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Printed from https://shop.writing.com/main/books/entry_id/626877-Poems--ghazals--no-501--525-in-Hindi-script
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Rated: E · Book · Cultural · #1510158
Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700
#626877 added December 30, 2008 at 11:44pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 501- 525 in Hindi script

५०१. मैं कवि हूँ कवि ही रहने दो लिखना गाना मुझे सुरों में-- १४ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित

मैं कवि हूँ कवि ही रहने दो लिखना गाना मुझे सुरों में
छीन लेखनी मेरी मत तलवार धरो इन सहज करों में

माना संकट का युग है और त्रस्त हो रही है मानवता
क्या ऐसे में रूक जाता है कंपन हॄदयों में अधरों में

माना देश पुकार रहा है बन प्रहरी सीमा पर आओ
कौन कवि बिन व्यक्त करेगा आंसू और उद्वेग घरों में

राम विलाप तुम्हें सीता तक सीता का सन्देस राम तक
पहुंचाना है कवि ऊर्जा भरो और कल्पना परों में

कवि को मत बन्धन में बान्धो मत निर्दिष्ट करो कविता को
गिनती होने दो दोनों की खलिश सदा उन्मुक्त चरों में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६







५०२. डोली चढ़े हुए हैं दो दिन—१२ जुलाई २००७ की कविता, ईके को १२-७-०७ को प्रेषित

डोली चढ़े हुए हैं दो दिन
हुई आज मैं सखि फिर पी बिन
काट रही मैं पल छिन गिन गिन
किस के लिये सिंगार करूं अब

विदा करा के साजन लाये
तभी नियति ने लिये बुलाये
मेहन्दी हाथों में शरमाये
किस की मैं मनुहार करूं अब

हुए पराये जो थे अपने
बिखर गये पलकों में सपने
रह गयी मैं जीवन भर तपने
किस का नयन शिकार करूं अब

जीवन भर अब तो रोना है
होना हो अब जो होना है
कैसे मिले सखि जो न है
कैसे मैं प्रतिकार करूं अब.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६







५०३. मैं तुम्हारी याद से घबरा गया हूँ—१३ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १३-७-०७ को प्रेषित--RAMAS

मैं तुम्हारी याद से घबरा गया हूँ
ज़िन्दगी से ही मैं आज़िज़ आ गया हूँ

छोड़कर जो चल दिये यादों को अपनी
क्या करूँ इनका कि मैं थक सा गया हूँ

हैं तसव्वुर में अभी भी वो नज़ारे
जिनको मानो देख कर शरमा गया हूँ

याद के मोती पिरोते नम नज़र से
प्यार का एक और नग़मा गा गया हूँ

जायें जो वो लौट कर आते नहीं हैं
इस हकी़कत से ख़लिश टकरा गया हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० सितम्बर २००६






५०४. मेरे दिल में ये गु़मान बाकी है—१४ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १४-७-०७ को प्रेषित


मेरे दिल में ये गु़मान बाकी है
अब भी जवानी की आन बाकी है

मत तको हैरत से गो बूढ़ा हुआ
कुछ तो हड्डियों में जान बाकी है

झुर्रियों की फ़िक्र न कर, लग गले
शाम के रंगों की शान बाकी है

क्या हुआ जो ढल चुकी है उम्र तो
दिल पे उल्फ़त का निशान बाकी है


मयकदे का साथ है लेकिन ख़लिश
मेरा इखलाक-ओ-ईमान बाकी है.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६






५०५. आप ने कविता मेरी पढ़ी होगी-- १५ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित


आप ने कविता मेरी पढ़ी होगी
मन में कुछ तसवीर तो गढ़ी होगी

मेरा पढ़ के वो तराना प्यार का
चाह दिल में आप के बढ़ी होगी

आप की शायद तसव्वुर में कभी
आंख मेरी आंख से लड़ी होगी

सोचता हूँ जो तुम्हें भेजी गज़ल
इश्क के परवान वो चढ़ी होगी.

दिल के आईने में न सोचा कभी
आप की सूरत खलिश मढ़ी होगी.

