Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
५५१. कलम चल रही है-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ३-१०--०६ को प्रेषित कलम चल रही है गज़ल ढल रही है कोई आस दिल में अभी पल रही है खुशी आज है जो न वो कल रही है कमी आज तेरी बहुत खल रही है वो भोली सी सूरत हमें छल रही है तेरे प्यार की लौ अभी जल रही है घड़ी मौत की क्यों खलिश टल रही है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ अक्तूबर २००६ ५५२. कौन हो तुम-- ११ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ११-१०-०६ को प्रेषित कौन हो तुम पहचान नहीं फिर भी लगते हो अपने तुम्हें देख मन लगा देखने कितने सुन्दर सपने यहां वहां सब बन्द हो गया मेरे मन का फिरना हटती नहीं दॄष्टि चेहरे से पलकें भूलीं गिरना तुम तो पास नहीं लेकिन है याद तुम्हारी दिल में प्राण बसे हैं गोरे गालों के एक काले तिल में जाने कब मिलना होगा कब समय सुहाना आए कहीं प्रतीक्षा में ही मेरा प्राण निकल न जाए मन कहता है सजन एक दिन यह अन्तर कम होगा इस या उस दुनिया में मिलना कहीं किसी क्षण होगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ अक्तूबर २००६ 00000000 From: Sameer Lal <sameerlal_1@yahoo.com> Date: Oct 12, 2006 6:55 AM अच्छी रचना लगी, खलिश साहब. आप अच्छा लिखते हैं मगर हर बार जवाब न देने को अन्यथा न लें, जब भी पसंद नही आयेगी, जरुर लिखूँगा. :) सादर आपके आशिष का आकांक्षी समीर लाल 000000000000 ५५३. मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ५-१०--०६ को प्रेषित http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1240082 मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती दु:ख हॄदय में बहुत भरे हैं अश्रु बहुत हैं इन आंखों में कोरा पॄष्ठ पड़ा है अक्षर किन्तु दब गये हैं राखों में जाने क्या हो गया लेखनी कुंठित क्यों मेरी हो जाती मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती सोचा था अनबुझी प्यास को अमर एक दिन कर जाऊंगा कलमबद्ध मैं प्रेम कहानी गीत रूप में कर पाऊंगा स्वर तो हैं पर काश उभर के लय कोई होठों पर आती मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती यूं तो मुझे गर्व था खुद पर, कविता कितनी कर लेता हूं सब विषयों पर मुखर लेखनी पल भर में ही कर लेता हूं मेरे अपने दिल की पीड़ा शब्दों में क्यों न झर पाती मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ अक्तूबर २००६ P५५४. अगर किसी पंजाबी लड़की से मेरी शादी हो जाती-- ६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ६-१०-०६ को प्रेषित अगर किसी पंजाबी लड़की से मेरी शादी हो जाती घर में गिद्धा, भन्गड़े होते धमा-चौकड़ी सी लग जाती हिन्दी का रस पंजाबीमय उच्चारण से सब खो जाता खसमां-नूं-खानी गाली सुन कर मेरी घिग्घी बन्ध जाती अगर किसी बंगाली लड़की से मेरी शादी हो जाती “रोबिन्द्रो-शोंगीत” की धुन कोने कोने घर के रम जाती “सोंदेश” और “रोशगुल्ले” खा डायबिटीज़ मुझे हो जाता भूल दशहरा दुर्गा पूजा ही हर साल मनाई जाती अगर किसी मद्रासी लड़की से मेरी शादी हो जाती अ-इ-अ-इ-य्यो और इंगे वा की ध्वनि जाने कैसे रंग लाती इडली सांभर मिरची खा कर मुझ को पेप्टिक अल्सर होता वह कुछ कहती मैं कुछ सुनता कलह-कालिमा सी छा जाती यू पी वाली मिल न सकी उस का दहेज और मेरी तनख्वा दोनों में कुछ कमी रह गयी रिश्ता होते होते अटका पंजाबी बंगाली और मदरासी सब की शादी हो गयी आज सोचता हूं मेघालय वाली ही मुझ को मिल जाती. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ अक्तूबर २००६ ०००००००००००००००००० From: kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> Date: Oct 6, 2006 10:38 PM khalishji namaskar kya khub likha hai bahut hi majedar badhai kusum ०००००००००००००००००००० From: Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu> Date: Oct 7, 2006 6:01 PM बहुत मज़ेदार लिखा है, खलिश जी लेकिन अभी तो बहुत से प्रदेश �"र देश बाकी हैं। उनके ऊपर भी कुछ वाग्वाण चलाइए। लक्ष्मीनारायण ००००००००००००००००००० From: Renu Ahuja <renu_poetry@yahoo.co.in> Date: Oct 7, 2006 9:15 PM वाह खलिश जी, क्या बात है, अगर किसी पंजाबी लड़की से आपकी शादी हुई होती....... क्या मज़ेदार कविता है, बिल्कुल हल्की फ़ुल्की, ...