Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
४४१. मुस्कराये वो दिल का चमन खिल गया मुस्कराये वो दिल का चमन खिल गया दाद उन की मिली तो जहां मिल गया इश्क शय है महज़ बेतुकी फ़ालतू उन को देखा तो ये ख्याल ही हिल गया लाख सूरत को उन की भुलाया मगर दिल से अदना सा न एक वो तिल गया प्यार मझधार में इस कदर ले गया अब हमेशा को लगता है साहिल गया खलिश इश्क का दर्द भी है हसीं गम नहीं प्यार में गर ये दिल छिल गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००६ ४४२. सर्द रात में जो अश्क बहाये वो तेरे प्यार की निशानी बन गये सर्द रात में जो अश्क बहाये वो तेरे प्यार की निशानी बन गये ख्याल तनहाई में जब तेरे आये, वो मेरी आंख की रवानी बन गये दास्तान-ए-इश्क-ए-बरबाद क्या कहें, बीत गयी उम्र न उन को मना सके प्यार में हमें कुछ न मिल सका, जिस का न सिला वो कहानी बन गये इन्तज़ार हम यूं किया किये, ज़िन्दगानी अब खत्म हो चली लमहे कुछ हसीं जो याद आ गये, वो मेरे प्यार की जवानी बन गये फ़ालतू ही एक ज़िन्दगी जिये, कुछ गज़ल लिखीं और क्या किया न खुदा मिला न दौलतें मिलीं, एक इमारत पुरानी बन गये अब खलिश हमें कुछ नहीं गिला वक्त आखिरी तुम न आ सके जिस्म का वज़ूदकुछ नहीं रहा, याद एक बस सुहानी बन गये. तर्ज़— लिखे जो ख़त तुझे/वो तेरी याद में /हज़ारों रंग के/ नज़ारे बन गए सवेरा जब हुआ/ तो फूल बन गए /जो रात आई तो/ सितारे बन गए --कन्यादान, १९६८, रफ़ी, गीतकार--नीरज सर्द रात में /जो अश्क बहाये /वो तेरे प्यार की /निशानी बन गये ख्याल तनहाई /में जब तेरे आये /वो मेरी आंख की /रवानी बन गये महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००६ 00000000000000000000000000000000000 ४४३. जब घड़ी विपदा की आई याद वो आते गये जब घड़ी विपदा की आई याद वो आते गये नाम के प्रताप से सारे ही गम जाते गये होंठ पर बंसी बिराजे मोर पंख केश में हाथ ले लकुटि कमरिया धेनु चराते गये तीर यमुना के रचाया गोपियों के संग रास हर लिया राधा का दिल यूं तान सुनाते गये दूध कान्हा को पिलाने के बहाने पूतना आई विष देने तो उस को स्वर्ग पहुंचाते गये पार्थ को गीता सुना संसार को सारे खलिश मार्मिक जीवन मरण का भेद समझाते गये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००६ ४४४. हम भुलाते ही गये वो याद आते ही गये—RAMAS—ईकविता, २ सितंबर २००८ हम भुलाते ही गये वो याद आते ही गये शाम को वो और भी पुरग़म बनाते ही गये गो कि दीवारों से टकरा के पलट आयी सदा रात की तनहाइयों में हम बुलाते ही गये न थे वो और न थी उनके लौट आने की उम्मीद दास्तान-ए-ग़म उन्हें फिर भी सुनाते ही गये जानते थे जानेवाले लौटकर आते नहीं एक झूठी आस हम दिल को दिलाते ही गये कैसे दुनिया को बताते हम जुदाई का सबब आ रहे हैं ख़त ख़लिश सबको बताते ही गये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००६ ०००००००००० Tuesday, 2 September, 2008 10:22 AM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com Add sender to Contacts To: ekavita@yahoogroups.com 'गो कि दीवारों से टकरा के…' बहुत ख़ूब ख़लिश जी । विश्व के निष्करुण प्रहारों को और कब तक नकारता जाऊं? कौन आवाज़ सुन के आयेगा; और कब तक पुकारता जाऊं? सादर, अमर ००००००००००००० Tuesday, 2 September, 2008 10:53 AM From: "sunita shanoo" shanoo03@yahoo.com जानते थे जाने वाले लौट कर आते नही एक झूठी आस हम दिल को दिलाते ही गये बहुत शूबसूरत शेर है यह।