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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
१०५१. उसे रास्ता ये निगल गया, इस रास्ते जो चला गया—१ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १ अक्तूबर २००७ को प्रेषित उसे रास्ता ये निगल गया, इस रास्ते जो चला गया मुझे रोक लो अभी वक्त है, जो चला गया तो चला गया एक लमहा है अभी हाथ में, इसे कैद कर लो कि छोड़ दो ये करोगे फिर अफ़सोस तुम, एक दोस्त था वो चला गया अभी जिस मुकाम पे हैं खड़े ये मुकाम भी ग़र न रहा फिर ढूंढते ही रहोगे मैं किन मन्ज़िलों को चला गया तुम हां करो या कि न करो, है तुम्हारा ही अख्तियार ये मेरी याद कैसे भुलाओगे, मेरी जान मैं गो चला गया मुश्किल बहुत तनहाई से करना ख़लिश है दोस्ती न करार तुम को मिलेगा ग़र बेकरार मैं हो चला गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ सितम्बर २००७ १०५२. हम दिल का भरोसा न करते तो आज ये हालत न होती—२ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २ अक्तूबर २००७ को प्रेषित हम दिल का भरोसा न करते तो आज ये हालत न होती होता न निकाह, न तर्केनिकाह, मुंसिफ़-ओ-अदालत न होती सूरत पे हुए यूं दीवाने, दिल की सीरत देखी ही नहीं निभ ही जाती उन संग ज़फ़ा करने की जो आदत न होती फ़ैशन और फ़ाकामस्ती में है फ़र्क बहुत, दिल मिल न सके न उन से मोहब्बत हम करते, ऐसी तो ज़हालत न होती बीबी भी अलग, बच्चे भी अलग और हम भी अलग से रहते हैं अब्बा अम्मी करते रिश्ता, ऐसी फिर शामत न होती हम ख़लिश ज़माने की धुन पे चलते तो न होते रुसवा जज़्बाती इश्क न करते तो कमज़ोर इमारत न होती. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ सितम्बर २००७ १०५३. था कभी मैं तेरा चिरागेदिल, मुझे किसलिये यूं भुला दिया था कभी मैं तेरा चिरागेदिल, मुझे किसलिये यूं भुला दिया मेरा छीन कर के करारेदिल, मुझे किसलिये यूं रुला दिया मैं उदास तो हूं खबर है पर, नहीं अख्तियार है तुझ पे कुछ मैं ये छोड़ जाऊंगा शहर अब, मैंने ख्वाहिशों को सुला दिया मेरा खुद का अपना कसूर था, मैंने घर को सौंपा जो ग़ैर को जो था मेरा दुश्मन क्यों उसे मैंने दोस्त जान बुला दिया तुझे हुई मोहब्बत गैर से तो मैं क्यों न लूं इलज़ाम खुद तुझे बेवफ़ा मैं कहूं तो क्यों, मैंने मौका उस को खुला दिया तेरा दिल ही तुझ को सतायेगा, गो मेरी दुआ है तुझे ख़लिश तू ने बेवफ़ाई के जाल में एक नातवां को झुला दिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ सितम्बर २००७ १०५४. न मुझे खबर हुई कि ज़िन्दगी कहां गई, एक दिन नज़र खुली तो मौत मेरे पास थी—३ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३ अक्तूबर २००७ को प्रेषित न मुझे खबर हुई कि ज़िन्दगी कहां गई, एक दिन नज़र खुली तो मौत मेरे पास थी ज़िन्दगी तो बेखबर रही कि उस को देख कर, मैं भी कुछ उदास था, मौत भी उदास थी बचपन-ओ-जवानियां, बन गईं कहानियां, वक्त ही खतम हुआ, अब वज़ूद न रहा एक एक सांस में जान थी अटक रही, डूबती ही जा रही ज़िन्दगी की आस थी न दवा से कुछ हुआ, न दुआ से कुछ हुआ, थी उम्मीद नाउम्मीद, रूह थी निकल रही जाते जाते जो मेरा दम झिझक के रुक गया, हो न हो वज़ह ज़रूर इस की कोई खास थी जा रहा था मेरा माज़ी यूं तो मेरे हाथ से, पर न जाने किसलिये कोई मोड़ आ गया दूर से थी आ रही किसी के प्यार की सदा, उस आवाज़ में कोई दुख भरी मिठास थी वलवला-ए-याद ने तसव्वुरात में ख़लिश, ला दिया उसे जिसे ढूंढता था दिल मेरा दिख गयी झलक मुझे मेरे