और कुछ दिन पहले जिस किसी ने भी शिकायत की थी कि आपकी कविताएं सच्चाई के धरातल से परे है, उनकी शिकायत भी अब दूर हो गई होगी...!!! आपकी और मोना जी की गज़लों के बारे में विस्तृत चर्चा और आपकी बहुत से अन्य गज़लें हमेशा ही भाती रही हैं, आज की ये रचना चाहे आपकी पिछली गज़लों से अलग है, मगर sterotyped होने के इल्ज़ाम से आपको बरी भी कर रही है, इसमें किसी का दोष भी नहीं, क्यूकि आज ज़्यादातर लोग सहज समझ आ जाने वाली बातें कहने सुनने के आदी होते जा रहे हैं, हां मगर स्तरीयता कम हो जाए, एसा भी मेरा आशय नहीं है, बस देखा जाए तो अब सभी लोग varity को देखना और सुनना चाहते हैं शायद.! बहरहाल, कविता का नया अंदाज़ मुबारक हो, मगर आप इतनी ज़हमत और कर देते कि आज कि आपकी वैवाहिक वस्तुस्थिति क्या है, तो कविता अपने परिणात्मक पहलू को भी उजागर कर देती... यानी शादी हुई तो किस राज्य की प्रतिनिधि महिला से....या कि.. अब तक तलाश जारी है......):- अब जवाब के रूप में अपेक्षित आपकी अगली कविता की बारी है. ):- -आदर सहित भवदीया श्रीमति रेणू आहूजा. ०००००००००००००००० ५५५. मैं केवल एक विदूषक हूं -- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ६-१०--०६ को प्रेषित मैं केवल एक विदूषक हूं मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम जो मन आये लिख देता हूं बिन सोचे ही कह देता हूं न खुद महत्व मैं देता हूं समझो इस को मनमानी तुम मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम भाषा के ज्ञाता बहुत यहां आलोचक, लेखक, कवि यहां उन के सम्मुख मैं टिकूं कहां समझो मुझ को बेमानी तुम मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम न काव्य-कला मुझ को आती केवल तुकबन्दी ही भाती उपवन में हूं मैं उत्पाती समझो क्यों हूं अभिमानी तुम मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम साहित्य मैंने पढ़ा नहीं जो पढ़ा उसे फिर गुना नहीं क्या आश्चर्य कुछ लिखा नहीं समझो जिस को मधुवाणी तुम मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम अज्ञानी भी रखता दिल है मत समझो उस को गाफ़िल है उस की भी अपनी महफ़िल है समझो न उसे अवधानी तुम मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम महेश चन्द्र गुप्त खलिश ६ अक्तूबर २००६ ०००००००००००००० From: Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com> Date: Oct 9, 2006 11:17 AM बहुत सुन्दर खलिश साहब .. अनूप ००००००००००००००० ५५६. दे चुके जो दिल….. -- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ७-१०--०६ को प्रेषित धनुर्वाण क्या चले कि क्षत शरीर कर गये वाग्वाण क्या चले कि वक्ष तक उतर गये नैन वाण क्या चले कि जान से गुज़र गये एक जो सिक्का गिरा तो एक पल खनक रहा एक जाम जो पिया खुमार रात भर रहा एक प्यार की निगाह का अक्स उम्र भर रहा मेहरबां साकी हुई तो चन्द लमहे कट गये मेहरबां हुआ जो दोस्त चन्द साल कट गये मेहरबां खुदा हुआ तो जन्म जन्म कट गये जब किताब लिख चुके तो पढ़ने वाला न मिला जब कलाम कह चुके तो सुनने वाला न मिला दे चुके जो दिल पलट के देने वाला न मिला. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ७ अक्तूबर २००६ ५५७. पूछा किसी खातून ने क्या शादी हो गयी ---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ७-१०--०६ को प्रेषित पूछा किसी खातून ने क्या शादी हो गयी सुनते ही दिल में प्यार की मुनादी हो गयी पहले तो दिल में आया कि हम झूठ बोल दें क्या लाज़मी है राज़ अपने सारे खोल दें कह दें कि अब तलक तो इक तलाश थी ज़ारी पर लग रहा है आ गयी निकाह की बारी उन को बता दें खूब सूरत चान्द सी हैं वो नाज़-ओ-अदा नज़ाकतों की खान सी हैं वो पर चन्द लमहे बाद ही आये ज़मीं पे हम सोचा कि पैंसठ साल का छुपायें कैसे गम हम ने कहा कि मोहतरिमा अर्ज़ किया है ये जाम कड़ुवा और मीठा हम ने पिया है अब जाम खत्म हो चुका पैमाना बाकी है दुनिया से चन्द रोज़ में अब जाना बाकी है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ७ अक्तूबर २००६ ०००००००००००००००००० From: renu <renu_poetry@yahoo.co.in> Date: Oct 8, 2006 9:38 PM खलिश साहब, अंदाज़े बयां आपका बेहद निराला है, मय नही बस साथ खाली प्याला है, यूं भी अपने बिछड़ों को किया करतें है याद जैसे मन की है, अधूरी कोई मुराद मगर खालीपन को ही अंदाज़ बना लिया सच्चा शायर होने का फ़र्ज़ निभा दिया. शायरी ही हमसफ़र बहूत खूब ये अदा अब पहचान बन आपकी गूजेगी यही सदा -रेणू ०००००००००००००००००० ५५८. चुका जाम तो क्यों खाली पैमाना ले कर खड़े हुए-- ८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ८-१०-०६ को प्रेषित चुका जाम तो क्यों खाली पैमाना ले कर खड़े हुए बन्द हुआ मयखाना तो क्यों दरवाज़े पर अड़े हुए कल को छोड़ो, जियो आज, माज़ी को तालाबन्द करो क्यों उखाड़ना चाहते हो तुम जो मुर्दे हैं गड़े हुए भरी जवानी हंस हंस कर जो ‘हे माँ’ कह रस्सी झूले वही मादरेवतन के नग में हीरा बन के जड़े हुए किसे पता है तिफ़्ल कौन सा कल का लाल जवाहर हो आज खाक में हिन्दोस्तां के लाखों हीरे पड़े हुए यूं तो सब मरते हैं लेकिन खलिश दूसरों की खातिर चढ़े चन्द सूली पर और बिरले सलीब पर चढ़े हुए. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ७ अक्तूबर २००६ ००००००००००००००००००००० From: K.P.Tyagi <kp_kusum@yahoo.com> Date: Oct 8, 2006 3:58 PM खलिश साहब बहुत ही उत्तम गज़ल है. ००००००००००००००००० ५५९. करने का शायरी हमें ईनाम मिला है करने का शायरी हमें ईनाम मिला है हम सेकेरीन से हैं ये इलज़ाम मिला है खत में भरी थी हम ने मोहब्बत की चाशनी कड़ुवा पलट के हम को पर पैगाम मिला है पढ़ के गज़ल हमारी पुर जज़्बात-ओ-काफ़िया तल्खी का कहते हैं उन्हें अंज़ाम मिला है हम ने बतौर दाद गज़ल पे गज़ल लिखी बदले में बदकलम हैं हम को नाम मिला है हम ने दिया था दिल को बड़े फ़ख्र-ओ-नाज़ से दो कौड़ियों का हम को मगर दाम मिला है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ८ अक्तूबर २००६ ५६०. वो इश्क का मतलब क्या जाने जो रातों को तड़पा ही नहीं---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ८-१०--०६ को प्रेषित वो इश्क का मतलब क्या जाने जो रातों को तड़पा ही नहीं वो दर्द को प्यार के क्या समझे जिस के दिल गम बरपा ही नहीं शम्म की चमक से परवाने नज़दीक तो आते हैं लेकिन क्या इश्क करे वो परवाना जो लौ में जला सर-पा ही नहीं खाली बातों से क्या होगा क्या इश्क करेगा वो इंसां मरने का ख्याल मोहब्बत में जिस के दिल में पनपा ही नहीं बागबां अगर बनना है तो हाथों में मिट्टी लगने दो क्यों चलें रोपने क्यारी को जब हाथों में खुरपा ही नहीं सामान खुशी के सौ हज़ार इंसान जुटाता है लेकिन हो खलिश खुशी क्योंकर दिल में मौला की अगर किरपा ही नहीं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ८ अक्तूबर २००६ ००००००००००००००००००००००० From: kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> Date: Oct 9, 2006 8:29 PM khalishji namaskar kya khub likhte hai? roj hi ek nai gazal milti hai padhne ko bahut hi achha lagta hai padhkar/ aise hi likhte rahiye. bahut khub badhai kusum ००००००००००००००००००००००० ५६१. एक बार मेरे दिल को आज़माओ तो ज़रा -- ९अक्तूबर की गज़ल, ईके को ९-१०-०६ को प्रेषित http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1240082 एक बार मेरे दिल को आज़माओ तो ज़रा एक लमहा मेरे पास तुम बिताओ तो ज़रा हम बताएंगे तुम्हें वफ़ा भी कोई चीज़ है एक बार तुम मगर दिल लगाओ तो ज़रा ताल दिल के साज़ पे कब से दे रहे हैं हम नगमा कोई प्यार का तुम सुनाओ तो ज़रा हम तुम्हारे गम उतार लेंगे अपने दिल में सब एक बार प्यार से मुस्कराओ तो ज़रा देख लेना तुम खलिश कि हंस के झेल लेंगे हम प्यार में सितम सनम पहले ढाओ तो ज़रा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ८ अक्तूबर २००६ ५६२. इंसान की फ़ितरत का हाल क्या बताइये---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ८-१०--०६ को प्रेषित इंसान की फ़ितरत का हाल क्या बताइये हर चीज़ को चाहता है कि अपना बनाइये कोई दिखी जो नाज़नीं तो उस पे मर मिटे हक गैर की दौलत पे भी अपना जमाइये गहने हज़ार पेटियों में माना बन्द हैं मेरी सहेली जैसा मुझे भी दिलाइये एक दोस्त जो मिले तो हम पे यूं बरस पड़े अपनी गज़ल से काफ़िया मेरा हटाइये कल की खबर नहीं मगर रोता है आज तू मत जोड़ के सामान गम अपना बढ़ाइये रो रो के काटने से कोई फ़ायदा नहीं झूठे ही चाहे धीमे धीमे मुस्कराइये जाते हैं खाली हाथ यहां से सभी खलिश सब मिल्कियत को अपनी यहीं छोड़ जाइये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ८ अक्तूबर २००६ ५६३. अमरीका जा रहा हूं-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ९-१०--०६ को प्रेषित अमरीका जा रहा हूं, अमरीका जा रहा हूं न जाने जन्म मैंने भारत में क्यों था पाया था पाप किस जनम का हिस्से में मेरे आया अब भाग्य को मैं अपने खुलता सा पा रहा हूं वीसा मुझे मिला है , अमरीका जा रहा हूं इंडिया में रह के अब तक कुछ भी नहीं मिला है रहना यहां है झंझट गर्दिश का सिलसिला है दर दर यहां पे नाहक धक्के मैं खा रहा हूं डालर कमाऊंगा अब , अमरीका जा रहा हूं कितना पुराना था अब पूरा हुआ है सपना बनवाऊंगा वहां पर मैं ग्रीन कार्ड अपना बन जाऊं नागरिक भी इच्छुक सदा रहा हूं वह दिन भी काश आये , अमरीका जा रहा हूं पत्नी का क्या है वह तो मिल जायेगी वहां भी माता पिता का जीना निश्चित कहां यहां भी मैं भारतीय अब तक बस नाम का रहा हूं तुम खुश रहो खलिश मैं अमरीका जा रहा हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ अक्तूबर २००६ घनश्याम जी, छिमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात. सुखनबरों को नौसिखियों के कलाम से तकलीफ़ न हो तो किसे होगी. मगर इस तकलीफ़ का इज़हार करते हुए उन्हें और भी ज़्यादा तकलीफ़ होती होगी, ऐसा आप ने ठीक ही कहा है. काश मेरे वश में होता तो केवल खुशियां ही बांटता. कविता किये बिना रहा जाता नहीं, ढंग से कविता करना आता नहीं. कविता की अभिव्यक्ति भी हो जाये, महान कवियों की आलोचना और सुझावों से सीखने का मौका भी मिल जाये, यही सोच कर ई-कविता से जुड़ा था. एक वायदा भी किया था कि, सुझाव/आज्ञानुसार केवल एक कविता ही रोज़ भेजूंगा. एक तरीके से यह निभा भी रहा हूं. हां, कभी कभी अतिरिक्त रूप से प्रत्युत्तर में एक-आध कविता रूपी मेल भी भेज देता हूं. कहीं ऐसा तो नहीं कि सब सदस्यों की तकलीफ़ ही बढ़ा रहा हूं? आप के सुझाव अमूल्य हैं. ख्वातीन का खातून कर चुका हूं, जरा का ज़रा कर दिया है. तेरे के स्थान पर तुम्हारे कर दिया है. इन सब से निश्चय ही कविता अच्छी हुई है. इन के लिये धन्यवाद करना कुछ अधिक ही औपचारिक लगा. आप ही ने एक बार लिखा था कि बात बात पर धन्यवाद देने की न कोई ई-कविता पर आवश्यकता है, न वांछनीयता. ५६४. मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ९-१०--०६ को प्रेषित मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं कोई दिन ऐसा न बीता जब तुम्हें कुछ सुख दिया हो या तुम्हारे दर्द को मैंने भी कुछ अपना लिया हो कुछ न कुछ मैं उम्र भर तुम से सदा लेता रहा हूं मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं स्वार्थ की सीमा नहीं यह सिद्ध मैंने कर दिखाया तुम से अपने नाम मैंने जो तुम्हारा था लिखाया कष्ट देने में तुम्हें सब से बड़ा नेता रहा हूं मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं किन्तु यह दुर्भावना मेरी कदाचित न समझना मैंने सीखा मात्र है औरों के दुखों से उलझना दुख के बदले में दिये सुख ऐसा विक्रेता रहा हूं मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं जो लिया तुम