महेश भाई बधाई स्वीकार करें.. सादरसुनीता ००००००००००००० ४४५. नहीं इश्क का चलन यहां है करते हैं व्यापार सभी नहीं इश्क का चलन यहां है करते हैं व्यापार सभी उल्फ़त का सौदा सोने से करते हैं दिलदार सभी मैंने इस नन्हे से दिल में क्या क्या ख्वाब संजोये थे ठेस लगी दिल टूट गया और ख्वाब बन गये खार सभी वादा कर के मुश्किल है उस के अनुसार अमल करना प्यार निभाने का वादा तो करते हैं सौ बार सभी नहीं लकीरें बदला करतीं ताबीज़ों और मनकों से किस्मत को धोखा देने की कोशिश हैं बेकार सभी सब को खुद अपना सलीब कान्धे पर खलिश उठाना है गम को और बढ़ाने वाले होते हैं गमख्वार सभी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००६ ४४६. जायज़ रिश्तों को दुनिया में धन दौलत पर मरते देखा जायज़ रिश्तों को दुनिया में धन दौलत पर मरते देखा नाजायज़ रिश्तों को हम ने सजते और संवरते देखा जिन के बंगलों कारों वाले बेटे करते हैं रंगरलियां झुकी कमर उन माँ-बापों को हम ने फाका करते देखा गंगाजल हाथों में ले कर सुबह शाम करते थे पूजा उन को मयखाने की गलियों में है आज गुज़रते देखा पांच साल तक घिरे रहे जो अंगरक्षकों की सेना से हम ने उन को मेहतरों की बस्ती में पग धरते देखा नया ज़माना नयी रीति है हम तो हो गये खलिश पुराने हम ने प्रोफ़ेसर, अध्यापक को शिष्यों से डरते देखा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४४७. रोते रोते आये भी तो इस दुनिया में आना क्या रोते रोते आये भी तो इस दुनिया में आना क्या अगर न रोया कोई तो फिर इस दुनिया से जाना क्या बीती वय बीते सावन अब बदल गया बालों का रंग चुप ही पर अब साथ बैठ लें सुनना और सुनाना क्या अरबों की हो गयी कम्पनी कर में दिये करोड़ नहीं अंकों की हेराफेरी अब करना और कराना क्या हिन्दू मुस्लिम क्रिस्तानों का पिता एक ही है सब का उस के या मज़हब के नाम पे दंगे और कराना क्या दिल में दर्द बसा न पाये दर्द-ए-दिल तो कहा खलिश कितनी गज़ल लिखोगे अब ये लिखना और लिखाना क्या. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४४८. किस तरह शुक्रिया मैं करूँ यार का ज़िन्दगानी में मेरी बहार आ गई किस तरह शुक्रिया मैं करूँ यार का ज़िन्दगानी में मेरी बहार आ गई था जो सहरा का आलम अयां अब तलक आज दुनिया में मेरी फ़िज़ां छा गई तख्त-ए-ताऊस पर बैठते थे कभी आज रोटी भी है लग रही चान्द सी मुफ़लिसी पर किसी की न करना हंसी मार किस्मत की हम को ये समझा गई क्या रखा है करारों में वादों में सब टूट जाते हैं दिल में न अहसास हो प्यार तो हम से करते हैं कहते नहीं उन की नाज़ुक अदा हम को बतला गई हैं सुहाने बहुत कल्पना के महल स्वप्न के भोज से भूख मिटती नहीं एक आंधी हकीकत की ऐसी चली मेरे ख्वाबों की दुनिया को झुठला गई छोड़ कर कुछ लकीरें हथेली की बस कुछ नहीं हाथ में आदमी के खलिश फूल बोया था हम ने चमन में मगर उस को खिलने से पहले खिज़ां खा गई. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४४९. दो भटकती आत्माएं फिर मिलेंगी एक दिन दो भटकती आत्माएं फिर मिलेंगी एक दिन स्वप्न के उद्यान में कलियां खिलेंगी एक दिन आज बम बरसा रही हैं जो निहथ्थी कौम पर सल्तनत वो राह-ए- अमन को चुनेंगी एक दिन जो हुकूमतें ज़म्हूरियत के आज हैं खिलाफ़ राह पर इंसाफ़ की वे भी चलेंगी एक दिन भूल कर ज़िहाद को कल आने वाली पीढ़ियां प्रेम का व्यवहार आपस में करेंगी एक दिन ताकतें जो मज़हबी अब बो रही हैं विष के बीज वो खलिश इंसानियत का दम भरेंगी एक दिन. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५०. रातों रातों रो रो कर उल्फ़त की रसम निभायी है—RAMAS—ईकविता ४ सितंबर २००८ रातों-रातों रो-रो कर उल्फ़त की रसम निभायी है मिलें न वो चाहे आंखों में उनकी सूरत छायी है जीने को तो जीते हैं पर मरने का दम भरते हैं उन्हें ख़बर क्या उन बिन कैसे सारी रात बितायी है उनके दिल में झांको तो सांपों का डेरा पाओगे जो ख़ुशियों को देख हमारी कहते बहुत बधाई है माना हम मुफ़लिस हैं कुछ देने के काबिल नहीं उन्हें अश्कों की ज़ागीर मगर उन पर बेतरह लुटायी है आएं या न आएं वो पर हमने ख़लिश तसव्वुर में रंगीं ख्वाबों में उनके संग दुनिया