लटक रही ये आज मेरी खाल है बाकरम-ए-पान होंठ तो खलिश के लाल हैं गम नहीं पिचक रहा जो आज मेरा गाल है महेश चंद्र गुप्त खलिश 17 जून 2006 ************* 328. कौन है कि जो मेरे नसीब को निखार दे कौन है कि जो मेरे नसीब को निखार दे सूखते चमन को आज फिर नई बहार दे जीने का अजब है ढंग न दशा है न दिशा कोई मेरे रात दिन आज फिर संवार दे धूप में चलता हुआ ऊब सा गया हूं मैं काश ताज़गी भरी कोई तो फुहार दे डस रही है सांप सी आज तनहाई मुझे मौन कंठ में कोई आज फिर मल्हार दे बात है ज़रा सी कि अधूरी है ये ज़िन्दगी कोई तो खलिश मुझे आज नया प्यार दे महेश चंद्र गुप्त खलिश 17 जून 2006 329. गम सब के मन में रहते हैं गम सब के मन में रहते हैं कोई रोते हैं कोई सहते हैं कोई तिल का ताड़ बनाते हैं मर जाएंगे यूं कहते हैं कोई ऊपर से मुसकाते हैं गो भीतर आंसू बहते हैं चिन्ता से पीर नहीं घटती विदु जन मन में यह गहते हैं वे खलिश मौन से दिखते हैं जो दिल ही दिल में दहते हैं महेश चंद्र गुप्त खलिश 18 जून 2006 330. आयेंगे आज बज़्म में वो मुद्दतों के बाद आयेंगे आज बज़्म में वो मुद्दतों के बाद निकले हैं आज अश्क कितनी हसरतों के बाद रूक जा सहर है रात अब मेरी शुरू हुई आए वो ख्वाब में हज़ारों करवटों के बाद न जाने किसलिये खफ़ा वो अब तलक रहे चेहरे पे नूर आया उन के सलवटों के बाद चूमेंगे पैर उन के डालेंगे गले में हार क्या लाये हो पूछेंगे फिर हम खिदमतों के बाद हम भूल जायेंगे खलिश तनहाई के वो दिन वो पास आयेंगे हमारे खल्वतों के बाद • खल्वत = एकान्त, अकेलापन महेश चंद्र गुप्त खलिश 18 जून 2006 ********************** ३३१. अब मुझे कोई भी शै संसार में भाती नहीं –ई-कविता, १३ अगस्त २००८--RAMAS अब मुझे कोई भी शै संसार में भाती नहीं कूच करने के सिवा सूरत नज़र आती नहीं सर्द तनहाई अन्धेरी इस तरह दिल में बसी लाख समझाया इसे घर छोड़कर जाती नहीं आलमे-मनहूसियत कुछ इस तरह बरपा हुआ कोई भूले से हंसी होंठों पे मुसकाती नहीं है बहुत ज़ालिम ये दुनिया, कीजिये क्या एतबार छोड़ दे दामन अग़र तो फिर ये अपनाती नहीं बात कुछ तो है ख़लिश क्यों थम गई तेरी ज़ुबां ज़िन्दगी की रंगतों का गीत क्यूं गाती नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश १८ जून २००६ 332. भूल जा वो प्यार निभाने की खातिर आएंगे भूल जा वो प्यार निभाने की खातिर आएंगे आएंगे तो बन के वो लमहों के शातिर आएंगे यूं वो मेरे पास हैं पर दूरियां हैं इस कदर क्यों नज़र से उन के अब पैगाम कातिल आएंगे आज इलज़ाम-ए-तगाफ़ुल का वो देंगे फ़ैसला देखिये कितने नज़र सरकार आदिल आएंगे तुझ को चलना है अकेला गर नहीं है हमसफ़र यूं तो राहों में नज़र लाखों मुसाफ़िर आएंगे दुश्मनों से सोचता हूं दोस्ती कर लूं खलिश शौक से मेरे जनाज़े पे तो आखिर आयेंगे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 18 जून 2006 333. जीवन की सच्चाई से क्या लड़ना और झगड़ना क्या जीवन की सच्चाई से क्या लड़ना और झगड़ना क्या कूच सभी को करना है फिर अंत समय से डरना क्या आंख बन्द कर लेने से विपदा का अंत नहीं होता लिखा हुआ जो हाथों में है उस से भला मुकरना क्या तन पर एक कफ़न होगा जब