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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
८५१. तनहा हुआ तो दिल को मेरे आ गया करार—२-५-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को २-५-०७ को प्रेषित--RAMAS तनहा हुआ तो दिल को मेरे आ गया करार आ- आ के चैन अब न लूटेंगी मेरा बहार सुनसान अन्धेरों में जाने क्यों कभी- कभी लगता है जैसे दूर से आये कोई पुकार ग़र भूल जाऊं राह तो चलता ही रहूंगा किसको पड़ी है जो मुझे टोकेगा एक बार सो जाऊंगा वहीं जहां थक जायेंगे कदम रातों को कौन है जो करे मेरा इन्तज़ार मुमकिन नहीं कि भूल जाऊं वो समां ख़लिश मुझ पे लुटाया था किसीने इस गली में प्यार. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ अप्रेल २००७ P८५२. चलना शुरू किया तो मैं चलता चला गया—२७-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २७-५-०७ को प्रेषित चलना शुरू किया तो मैं चलता चला गया नाहक किसी की चाह में छलता चला गया मन्ज़िल की न तलाश न राहों का इल्म था अपने ही खयालात में पलता चला गया जो भी मुकाम मिल गया वो ही कबूल था मैं नित नये हालात में ढलता चला गया गम के अन्धेरों से भरी गोया कि शाम थी सूरज नया हर सुबह निकलता चला गया डरता नहीं हूं मौत से कुछ बात है खलिश हर बार वक्त-ए-मौत भी टलता चला गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ अप्रेल २००७ तर्ज़—उन के खयाल आये तो आते चले गये ००००००००००००००००००००० from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com> date May 27, 2007 7:28 PM खलिश साहब: गज़ल अच्छी लगी । खास तौर से मतला और ये शेर : >जो भी मुकाम मिल गया वो ही कबूल था >मैं नित नये माहौल में ढलता चला गया >डरता नहीं मैं मौत से कुछ बात है खलिश >हर बार वक्त-ए-मौत भी टलता चला गया. सादर अनूप ८५३. ज़िन्दगी की शाम है चिराग गुल कर दो—३-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३-५-०७ को प्रेषित ज़िन्दगी की शाम है चिराग गुल कर दो रौशनी की जगह अब तारीकियां भर दो रंग और बू की अब नहीं दरकार है मुझे नूर-ए-इलाही दिल में हो, मौला मुझे वर दो खुदगर्ज़ बन के गैर का हक छीनता रहा राह पे बदी की न चलूं इतना मुझे डर दो मैं मयकदे का दर रहा अब तक तलाशता परवरदिगार बाकरम अपना मुझे दर दो दुनिया के इस घर की खलिश परवाह नहीं मुझे कदमों में अपने याखुदा मुझ को मेरा घर दो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ मई २००७ तारीकी = अन्धेरा नूर-ए-इलाही = ईश्वरीय प्रकाश खुदगर्ज़ = स्वार्थी बदी = बुराई बाकरम = कृपा कर के ८५४. वो भूले से मुझे भी याद तो करती कभी होगी—४-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ४-५-०७ को प्रेषित वो भूले से मुझे भी याद तो करती कभी होगी मेरी सूरत मेरी तसवीर पे मरती कभी होगी मेरी आंखें तो उस की याद में भीगी ही रहती हैं मेरे ख्यालों में उस की आंख भी झरती कभी होगी सहेली भांप न जायें अजब सी दिल की ये हालत जो मेरा जिक्र आ जाये तो वो डरती कभी होगी ज़माने में बहुत अफ़वाह बन जाती हैं दम भर में सरेबाज़ार घबरा के कदम धरती कभी होगी छिपाती तो बहुत होगी खलिश वो दिल की हालत को दबी सांसों से आह तनहाई में भरती कभी होगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ मई २००७ ८५५. आप की जान है हम को प्यारी बहुत, दूर जाने की बातें न यूं कीजिये--बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को ४-५-०७ को प्रेषित आप की जान है हम को प्यारी बहुत, दूर जाने की बातें न यूं कीजिये