प्रेरणा-स्रोत: श्री रीतेश गुप्ता रचित कविता--आपने मेरी वो कविता पढ़ी होगी

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६

००००००००००००

From: reetesh gupta <reeteshgupta@yahoo.com>
Date: Sep 10, 2006 6:33 PM
आदरणीय महेश चन्द्र गुप्त खलिश जी,

बहुत अच्छा लिखते है आप ।

आपने फ़ूल से पूरा गुलद्स्ता बना दिया है ।

रीतेश गुप्ता

००००००००००

From: Bhawna Kunwar <bhawnak2002@yahoo.co.in>
Date: Sep 10, 2006 7:48 PM
खलिश जी
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय एवम भावों से भरी है । आपको इस रचना पर बहुत बहुत बधाईयाँ आशा है भविष्य में भी माँ सरस्वती के आशीर्वाद से आपकी लेखनी ऐसी ही उच्च कोटि की रचनाओं पर चलती रहेगी और हम ई कविता के सदस्यों का भरपूर रसास्वादन करती रहेगी ।
डॉ० भावना कुँअर
०००००००००००००००

From: Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
Date: Sep 10, 2006 10:14 PM
आप ने कविता मेरी पढ़ी होगी
मन में कुछ तसवीर तो गढ़ी होगी

Khalishji Oad kar ek nahin, hazaron tasveerein ghoom jaati hai us
khitij ke aas paas jahan aapka shayri ka safar abhi tak pahuncha nahin
hai. Khoob likhte hai har baar Daad, sada ke liye.
Devi
०००००००००००००००००
























५०६. ऐ मेरी प्यारी सी माँ-- १६ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित


ऐ मेरी प्यारी सी माँ
ऐ मेरी अच्छी सी माँ
तुझ पे दिल कुर्बान

तुझ से सेवा तो कराई पर कभी मैंने न की
सिर्फ़ अपने ही लिये ये ज़िन्दगी मैंने है जी
ज़िन्दगी का मेरी बायस माँ मेरी तू ही तो थी
तुझ पे दिल कुर्बान

तूने दुखों का मुझे एहसास न होने दिया
मैं तेरी गोदी में मानो फूल सा बन के जिया
जब मुझे कांटा चुभा तो दर्द था तुझ को हुआ
तुझ पे दिल कुर्बान

आज माँ जब तू नहीं तो मेरा भर आता है दिल
कोई तो तदबीर होती तुझ से लेता आ के मिल
देख कर के माँ मुझे तेरा भी चेहरा जाता खिल
तुझ पे दिल कुर्बान

ऐ मेरी प्यारी सी माँ
ऐ मेरी अच्छी सी माँ
तुझ पे दिल कुर्बान.

तर्ज़—

ऐ मेरे प्यारे वतन,
ऐ मेरे बिछड़े चमन,
तुझ पे दिल कुर्बान

--काबुलीवाला, प्रेम धवन, मन्ना डे

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६




५०६ A. हैं कौन भला हिन्दी वाले?—पहले एक पत्रोत्तर के रूप में १६-९-०६ को [हिन्दी दिवस के अवसर पर], फिर ४-५-०७ को कविता संख्या ५०६ ए के रूप में पुन:प्रेषित


संदर्भ-- On 9/16/06, chir_neerav <chir_neerav@yahoo.com> wrote:
एक जुनून के साथ
जीते है हम हिन्दी वाले
नही है जग साथ तो क्या
नही मिला किसी का हाथ तो क्या
नही चला कोई आज तो क्या
राहे पथरीली सही
हौसले तो कम नही
होगे लोग बहुत से भाषी
हम भी कोई कम नही
साहित्य हमारा
सत्यम शिवम सुन्दरम से �"तप्रोत
देता नव जीवन है
है नही निराशा वाद कही
हर �"र होती सुबह नयी है
किसी के प्रेम मे हम मि्टते
नही लेते जीवन किसी का
सदभाव फ़ैलाते �"र
जीते सदा जन कल्यार्थ है
हम हिन्दी वाले
हिन्दी है वतन है
हिन्दुस्ता हमारा
सारे जहा से अच्छा
हिन्दुस्ता हमारा

चिर नीरव--

********************
>>>

हैं कौन भला हिन्दी वाले?
क्या वे जो हिन्दी-भाषी हैं?
जब हिन्दी बनी राष्ट्र भाषा
तो अन्यों की क्यों नहीं है वो?
क्यों हाईजैक 'हिन्दी वाले'
मालिक बन हिन्दी को करते?
इस पर अधिकार न अन्यों का
स्वीकार तहेदिल से करते?

क्यों वे जुनून के साथ जियें?
क्यों न औरों के साथ जियें?
क्यों कहें कि जग है साथ नहीं?
और क्यों है इस की चाह नहीं?
न ले क्यों साथ चलें सब को?
क्यों कहें अगर कोई साथ न हो
तो भी उन को परवाह नहीं?
क्यों अपनी ज़िम्मेदारी का
किंचित उन को एहसास नहीं?
जब हिन्दी बनी राष्ट्र भाषा
बिल्ली भागों छींका फूटा
क्या ये कर्तव्य नहीं उन का
सब भाषाओं के साथ चलें?

