Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
६५१. मुझे मौत तो न मिटा सकी पर ज़िन्दगी ने हरा दिया—११ जनवरी की गज़ल, ईके को ११-१-०७ को प्रेषित मुझे मौत तो न मिटा सकी पर ज़िन्दगी ने हरा दिया मुझे जीते जी ही मौत का अहसास तुम ने करा दिया मेरे ख्वाब के जो महल थे मैं चला था उन की तलाश में मैंने राह-ए-मन्ज़िल छोड़ दी कि हकीकतों ने डरा दिया तुम भूल गये मेरे प्यार को मुझे ये ही गम कुछ कम न था रुसवाई से तुम्हें क्या मिला मुझे क्यों नज़र से गिरा दिया ज़फ़ाओं की फ़हरिस्त भी मेरे यार की कुछ कम नहीं उस ने मेरी वफ़ाओं का ईनाम कैसा खरा दिया ऐ वक्त यूं तो उम्र भर तड़पा करेगा मेरा दिल दुनिया की नज़रों में खलिश मेरा ज़ख्म तूने भरा दिया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० जनवरी २००७ ६५२. कितना आसां है कह देना कि बीत गई सो बात गई—१२ जनवरी की गज़ल, ईके को १२-१-०७ को प्रेषित है कितना आसां कह देना कि बीत गई सो बात गई एक दाग उम्र को दे कर के मुझ को ये बीती रात गई कैसे कह दूं माज़ी मेरा कल परदे में छिप जायेगा एक पहर वक्त की घड़ी चली और सूत उम्र का कात गई है जाल ज़िन्दगी का ऐसा मर कर ही कोई निकल पाया हर वार गया खाली मेरा खाली मेरी हर घात गई हम खेल ज़िन्दगी का खेले पर आखिर ये अन्ज़ाम हुआ न आर हुए न पार हुए मेरी सब शह और मात गई हमसफ़र बने वो कुछ ऐसे कि संग चले और बिछड़ गये रफ़्तार मुख्तलिफ़ थी अपनी मैं डाल डाल वो पात गई. जब पेट भरा हो फ़ाके से तो क्या कलाम लिख पायेगा मुफ़लिसी खलिश ऐसी छाई कि कलम गई दावात गई. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ जनवरी २००७ ००००००००००० from abhiranjankumar <lekhak@abhiranjankumar.com> date Jan 14, 2007 10:38 AM महेश जी, आपकी इस ग़ज़ल में दम है। वैसे आप हर रोज़ एक नयी ग़ज़ल कैसे लिख पाते हैं? आखिर इतनी ऊर्जा कहाँ से लाते हैं आप? कुछ रहस्य हमें भी बताएँ। अभिरंजन ००००००००००००० ६५३. उम्र भर ही दिल्लगी यूं ज़िन्दगी करती रही—१३ जनवरी की गज़ल, ईके को १३-१-०७ को प्रेषित उम्र भर ही दिल्लगी यूं ज़िन्दगी करती रही ख्वाब दे कर शक्ल देने से उन्हें डरती रही मैंने मेहनत से सजाया ज़िन्दगी का लान था बेरहम हो गाय किस्मत की उसे चरती रही बाद मुद्दत के मिले कुछ इस तरह बिछुड़े हुए हौंठ मुस्काते रहे और आंख भी झरती रही उम्र कब तक साथ दे इस का भरोसा कुछ नहीं नाव मेरी ज़िन्दगी की डूबती, तरती रही मुफ़लिसी और बेबसी में दिन कटे मेरे खलिश आस आ कर रंग सुहाने रात में भरती रही. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ जनवरी २००७ ६५४. दिन-ब-दिन सांस और धड़कन मन्दतर चलती रही—१४ जनवरी की गज़ल, ईके को १४-१-०७ को प्रेषित दिन-ब-दिन सांस और धड़कन मन्दतर चलती रही आग इक उम्मीद की दिल में मगर जलती रही साथ दे कर चन्द दिन का खो गये सब हमसफ़र एक सिरफ़ तनहाई ही आगोश में पलती रही आये वो इक पल को और सूरत दिखा के चल दिये ज़िन्दगी भर को कमी उन की हमें खलती रही था अन्धेरा रौशनी को लीलने की ताक में मोम पिघलती रही और शम्म भी ढलती रही दूत यम के आये थे लेने खलिश की जान पर वो गज़ल सुनने लगे और मौत यूं टलती रही. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ जनवरी २००७ ००००००००००० from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com date Jan 15, 2007 12:02 AM subject <Khalish Sahab > Re: [ekavita] ६५४. दिन-ब-दिन सांस और धड़कन मन्दतर चलती रही—१४ जनवरी की गज़ल बहुत अच्छे खलिश साहब । >साथ दे कर चन्द दिन का खो गये सब हमसफ़र >एक सिरफ़ तनहाई ही आगोश में पलती रही सादर अनूप ००००००००००००० from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in date Jan 15, 2007 8:26 AM खलिश साहब, बहुत अच्छा। जबाव नहीं आपका। साथ दे कर चन्द दिन का खो गये सब हमसफ़र एक सिरफ़ तनहाई ही आगोश में पलती रही दूत यम के आये लेने खलिश की जान पर वो गज़ल सुनने लगे और मौत यूं टलती रही. बधाई। श्यामल सुमन 000000000000000 from harsh_y71 <harsh_y71@hotmail.com date Jan 15, 2007 10:41 AM भाई महेश जी, हम खुशनसीब हैं कि आप ekavita के सदस्य हैं। बहुत ही बढिया अंदाज है। सुन्दर रचना है जो असरदार भी है। दूत यम के आये लेने खलिश की जान पर वो गज़ल सुनने लगे �"र मौत यूं टलती रही. हमारी शुभकामनायें हैं कि आप हमेशा इसी तरह गज़ल सुनाते रहें। Harsh Y ६५५. सितमगर ने किया जो ज़ुल्म कितना पुर-असर निकला—१७ जनवरी की गज़ल, ईके को १७-१-०७ को प्रेषित--RAMAS सितमगर ने किया जो ज़ुल्म कितना पुर-असर निकला हर इक जो अश्क आंखों से बहा वो बेअसर निकला चले तो थे बड़े अरमान से मंज़िल को हम लेकिन मिली न राह, न मंज़िल, न कोई हमसफ़र निकला बहुत वादे किये सबने मग़र मझधार में छोड़ा मेरा हमदम भी मेरे ग़म से कितना बेख़बर निकला लिया है इम्तिहां किस्मत ने मेरा बारहा लेकिन नतीजा मेरी किस्मत का हमेशा ही सिफ़र निकला दिया जिसको भी मैंने कर्ज़ न आया पलट के वो न जाने क्यों ख़लिश खुदगर्ज़ इतना हर बशर निकला. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १७ जनवरी २००७ ००००००००००००००० from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in date Jan 19, 2007 8:26 PM खलिश साहब, हर शेर लाजबाव है। इतनी उम्दा रचना के लिए हार्दिक बधाई। लिये हैं इम्तिहां किस्मत ने मेरा बारहा लेकिन नतीजा मेरी किस्मत का हमेशा ही सिफ़र निकला अपनी दो पंक्तियाँ आपकी उक्त पंक्तियों के लिये ससम्मान पेश करता हूँः जो मंजिल पे पहुँचे दिखी और मंजिल। ये जीवन तो लगत सिफर का सफर है।। पुनश्च बधाई सादर श्यामल सुमन ००००००००००० from "S.M.Chandawarkar" <chandawarkar@vsnl.net> date Jan 20, 2007 12:02 PM subject Re: [ekavita] (Khalishji) ६५५. सितमगर ने किया जो ज़ुल्म कितना पुर-असर निकला—१७ जनवरी की गज़ल श्यामल किशोर जी, मैं आप से सहमत हूं। खलिश जी को ये पंक्तियां नज़र कर रहा हूं: अपने में कुछ नहीं, फ़िर भी सिफ़र एक जादूई अंक है