आप के बिन जियें हम ये मुमकिन नहीं, पास आने का मौका हमें दीजिये आप कमसिन हैं नादां हैं भोले बहुत, हुस्न कायम हमेशा रहे आप का जी के तनहाई में क्या करेंगे भला, जान हाज़िर हमारी है ले लीजिये हम गुज़र जायें प्यासे तो परवाह नहीं, प्यार गैरों से लेकिन सलामत रहे जाम अश्कों के अपने इधर हम पियें, आप रंगीन प्याले उधर पीजिये चापलूसी हमें रास आती नहीं, आप नाराज़ न होइये इस कदर बात चाहे हमारी न मीठी लगे, बात सुन के हमारी न यूं खीजिये कोई हक तो खलिश है नहीं आप पर, आप गर न मिले तो करें क्यूं गिला जान लीजे मगर हुस्न है चार दिन, आप खुद पे न इतना सनम रीझिये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ४ मई २००७ ००००००००००० from subhash_bhadauriasb <subhash_bhadauriasb@yahoo.com> date May 4, 2007 2:20 PM आपकी ग़ज़ल के मतले ने तो हमें रुला डाला- आपकी जान है हम को प्यारी बहुत,दूर जाने की बातें न यूं कीजिये. आपके बिन जियें हम ये मुमकिन नहीं,पास आने का मौका हमें दीजिये. मक्ते का शेर भी ग़जब की तसल्ली देता है. बात चाहे हमारी न मीठी लगे,आपके वास्ते एक है मशवरा, आप रुस्वा हों हमको गवारा नहीं,चाक दामन तो अपना खलिश जी लिये. कहना न होगा कि आप ग़ज़ल के खलीफा हैं.उपरोक्त ग़ज़ल के अरकान इस प्रकार से है. फाइलुन फाइलुन फाइलुन फालुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन. 212 212 212 212 212 212 212 212. ये बहरे मुतदारिक है शायर ने अरकान एक मिसरे में आठ बार शेर में सोलह बार इस्तेमाल किये हैं.यह बहर प्राया शेर में आठ बार प्रयुक्त होती है. इसे आसानी के लिए मश्हूर गीत- की तर्ज देखें. तुम अगर साथ देने का वादा करो मैं यूंही मस्त नग्मे लुटाता रहूं. कितने जल्वे फिज़ा�"ं में बिखरे मेरे ,मैने अब तक किसी को पुकारा नहीं. तुम को देखा तो नज़रें ये कहने लगी, हमको चेहरे से हटना गंवारा नहीं. ८५६. हम ने जो उन से कहा हम खुदकुशी कर जायेंगे--बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को ४-५-०७ को प्रेषित हम ने जो उन से कहा हम खुदकुशी कर जायेंगे वो कहे मारे खुशी के हम सनम मर जायेंगे न खबर थी वो भी इस फ़न के बड़े उस्ताद हैं सोचते थे मौत की भभकी से वो डर जायेंगे साथ जीने साथ मरने के बहुत वादे किये ले के जायेंगे उन्हें दुनिया से हम गर जायेंगे उन की फ़ितरत में भरा इन्कार था ज्यादा ही कुछ हम तो खुश थे सोच कर ले के उन्हें घर जायेंगे इस तरह रुसवा हुए हैं उन के कूचे में खलिश किस तरह हम लौट के अब यार के दर जायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ४ मई २००७ ८५७. कौन सा बाकी रहा है इम्तिहां अब और भी--५-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ५-५-०७ को प्रेषित कौन सा बाकी रहा है इम्तिहां अब और भी रोज़ फाका कर रहे मिलता नहीं इक कौर भी सर पे छत कपड़ा बदन पे, ढांकने को कुछ तो हो मुफ़लिसों की ज़िन्दगी पर कीजिये कुछ गौ़र भी एक दिन बेसाख्ता यूं ही गुज़र जायेंगे हम मिल न पाएगा कहीं दो गज़ ज़मीं का ठौर भी हम सही ज़ाहिल नहीं जीने का हम को है शऊर आप ही हम को सिखा दीजे तरीक:-ओ-तौर भी है लिखी पत्थर पे न बदलेगी किस्मत-ए-ग़रीब कुछ न कर पाये खलिश वो इश्तिराकी दौर भी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ मुफ़लिस = ग़रीब बेसाख्ता = सहसा, अचानक, बिना किसी तैय्यारी या टीम-टाम के इश्तिराकी = साम्यवादी, कम्युनिस्ट ०००००००००००००० from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in date May 5, 2007 4:38 PM खलिश साहब, बहुत