जनतंत्र-विरोधी है कहना:
"होगे लोग बहुत से भाषी
हम भी कोई कम नही"
इस का उन्मूलन तुरत करो
न कोई इस पर ध्यान धरो
विघटन हो जायेगा इस से
विलगन हो जायेगा इस से
जब एक बड़ा खुद को कहता
क्यों न ज़िम्मेदारी सहता
पहले छोटे का ध्यान करो
और मत उस का अपमान करो.
तुम तभी बड़े कहलाओगे
हिन्दी का मान बढ़ाओगे
अन्यथा सितम्बर चौदह को
ही हिन्दी दिवस मनाओगे.

--खलिश




५०७. कापी भर गई कहां लिखूं अब लिखने की रफ़्तार बहुत है-- १७ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित


कापी भर गई कहां लिखूं अब लिखने की रफ़्तार बहुत है
शायर के दिल की मत पूछो उड़ने का विस्तार बहुत है

मन करता है लगातार महफ़िल में अपनी गज़ल सुनाऊं
अन्य सुखनबर कहते हैं बस करो एक ही यार बहुत है

सात सुरों तीनों सप्तक में गायन करने का मन चाहे
सुनने वाले कहते हैं कि वीणा का एक तार बहुत है

लिखना अपना रोकूं कैसे वाद्य को कैसे बहलाऊं
रुके लेखनी स्वर कुंठित हो कलाकार को मार बहुत है

कैसे करूं तमन्ना ज़ाहिर महफ़िल को कैसे बतलाऊं
ताना दें सब खलिश कि अपने को समझे फ़नकार बहुत है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६

00000000000000

From: kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
Date: Sep 10, 2006 9:14 PM
khalishji
namaskar
koi chahe bhi to aapki prashansha krne se aapne ko rok
hi nahi sakta kitna achha likhte hain aap
badhai
kusum

000000000000000


५०८. टूट गया ज़िन्दगी का साज़ है—१५ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १५ जुलाई २००७ को प्रेषित

टूट गया ज़िन्दगी का साज़ है
टूटने का भी मगर कुछ राज़ है

दोस्तों ने पूछा जब भी कह दिया
कुछ तबीयत आज कल नासाज़ है

एक दिन रूक जाये जो मेरी कलम
लोग कहते हैं हुआ क्या आज है

लाज़मी है शायरी मेरे लिये
जैसे मुल्ला के लिये नमाज़ है

कोई बतला दे भला इतना खलिश
हो सके बिन पंख क्या परवाज़ है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६





५०९. आप के लब से तारीफ़ मेरी हुयी, दिल मेरा आसमां पे उछलने लगा—१६ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १६ जुलाई २००७ को प्रेषित

आप के लब से तारीफ़ मेरी हुयी, दिल मेरा आसमां पे उछलने लगा
आप की इक नज़र के असर से मैं खुद आज तारीफ़ लायक समझने लगा

दाद में है सुखनबर की ऐसा असर कि रवानी कलम की बढा़ती है ये
आप ने जो कहा हम से इरशाद तो फिर गज़ल का बयां ही बदलने लगा

था वही मैं, थी मेरी कलम भी वही, पर हवाओं में खुशबू तो ऐसी न थी
मैंने अपनी सुनायी गज़ल आप को, रंग खुद ही फ़िज़ाओं में भरने लगा

ज़िन्दगी मेरी सहरा रही अब तलक, आप के दम से उस में बहार आ गयी
मैं परेशान आवारा फिरता रहा, फिर से जीने का मन आज करने लगा

दिल की धड़कन की रफ़्तार यूं बढ़ गयी जैसे हाथों में कोहनूर को पा लिया
इक नज़र का इशारा हुआ फिर खलिश मैं लिखूं इक गज़ल यूं मचलने लगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६

०००००००००००००

From: kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> To: "Dr.M.C. Gupta" <mcgupta44@gmail.com>
Date: Sep 11, 2006 4:00 AM
khalishji
namaskar
agar mere kahne se koi gazal ban jaaye to kya baat hai
ye to aapka badappan hai nahi to mai khud nahi likh
pati aap jaisi gazal?
aap bahut hi achha likhte hain ye to bhagwan ka bardan
hai na?
mujhe bahut khushi hui ki aapne mere likhne ko etna
mahatva diya/ vaise aap likhte hi etna achha hain ki
prashansha kiye bina raha nahi jaata. dhanyad
kusum

--- "Dr.M.C. Gupta" <mcgupta44@gmail.com> wrote:

> कुसुम जी,
>
> बहुत धन्यवाद.
>
> आप की सराहना ने एक
> और गज़ल को जन्म दिया.
> यह व्यक्तिगत रूप से
> केवल आप को इस
> लिये भेज रहा हूं कि
> ई-कविता पर नित्य एक
> कविता ही भेज सकता
> हूं और १७ सितम्बर
> तक का समय पहले ही
> उधार चल रहा है. मेरी
> अनेक कविताएं
> (अधिकांश गज़लें) इस
> कारणवश सब के सामने
> नहीं आ सकी हैं. यह भी
> शायद न आ पाये. चूँकि
> इस का सॄजन आप
> के माध्यम से हुआ,
> इसीलिये आप को यह
> व्यक्तिगत मेल भेज
> रहा हूं.
>
> महेश चन्द्र गुप्त
> खलिश