नयी बसायी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ सितम्बर २००६ ०००००००००००००० Thursday, 4 September, 2008 11:54 AM From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com उनके दिल में झांको तो सांपों का डेरा पाओगे जो ख़ुशियों को देख हमारी कहते बहुत बधाई है महेशजी, दाद कबूलें सादर राकेश ००००००००००००० Friday, 5 September, 2008 2:43 AM From: "santosh kumar" ksantosh_45@yahoo.co.in Add sender to Contacts To: ekavita@yahoogroups.com खलिश जी आपने मेरे कष्ट को पढ़ कर मेरा होंसला बढ़ाया इसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ। धन्यवाद । आपकी गजल बहुत-बहुत पसंद आई। जिसमें निम्न पँतियाँ विशेष तौर से सराहना के योग्य हैं - उनके दिल में झांको तो,सांपों का डेरा पाओगे, जो खुशियों को देख हमारी,कहते बहुत बधाई है। सन्तोष कुमार सिंह ४५१. तुम ने जब भी हमें बुलाया हम तो हाज़िर हुआ किये तुम ने जब भी हमें बुलाया हम तो हाज़िर हुआ किये तुम ही कसम निभाने का वादा न पूरा किया किये इकतरफ़ा यूं रसम मोहब्बत की तो होती नहीं कभी तुम आओगे हम इन झूठी उम्मीदों पर जिया किये नाम-ए-उल्फ़त दुनिया में बदनाम कहीं न हो जाये जब जब पूछा किस ने लूटा नाम गैर का लिया किये जब वो थे तो उन के संग हम मय-ए-उल्फ़त पीते थे उन के गम में अश्कों के हम जाम रात दिन पिया किये वक्त-ए-जुदाई खलिश खबर थी पलट न आएंगे अब वो हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा कह कर दुआ उन्हें हम दिया किये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५२. ख्वाब में बात उन से हुई इस तरह ख्वाब में बात उन से हुई इस तरह पेश हों मेरे पहलू में वो जिस तरह देर रातों जो हम ने कहा और सुना मैं बयां वो करूं गुफ़्तगू किस तरह जिस तरह मेरी बांहों में ढीले पड़े मैंने आगोश में कस लिया तिस तरह चन्द लमहों में वो शबनमी हो गये पहले भड़के मगर तेज आतिश तरह इन्तहा हो गई उन के जज़्बात की नैन बरसे खलिश उन के बारिश तरह. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५३. कन्या ने जब शोहदों के संग किये रंगीले हाथ कन्या ने जब शोहदों के संग किये रंगीले हाथ मात पिता ने पिन्ड छुड़ाया कर के पीले हाथ पीने को सब पीते हैं पर पियो सलीके से जाम फ़िसल के गिर जायेगा गर हों सीले हाथ बैठ किनारे नहीं तैरना सम्भव हुआ कभी छत दीवारें बनते हैं जब होते गीले हाथ शिल्पकार जो बनना चाहे लाज़िम है उस को पत्थर छैनी में रम कर वह वर्षों छीले हाथ इस दुनिया की वैतरणी को करना है गर पार पकड़ नाम की माला कर में मत कर ढीले हाथ यीशु आज भी हो सकता है अगर खलिश कोई चढ़ सलीब औरों की खातिर झेले कीले हाथ. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५४. अगर मुझे जीना है तो क्यों घुट घुट कर जीऊं अगर मुझे जीना है तो क्यों घुट घुट कर जीऊं मरणासन्न अगर होऊं क्यों उठ उठ कर जीऊं शौक नहीं जीने का बाकी अब इस दुनिया में किन्तु अगर जीना हो तो क्यों लुट लुट कर जीऊं आज़ादी को बेच भला जीना भी क्या जीना सब से भला प्रताड़ित हो क्यों कुट कुट कर जीऊं कदम मिला कर सब के संग सीखा मैंने चलना सब से अलग निराला अपना क्यों गुट कर जीऊं मेरा जो है दोष सज़ा क्यों न उस की पाऊं दयापात्र बन कर कारा से क्यों छुट कर जीऊं पाप कमाए बहुत खलिश मोहवश मैंने अब तक क्यों न जतन से पुण्य लाभ में अब जुट कर जीऊं. ०००००० DUM// da DUM//da DUM// da DUM// अग//र मुझे जीना// है तो क्यों घुट// घुट कर जीऊं// म//रणासन्न// अग//र होऊं क्यों उठ//उठ कर जीऊं// शौ//क नहीं जीने// का बाकी अब //इस दुनिया में// कि//न्तु अगर जीना// हो तो क्यों लुट// लुट कर जीऊं// आ//ज़ादी को बे//च भला जीना// भी क्या जीना// स//ब से भला प्रता//ड़ित हो क्यों कु//ट कुट कर