सुन्दर। एक एक पंक्ति अन्तः स्पर्शी है। बधाई। सादर श्यामल सुमन ००००००००००००००००० P८५८. वो लड़की जब भी मेरे पास से हो कर गुज़रती है—२५-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को २५-५-०७ को प्रेषित वो लड़की जब भी मेरे पास से हो कर गुज़रती है मेरे सीने में कोई याद खंजर सी उतरती है न मुंह से बोलती है न कभी नज़रें मिलाती है मगर लगता है वो मेरे लिये सजती संवरती है मुझे लगता है वो मुझ को बुलाती है इशारों से अगर मैं पास जाऊं तो तुनकती और बिफरती है रवां हो जाये है एक बर्ख सिर से पांव तक मेरे मेरी जब भी निगाह उस की निगाहों से टकरती है गुलों पे ही नहीं खारों पे भी इक नूर आ जाये फ़िज़ाओं में खलिश मुस्कान उस की जब बिखरती है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ बर्ख = करेंट, लहर \\\\\ P८५९. जब से गया बिछुड़ के मेरी ज़िन्दगी का यार—१९-५-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को १९-५-०७ को प्रेषित जब से गया बिछुड़ के मेरी ज़िन्दगी का यार जी चाहता है मुड़ के देख लूं हज़ार बार मानिन्द-ए-ख्वाब आये और आ कर चले गये सोचा था ये कट जायेंगे दिन ज़िन्दगी के चार मिलना था एक दिन का और जुदाई उम्र की रोया किये हम याद कर के उन को जार जार तसवीर उन की देख कर दिल की किताब में झन्ना उठे हैं आज फिर से मेरे दिल के तार जाती है दिल का मामला, किस को सुनायें हम ऐसे में कोई क्या करेगा मेरा गमगुसार जीता रहा हूं मौत के साये में दम-ब-दम मुझ को मिली है ज़िन्दगी में हर कदम पे हार मिलना है एक पल का और रोना है रात भर राहों में मेरी फूल हैं कम और ज़ियादा खार क्यूं न खलिश हो जाये ग़म के ज़ोर से छलनी दिल तो है इक अदद मगर यादें हैं बेशुमार. महेश चन्द्र गुप्त खलिश, ५ मई २००७ गमगुसार =दिल को बहलाने वाला, दर्द कम करने वाला जाती = व्यक्तिगत दम-ब-दम =पल पल खार = कांटे ८६०. हम नहीं अब आप के काबिल रहे—१८-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १८-५-०७ को प्रेषित हम नहीं अब आप के काबिल रहे प्यार में क्योंकर कोई गाफ़िल रहे बात दिल की है अदालत की नहीं बन के कोई किस तरह आदिल रहे हम कबूल-ए-ज़ुर्म करते हैं मगर इस गुनाह में आप भी शामिल रहे आग तो दोनों तरफ़ थी एक सी सिर्फ़ हम ही तो नहीं कातिल रहे गो रहे हम ज़िन्दगी भर हमसफ़र दूर इक दूजे से दो साहिल रहे ये लड़ाई है बहुत मीठी खलिश हार कर दिल, सूरमा-ए-दिल रहे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ गाफ़िल = अनभिज्ञ, अनजान आदिल = न्यायवान, न्यायनिष्ठ साहिल = किनारे ००००००००००००००००० from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com> date May 18, 2007 5:31 PM बात दिल की है अदालत की नहीं बन के कोई किस तरह आदिल रहे हम कबूल-ए-ज़ुर्म करते हैं मगर इस गुनाह में आप भी शामिल रहे ------------कर सकूँ तारीफ़ कुछ अश आर की ------------अब नहीं अल्फ़ाज़ मुझको मिल रहे राकेश ०००००००००००००००००० ८६१. मेरे दिल का हाल भी अजीब है—१६-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १६-५-०७ को प्रेषित मेरे दिल का हाल भी अजीब है दिल दिया उसे कि जो रकीब है रो के हालेदिल बयान क्यों करूं जो मिला मुझे मेरा नसीब है इश्क ने कमाल क्या दिखा दिया जो था अजनबी बना करीब है लूट बैठा वो ही मेरा कारवां हम जिसे कहा किये हबीब है दिल न दीजिये हुज़ूर सोच लें बन्दा एक मुफ़लिस-ओ-गरीब है. नाम ईसा का मिला तभी खलिश जब उठाया अपना ही सलीब है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ८६२. प्यार तो करते हैं