००००००००००००००००००००००




५१०. थक के मुझ को लगता है जब मैं कुछ पल विश्राम करूं—१७ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १७ जुलाई २००७ को प्रेषित


थक के मुझ को लगता है जब मैं कुछ पल विश्राम करूं
तभी खयाल आता है मुझ को क्यों न उठ कर काम करूं

कला साधना है एक गहरी इस में कोई पड़ाव नहीं
बिना रुके बढ़ते जाना है चलते चलते शाम करूं

चाहता हूं मैं खुली हवा दे दूं दिल के जज़बातों को
नहीं तमन्ना है कुछ मन में बन के शायर नाम करूं

सच्चा शायर दुनिया में कब दौलत का हकदार बना
क्यों मैं अपनी खू को बदलूं क्यों मैं अपना दाम करूं

अशआरों को खलिश लहू से और अश्कों से लिखा है
खून-ए-दिल से भरा हुआ लो पेश तुम्हें ये जाम करूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६

००००००००००००

from singhkw <singhkw@indiatimes.com>
date Jul 18, 2007 2:29 PM

क्या खूब गजल है...दिल को छू गए भाव..

कवि कुलवंत सिंह

००००००००००






५११. प्यार की राह में कुछ असर यूं हुआ जो भी इस पर चला लौट वो न सका—१८ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १८ जुलाई २००७ को प्रेषित


प्यार की राह में कुछ असर यूं हुआ, जो भी इस पर चला लौट वो न सका
पायी मन्ज़िल कभी पायी गर्दिश कभी, कोई काटे फ़सल कोई बो न सका

एक इशारा हुआ एक सज़दा हुआ, एक नज़र झुक गयी एक उठने लगी
दो दिलों का मिलन एक पल में हुआ, पर ज़माने पे ज़ाहिर ये हो न सका

दिल जलाना है फ़ितरत भले इश्क की, आग ऐसी है ये न बुझे जो कभी
दिल में आशिक के उठा धुआं तो मगर, चाह कर भी वो इक अश्क रो न सका

एक लमहे को नज़रें मिलीं थीं मग़र, दो दिलों पर असर उम्र भर को हुआ
चाहे मन्ज़िल मिली चाहे राहें मिलीं, चैन से कोई पल एक सो न सका

दिल लगा के भी सौ दर्द मिलते हैं पर, जो लगा न सका वो भी मायूस है
इश्क ऐसी है शय कि जहां में खलिश, दाग-ए-दिल उम्र भर कोई धो न सका.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६




५१२. उठी मायके से जब डोली—बिना तिथि की कविता, ३-१०-०६ तथा १८-७-२००७ को ई-के को प्रेषित

उठी मायके से जब डोली
बेटी मां संग मिल कर रो ली
आज पराई वह भी हो ली
जिसे बचाया सब घातों से


बेटी जब साजन घर आई
हुई मायके की रुसवाई
संग दहेज नहीं कुछ लाई
बहलाया केवल बातों से

साजन ने न साथ निभाया
सास ननद संग वो गुर्राया
सितम सभी ने मिल कर ढाया
नव वधु को पूजा लातों से

डाल किरोसिन आग लगायी
ज़िन्दा उस की चिता जलायी
दे दी अंतिम उसे विदाई
इस जग के रिश्ते नातों से.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००६






५१३. न कोई अब काम दुनिया में मुझे बाकी रहा है—१९ जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को १९ जुलाई २००७ को प्रेषित

न कोई अब काम दुनिया में मुझे बाकी रहा है
एक प्याला एक कलम और एक मेरा साकी रहा है

ये हुआ एहसास जब डंडे पुलिस के दो पड़े
रंग फ़ीके हैं सभी मज़बूत बस खाकी रहा है

आज अंकल और आंटी में सभी दुनिया बंटी
न कोई चाचा न मामा न कोई काकी रहा है.

आज टी वी है दिखाता क्रिकेट के संग पैप्सी
खेलने वाला न अब फ़ुटबाल या हाकी रहा है

अब सियासत एक पेशा बन गया उन का खलिश
काम जिन का कोई न जायज़ न इखलाकी रहा है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ सितम्बर २००६




५१४. हम क्यों जीते क्यों मरते हैं-- १८ सितम्बर की गज़ल, ईके को १२-९-०६ को प्रेषित


हम क्यों जीते क्यों मरते हैं
क्यों धरती पर पग धरते हैं

जटिल सवालों का उत्तर
पाने की कोशिश करते हैं

आते हैं अन्य लोक से हम
मरने पर वहीं विचरते हैं

पिछले जन्मों के कर्मों का
फल इस जीवन में भरते हैं

इस कारण ही इस जीवन में
हम गलत काम से डरते हैं

हैं भाव यही जो खलिश बहुत
चिन्तन करने से झरते हैं.