जीऊं// महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५५. भूलने वाले के दिल में कैसे अपनी याद दूं—३ सितम्बर की गज़ल, ५-९-०६ को ईके को प्रेषित भूलने वाले के दिल में कैसे अपनी याद दूं काश मैं उस के चमन-ए-दिल को कोई खाद दूं संग उन के राह-ए-उल्फ़त में भला कैसे चलूं किस तरह आशिक को अपना मैं दिल-ए-बरबाद दूं पाक है उन की मोहब्बत दिल भी है उन का जवां दाग-ए-दिल क्योंकर छिपाऊं क्यों दिल-ए-नाशाद दूं दिलजलों के दिल नहीं होते हैं काबिल प्यार के मैं मोहब्बत के गमों की क्यों उन्हें तादाद दूं पास मेरे कुछ नहीं करना मुआफ़ मेरे दोस्त जो मुझे बख्शी खलिश उस दाद की क्या दाद दूं. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter भू//लने वाले// के दिल में कै//से अपनी या//द दूं का//श मैं उस के// चमन-ए-दिल// को कोई खा//द दूं • तर्ज़— आ//पके हसी//न रूख पे आ//ज नया नू//र है मे//रा दिल मचल// गया तो मे//रा क्या कसू//र है aapake hasiin ruK pe aaj nayaa nuur hai meraa dil machal gayaa to meraa kyaa qusuur hai Bahaaren Phir Bhi Aayengi, Mohammad Rafi Lyricist: Anjaan महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५६. वो भी दिन थे जब कभी हम इश्क की राहों में थे-- वो भी दिन थे जब कभी हम इश्क की राहों में थे रात दिन रोते गुज़रते अश्क और आहों में थे किस तरह दिल से मिटा दूं प्यार के अहसास को भूल जाऊं कैसे इक दिन तुम मेरी बाहों में थे क्या खबर थी एक दिन दीवार होगी दरमियां हम भी इक दिन आप के कुछ खास दिलचाहों में थे कोई तो होती अंगूठी जो दिलाती याद वो दिन तुम्हें जब दिल हमारे प्यार की थाहों में थे हाय वो दिन क्यों न आएं जब तुम्हें पा कर खलिश हम समझ बैठे थे दुनिया के शहन्शाहों में थे. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter वो //भी दिन थे जब// कभी हम इश्क //की राहों //में थे रात// दिन रोते //गुज़रते अश्क //और आहों// में थे • तर्ज़— आ//पके हसी//न रूख पे आ//ज नया नू//र है मे//रा दिल मचल// गया तो मे//रा क्या कसू//र है aapake hasiin ruK pe aaj nayaa nuur hai meraa dil machal gayaa to meraa kyaa qusuur hai Bahaaren Phir Bhi Aayengi, Mohammad Rafi Lyricist: Anjaan महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४५७. एक दिन हम आप के कुछ खास मेहमानों में थे—४ सितम्बर की गज़ल, ५-९-०६ को ईके को प्रेषित एक दिन हम आप के कुछ खास मेहमानों में थे धड़कनों के साज़ पर गाये जो तरानों में थे आप को गर याद हो राह-ए-वफ़ा का वो सफ़र हम भी राज़-ए-इश्क के पोशीदा अफ़सानों में थे क्या मज़ाल गैर की थी जो बनाये दिल में घर आप के हम दर-ए-दिल के चन्द दरबानों में थे आज ये आलम है वो पहचानते हम को नहीं जो हमारे हुस्न के कायल कदरदानों में थे हम तुम्हारे प्यार में खुद को भुला बैठे खलिश आंख जब खोली तो पाया हम बियाबानों में थे. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter एक //दिन हम आप //के कुछ खास// मेहमानों// में थे धड़//कनों के साज़// पर गाये //जो तरानों// में थे • तर्ज़— आ//पके हसी//न रूख पे आ//ज नया नू//र है मे//रा दिल मचल// गया तो मे//रा क्या कसू//र है aapake hasiin ruK pe aaj nayaa nuur hai meraa dil machal gayaa to meraa kyaa qusuur hai Bahaaren Phir Bhi Aayengi, Mohammad Rafi Lyricist: Anjaan ४५८. भूल जाओ वो कसम जो प्यार में ली थी कभी -- ५ सितम्बर की गज़ल, ५-९-०६ को प्रेषित--RAMAS भूल जाओ वो कसम जो प्यार में ली थी कभी अब नशा बाकी नहीं उस मय का जो पी थी कभी उस खता की क्यों सज़ा अब उम्र भर हम को मिले जो भला नादान बचपन के दिनों की थी कभी याद मेरे दिल में उस की आज भी महफ़ूज़ है चन्द लमहों की फ़कत जो ज़िन्दगी जी थी कभी गो बहुत मशहूर हूं मैं संगदिल के नाम से प्यार की मेरे भी