वो पर हम को जतलाते नहीं—१४-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १४-५-०७ को प्रेषित प्यार तो करते हैं वो, पर हम को जतलाते नहीं दिल में ही रखते हैं गम, वो हम को बतलाते नहीं उन का सीना है किला जो हर तरफ़ से बन्द है राज़-ए-दिल क्योंकर हमें अपने वो दिखलाते नहीं कौन ये समझाये उन को गुफ़्तगू में इश्क है इस तरह आशिक कभी चुप रह के तड़पाते नहीं हम लुटा दें जान उन पे, कह के देखें एक बार क्या हैं उन की ख्वाहिशें भूले से फ़रमाते नहीं जो भी हैं मेरे हैं वो, है नाज़ उन पे इन्तहा हम खलिश तारीफ़ करते उन की शरमाते नहीं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ८६३. एक दिन हम ने कहा सुनिये जरा मेरे हुज़ूर—१२-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १२-५-०७ को प्रेषित एक दिन हम ने कहा सुनिये जरा मेरे हुज़ूर चाहते हैं तखलिये में बात हम करना ज़रूर वो तुनक के चल दिये और ये नसीहत दे गये तखलिये में फिर मिलेंगे सीखिये पहले शऊर हम ने पूछा क्या कमी आती नज़र है आप को बोले मीठी बात हम से कीजिये, खाएं खजूर उन को हम से बात तक करना गवारा है नहीं हुस्न का अपने उन्हें लगता है कुछ ज्यादा गरूर वक्त ढलते रूप उन का एक दिन ढल जायेगा ढूंढते रह जायेंगे वो एक दिन जैसे कपूर. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ८६४. वक्त ये बीता हुआ फिर लौट के न आयेगा—११-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ११-५-०७ को प्रेषित वक्त ये बीता हुआ फिर लौट के न आयेगा इस को जिस ने भी गंवाया वो बहुत पछतायेगा कोई लमहा ज़िन्दगी में लौट कर आता नहीं खो गया तो कौन फिर वापस इसे ला पायेगा वक्त का हर एक पल जिस ने जिया खोये बिना नाम-ओ-रुतबा इस जहां में सिर्फ़ उस का छायेगा है खबर कल की नहीं पर ख्वाब हैं लम्बे बहुत वक्त अपना कहर बिन आगाह किये ही ढायेगा आज की शय टालते रहते हैं हम कल पर खलिश कौन बन्दा किस घड़ी जाने जहां से जायेगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ८६५. शराब इंसान को इंसान ही रहने नहीं देती--बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को ५-५-०७ को प्रेषित शराब इंसान को इंसान ही रहने नहीं देती रगों में ये कभी पाकीज़गी बहने नहीं देती ये लत-ए-मय ज़हन को इस तरह गन्दा बनाती है लबों को बात शाइस्ता कोई कहने नहीं देती दिलाती तैश है ऐसा कि शैतानी बला है ये कोई भी बात औरों की जरा सहने नहीं देती बुराई है ये मर्दानी न खातूनो इसे पालो ये रुसवाई दिलाती है कोई गहने नहीं देती गरूर ऐसा खलिश दो जाम पीने पर चढ़ाती है चढ़ी रहती है ये जब तक उसे ढहने नहीं देती. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ८६६. न आओ पास मेरे चैन से कुछ देर रोने दो—९-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ९-५-०७ को प्रेषित न आओ पास मेरे चैन से कुछ देर रोने दो बहुत मैं हंस चुका आंखों को नम कुछ देर होने दो तसव्वुर में न आ के यूं बुलाओ मेरे माज़ी को खयालों में मुझे अपने ज़रा सी देर खोने दो नहीं अब मुझ को ग़म कोई मेरी ख्वाहिश अधूरी है नहीं अरमान ही बाकी बचे ख्वाहिश को सोने दो गुनाहों का पुलिन्दा यूं तो मेरा है बहुत भारी मुझे जाने से पहले बीज कुछ नेकी के बोने दो कहीं ऐसा न हो यूं ही गुज़र जाऊं मैं राहों में मुझे बोझा-ए-कफ़्फ़ारी खलिश जी भर के ढोने दो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ तसव्वुर = चिन्तन, कल्पना, ख्याल माज़ी = भूतकाल कफ़्फ़ार: = प्रायश्चित ८६७. ज़िन्दगी मैं इस तरह जीता