* श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त की कविता ‘एक पुरातन प्रश्न’ से प्रेरित

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ सितम्बर २००६





५१५. जब गया ईमान मुझ से कह गया—२० जुलाई २००७ की गज़ल, ईके को २० जुलाई २००७ को प्रेषित

जब गया ईमान मुझ से कह गया
ज़िन्दगी में अब तेरी क्या रह गया

रोकने वाला मुझे अब कौन है
दिल सभी बुराइयों को सह गया

था मुझे पाकीज़गी का जो ग़रूर
पी के सिर्फ़ एक जाम बह गया

दोस्ती का दम सदा जिस ने भरा
दुश्मनी अपनी दिखा के वह गया

अब मुझे इंसानियत पर से खलिश
जो बचा था वो भरोसा ढह गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ सितम्बर २००६





५१६. हैं उजाले फ़कत दिल में रहते, इन को दुनिया में पा न सकोगे-- १९ सितम्बर की गज़ल, ईके को १२-९-०६ को प्रेषित


हैं उजाले फ़कत दिल में रहते, इन को दुनिया में पा न सकोगे
रोशनी को जो ढूंढा करोगे, आगे राहों में जा न सकोगे

चल पड़ो तुम अंधेरों में आगे, रोशनी मन्ज़िलें आप देंगी
बैठ कर हाथ पे हाथ धर के, पास मन्ज़िल को ला न सकोगे

जो तुम ने उधार लिया है, रोज़ किश्तों में थोड़ा उतारो
रकम सारी एक बार ही में, तुम हरगिज़ चुका न सकोगे

रोज़ चुकती है ये ज़िन्दगानी, मौत बढ़ती चली आ रही है
गान उस की इबादत का कर लो, आखिरी वक्त गा न सकोगे

आओ सत्संग में बैठ लो तुम, चार दिन ही ये बाकी बचे हैं
आखिरी सांस तुम जब गिनोगे, चाह कर के भी आ न सकोगे.


• प्रेरणा-स्रोत: चन्द्र वर्मा जी की कविता—‘सुबह’

“मै उजालो को डूडने निकला
चनद अनधेरे
मेरे हाथ लगे
मैने पूछा उनसे जो
उजालो का पता
मुसकरा कर के कहा
उसने मुझे
उजाले दिल मे होते है
उजाले दिल मे रहते है
दिल जो रोशन हो तो सुबह समझो
वरना सुबह बस तारीख हुआ करती है”

तर्ज़:

तुम को होती मोहब्बत जो हम से, तो ये दीवानापन छोड़ देते
दर्द होता जो दिल में हमारा, ज़िन्दगी का चलन छोड़ देते

छोड़ दो तुम अदा रूठने की, हम ये दीवानापन छोड़ देंगे
फूल सी इक हंसी पे तुम्हारी, ज़िन्दगी का चलन छोड़ देंगे

तुम कितनी हसीं लग रही हो, काश उतरे न गुस्सा तुम्हारा
तुम यही चाहते हो तो सुन लो, अब न उतरेगा गुस्सा हमारा

नोट—यदि किसी को इस दोगाने के पूरे बोल याद हों या फ़िल्म का नाम याद हो तो कॄपया बतायें. १९६० के आस पास की फ़िल्म है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ सितम्बर २००६







५१७. नैनों से जब नैन मिले क्या हाल हुआ वो हाल न पूछो--२८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २८-१०-०६ को प्रेषित


नैनों से जब नैन मिले क्या हाल हुआ वो हाल न पूछो
पल भर के आलम में कैसे हो बैठे बेहाल न पूछो

नैनों ने क्या कहा किसी के और सन्देस दिया क्या हम ने
जिस का नामुमकिन जवाब हो ऐसा कोई सवाल न पूछो

बात हुयी क्या साजन संग फिर और हुआ क्या फिर घातों में
ऐसी बातें हम को है बतलाना बहुत मुहाल न पूछो

कोई निशानी हम को दे दो किसी जवांदिल ने फ़रमाया
कहां गिरा और किसे मिला रेशम का लाल रुमाल न पूछो

इक लमहे की मुलाकात थी गले लग गये दो अनजाने
खलिश इश्क की राह में कैसे कैसे हुए कमाल न पूछो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ सितम्बर २००६









५१८. जाने क्या मैंने लिखा --२० सितम्बर की गज़ल, ईके को १५-९-०६ को प्रेषित


जाने क्या मैंने लिखा,
जाने क्या तूने पढ़ा
वाद का विवाद हुआ
जाने क्या……………..