दिल में हूक उठी थी कभी वो ही मेरी मौत का बायस बना है अब ख़लिश जिस को मैंने ज़िन्दगी सौगात में दी थी कभी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ Behhre-Ramal [Isme ek mashhoor ghazal hai : Sarfaroshi kee tamannaa ab hamaare dil men hai Dekhnaa hai zor kitna baazu- e-qaatil men hai] ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in> Date: Sep 9, 2006 9:13 AM Khalishji, याद मेरे दिल में उस की आज भी महफ़ूज़ है चन्द लमहों की फ़कत जो ज़िन्दगी जी थी कभी Aap ki ghazal bahut khoobsurat hai.Daad qabool karen. Yeh ghazal Urdu ki Behhre-Ramal me hai jo bahut hi popular hai. Iske arkaan hain: faa i laa tun, faa i laa tun,faa i laa tun, faa i lun digital notation: 2122, 2122, 2122, 212. Isme ek mashhoor ghazal hai : Sarfaroshi kee tamannaa ab hamaare dil men hai Dekhnaa hai zor kitna baazu- e-qaatil men hai 2 1 2 2 , 2 1 2 2 , 2 1 2 2 , 2 1 2 भू ल जा ओ वो क सम जो प्या र में ली थी क भी अब न शा बा की न हीं उस मय का जो पी थी क भी Sar fa ro shi kee ta man naa ab ha maa re dil me hai De kh naa hai zo r kit na baa zu- e- qaa til men hai 2 1 2 2 , 2 1 2 2 , 2 1 2 2 , भू ल जा ओ वो क सम जो प्या र में ली 2 1 2 थी क भी Lagtaa hai Iambic tetrameter se zyaada Behre Ramal me aapki ghazal jam rahaa hai.hai. mona ४५९. संग मेरे आज भी यादें हैं बीते प्यार की संग मेरे आज भी यादें हैं बीते प्यार की भूल सकता हूं भला कैसे अदाएं यार की इश्क का सर शाहों के दरबार में न झुक सका आशिकों को फ़िक्र होती है नहीं संसार की है गवाह तारीख ज़िन्दा प्यार सहरा में रहा इश्क में परवाह नहीं है आग की दीवार की एक निगाह मासूम जिन की ढाये पल में कत्लेआम क्या ज़रूरत है उन्हें बन्दूक की तलवार की कौन जाने क्या उन्हें मन्ज़ूर है क्यों किस घड़ी है बहुत ज़ालिम खलिश उन की अदा इंकार की. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter संग //मेरे आज// भी यादें// हैं बीते प्यार //की भूल// सकता हूं //भला कैसे// अदाएं यार// की • तर्ज़— आ//पके हसी//न रूख पे आ//ज नया नू//र है मे//रा दिल मचल// गया तो मे//रा क्या कसू//र है aapake hasiin ruK pe aaj nayaa nuur hai meraa dil machal gayaa to meraa kyaa qusuur hai Bahaaren Phir Bhi Aayengi, Mohammad Rafi Lyricist: Anjaan महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४६०. आज मेरे वास्ते दुनिया बहुत वीरान है आज मेरे वास्ते दुनिया बहुत वीरान है मौत की चौखट पे मानो आज मेरी जान है क्या वफ़ा, क्या शय, भुला दो ये भी कोई लफ़्ज़ हैं सिर्फ़ दुनिया बन गई इक प्यार की दूकान है भूल जाओ शाम-ए-उल्फ़त, तर्क-ए-मोहब्बत करो हाथ कासिद के हमें उन का मिला फ़रमान है फ़र्क वफ़ा-ओ-जफ़ा में अब नज़र आता नहीं हो गया सस्ता बहुत इखलाक-ओ-ईमान है आज बदली है खलिश सूरत-ए-गज़ल इस कदर मैं पुराना पड़ गया हूं, सोचता दीवान है. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter आज //मेरे वा//स्ते दुनिया// बहुत वीरान// है मौत// की चौखट// पे मानो आज// मेरी जान// है • तर्ज़— आ//पके हसी//न रूख पे आ//ज नया नू//र है मे//रा दिल मचल// गया तो मे//रा क्या कसू//र है aapake hasiin ruK pe aaj nayaa nuur hai meraa dil machal gayaa to meraa kyaa qusuur hai Bahaaren Phir Bhi Aayengi, Mohammad Rafi Lyricist: Anjaan महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००६ ४६१. जी बहुत शुक्रिया आप हम को मिले ज़िंदगी में नया रंग छाने लगा जी बहुत शुक्रिया आप हम को मिले ज़िंदगी में नया रंग छाने लगा हम जिये आप के बिन तो नाहक जिये बारहा दिल में ये ख्याल आने लगा एक अजब नूर बरपा है चारों तरफ़ अब तलक थे जो गम वो कहीं खो गये हसरतें लाख दिल में मचलने लगीं ख्वाब फिर से कोई मुस्कराने लगा एक खुशबू नशीली फ़िज़ाओं में है नई बहारों से गुलशन जवां हो गया जब से हम को मिला है हसीं हमसफ़र खौफ़ तनहाई का दिल से जाने लगा कुछ नए सुर जुड़े लय नई इक मिली ताल पर धड़कनों की नई धुन उठी एक नया सा तराना खलिश साज़ पर ज़िन्दगी के कोई अब सुनाने लगा. • बहर—Equivalent to iambic octameter जी ब/हुत// शुक्रि/या // आप/ हम// को मि/ले// ज़िंद/गी// में न/या// रंग/ छा//ने ल/गा// • तर्ज़—ए वतन ए वतन हम को तेरी कसम तेरी राहों में हम………………… Aiye watan aiye watan hamko teri qasam Teri raahon main jaan tak loota jaayenge Phool kya cheez hai tere qadmon pe ham Bhent apne saron ki chadhha jaayenge महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ४६२. सनम तुम्हारे बिन हम ने दुनिया में जीना सीख लिया—RAMAS—ईकविता, ५ सितंबर २००८ सनम तुम्हारे बिन हमने दुनिया में जीना सीख लिया होठों पीना छूट गया और प्यालों पीना सीख लिया पूछे हमसे कोई अगर क्यों अश्क हमारे बहते हैं चुप रहते हैं महफ़िल में हमने लब सीना सीख लिया छेड़ा दिल के तारों को यूं, हाथ लगा और टूट गये दर्द भरे सुर में किस कारण रोती वीणा सीख लिया जान लिया कि आशिक की दुनिया में बस ग़म ही ग़म हैं दर्द मोहब्बत में मिलता है झीना-झीना सीख लिया तुमने नाहक ख़लिश हमें क्यों झूठे ख्वा़ब दिखाये थे हमने चैनेदिल कैसे जाता है छीना सीख लिया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ०००००००००००००००० Friday, 5 September, 2008 12:05 PM From: kusumsinha2000@yahoo.com Aderniy maheshji namaskar Ek aur sundar gazal ke liye bahut bahut badhai Kusum ०००००००००००००००००० ४६३. वफ़ा करने वाले वो आशिक कहां हैं वफ़ा करने वाले वो आशिक कहां हैं जफ़ाएं सभी के दिलों में निहां हैं पुलिस लीडरों की तवायफ़ बनी है शरीफ़ हैं सलाखों में गुन्डे रिहा हैं अदालत दबी है हुकूमत के आगे कहने को कानून पलते वहां हैं वकीलों के आगे न कोई टिका है सच और सफ़ेदी को करते सियाह हैं प्रजातन्त्र गणतन्त्र बस नाम के हैं शरीफ़ आज जीते डरे से यहां हैं खलिश खत्म कर दो चुन चुन के सारे दहशतफ़रोशों के अड्डे जहां हैं. • बहर—Equivalent to iambic tetrameter वफ़ा// करने वा//ले वो आ//शिक कहां// हैं • तर्ज़— जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं जिन्हें// नाज़ है// हिन्द पर// वो कहां// हैं jinhe naaz hai hind par vo kahaa.n hai.n --Pyaasa, Mohammad Rafi, Sahir Ludhianvi महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ४६४. एक दिन मेरी कलम खो जाएगी एक दिन मेरी कलम खो जाएगी ये रवानी-ए-गज़ल सो जाएगी कौन जाने ज़िन्दगी की शाम ये एक लमहे में खतम हो जाएगी मैं चला जाऊंगा लेकिन प्यार के बीज मेरी शायरी बो जाएगी क्या भरोसा शायरों की रूह का जाने फिर ये किस जहां को जाएगी वक्त-ए-रूख्सत हाल अपना देख कर चन्द आंसू तो खलिश रो जाएगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ४६५. कौन इस दुनिया के गम सह पाएगा कौन इस दुनिया के गम सह पाएगा अश्क पी कर कब तलक रह पाएगा शायराना दिल शराफ़त से भरा शातिरों की किस तरह तह पाएगा बेमुरौवत इस जहां में हैं सभी किस से राज़-ए-दिल कोई कह पाएगा शायरों के दिल में उतरेगा कोई फिर वो शायरी की वजह पाएगा सिर्फ़ दो आंखों से क्या कहिये खलिश गहरा समन्दर-ए-गम बह पाएगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ४६६. हैं प्यार की फ़ितरत में कुछ गम के फ़साने भी हैं प्यार की फ़ितरत में कुछ गम के फ़साने भी होते हैं निगाहों में ज़हरीले निशाने भी बच बच के चलें कितना राहों में मोहब्बत की रिसते हैं मगर दिल के कुछ ज़ख्म पुराने भी दो फूल