से सदा औरों पे मैंने है लुटाया नैन पौंछे अन्य के अपना न इक आंसू बहाया वास्ते औरों के किश्ती अब तलक खेता रहा हूं पर तुम्हें लगता है मैं तकलीफ़ ही देता रहा हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ अक्तूबर २००६ ५६५. कविता करना कोई खेल नहीं यह नहीं साधना से खाली-- १० अक्तूबर की गज़ल, ईके को १०-१०-०६ को प्रेषित कविता करना कोई खेल नहीं यह नहीं साधना से खाली भाषा व्याकरण छन्द मात्रा व तुक न अगर इस में डाली अंकुश न लगा अभिव्यक्ति पर जो मन में आया लिख डाला और मुक्त छन्द का नाम उसे सुन्दर सा हम ने दे डाला तो नहीं असम्भव सुन्दर नामकरण ही केवल रह जाये कविता का सहज प्रवाह साधना से जो आता, रह जाये मैं नहीं बेड़ियों का कायल स्वातन्त्र्य मुझे भी भाता है पर छ्न्द और कविता का आपस में एक गहरा नाता है यह नाता ही कारण है कि वेदों को श्रुति का नाम मिला भारत को गीता रामायण और मानस का ईनाम मिला यदि श्लोक छन्द और चौपाई या दोहे नहीं हुए होते तो मंत्रोच्चारण और पाठ इन ग्रंथों के न हुए होते लिखिये अपनी क्षमतानुसार हो मुक्त छ्न्द या बद्ध छन्द कविता का रूप बने कैसा इस का न होता अनुर्बन्ध यह किन्तु निवेदन है विनम्र कि शास्त्रीय कवि शैली का न कीजे बन्धु तिरस्कार यह हीरा है उस थैली का जिस में खयाल और ठुमरी हैं, हैं शहनाई सितार वादन ओडसी भरतनाट्यम कथक हैं सब को मेरा अभिवादन मैं साधक हूं मां सरस्वती मुझ को ऐसा वरदान मिले विज्ञान, विधि, से परे मुझे शास्त्रीय कला का ज्ञान मिले. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ अक्तूबर २००६ ५६६. उम्र के बुझते चराग देखे हैं-- १२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १२-१०-०६ को प्रेषित उम्र के बुझते चराग देखे हैं मन्द पड़ते दिल के राग देखे हैं लग के एक बार न फिर बुझ सके इश्क की हम ऐसी आग देखे हैं जिन को पूजा था पिला के हम ने दूध फन हमीं पे ताने नाग देखे हैं दिल के आईने पे आ के एक बार जा न पाये ऐसे दाग देखे हैं हसरतों से जो लगाये थे खलिश वो उजड़ते हम हम ने बाग देखे हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ अक्तूबर २००६ ५६७. ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं-- १४ अक्तूबर की कविता, ईके को १४-१०-०६ को प्रेषित चन्द लमहे और जी बेकार सांसों को करूं ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं ज़िन्दगी के देखे हैं बुझते हुए मैंने चराग आज ठन्डी पड़ चुकी सीने में जो मेरे थी आग दिल की जाती धड़कनों में ढूंढूं जीने का सुराग पड़ गया हूं पीला मैं अब शाख से क्यों न झरूं ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं बारहा उठता है मेरे दिल में छोटा सा सवाल ज़िन्दगी की शाम में आता है ये मुझ को खयाल था खुदा का नाम लेना भी मुझे अकसर मुहाल क्यों खम्याज़ा गलतियों का आज भरने से डरूं ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं एक ज़िन्दा लाश हूं अब आरज़ू कोई नहीं दिल में कोई गम नहीं और अब खुशी कोई नहीं रोने वाला नामलेवा भी मेरा कोई नहीं मर गईं सब ख्वाहिशें मैं क्यों जिऊं मैं भी मरूं ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ अक्तूबर २००६ Rhyme scheme: aa in the initial couplet; bbba; ccca; ddda. ५६८. त्यौहार मनाऊं मैं कैसे—२० अक्तूबर की कविता दुनिया की आज दिवाली है पर मेरे घर बदहाली है पप्पू की गुल्लक खाली है फिर दीप जलाऊं मैं कैसे त्यौहार मनाऊं मैं कैसे बच्चों के तनमन सूखे हैं दो रोटी को वे भूखे हैं दुनिया वाले सब रूखे हैं फुलझड़ी चलाऊं मैं कैसे त्यौहार मनाऊं मैं कैसे उतरे हैं तारे अम्बर के सब सजते रूप नए धर के मुन्नी को इस शुभ अवसर के कपड़े पहनाऊं मैं कैसे त्यौहार मनाऊं मैं कैसे मन मार सभी हम जीते हैं सारे स्वादों से रीते हैं चाय बिन चीनी पीते हैं मिष्टान्न खिलाऊं मैं कैसे त्यौहार मनाऊं मैं कैसे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २० अक्तूबर २००६ ५६९. न रहेगा एक दिन मेरा निशां-- २९ अक्तूबर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ईके को २९-१०-०६ को प्रेषित http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1240082 न रहेगा एक दिन मेरा निशां भूल जाऊंगा कि मेरा था जहां छोड़ना दुनिया को है अब एक दिन क्यों लगाऊं मैं भला फिर दिल यहां मैं जहां पर जाऊंगा दुनिया से दूर उस जहां के राज़ सब से हैं निहां क्या खबर साथी कोई कैसा मिले या फिरूं तनहाइयों में मैं वहां आंख जब मुन्द जायेगी तो फिर खलिश मैं कहां और इस जहां वाले कहां. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ अक्तूबर २००६ ०००००००० From: Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com> Date: Oct 29, 2006 5:07 PM खलिश साहब: आप की यह गज़ल अच्छी लगी , विशेष रूप से ये दो शेर : > > मैं जहां पर जाऊंगा दुनिया से दूर > उस जहां के राज़ सब से हैं निहां > > आंख जब मुन्द जायेगी तो फिर खलिश > मैं कहां �"र इस जहां वाले कहां. > > * * सादर अनूप ००००००००००० From: harsh_y71 <harsh_y71@hotmail.com> Date: Oct 30, 2006 11:20 AM खलिश जी, बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी, ........�"र उतनी ही सुन्दर है आपकी टिप्पणी सराहना के बारे में ! काश! हमारे कुछ साथी भी इस बात को समझ सकें। हर्ष ५७०. क्यों प्रिये सपने दिखाती हो मुझे-- ३० अक्तूबर की गज़ल, ईके को ३०-१०-०६ को प्रेषित क्यों प्रिये सपने दिखाती हो मुझे मन्द मुस्का के लुभाती हो मुझे मैं तो हूं मदहोश पहले ही प्रिये और दीवाना बनाती हो मुझे मैं गमेदुनिया से हो जाऊं जुदा तान ऐसी क्यों सुनाती हो मुझे पास हो के पास न आओगी तुम ऐसे ख्यालों से डराती हो मुझे क्या कभी दो दिल बनेंगे एक ये या खलिश यूं ही सताती हो मुझे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ अक्तूबर २००६ ५७१ –५९०: Numbers not allocated due to mistake in numbering ५९१. सनद वो सरेआम दिखला रहे हैं—बिना तिथि की गज़ल, ईके को १३-११-०६ को प्रेषित सनद वो सरेआम दिखला रहे हैं धता वो वकीलों को बतला रहे हैं. करेंगे वफ़ा दस्तखत यूं करा के वो इकरारनामे पे इठला रहे हैं मोहब्बत की दुनिया से अनजान हैं वो हकीकत ज़माने पे जतला रहे हैं कहा उन से जूड़े में जूही सजा दो मगर फूल गैन्दे का वो ला रहे हैं पूछा था कितना हमें चाहते हो हुआ क्या कि सुन के वो हकला रहे हैं छिपाने को अपनी ज़फ़ा की निशानी कितनी कहानी वो फ़ैला रहे हैं खलिश जान कर कि सहर हो चला है अश्कों से रूखसार नहला रहे हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ नवंबर २००६ ५९२. वो वादी में आन्धी से पत्तों का गिरना—१४ नवम्बर का नगमा, ईके को १४ नवम्बर को प्रेषित वो वादी में आन्धी से पत्तों का गिरना, वो सन सन की आवाज़ से तेरा डरना वो बदली का चन्दा को ढक कर गुज़रना वो ठन्डी हवाओं से तेरा सिहरना मिलने की तुझ से दिनों बाट तकना खयालों में तेरे वो रातों का जगना परेशान हो कर वो करवट बदलना सपनों में आये तू ये चाह रखना झुके ज़ुल्फ़ तेरी, परेशान होना करार अपने दिल का बिना बात खोना कभी खुद से हंसना कभी खुद से रोना कभी लेटे जगना कभी बैठे सोना तेरे रूठने पर वो पहरों मनाना तेरे मानने पर मेरा रूठ जाना नया रोज़ तेरा वो नाज़ुक बहाना लबों ही लबों में तेरा गुनगुनाना वादी, नदी का किनारा वही है मौसम वही है ये मन्ज़र वही है यादों का ख्वाबों का डेरा वही है सभी है मगर साथ में तू नहीं है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ नवंबर २००६ 000000000000 from Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu date Nov 14, 2006 5:33 PM बहुत सुन्दर, खलिश जी। खास कर ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं: वादी, नदी का किनारा वही है मौसम वही है ये मन्ज़र वही है यादों का ख्वाबों का डेरा वही है सभी है मगर साथ में तू नहीं है. लक्ष्मीनारायण 00000000000 ५९३. सपने तो सपने होते हैं—१५ नवम्बर की गज़ल, ईके को १५ नवम्बर को प्रेषित सपने तो सपने होते हैं क्यों उन के गम में