एक बवंडर सा दिखा
एक तूफ़ां सा उठा
एक झगड़ा सा हुआ
जाने क्या………….

कलम रुक रुक सी गयी
निगाह झुक झुक सी गयी
काव्य लज्जित सा हुआ
जाने क्या………..

लेखनी पर पहरे?
गान को सुनें बहरे?
ये गज़ब कैसा हुआ?
जाने क्या……………..

सब हों आज़ाद यहां
नहीं हो विवाद यहां
क्यों ये सपना सा हुआ
जाने क्या………….

तर्ज़—

Movie Name: Pyaasa
Singer(s): Geeta Dutt
Music Director(s): Sachin Dev Burman
Lyricist(s): Sahir Ludhianvi

Jaane kya tune kahi
Jaane kya maine suni
Baat kuchh ban hi gayi
Jaane kya tune kahi ...

Sansanaahat si huwi
Thartharaahat si hui
Jaag uthhe khwaab kayi
Baat kuchh ban hi gayi
Jaane kya tune kahi ...

Nain jhuk jhuk ke uthhe
Paau ruk ruk ke uthhe
Aa gayi jaan nayi
Baat kuchh ban hi gayi
Jaane kya tune kahi ...

Zulf shaane pe mude
Ek khushb si ude
Khul gaye raaz kayi
Baat kuchh ban hi gayi
Jaane kya tune kahi ...



महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१५ सितम्बर २००६

००००००००००००००००००००००००

From: harsh_y71 <harsh_y71@hotmail.com>
Date: Sep 16, 2006 11:09 AM

भाई गुप्ता जी,
क्या बात है, आप निःसंदेह ला - जवाब हैं -----

तूने जो कुछ भी लिखा
हमने वो ही है पढा
विवाद का अंत हुआ---
तूने जो …………..

हर्ष

०००००००००००००००००००



५१९. प्यार कर के जफ़ा हम सहें या नहीं—२७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २७-१०-०६ को प्रेषित


प्यार कर के जफ़ा हम सहें या नहीं
सुन के इलज़ाम चुप हम रहें या नहीं

राज़ ज़ाहिर न हो कोई रुसवा न हो
दर्द दिल का किसी से कहें या नहीं

रोके रुकते नहीं चुप ये रहते नहीं
इश्क में अश्क मेरे बहें या नहीं

दिल में इन को सजाऊं भला कब तलक
ख्वाब के खन्डहर अब ढहें या नहीं

क्या सबब था हुए दूर हम से खलिश
राज़ की ये खुलेंगी तहें या नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१५ सितम्बर २००६

००००००००००००००००००००

From: S.M.Chandawarkar <chandawarkar@vsnl.net
Date: Oct 24, 2006 4:44 AM
Subject: Re: [ekavita] ५१९. प्यार कर के ज़फ़ा हम सहें या नहीं—२७ अक्तूबर की गज़ल

डॉ गुप्त जी,

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है!

क्या सबब है हुए दूर हम से खलिश
राज़ की ये खुलेंगी तहें या नहीं

दाग़ के एक मशहूर ग़ज़ल का मतला देखिए

उज्र आने भी है और हमें बुलाते भी नहीं
बाइसे तर्क़े मुलाक़ात बताते भी नहीं

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर







५२०. हिन्दी की चिन्दी—१६ सितम्बर२००६ तथा ११ जुलाई २००७ को ईके को भेजी बिना तिथि की कविता

हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी
क्यों उड़ा रहे उस की चिन्दी

भाषा कोई गाय नहीं ऐसी
जो दुहें मगर हम घास न दें
क्यों इसे शुद्ध रखना चाहें
क्यों मिश्रण का आभास न दें

वे भी दिन थे हिन्दी वाले
क्यों कहें रेल कतराते थे
केवल लौह-पथ-गामिनी कहो
यूं अपना मत जतलाते थे

जब कहें पेड़ के ‘गिर्द’ तो वे
कहते थे ‘चारों ओर’ कहो
उर्दू है गिर्द जरा चेतो
उर्दू की रौ में तुम न बहो

कह कर के इसे राष्ट्र भाषा
सब पर थोपना इसे चाहा
मलयालम, तमिल, तेलुगु को
सीखें न कभी यह मन आया

दक्षिण भाषा से सौतेला
व्यवहार किया उन ने जैसे
वैसा अंग्रेज़ी भाषा से
कर पायेंगे आखिर कैसे