जायेगा तू दुनिया से दो दिन का जीना है इस में सजना और संवरना क्या ईश्वर तो मन के भीतर है खोज रहा है क्यों जग में दर दर की ठोकर खाना और तीरथ-धाम विचरना क्या चढ उत्तुंग हिमालय पर जब पहुंचे गंगा उद्गम तक पीने को पोखर का पानी नीचे खलिश उतरना क्या. महेश चंद्र गुप्त खलिश 18 जून 2006 ************** 334. मुझ को अकसर लगता है जैसे हम पहले कहीं मिले थे मुझ को अकसर लगता है जैसे हम पहले कहीं मिले थे किसी लोक में किसी जनम में कुछ पल साथ बिताये होंगे काल सरित के सतत वेग में वे पल कहीं समाये होंगे तब भी शायद हम दोनों में ऐसे शिकवे और गिले थे मुझ को अकसर लगता है जैसे हम पहले कहीं मिले थे बीते जनम बहुत युग बीते उन की याद न बीती अब तक बिना जिये वो पल दोबारा रही ज़िन्दगी रीती अब तक गंध अभी तक बता रही है एक बार दो फूल खिले थे मुझ को अकसर लगता है जैसे हम पहले कहीं मिले थे आओ वह इतिहास पुराना एक बार हम फिर दोहराएं बनें हमसफ़र जीवन पथ में सपनों के अम्बार सजायें भूल जायें कांटों से पग इस प्रेमपन्थ में कभी छिले थे मुझ को अकसर लगता है जैसे हम पहले कहीं मिले थे. महेश चंद्र गुप्त खलिश 19 जून 2006 ************************* ३३५. हम उन की निगाहों के सदके वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये –RAMAS—ईकविता १५ अगस्त २००८ हम उनकी निगाहों के सदके वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये कुछ तीर लगे ऐसे दिल पर हंस- हंस के उनको सह भी गये कुछ ख्वा़हिश थी कुछ हसरत थी कुछ ख्वा़ब भी देखे थे हम ने जो महल बनाये सपनों में चिनने से पहले ढह भी गये अरमान हसीं इन आंखों में हम ने भी संजोये थे इक दिन अश्कों की राह मिली उनको कुछ बाकी हैं कुछ बह भी गये जोड़े थे चंद खिलौने दिल बहलाने की तज़वीज़ लिये एक आंधी ऐसी उठी मग़र कुछ टूट गये कुछ रह भी गये कुछ सूखे फूल किताबों में कुछ फटे- पुराने धुन्धले ख़त कब तक रखोगे ख़लिश इन्हें अब तो दुनिया से वह भी गये. महेश चंद्र गुप्त ख़लिश २१ जून २००६ ०००००००००० Saturday, August 16, 2008 7:12 AM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com बहुत ख़ूब! मक़्ते से जाँ निसार अख़्तर की याद ताज़ा हो गई:- ये अलम का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें, इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं। सादर, अमर ००००००००००० Saturday, August 16, 2008 3:14 AM From: "bhupal sood" ayan_bhupal@yahoo.co.in wah. bahut marmasparshi panktiyan hain---- कुछ सूखे फूल किताबों में कुछ फटे- पुराने धुन्धले ख़त कब तक रखोगे ख़लिश इन्हें अब तो दुनिया से वह भी गये. bahut achhi lagin bhupal ०००००००००००० From: Mansi <khallopapa@yahoo.com> Date: Saturday, August 16, 2008, 10:41 AM maktaa badaa sundar hai khalish jee...Roman mein llikh rahee hoon, kyonki group emails mein unicode par likhne se pata nahin kyon thik se publish nahin hota. Manoshi ================== 336. मुझे साई बाबा के दर्शन करा दो-- मुझे साई बाबा के दर्शन करा दो कोई साई बाबा से मुझ को मिला दो मन्दिर में तीरथ में ढूंढा है तुम