जिस के बाद यह लगता, दस गुना मूल्य बढाता है यही दुआ, खलिश जी, आप करेंगे हज़ार ग़ज़लें पूरी फ़िर हज़ार के दस हज़ार बनने में कितनी होगी दूरी? सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००० from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com date Jan 18, 2007 12:11 AM subject Re: [ekavita] ६५५. सितमगर ने किया जो ज़ुल्म कितना पुर-असर निकला—१७ जनवरी की गज़ल Khalish ji bahut umada gazal hai, jabardast sheyer hain./Jio'Habeeb' ००००००००००००० ६५६. मैं केवल एक खिलौना हूं—बिना तिथि की कविता, ईके को २०-१-०७ को प्रेषित मैं केवल एक खिलौना हूं सबने अपना दिल बहलाया जी भर के मुझ को नचवाया नोचा खौंसा और रुलवाया घावों को झूठे सहलाया मैं केवल एक खिलौना हूं सब ने मुझ पर विश्राम किया जो वर्जित था वह काम किया निर्मलता को बदनाम किया मल सारा मेरे नाम किया मैं केवल एक बिछौना हूं हैं अन्य सभी बलवान बहुत दिखते हैं सब गुणवान बहुत मुझ से सब हैं धनवान बहुत होता सब का सम्मान बहुत मैं तन मन धन से बौना हूं मैं केवल एक खिलौना हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ जनवरी २००७ ६५७. कुछ दोस्त पूछते हैं मेरे, कविता कैसे लिख पाता हूं—१९ जनवरी की गज़ल, ईके को १९-१-०७ को प्रेषित कुछ दोस्त पूछते हैं मेरे, कविता कैसे लिख पाता हूं लिखने को कैसे गज़ल नयी अलफ़ाज़ ढूंढ कर लाता हूं मैं कैसे बतलाऊं उन को ये गज़ल नहीं हैं आंसू हैं ये छलक नयन से जाते हैं मैं चाहे लाख छिपाता हूं गमगीन बहुत यूं तो मेरी अपनी दुनिया भी है लेकिन गम औरों के भी खुशी खुशी मैं अपने गले लगाता हूं ऐसा भी होता है ग़म की शिद्दत बेहद बढ़ जाती है दिल रोता है तब कविता कर खुशियों के ख्वाब सजाता हूं सच कहूं अगर मैं खलिश गज़ल लिखना ही मेरा जीना है कविता की भाषा में जग को मैं मन की बात बताता हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ जनवरी २००७ ६५८. मानव जब एक धरातल से इतना ऊंचा उठ जाता है—ईके को १९-१-०७ को बिना तिथि के प्रेषित कविता मानव जब एक धरातल से हट कर ऊंचा उठ जाता है नभ के बादल से, छोड़ धरा, उस का जुड़ जाता नाता है तब उस की कविता शब्दों की मोहताज नहीं हो सकती है उस की सांसों में पल पल में एक नयी कल्पना पलती है वह मानव-मात्र नहीं रहता कवि की संज्ञा मिल जाती है यह संज्ञा उस के जीवन की बन जाती अनुपम थाती है ऐसे में उस का सारा ही जीवन मधुमय हो जाता है उस की नित नयी कविता पढ़ कर पाठक स्तम्भित हो जाता है उस ठगी अवस्था में पाठक कुछ कहने से कतराता है ज्यों सूरज के आगे दीपक बाती ले कर खिसियाता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ जनवरी २००७ ००००००००००००००० from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com> date Jan 19, 2007 7:27 AM खलिश साहब: राकेश जी की प्रतिभा को अच्छा समेटा है आप नें । राकेश जी के परिचय में मैं अक्सर कहता हूँ कि 'वह सिर्फ़ अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से