रोज़ी रोटी बिन अंग्रेज़ी
है नहीं आज कल चल सकती
बच्चों की शिक्षा भी आगे
बिन अंग्रेज़ी न बढ़ सकती

एक हिन्दी दिवस साल भर में
करने को नाम मनाते हो
पर हिन्दी की सेवा असली
करने से आंख चुराते हो

कामिल बुल्के की तारीफ़ तो
करते हो जर्मन हो कर भी
वह शब्दकोश लिख गया मगर
बन पड़ा न तुम से तो यह भी

कहने से नहीं राष्ट्र भाषा
थोपी जाती है औरों पर
जो अन्य भारती भाषाएं
हैं उन को रोपो हिन्दी पर

वे भाषाएं तुम भी सीखो
और हिन्दी में अनुवाद करो
समॄद्ध करो हिन्दी को तुम
पीछे हिन्दी की बात करो

बाईस सदी पहले आई थी
तमिल देश में, ज्ञात तुम्हें?
हिन्दी को दो सौ वर्ष हुए
सुन कर न लगे आघात तुम्हें?

नारे न लगाओ हिन्दी के
पनपी न कभी इससे भाषा
कुछ ठोस प्रयत्न करो, सीखो
हिन्दीतर अन्य देशभाषा

हिन्दी वालो मत ग्लीसरीन
को लटकाओ तुम आंखों से
कम से कम संस्कॄत तो सीखो
न प्रेम जताओ बातों से

भाषा कोई ऐसी चीज़ नहीं
जो कहने भर से बनती है
यदि फ़सल काटनी हो तो फिर
मेहनत भी करनी पड़ती है

उठो, संस्कॄत सीखो पहले
और तिरुक्कुराल भी संग पढ़ो
सीखो उर्दू, असमी, बंगला
इन सबको ले कर साथ चलो

न समझो ऐसा करने से
हिन्दी की हेठी कुछ होगी
भारत की भाषाओं से तो
सक्षम हिन्दी ही खुद होगी

तुम रचो अनूदित साहित्य
समॄद्ध करो अपनी हिंदी
हिन्दी के माथे पर तब ही
तुम सजा पाओगे इक बिन्दी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१६ सितम्बर २००६

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Tuesday, 16 September, 2008 4:48 PM
From: "krishna kanhaiya" kanhaiyakrishna@hotmail.com

खलिश साहब,

हिन्दी दिवस पर अच्छी रचना है।

डॉ. कृष्ण कन्हैया
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५२१. ज़िन्दगी भर मैं रिश्ते निभाता रहा—२६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २७-१०-०६ को प्रेषित


ज़िन्दगी भर मैं रिश्ते निभाता रहा
घाव दिल के सभी से छिपाता रहा

न मुझे उस ने दिल से तो चाहा मगर
हाथ मुझ से हमेशा मिलाता रहा

सिर्फ़ माज़ी में जीता रहा वो सदा
‘वो भी क्या वक्त था’ यह सुनाता रहा

कर के अपनी जवानी की तारीफ़ वो
मैं हूं बूढ़ा मुझे यह जताता रहा

सुन के मेरी दुखों से भरी दास्तां
बेफ़िकर हो के वो मुस्कराता रहा

झांक कर उस के दिल में जो देखा खलिश
उस पे एतबार जितना था जाता रहा

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१६ सितम्बर २००६

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From: Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in>
Date: Oct 27, 2006 11:23 PM

खलिश जी,
बहुत अच्छी गज़ल है। यह पढकर मुझे बशीर बद्र जी की किताब �धूप जनवरी की , फूल दिसंबर के � से एक शेर याद आता है।

� वो हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो�

प्रवीण परिहार

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५२२. आज मुझे ज़िन्दगी का रंग ऐसा दिख गया—२४ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २४-१०-०६ को प्रेषित


आज मुझे ज़िन्दगी का रंग ऐसा दिख गया
हो गया यकीं कि ईमां आदमी का बिक गया

सोचता हूं अपना घर मैं अब उसी को सौंप दूं
मेरे घर में आ के जो अब यहीं पे टिक गया

काम का नहीं किसी के उम्र बढ़ गई मेरी
संग मैं कबाड़ के आज घर से फिंक गया.

मेरे दिल में शौक की जगह नहीं बची कोई
सेकता था रोटियां, हाथ मेरा सिक गया

आज तक जवाब का मुझे खलिश है इन्तज़ार
बेखुदी में जाने क्या खत में उस को लिख गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१६ सितम्बर २००६







५२३. एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे—२३ अक्तूबर की कविता, ईके को २३-१०-०६ को प्रेषित


एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे

मरुथल की तपती बालू में किसी का जीवन दान बनी
नयन कोर से ढुलक विरह का किंचित कभी निशान बनी
एक बूंद पानी की…….