खिलें तो फिर सहरा भी है गुलशन करते आबाद जवां दिल हैं वीराने भी गुज़री हैं रो रो के रातें लम्बी लम्बी काटे थे कभी हम ने उल्फ़त के ज़माने भी होता है खलिश मुश्किल अंज़ाम हकीकत का देखे थे कभी हम ने कुछ ख्वाब सुहाने भी. • बहर—Equivalent to iambic hexameter हैं प्यार की फ़ितरत में कुछ गम के फ़साने भी हैं प्या//र की फ़ि//तरत में// कुछ ग//म के फ़सा//ने भी// • तर्ज़— अरमान भरे दिल में ज़ख्मों को जगह दे दे अरमा//न भरे// दिल में// ज़ख्मों// को जगह// दे दे// Armaan bhare dil mein, zakhmo ko jagaah de de Bhadke huwe sholon ko, kuchh aur hawa de de -- Tower House, Lata, Asad Bhopali महेश चन्द्र गुप्त खलिश २ सितम्बर २००६ ४६७. मन में है दीपक जल रहा मन में है दीपक जल रहा एहसास प्यार का पल रहा तनहा हूँ फिर भी संग मेरे कोई धीमे धीमे चल रहा साया किसी की ज़ुल्फ़ का मन को है मेरे छ्ल रहा हर शय बदलती है यहां जो आज है न कल रहा था संगदिल मेरा सनम वो मोम बन के पिघल रहा झूठा खलिश ये ख्याल है कि वक्त मौत का टल रहा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४६८. ये दर्द-ओ-गम का सिलसिला ये दर्द-ओ-गम का सिलसिला कैसे खतम होगा भला अब थक गया हूँ ज़िन्दगी न तुझ से हो क्योंकर गिला हंसता हुआ मेरी मुफ़लिसी पर दोस्त भी मेरा मिला न होश आए फिर मुझे वो जाम ऐ साकी पिला वो क्यों जफ़ा हम से करें क्यों हो वफ़ा का ये सिला तोड़ा खलिश जो दिल मेरा ये फूल था इक अधखिला. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४६९. इन प्यार की राहों में ग़म ही तो सहारा है—RAMAS, ईकविता, ६ सितंबर २००८ इन प्यार की राहों में ग़म ही तो सहारा है जब ग़म ही नहीं होगा तो कौन हमारा है ये राज़ मोहब्बत का बिरला ही कोई जाने कि नाव जहां डूबे बस वही किनारा है हर अदा का मतलब है आशिक है मग़र नादां जो गुज़र गया लमहा आता न दोबारा है ग़म उनकी धरोहर है इस दिल में संजोयी है उनसे भी अधिक हम को ग़म उनका दुलारा है कुछ ख़लिश हसीं मंज़र माज़ी से चुराये हैं पलकों के झरोखों में यादों को संवारा है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ 000000000000 Saturday, 6 September, 2008 6:00 PM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com 'ये राज़ मोहब्बत का…' बहुत ख़ूब! 'मक़तब-ए-इश्क़ का मोमिन है निराला दस्तूर, उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ' सादर, अमर ४७०. मेरे ज़हन में बारहा एक उठ रहा सवाल है मेरे ज़हन में बारहा एक उठ रहा सवाल है क्या तेरे दिल में भी सनम मेरा कोई खयाल है गहरा बहुत है आपसी दिल का नज़र का वास्ता मेरी नज़र से देख तू एक हुस्न की मिसाल है था अब तलक पर्दानशीं हाज़िर हुआ है सामने है ये कमाल-ए-इश्क या फिर हुस्न की कोई चाल है पायी थी तेरी इक झलक और दिल पराया हो गया है इस कदर जब इब्तदा आगे का मुश्किल हाल है ये आग इकतरफ़ा है या दिल में खलिश तेरे भी है क्यों राज़ पोशीदा है ये कैसा फ़रेब-ओ-जाल है. • बहर—Equivalent to iambic octameter मेरे ज़हन में बारहा एक उठ रहा सवाल है मेरे// ज़ह//न में बा//रहा// एक उठ// रहा// सवा//ल है// • तर्ज़— तुझे क्या बताऊं ए दिलरुबा तेरे सामने मेरा हाल है तुझे क्या// बता//ऊं ए दि//लरुबा// तेरे सा//मने// मेरा हा//ल है// --आखिरी दांव, मज़रूह, रफ़ी महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४७१. मुझे मौत का कुछ डर नहीं मुझे ज़िन्दगी दुश्वार है मुझे मौत का कुछ डर नहीं मुझे ज़िन्दगी दुश्वार है मैं कैसे कह दूं हाँ मुझे इस ज़िन्दगी से प्यार है दिल में कोई धड़कन नहीं आंखों में न कोई रोशनी हर शख्स लगता है यहां जैसे बहुत लाचार है यूं तो सुहाने हैं बहुत दुनिया के रंगीं रास्ते मेरा नशेमन जल गया गोया चमन गुलज़ार है जो भी मिला मुंह फेर कर एक और