नहीं हैं, राकेश जी जहाँ भी होते उन की गिनती वहाँ के सर्वश्रेष्ट कवियों में ही की जाती" हमारा सौभाग्य है कि वह ईकविता से सिर्फ़ जुड़े ही नहीं हैं , उस के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं । अनूप ०००००००००००० ६५९. बाहर से कुछ दिखता है और भीतर कुछ और कहानी है—२३ जनवरी की गज़ल, ईके को २३-१-०७ को प्रेषित बाहर से कुछ दिखता है और भीतर कुछ और कहानी है वाणी में झलक नहीं पाती जो मन की व्यथा पुरानी है दो पहलू होते हैं अकसर एक चमकीला एक दर्द भरा है चलन यही दुनिया का कि सुन्दर तस्वीर दिखानी है वो आए मेरी दुनिया में, हम साथ चले फिर बिछड़ गये मटमैला पुर्ज़ा कागज़ का बस उन की एक निशानी है जिस से इस दिल का नाता था वह आज नहीं है पहलू में अब कौन बचा जिस को दिल के गम की तफ़सील बतानी है एक गज़ल बहाती है आंसू एक मस्ती को अधिकाती है मैं सोच रहा हूं खलिश खड़ा कब किस को कौन सुनानी है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १९ जनवरी २००७ 00000000000000000 from bejijaison <bejijaison@yahoo.com date Jan 25, 2007 11:00 AM बहुत अच्छी गज़ल है �"र एकदम सटीक "वो आए मेरी दुनिया में, हम साथ चले फिर बिछड़ गये मटमैला पुर्ज़ा कागज़ का बस उन की एक निशानी है" बधाई !! 0000000000000000 ६६०. पूछें मुझ से दुनिया वाले क्यों पल पल आंसू झरता हूं—२१ जनवरी की गज़ल, ईके को २१-१-०७ को प्रेषित पूछें मुझ से दुनिया वाले क्यों पल पल आंसू झरता हूं यह राज़ कहीं न खुल जाये, डरते डरते पग धरता हूं एक लगा नज़र का पत्थर और ख्वाबों के सारे महल ढहे अब ऐसा आलम है जग में हर एक निगाह से डरता हूं जब दिल का दिल से रिश्ता था तब अहसासों का पहरा था सारे बन्धन अब टूट गये दिल जो चाहे मैं करता हूं बहते थे मेरे आंसू पर कोई उन्हें पौंछने न आया अपनी पीड़ा कम करने को औरों की पीड़ा हरता हूं नुक्सान किसी का किया खलिश यह मुझ को आता याद नहीं जो खता करीं अनजाने में उन का खमियाज़ा भरता हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १९ जनवरी २००७ ६६१. ज़िन्दगी के रास्ते चुकते नहीं —ईके को २०-१-०७ को बिना तिथि के प्रेषित कविता ज़िन्दगी के रास्ते चुकते नहीं चल रहे हैं हम कहीं रुकते नहीं जो वतन की आन पर कुर्बान हैं सिर कटा देते हैं पर झुकते नहीं क्या लिखेंगे सिर्फ़ हरफ़ों से गज़ल जो लगाते हैं कभी नुक्ते नहीं एक ज़माना बीत जाता है मगर दाग जो दिल पर लगे मुकते नहीं घाव जो मिलते हैं राह-ए-इश्क में चैन देते हैं खलिश दुखते नहीं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २० जनवरी २००७ ६६२. शादी इक नाज़ुक रिश्ता है शादी इक नाज़ुक रिश्ता है बिक रहा आजकल सस्ता है कितना पवित्र बन्धन था यह हो गया बहुत अब खस्ता है पाकीज़ा घर में बैठी है शौहर कोठे पर बसता है दीवान-ए-खास कभी था जो बन गया आम इक रस्ता है जो भी था पाक-ओ-साफ़ खलिश रिश्वत से अब वाबस्ता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ जनवरी २००७ ६६३. प्यार से जो भी मिला वो ही लगा प्यारा मुझे—२२ जनवरी की गज़ल, ईके को २२-१-०७ को प्रेषित प्यार से जो भी मिला वो ही लगा प्यारा मुझे पर किसी ने न बनाया आंख का तारा मुझे मैंने की थी क्या खता एक बार उस से पूछता गर वो राहों में कभी मिल जाता दोबारा मुझे रौशनी निकली तो थी घर से अन्धेरा ढूंढने लौट कर बोली जहां रौशन मिला सारा मुझे क्या पता कैसे बुझाते प्यास हैं दुनिया में लोग मैंने जो खोदा कुआं वो ही मिला खारा मुझे लोग समझाते रहे पर मैं बदल पाया नहीं इस शराफ़त ने खलिश है बारहा मारा मुझे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ जनवरी २००७ ६६४. मेरे भी घर में एक दिन सोने की खान थी— बिना तिथि की गज़ल, ईके को २१-१-०७ प्रेषित मेरे भी घर में एक दिन सोने की खान थी इन बाजुओं में भी कभी लोहे की जान थी माना कि खा रहा हूं मैं दर दर की ठोकरें मेरी भी किसी वक्त कोई आन-बान थी हैं आज चमगादड़ जहां मालिक-ए-खन्डहर वां भी कभी महलों की रौनक आलीशान थी टकरा के आसमान से धरती पे गिर पड़ा ऊंची बहुत शायद मेरी पहली उड़ान थी आतिश-ए-गम में ख्वाहिशें सब राख हो गयीं इस दिल में भी हसरत खलिश इक दिन जवान थी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ जनवरी २००७ ६६५. शायर भी अजब है चीज़ खुद आंसू बहाता है— बिना तिथि की गज़ल, ईके को २४-१-०७ प्रेषित शायर भी अजब है चीज़ खुद आंसू बहाता है गज़ल की दाद पा कर के मगर फिर मुस्कराता है किसी शायर की कलम की यही पहचान होती है गज़ल की तर्ज़ पर लाखों का गम गा कर सुनाता है गज़ल वो ही तराना बन के मूसीकी में ढलती है जिसे लिखने से पहले मन में शायर गुनगुनाता है दिल-ए-शायर में आता है कोई जब ख्याल चुपके से गज़ल में न ढले जब तक वो दिल में कुलबुलाता है नहीं आसां बता पाना खलिश उस लमहे की शिद्दत वो अहसास-ओ-सुकूं जो लिख के गज़ल दिल में आता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २४ जनवरी २००७ ६६६. बना न कोई मीत— बिना तिथि की गज़ल, ईके को २४-१-०७ प्रेषित बना न कोई मीत मैंने बहुत दिलों में झांका मिला न कोई दिलवर बांका अमृत के बदले विष फांका बना न कोई मीत सब पर अपना प्रेम लुटाया बदले में मैंने क्या पाया जो कुछ भी था पास गंवाया मिली न मुझ को प्रीत भरे कभी न दिल के फोड़े दुख अतिशय और सुख थे थोड़े टूटे तार निरन्तर जोड़े रहा अधूरा गीत जिस को मैंने समझा रक्षक निकला वह कोरा नर भक्षक मैं अबला और वह इक तक्षक कैसी जग की रीत बना न कोई मीत. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २४ जनवरी २००७ ६६७. मेरी तनहाई ही मेरे तनहा जीवन की साथी है—२६ जनवरी की गज़ल, ईके को २६-१-०७ को प्रेषित मेरी तनहाई ही मेरे तनहा जीवन की साथी है ये वो शय है जो मेरे संग रोती मुस्कराती है ये मेरी शख्सियत है बस गयी है मेरी सांसों में अंधेरों में मेरी तनहाई ही दिल को जलाती है किसी का साथ हो न हो गुज़ारा हो ही जाता है मगर सूरत तसव्वुर में कोई आ कर