कभी हॄदय में स्नेह भरा तो मां की आंखों से उमड़ी
जीवन में जब त्रास बढ़ा तो बही वेदना किसी घड़ी
एक बूंद पानी की…….

जब स्वस्ति नक्षत्र हुआ तो गिर मोती में सीप बनी
एक बूंद गंगा जल अंतिम समय मुक्ति का दीप बनी
एक बूंद पानी की…….

रोली संग मिल तिलक रूप में महिसुर के मस्तक बैठी
तर्पण किया भक्त ने तो फिर पुण्य्धाम में जा पैठी
एक बूंद पानी की…….

स्नाता के केशों से झर रसिकों के मन की चोर बनी
वर्षा ॠतु में मेघों से झर कभी नाचता मोर बनी
एक बूंद पानी की…….

स्वेद रूप में कभी कॄषक के तन से खेतों में टपकी
माटी ने उस को सोखा तो गेहूँ की बाली चमकी

एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१६ सितम्बर २००६





५२४. न खत्म हों जो अरमां इंसां को हैं डुबाते—२५ अक्तूबर की नज़्म, ईके को २५-१०-०६ को प्रेषित


न खत्म हों जो अरमां इंसां को हैं डुबाते
गीता कुरान इन्जील सारे यही सिखाते

सब छोड़ दो तमन्ना और जीओ सादगी से
मुश्किल न ज़िन्दगी में होगी सभी बताते

ज़ोरू ज़मीन ज़र ये तीनों ही इस जहां में
बन के फ़साद की जड़ इंसां को हैं सताते

पीर-ओ-फ़कीर-ओ-साधु चलते हैं नंगे पांओं
पर उन की मंज़िलों तक शाह भी पहुंच न पाते

जाते हैं खाली हाथों वो भी खलिश जहां से
महलों किलों में अपना जो आशियां बसाते.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ सितम्बर २००६

* Injeel=Gospel. In the Islamic tradition, it is understood as a Book that the Messiah received from heaven, and which contained a message to Israel similar to the Law of Moses.


History of Injeel
http://www.dawanet.com/nonmuslim/intro/scriptur/scripti.html
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Jesus conveyed orally to the people the Bible that Allah (God) had originally revealed to him. His disciples, too, propagated it among the people by the spoken words in such a manner that they presented an admixture of their Prophet's life-story and the revealed verses of the Bible. None of this material was put into writing during the lifetime of Jesus (peace be upon him) or even in the period following him. It fell to the lot of the Christians whose vernacular was Greek to transform the oral traditions into writing. It must be borne in mind that Christ's native tongue was Syriac or Aramaic and his disciples, too, spoke the same language.
Most Greek-speaking authors heard these traditions in the Aramaic vernacular and committed them to writing in Greek. None of these writings is dated prior to the year 70 AD; there is not a single instance in these works where the author has cited an authority for an event or maxim attributed to Jesus in order that we might construct a chain of transmission. Furthermore, even their works have not survived. Thousands of Greek manuscripts of the New Testament were collected, but none of them is older than the 4th century AD; rather the origin of most of them does not go beyond the period intervening between the 11th and the 14th centuries. Some scattered fragments on papyrus found in Egypt claim no greater antiquity than the third century. Who translated the Bible from Greek into Latin and when did he do it, we cannot say.
In the 4th century AD, the Pope commissioned a review of the Latin translation. In the sixteenth century, this was discarded and a fresh translation from Greek into Latin was prepared. The four Bibles were more probably rendered into Syriac language from Greek in 200 AD, nevertheless, the oldest Syriac manuscript extant was written in the 4th century. A hand-written copy dating back to the 5th century AD, contains in most parts a different version.
Among the Arabic translations made from Syriac none is known to have been prepared before the 8th century AD It is a strange fact that about seventy different versions of the Bible were prepared, four of which were approved by the leaders of the Christian religion, while the rest were rejected by them. We have no information as to what were the grounds of their approval or rejection. However, can this material be credited with authenticity to any extent as regards the character and message (Gospel) of Jesus?






५२५. ज़िन्दगी मुझ को कहां ले आई है—२२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २२-१०-०६ को प्रेषित


ज़िन्दगी मुझ को कहां ले आई है
आगे है कूआं तो पीछे खाई है

मैं सुनाऊं किस को अपने दिल की बात
सब तरफ़ बरपा मेरी तनहाई है

ज़िन्दगी का जंग पूरा हो चुका
बज रही अब कूच की शहनाई है

वक्त-ए-विदा आज मैं कांधे चली
सोच कर के लाश मुसकराई है

क्यों इसे हम छोड़ने का गम करें
ये खलिश दुनिया बहुत हरज़ाई है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१८ सितम्बर २००६
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