ठोकर दे गया दूना करे जो दर्द-ए-दिल कैसा मेरा गमख्वार है छोड़ो खलिश ये ख्याल दुनिया है तुम्हारे वास्ते हैं अजनबी चेहरे यहां सब मतलबी संसार है. • बहर—Equivalent to iambic octameter मुझे मौत का कुछ डर नहीं मुझे ज़िन्दगी दुश्वार है मुझे मौ//त का// कुछ ड//र नहीं// मुझे ज़ि//न्दगी// दुश्वा//र है// • तर्ज़— तुझे क्या बताऊं ए दिलरुबा तेरे सामने मेरा हाल है तुझे क्या// बता//ऊं ए दि//लरुबा// तेरे सा//मने// मेरा हा//ल है// --आखिरी दांव, मज़रूह, रफ़ी महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४७२. ज़िन्दगी है बेवफ़ा वादा निभाती मौत है ज़िन्दगी है बेवफ़ा वादा निभाती मौत है आदमी को ख़ौफ़ मौला का दिलाती मौत है हर कदम वादाखिलाफ़ी ज़िन्दगी का है चलन पूरा करना वस्ल का वादा सिखाती मौत है ज़िन्दगी इंसान को झूठे दिखाये सब्ज़बाग असलियत-ए-वक्त से आगाह कराती मौत है ज़िन्दगी है नाम दूजा गर्दिशों के खेल का गर्दिश-ए-हयात से पीछा छुड़ाती मौत है आलम-ए-रंग और बू में रम रही है ज़िन्दगी रूह का नगमा खलिश सब को सुनाती मौत है. • बहर—Equivalent to iambic octameter ज़िन्दगी है बेवफ़ा वादा निभाती मौत है ज़ि//न्दगी// है बे//वफ़ा// वादा// निभा//ती मौ//त है// • तर्ज़— है ये दुनिया कौन सी ऐ दिल तुझे क्या हो गया जैसे मन्ज़िल पर कोई आ कर मुसाफ़िर खो गया है// ये दु//निया कौ//न सी// ऐ दि//ल तुझे// क्या हो// गया// महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४७३. मौत के एहसास की शिद्दत सभी से तेज़ है मौत के एहसास की शिद्दत सभी से तेज़ है मौत आ लग जा गले तुझ से न कुछ परहेज़ है शायद सुकूं मैं पा सकूं ऐ मौत तेरी गोद में ज़िन्दगी क्योंकर जिऊं ये सिर्फ़ गम की सेज़ है ज़िन्दगी की दास्तां न पूछ मुझ से मेरे दोस्त लमहा लमहा कतरा कतरा दर्द से लबरेज़ है पूरबी अन्दाज़ है होना असूलों पर शहीद बम गिराना घरों पर अन्दाज़-ए-अंगरेज़ है गम न कर जो ज़िन्दगी तेरी खलिश बेरंग है डूब उस के रंग में दुनिया का जो रंगरेज़ है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ फ़रवरी २००६ ४७४. कुछ ख्याल जो दिल में उठते हैं तुकबन्दी में कह लेता हूँ कुछ ख्याल जो दिल में उठते हैं तुकबन्दी में कह लेता हूँ समझे हैं शायर लोग मुझे इलज़ाम भी ये सह लेता हूँ जब दिल को दर्द सताता है आंसू कुछ लोग बहाते हैं मैं दर्द बहा लफ़्ज़ों में खुद जज़्बातों में बह लेता हूँ दूजे के दिल को लफ़्ज़ मेरे छू जाएं खुशी मिल जाती है नगमों के बदले दुनिया से न यह और न वह लेता हूँ कुछ नगमे अश्क बहाते हैं पर कुछ हौसला बढ़ाते हैं मैं दोस्त नहीं ताकतवर का कमज़ोरों को शह देता हूँ लिखना ही मेरा मज़हब है कोई दाद खलिश चाहे न दे रोटी न अगर मिल पाये तो फ़ाके कर के रह लेता हूँ. • बहर—Equivalent to iambic octameter कुछ ख्या//ल जो दि//ल में उठ//ते हैं// तुकब//न्दी में// कह ले//ता हूँ// • तर्ज़— वो पास रहें या दूर रहें नज़रों में समाये रहते हैं इतना तो बतादे कोई हमें क्या प्यार इसी को कहते हैं वो पा//स रहें //या दू//र रहें// नज़रों// में समा//ये रह//ते हैं// --बड़ी बहन, सुरैय्या, कंवर जलालाबादी महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ सितम्बर २००६ ४७५. संगीन बहुत हम पर इलज़ाम लगाये हैं संगीन बहुत हम पर इलज़ाम लगाये हैं चोरी की है दिल की मुज़रिम ठहराये हैं मुद्दई तो वो हैं ही काज़ी भी बने खुद ही देने को गवाही भी खुद को ही लाये हैं तफ़तीश को वो खुद ही दारोगा भी बन बैठे खामोश रहे मुज़रिम, फ़रमान सुनाये हैं अन्ज़ाम मुकदमे का मालूम है वो खुद को मुद्दई, गवाह, काज़ी, दारोगा बनाये हैं ऐसे में खलिश बेहतर है ज़ुर्म कबूल करें लो मान लिया हम ने दिल उन का चुराये हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ सितम्बर २००६ |