गया--८-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ८-५-०७ को प्रेषित--P ज़िन्दगी मैं इस तरह जीता गया जाम-ए-मय थे तल्ख, पर पीता गया खेल खेला ज़िन्दगी का इस तरह जो लगाया दांव वो रीता गया सह के हर गम शुक्रिया रब का कहा लो चलो इक और गम बीता, गया दोस्त मेरा चाक दिल करते रहे मैं मगर बाजाब्ता सीता गया हमसफ़र को आज खो बैठा खलिश एक सहारा जो भी मेरा था, गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ तल्ख = कड़ुवा चाक करना = फाड़ना ८६८. एक मोहब्बत दो दिलों में इस तरह पलती रही--६-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को ६-५-०७ को प्रेषित--RAMAS एक मोहब्बत दो दिलों में इस तरह पलती रही मिल न पायी कोई मंज़िल, उम्र बस ढलती रही अपने- अपने ख्याल पर दोनों अड़े कुछ इस तरह रोज़ ऐसा ही हुआ कि बात जो कल थी, रही वो समझते ही रहे कि आयेंगे हम खुद-ब-खुद हम गये न बिन बुलाये, बस यही ग़लती रही दूरियां बढ़ती रहीं पर न हुआ हमको ग़ुमां ज़िंदगी रफ़्तार से अपनी मग़र चलती रही एक दिन यूं ही खलिश तर्के-मोहब्बत हो गयी हार कर दिल की तमन्ना हाथ बस मलती रही. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ ०००००००००००००००००० from Sitaram Chandawarkar <smchandawarkar@yahoo.com> date May 7, 2007 4:21 AM डॉ गुप्त जी, अच्छी ग़ज़ल है! बधाई!! बिन बुलाए, गए नहीं, यह एक गलती हो सकती है! मगर बुलाने पर भी, और जाने की इच्छा होने पर भी गलती हो सकती है। जैसे उस ने लिखा मिलते हैं २-१-०७ को और वह पहूंची ठिकाने २ जनवरी को आखिर तर्क़े मुहब्बत क्यों न हो? मैं समझा था मिलना है १ फ़रवरी को सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००००००० from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> date May 8, 2007 7:17 PM khalishji namaskar bahut sundar gazal hai vaise aapki sabhi gazalein hi sundar hiti hain.bahut bahut badhai kusum ०००००००००००००००० ८६९. एक पलक उन की उठी तो झूम उठा आसमां--७-५-०७ की (गै़र-मुरद्दफ़ ) गज़ल, ई-कविता को ७-५-०७ को प्रेषित उन की इक पलक उठी तो जग गया ये आसमां उन की इक पलक झुकी तो थम गया सारा जहां ज़िन्दगी का एक पल था इस तरह से पुर-असर एक लमहे ने बदल दी ज़िन्दगी की दास्तां तनहा जी रहा था मैं न था कोई भी हमसफ़र एक पल में बन गया कोई दिल का राज़दां एक चश्मा बह चला और साफ़ ज़ाहिर हो गयीं जो रखीं थीं ख्वाहिशें आज तक दिल में निहां मुद्दतों के बाद अब खलिश मिली है ये खुशी छिन न जाये फिर कहीं ज़िन्दगी का ये समां. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ५ मई २००७ 000000000000000000000000 from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in> date May 8, 2007 5:32 AM खलिश साहब, एक पल साबित हुआ कुछ इस तरह से पुर-असर एक लमहे ने बदल दी ज़िन्दगी की दास्तां बहुत अच्छी लगी आपकी ये पंक्तियाँ। बधाई। सादर श्यामल सुमन 00000000000000000000000 ८७०. रोऊं तो मेरे आंसू की क्यों कोई तहकीकात करे--बिना तिथिकी गज़ल, ई-कविता को १०-५-०७ को प्रेषित रोऊं तो मेरे आंसू की क्यों कोई तहकीकात करे रोने में लज़्ज़त कितनी है क्यों कोई ऐसी बात करे तुम को रास अगर न आये अश्कों का कोई दोष नहीं वो तो टुकड़े थे दिल के जो महफ़िल को सौगात करे है रीत अजब इस दुनिया की दुखती रग और दुखाती है जब अपने ग़म से रोता हूं क्यों कोई मुझ पे घात करे. मैं जब चाहे रो लेता हूं और जब चाहे लिख लेता हूं इस सुखनवरी पर ही मैंने न्यौछावर दिन-ओ-रात करे कब कहता हूं मैं शायर