बुलाती है जो मिल जाते हैं राहों में वो अक्सर छोड़ जाते हैं वफ़ा मुझ से सिर्फ़ तनहाई ही मेरी निभाती है नहीं है हमसफ़र कोई नहीं है कोई ख्वाबों में अकेला हूं अकेले उम्र मेरी रोज़ जाती है करम तेरा है तनहाई खलिश है शुक्रिया तेरा नहीं जिस का रहा कोई उसे अपना बनाती है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ जनवरी २००७ ६६८. मेरी तनहाई मेरी ज़िंदगी के साथ जायेगी—२७ जनवरी की गज़ल, ईके को २७-१-०७ को प्रेषित --RAMAS मेरी तनहाई मेरी ज़िंदगी के साथ जायेगी वफ़ा हर हाल में ये आखिरी दम तक निभायेगी गये जिस वक्त वो संग ले गये जीवन की सब खुशियां कभी मुस्कान चेहरे पर न मेरे लौट पायेगी दवा मेरी नहीं कोई, मुझे गफ़लत में रहने दो न मुझ को होश आयेगा, न उनकी याद आयेगी न अब मय है, न मीना है, न साकी है, न पैमाना मगर भर-भर के उन की याद जाम-ए-ग़म पिलायेगी. कभी मंज़र जुदाई का तसव्वुर में ख़लिश मेरे जो आयेगा तो उनकी याद फिर आ के रुलायेगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ जनवरी २००७ ६६९. तुम न हो जाओ खफ़ा मुझ से सनम सोच ये डरता रहा हूं उम्र भर—२८ जनवरी की गज़ल, ईके को २८-१-०७ को प्रेषित तुम न हो जाओ खफ़ा मुझ से सनम, सोच ये डरता रहा हूं उम्र भर लमहा-ए-इज़हार का ही इन्तज़ार, मैं सनम करता रहा हूं उम्र भर मान कर देवी वफ़ा की मैं तुम्हें, हुस्न की पूजा सदा करता रहा पर किताब-ए-इश्क को उलटा पकड़, शायद मैं पढ़ता रहा हूं उम्र भर क्या करोगे थाम कर इस हाथ को, मिट गयीं इस की लकीरें हैं सभी मुफ़लिसी और बेबसी के जाल में खुद-ब-खुद पड़ता रहा हूं उम्र भर कुछ असर गम का तो कुछ मय का हुआ, ज़िन्दगानी से अदावत हो गयी लोग तो मुझ को उठाते ही रहे, मैं मगर गिरता रहा हूं उम्र भर हैं अजब राहें बहुत ये इश्क की सिर्फ़ मैंने पाईं हैं रुसवाइयां बारहा सूली पे खातिर प्यार की मैं खलिश चढ़ता रहा हूं उम्र भर. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ जनवरी २००७ ६७०. जग में पुजने वाले अक्सर पूजन योग्य नहीं होते हैं जग में पुजने वाले अक्सर पूजन योग्य नहीं होते हैं काम-रहित कहलाने वाले काम-मग्न हो कर सोते हैं बाहर क्या है भीतर क्या है इसे समझना सहज नहीं है जो बाहर से मुस्काते हैं वे मन ही मन में रोते हैं मेरे मन में रह रह कर के एक सवाल उठा करता है जान-बूझ कर दीप-शिखा में जान पतंगे क्यों खोते हैं कर्मों का फल न भोगें यह कैसे मुमकिन हो सकता है वही काटना लाज़िम है जो जीवन भर जग में बोते हैं कलियुग में तो नामजपन ही मुक्ति का साधन अचूक है भवसागर में उसे भूलने वाले ही खाते गोते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ जनवरी २००७ ६७१. मेरी तनहाई को मुझ से जुदा तुम कर न पाओगे मेरी तनहाई को मुझ से जुदा तुम कर न पाओगे मेरे दिल में जो सूनापन है उस को भर न पाओगे कहां ढूंढोगे मुझ को, छोड़ दी है मैंने ये दुनिया करो कोशिश हज़ारों तो भी मेरा घर न पाओगे जुबां पर जड़ दिये ताले, किसी को क्या खबर