रोते हैं सपना टूटा और आंख खुली क्यों अपनी पलक भिगोते हैं जगने पर गर रोना है तो इस से तो अच्छे सोते हैं बेवजह फ़िक्र के आलम में क्यों चैन दिलों का खोते हैं खुशियों में कोई फूल रहे ता-उम्र कोई गम ढोते हैं खाली बैठा कोई खाता है और खेत किसी ने जोते हैं कुछ खलिश किनारा ताकें कुछ खाते मोती को गोते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ नवंबर २००६ ५९४. यू एस केन्द्रित मुक्तक—बिना तिथि की गज़ल, ईके को १३-११-०६ को प्रेषित न सद्दाम रहा ना ओसामा रहेगा फिर भी ज़िहादों का सामां रहेगा मगर डूबता अब है बुश का सितारा नहीं उस का अब हुक्मनामा रहेगा गरीबों की रूह न बिकी डालरों से न गुरबत ढकी रेशमी झालरों से कुरता फटा हो, न हो मैल दिल में आती शराफ़त नहीं कालरों से लौटा जो मेरीन इक बैग बन के लगे लाख तब दिल में यू एस के झटके न स्वागत हुआ बल्कि झेली लड़ाई मिला क्या वो आये थे क्या सोच कर के कोई कह रहा है गधे को जिताओ कहे कोई हाथी को वापस ले आओ खलिश सांप है एक और नाग दूजा है बेहतर न तुम वोट ही देने जाओ. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ नवंबर २००६ ०००००००००००००००० from Rajiv K. Saxena <rajivksaxena@gmail.com date Nov 14, 2006 4:22 PM subject Re: [ekavita] saddam Dear Gupta Ji I am truly amazed at how you can write poems at demand! I am convinced that you would have succeeded marvelously in Bollywood as a Geetkar. I hope your book venture is going well. I hope to get an autographed copy once I return to India next October. Kind regards Rajiv K. Saxena ००००००००००००००००० Dear Dr. Saxena, It is so kind of you to write appreciatingly of my post-sixty "talents":) As a matter of fact, had I not become a doctor, I would probably have been a professor of English, going on most likely to the postion of VC. On my way, I would have also picked up a doctorate in Hindi. Maybe in next life. Hope you are fine. न पढ़ता अगर डाक्टर मैं न बनता पढ़ के विधि मैं वकालत न करता लिखता फ़कत मैं मोहब्बत की कविता तो मुम्बई में शायद मैं हरगिज़ न रमता. M C Gupta ००००००००००००००००० ५९५. प्यार तुम से मैं ऐसे निभाता रहा—१६ नवम्बर की गज़ल, ईके को १६-११-०६ को प्रेषित प्यार तुम से मैं ऐसे निभाता रहा जोर घटता रहा वक्त जाता रहा वायदे खोखले तुम भी करते रहे मैं भी तुम से कसम झूठी खाता रहा जब भी शक की सुई मेरे मन में चुभी तुम से खाली तसल्ली मैं पाता रहा गोरे रूखसार पे काली ज़ुल्फ़ों के खम देख नाहक ही मन को लुभाता रहा हार हीरे के कम तुम को पड़ते गये रात दिन काम कर मैं कमाता रहा चार हाथों से तुम वो लुटाते रहे जो मैं दो हाथ भर के जुटाता रहा सामने खाई थी और पीछे कुंआ दिल के बचने की मन्नत मनाता रहा साथ मेरा तुम्हारा है जनमों तलक प्यार के गीत ऐसे मैं गाता रहा ख्वाब में जो बनाये महल थे कभी वो ज़मीन-ए-हकीकत पे ढाता रहा हम चले जायेंगे तुम यूं रोते रहे आंसुओं पर हमें प्यार आता रहा आज ये हश्र है तुम अलग मैं अलग दरमियां झूठ का भी न नाता रहा भूल जाऊं था हक तुम पे मेरा खलिश ऐसी मन्ज़िल पे मैं दिल को लाता रहा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ नवंबर २००६ ०००००००००० from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com> date Nov 16, 2006 6:54 PM Maheshji Bahuty sunder khayaal hai Bahut pasand aayi yeh saloni si gazal जब भी शक की सुई मेरे मन में चुभी तुम से खाली तसल्ली मैं पाता रहा Saamen ek khayi, kuaaN saamne Phir bhi khuD ko unheiN se bachaata raha. Saadar Devi ००००००००००००००० ५९६. भुलाना भी चाहें भुला न सकेंगे—१७ नवम्बर की गज़ल, ईके को १७-११-०६ को प्रेषित भुलाना भी चाहें भुला न सकेंगे किसी और को दिल में ला न सकेंगे भरोसा अगर वो न चाहें तो उन को कभी प्यार का हम दिला न सकेंगे वादा निभायेंगे, वो जानते हैं कसम हम को झूठी खिला न सकेंगे