हूं, मुझ को इल्म-ए-अकरान नहीं क्यों भला खलिश का हर मिसरा ज़ौक-ओ-ग़ालिब को मात करे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० मई २००७ ८७१. देख लेना तुम को मेरी याद आयेगी कभी--१०-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १०-५-०७ को प्रेषित देख लेना तुम को मेरी याद आयेगी कभी अश्क आंखों में तुम्हारी काश लायेगी कभी भूल न पाओगे मुझ को रात की तनहाई में कोई तो मेरी निशानी कौन्ध जायेगी कभी गो कि मेरी ज़िन्दगी में ठोकरें हैं बेशुमार पर निज़ात-ए-ग़म मेरी भी रूह पायेगी कभी ये है दीगर बात कि रोता रहा मैं उम्र भर ज़िन्दगी मेरी गज़ल में मुस्करायेगी कभी आज हूं लेकिन रहूंगा कल न दुनिया में खलिश याद तनहाई में तो मेरी रुलायेगी कभी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० मई २००७ ८७२. आप की सराहना--बिना तिथिकी कविता, ई-कविता को १०-५-०७ को प्रेषित आप की सराहना बढ़ा रही है भावना कि अनवरत लिखे चलो हो अशेष कामना लेखनी नहीं रुके स्तर कभी नहीं झुके ऊर्जा अनन्त हो स्रोत न कभी चुके शब्द राग को मिले रूप काव्य का खिले दोस्त हों दोनों ज़ुबां कोई न रहें गिले शेर-ओ-शायरी बढ़े फूल सी गज़ल झड़े हिन्दी-उर्दू दोनों ही संग कवि हृदय पढ़े. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० मई २००७ ८७३. भगवान मेरे दिल को पापों से बचा लेना--१३-५-०७ की गज़ल/भजन, ई-कविता को १३-५-०७ को प्रेषित भगवान मेरे दिल को पापों से बचा लेना मन में तुम गुण भरना अवगुण को मिटा लेना तीरथ तो किये लेकिन तुम को न कहीं पाया मन्दिर मेरे मन में भगवान बना लेना दुनिया में बहुत भटका अपना है नहीं कोई तुम अपनी गोदी में भगवान बिठा लेना मोह माया के रस्ते कभी पार न पाऊंगा तुम थामना उंगली को और संग लिवा लेना सेवा में तुम्हारी मैं जीवन को हवन कर दूं कर्तव्य खलिश भूलूं तो जग से उठा लेना. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ मई २००७ ०००००००००००००००००००००००००० from Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in> date May 14, 2007 7:46 PM खलिश जी, मैं प्रार्थना करता हूँ कि भगवान आपकी प्रार्थना स्वीकार करे। प्रवीण परिहार ०००००००००००००० P ८७४. एक याद है रह- रह कर दिल में जो आती है—२०-६-०७ की गज़ल, ई-कविता को २०-६-०७ को प्रेषित--RAMAS एक याद है रह-रह कर दिल में जो आती है आलम में तन्हाई के मुझको तड़पाती है धुंधली-सी कोई सूरत आंखों में मचलती है पहचान मग़र उसकी अकसर भरमाती है रोता है जो इक पल में, दूजे में हंसता है कुछ दिल दीवाना है और कुछ जज़्बाती है इक लमहा सूखे है, इक लमहा बहता है इन चश्मों में कोई चश्मा बरसाती है माज़ी के अंधेरे में बिजली सी चमकती है तो किसी हक़ीकत से फ़ितरत घबराती है थम जाओ ख़लिश यादो अब पास न आओ तुम हर याद नये ग़म का बायस बन जाती है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ मई २००७ P ८७५. होता कोई जिस को अपना दर्द बता सकता--१५-५-०७ की गज़ल, ई-कविता को १५-५-०७ को प्रेषित होता कोई जिस को अपना दर्द बता सकता जिस पर अपने ग़म का मैं अहसास जता सकता दुनिया वालों से तो मैं दिन रात छिपाता हूं खुद अपने दिल से अपने गम आप छिपा सकता वो बिछुड़े ले गये संग में दिल की सब खुशियां किसी तरह मैं उन को फिर एक बार बुला सकता होती कुछ तदबीर कि लौट आते वो बीते दिन गुज़रे लमहे मैं फिर से एक बार बिता सकता कितने ही जज़्बात संजोये मैंने नग़मों में होता कोई खलिश जिसे नग़मात सुना सकता. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ मई २००७ |