होगी छिपे जज़्बात हैं दिल में, उन्हें बाहर न पाओगे ये लश्कर और दौलत सब यहीं पर छूट जायेंगे इन्हें ले कर खुदा के मुल्क में पग धर न पाओगे वो बैठा है निहां मासूम से इक तिफ़्ल के दिल में इमारत में खलिश ईंटों की उस का दर न पाओगे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २७ जनवरी २००७ ६७२. न मेरे पास आना अब मुझे उल्फ़त नहीं भाती न मेरे पास आना अब मुझे उल्फ़त नहीं भाती कोई ख्वाहिश मेरे दिल में नहीं अब वस्ल की आती कोई था वक्त ख्वाबों के सहारे हम जिये लेकिन कोई उम्मीद अब दिल में नहीं चाह के भी उग पाती ये सच है मेरे दिल में भी कभी ये ख्याल आता है कोई तो पास में होता मेरी तनहाई मिट जाती मदद की गैर की मैंने मुझे अपनों ने ठुकराया बनो खुदगर्ज़ दुनिया में यही दुनिया है सिखलाती सितम-ओ-गम ज़माने भर के गर दिल में बसाओगे बहाओगे खलिश आंसू, बनोगे मुफ़्त जज़्बाती. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २७ जनवरी २००७ ६७३. तुम मन्द मन्द मुस्काये हम थे कोमल दिल और बहल गये तुम मन्द मन्द मुस्काये हम थे कोमल दिल और बहल गये अफ़सोस बनाये थे जितने ख्वाबों के सारे महल गये हम ने तो चाहा था कि तुम दो गाम हमारे संग चलो पर साथ निभा न पाये तुम और कदम तुम्हारे फ़िसल गये जिन को लाखों अरमानों की शिद्दत से सींचा था मैंने एक तपती लू के झोंके से मुरझा मेरे मन कंवल गये इन प्यार की राहों में यारब दोनों हैं फूल और कांटे भी दिन चार मिले थे उल्फ़त में कुछ मुश्किल और कुछ सहल गये शुक्रिया तुम्हारा खलिश प्यार की राहें हम को समझा दीं अब और न ठोकर खायेंगे बाकरम तुम्हारे संभल गये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २७ जनवरी २००७ ६७४. जब पथ में कांटे बोये तो नंगे पांव न चलना होगा जब पथ में कांटे बोये तो नंगे पांव न चलना होगा जिस की कोई मन्ज़िल न हो, ऐसी राह न बढ़ना होगा दिल पर यूं तो जोर नहीं है, लेकिन बेहतर है दिल वालो नाम वफ़ा का जो न जाने उस से इश्क न करना होगा मौत खड़ी है अगर सामने कैसा डरना और झिझकना इस दुनिया में आये हैं तो हम सब को ही मरना होगा गर समाज में रहते हो तो फिर समाज के नियम निभाओ रीत रिवाज़ धरम की खातिर सब को सूली चढ़ना होगा राम गये बनवास पिता के वचनों की रक्षा करने को खलिश वज्र-सम हो कर हम को भी असत्य से लड़ना होगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २८ जनवरी २००७ ६७५. वो भूल गये हम को जो दिल के सहारे थे वो भूल गये हम को जो दिल के सहारे थे हम तो न हुए उन के हम समझे हमारे थे उंगलियां तरसती हैं वो गेसू छूने को फ़ुर्सत की घड़ियों में जो कभी संवारे थे हैं ढूंढ रहीं लहरें पांवों के निशां को जो वो छोड़ गये इक दिन नदिया के किनारे थे मोहताज़ अभी तक हैं गुन्चे उन नज़रों के जिन से उन के नैना गुलशन को निहारे थे रह रह के तसव्वुर में आयेंगे खलिश मेरे जो रात-ओ-दिन उन के पहलू में गुज़ारे थे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २८ जनवरी २००७ |