क्यों आते नहीं वो है मालूम हम को नज़र हम से अब वो मिला न सकेंगे ज़ोर-ए-नशा-ए-निगाह अब नहीं है मय वो नज़र से पिला न सकेंगे हकीकत से अपनी वो वाकिफ़ हैं खुद ही कर हम से अब वो गिला न सकेंगे. तर्ज़— तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे दिलवर के दिल में धड़कते रहेंगे [एप्रिल फ़ूल, १९६४] महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ नवंबर २००६ ००००००००००००० from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com> date Nov 17, 2006 6:23 AM subject Re: [ekavita] ५९६. भुलाना भी चाहें भुला न सकेंगे—१७ नवम्बर की गज़ल महेश जी, मेरी निगाह में आप की हाल की रचनाएं पहले से कुछ अधिक दिलकश हैं। रचना सं० ५९६, १७ नवम्बर की गज़ल का मतला, दूसरा और चौथा शे'र तो सुन्दर हैं पर तीसरा, पाँचवां और अंतिम कुछ तवज्जह मांगते हैं। वैसे पूरी रचना अच्छी है। ध्यान रहे कि मेरी इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं किसी विशेष काव्य-शास्त्र के नियमों पर आधारित न होकर केवल मात्र क्षणिक और अस्पष्ट सी होती हैं। जैसा लगा लिख दिया। दोबारा पढ़ने पर मेरा स्वयं का मत भी बदल सकता है। - घनश्याम ५९७. पांव धरो धरती पर क्यों भरमाये हो—२० नवम्बर की गज़ल, ईके को २०-११-०६ को प्रेषित पांव धरो धरती पर क्यों भरमाये हो क्यों नभ के तारों पर आंख गड़ाये हो कर्म करोगे तब ही फल मिल पायेगा अकर्मण्य ही जीवन व्यर्थ गंवाये हो रटते थे तुम पिया पिया ही पहले तो पिया सामने आये अब शरमाये हो सितम प्यार के किस्मत से ही मिलते हैं माना उन के गम में बहुत सताये हो जाने वाले कहां लौट कर आते हैं क्यों तुम मन में झूठी आस लगाये हो इसी सादगी पे कुर्बान खलिश हम तो नहीं जानते ये दिल आप चुराये हो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १७ नवंबर २००६ ५९८. क्या कीजे दुनिया की यही रवायत है—१९ नवम्बर की गज़ल, ईके को १९-११-०६ को प्रेषित क्या कीजे दुनिया की यही रवायत है कमी शरीफ़ों की बद की बहुतायत है जिन को पाला पोसा सारी उम्र सहा वो कहते हैं हम से उन्हें शिकायत है वक्त शायरी को है उन के पास बहुत सिरफ़ प्यार करने में उन्हें किफ़ायत है पास न आयें रहें सामने नज़रों के इतनी सी ही हम को बहुत इनायत है हिन्दुस्तानी खून रगों में है उन की ज़न्नत दिखता जिन को आज विलायत है मुफ़लिस हूं पर खलिश अमीरी है दिल में थोड़े में ही मुझ को बहुत कनायत है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १७ नवंबर २००६ ५९९. मैं कविता करता नहीं स्वयं हो जाती है—१८ नवम्बर की गज़ल, ईके को १८-११-०६ को प्रेषित मैं कविता करता नहीं स्वयं हो जाती है वेदना उतर कर शब्दों में रो जाती है जब भाव उमड़ते शब्द स्वयं बन जाते हैं क्या जानूं मैं लेखनी किधर को जाती है कुछ लिखने बैठूं और लिखा जाता है कुछ अभिव्यक्ति-दिशा ही मानो कुछ खो जाती है चाहे न निभाये काव्य-नियम मेरी कविता पाठकगण के अन्तस्तल तक वो जाती है क्या कहिये उस कविता का निकल लेखनी से श्रोता के कर्ण, हॄदय, जिव्हा जो जाती है कवि के और श्रोतागण के हॄदयों की पीड़ा किस तरह एक छोटी कविता ढो जाती है वह कभी रुला कर हॄदय-धरा नम करती है वेदना-हरण का बीज कभी बो जाती है हो खलिश न श्रोता-कर-तल-ध्वनि से गुंजित पर मेरी कविता की गूंज कहीं तो जाती है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १७ नवंबर २००६ ६००. किये हम ने उन पर करम कैसे कैसे-- २३ नवम्बर की गज़ल, ईके को २५-११-०६ को प्रेषित किये हम ने उन पर करम कैसे कैसे सहे हम ने उन के सितम कैसे कैसे उफ़ न किया न ज़ुबां हम ने खोली किये उन ने हम पे ज़ुलम कैसे कैसे सच ही समझते रहे झूठ उन के रखे हम ने दिल में भरम कैसे कैसे जिस ने दिये हैं उसे क्या सुनाएं मिले हम को संगीं अलम कैसे कैसे मर्दों को मालूम क्या औरतों के दिल में छिपे हैं मरम कैसे कैसे खलिश सोचना भी है मुश्किल हुए हैं शरीफ़ों के हाथों ज़ुरम कैसे कैसे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २० नवंबर २००६ |