को नज़र में अभी तक न पाया है तुम को आवाज़ बाबा की मुझ को सुना दो मुझे साई बाबा के दर्शन करा दो जीवन खतम ये हुआ चाहता है बन्दा सिरफ़ ये दुआ चाहता है आशीष बाबा की मुझ को दिला दो मुझे साई बाबा के दर्शन करा दो होगी तुम्हारी बड़ी मेहरबानी बन जायेगी मेरी बिगड़ी कहानी इच्छा सभी और दिल से मिटा दो मुझे साई बाबा के दर्शन करा दो महेश चंद्र गुप्त खलिश 21 जून 2006 ३३७. हौसला आप यूं ही बढ़ाते रहें और भी हम इशारे किये जायंगे हौसला आप यूं ही बढ़ाते रहें और भी हम इशारे किये जायंगे ये तो शुरुआत है प्यार की राह में जाम हम और पिलाये पिये जायेंगे आप हमराज़ हम को बना के चलें आप के बिन सफ़र न ये कट पायेगा राज़ को राज़ ही हम रखेंगे सदा अपने होठों को जबरन सिये जायेंगे है बहुत बेमुरौवत ज़माना मगर आप हैं साथ तो गम नहीं है हमें ज़िन्दगी के ज़हर में शहद प्यार का घोल दें आप तो हम जिये जायेंगे डर ज़माने का हम को नहीं है मगर आप हम से खफ़ा हो न जाना कहीं आप देते रहें प्यार अपना हमें वायदा हम वफ़ा का दिये जायेंगे ये सफ़र है कठिन छांह है फूल हैं किन्तु सहरा की है धूप भी खार भी आप न प्यार से हाथ थामें तो इन रास्तों पर खलिश किसलिये जायंगे महेश चंद्र गुप्त खलिश 22 जून 2006 ३३८. इश्क से इश्क सबको है होता मगर इश्क किस्मत में सबकी है होता नहीं इश्क से इश्क सबको है होता मगर इश्क किस्मत में सबकी है होता नहीं इश्क करना सभी चाहते हैं कोई इश्क करने के मौके को खोता नहीं कोई है वजह इश्क जीता सदा सब के दिल पे ये काबिज़ सदा ही रहा ऐसा कोई जहां में नहीं है बशर इश्क का अपने रोना जो रोता नहीं सारी दुनिया परेशान है इश्क से बज़्म आशिक की हो चाहे शायर की हो कोई डूबा या तैरा अलग बात है इश्क में किस ने खाया है गोता नहीं एक वो भी मगर रूप है इश्क का रंग में जिस के इक बार जो रंग गया ऐसा डूबा वो गहराई में इश्क की रूह जगती है उस की वो सोता नहीं इश्क रूहानी करना जिसे आ गया वो निज़ात इश्क-ए-उल्फ़त से ही पा गया सूफ़िआना खलिश इश्क करता है जो बोझ दुनिया का वो दिल में ढोता नहीं. महेश चंद्र गुप्त खलिश 22 जून 2006 ******************** ३३९. थाम दामन उन्हें हम बिठाते रहे—RAMAS—ई-के, १६ अगस्त २००८ थाम दामन उन्हें हम बिठाते रहे ज़ुल्फ़ झटकाए वो दूर जाते रहे जब तबीयत ज़रा तल्ख़ उनकी हुयी हैं गुनाहगार हम ये बताते रहे बारहा तोड़ना प्यार के वायदे ये रसम वो हमेशा निभाते रहे एक हम थे कि उन पे भरोसा किये ख़्वाब-दर- ख्वाब मन में सजाते रहे न मुलाकात उनसे ख़लिश हो सकी ग़ो तसव्वुर में हर रात आते रहे. महेश चंद्र गुप्त खलिश २२ जून २००६ ३४०. मैं कौन हूं खुद को को ही मैं पहचानता नहीं मैं कौन हूं खुद को को ही मैं पहचानता नहीं मैं क्या हूं असलियत में ये मैं जानता नहीं हिन्दू या मुसलमां नहीं बस एक हूं इन्सान मज़हब कोई इंसानियत का मानता नहीं ओहदा मिला न दाद ही अश-आर को मिली लगता है जैसे अब मैं किसी काम का नहीं मेरे पते पर खत कोई लिखे या आ मिले महलों में न सही मगर मैं ला-पता नहीं अब कुछ नहीं वज़ूद है तेरा बचा खलिश कहते हो क्यों "नहीं, मैं सिर्फ़ दास्तां नहीं" महेश चंद्र गुप्त खलिश 23 जून 2006 |