भूले प्यार की, अलविदा ए ज़िन्दगी, तू न मुझ को रास थी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ सितम्बर २००७ १०५५. मुझे ग़म है कि मेरे दिल की क्यों चोरी नहीं होती--बिना तिथि की कविता, ई-कविता को २९ सितम्बर २००७ को प्रेषित मुझे ग़म है कि मेरे दिल की क्यों चोरी नहीं होती मेरे सपनों में भोली सी कोई गोरी नहीं होती लगाता सैन्ध मेरे घर में कोई चोर तो आ कर उसे सोने की हासिल चाहे कटोरी नहीं होती लिखे हैं जो कलाम अब तक उन्हें कोई तो दोहराता मेरे दिल से खतम ये आस छिछोरी नहीं होती कलम आंसू में डूबे है तो फिर अशआर बनते हैं गज़ल कोई कभी बकवास ही कोरी नहीं होती ख़लिश जो दिल से शायर के निकलती हैं, अशर्फ़ी से कोई कम गीत, गज़ल, नगमा और लोरी नहीं होती. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ सितम्बर २००७ १०५६. यही बेहतर है मोहब्बत से किनारा कर लूं—४ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ४ अक्तूबर २००७ को प्रेषित यही बेहतर है मोहब्बत से किनारा कर लूं अपनी तनहाई से मैं रिश्ता दोबारा कर लूं फिर न जाने कहां हम और कहां तुम होगे आखिरी बार मैं दीदार तुम्हारा कर लूं एक लमहे में मुझे बुझ के खतम होना है दबी चिनगारियों को आज शरारा कर लूं न मेरा आज है, न कल का भरोसा मुझ को अपने माज़ी को ही मैं दिल का सहारा कर लूं मेरा दुनिया में नहीं कोई, सिवा इक रब के क्यों न इस एक हकीकत का नज़ारा कर लूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०५७. लोग क्यों बात सितारों की किया करते हैं लोग क्यों बात सितारों की किया करते हैं आस क्यों झूठे सहारों की किया करते हैं एक धेला भी नहीं जिन के कभी दामन में, बात वो लाख हज़ारों की किया करते हैं क्या हुआ, कैसे हुआ, कोई अगर पूछे तो रोना किस्मत की दरारों का किया करते हैं हो चुके हैं जो ज़माने की तपिश से बेज़ार ज़िक्र सरसब्ज़ बहारों का किया करते हैं वो जो बैठे हैं ख़लिश डूब रही कश्ती में बात पुर-आस किनारों की किया करते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०५८. दे जाऊंगा यादों को तुम्हें एक दिन उधार दे जाऊंगा यादों को तुम्हें एक दिन उधार कर लेना मेरी याद से ही तुम कभी तो प्यार जब तक तुम्हारे पास था अपना सके न तुम तसवीर पर अब किसलिये रोते हो ज़ार ज़ार ऐसे बने थे हमसफ़र कि दिल न मिल सके जीते रहे बेबाक हम शिकवे लिये हज़ार सोचा किये कि ज़िन्दगी बन जायेगी गुलशन सुनसान राहों में मिले हैं सिर्फ़ चन्द खार है वक्त-ए-अलविदा गुनाह मेरे करना माफ़ मैं जा रहा हूं आज ख़लिश आसमां के पार. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०५९. चोले को छोड़ कब्र में, आज़ाद रूह हुई नेता दफ़न हुआ तो फिर आज़ाद रूह हुई ज़न्नत में आ, कहने लगी बेआबरू हुई मैं थी ज़म्हूरियत में भी आवाम से ऊपर हूं आम यहां, बेइज़्ज़ती मैं क्या करूं हुई पूछे न कोई हाल, बराबर हैं सब यहां पहचाने न कोई मैं सब से रू-ब-रू हुई न हूर ही मिलीं यहां, न साकी है न मय क्यों रस्म आने की ज़मीन से शुरू हुई इस से तो अच्छी थी खलिश दुनिया-ए-रंग-ओ-बू किस काम की तेरी नसीहत ऐ गुरू हुई. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६०. चले जाते हो हम से दूर कुछ पैग़ाम दे जाते चले जाते हो हम से दूर कुछ पैग़ाम दे जाते वफ़ा जो की हमें उस का कोई ईनाम दे जाते कोई सौगात ऐसी जो लगाये रखते सीने से दिलाती याद तुम्हारी जो सुबह शाम दे जाते विदा का वक्त है हम को निशानी प्यार की ऐसी मचाती जो मेरे दिल में कोई कोहराम दे जाते दिला पायेंगे दिल को हम सुकूं तनहाई में कैसे कोई तदबीर ऐसे में जो आती काम दे जाते तुम्हारी याद आती तो कभी हम पढ़ के रो लेते कोई ख़त आखिरी हम को ख़लिश गुमनाम दे जाते. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६१. औरों की खोजता मैं बुराई चला गया औरों की खोजता मैं बुराई चला गया करता हुआ यारों की रुसवाई चला गया बेइज्जती मैं दोस्तों की कर के खुद अपनी कमज़ोरियों की करता भरपायी चला गया देता सहारा बेसहारे को, ये न हुआ दुनिया के लिये खोदता खाई चला गया जो छू दिया किसी ने तो तूफ़ान मच गया करता हुआ पहाड़ मैं राई चला गया न अपने रुख पे ला सका पाकीज़गी का नूर महफ़िल में सब के पोतता स्याही चला गया शैतान का शागिर्द क्यों बना ये सोचता अब आखिरी इस वक्तेतनहाई चला गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६२. मैं ज़िन्दगी में इस तरह बेकार हो गया मैं ज़िन्दगी में इस तरह बेकार हो गया खुद अपने घर में आज बेघरबार हो गया नाचा किया मैं जिस के इशारों पे अब तलक रूठा हुआ मुझ से वो ही संसार हो गया आया बुढ़ापा आज कमाने का न रहा मेरे खिलाफ़ आज ये परिवार हो गया ऐ ज़िन्दगी मुझ को बता दे क्या कसूर है फ़रज़न्द मेरा मुझ पे ही खूंख्वार हो गया अब क्या करूं जी के ख़लिश ऐसे जहान में मैं लाइलाज़ मर्ज़ का बीमार हो गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६३. ज़िन्दगी का बोझ अब उठता नहीं ज़िन्दगी का बोझ अब उठता नहीं कौन सा है जोड़ जो दुखता नहीं जी चुका काफ़ी जहान में तेरे अब बुला ले और जी सकता नहीं रब मुझे दोज़ख मिले या फिर बहिश्त चाहता दुनिया से अब रिश्ता नहीं सब वसीयत हैं भुनाना चाहते अब सिवा मरने के कुछ रस्ता नहीं एक बूढ़ी ज़िन्दगी का मोल अब और हो सकता ख़लिश सस्ता नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६४. काश दुनिया से परे मैं जा सकूं काश दुनिया से परे मैं जा सकूं और फिर जा के कभी न आ सकूं कोई तो तदबीर हो ऐसी कि मैं अब निज़ात इस ज़िन्दगी से पा सकूं बन्द हो जाये जुबां मेरी कि मैं मेरे रब झूठी कसम न खा सकूं मेरे मौला मुझ को ऐसी सिफ़्त दे गर्दिशों में भी तराने गा सकूं कर के नेकी मैं बुराई पर ख़लिश बन भलाई का फ़रिश्ता छा सकूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६५. किसलिये मुझ पर लगा इलज़ाम है किसलिये मुझ पर लगा इलज़ाम है मुझ को दुनिया क्यों कहे नाकाम है जो मिला मुझ को सभी को दे दिया बन गया मुफ़लिस, यही अन्ज़ाम है आज रुसवा मैं जहां में हो गया बोलने का सच मिला ईनाम है लोग दीवाना बतायेंगे तुम्हें मत करो नेकी यही पैग़ाम है हैं ज़माने के अजब रस्मोरिवाज़ बद किये बिन ही ख़लिश बदनाम है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६६. न हकीकतों में बदल सका, कोई ख्वाब था जो बिखर गया न हकीकतों में बदल सका, कोई ख्वाब था जो बिखर गया तेरी याद का है असर कि मैं बर्बाद हो के संवर गया जो चले गये नहीं लौटते, ये कहा किसी ने है सच मगर मैं तलाश में फिर भी तेरी सारे जहां से गुज़र गया मेरा जीना ही नाकाम था, न मैं मन्ज़िलों को पहुंच सका मुझे रास्तों ने ठग लिया, मैं इधर कभी तो उधर गया तुझे पा के मैंने गवां दिया, ये सज़ा है मेरी ही भूल की तुझे कैसे खुद से ज़ुदा करूं, तेरा ख्याल दिल में ठहर गया तू दिल में मेरे है ख़लिश, गो अब नहीं आगोश में तू रही सदा मेरे साथ ही, तेरा ख्याल ले के जिधर गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६७. मुझे दुश्मनों ने दी दवा, मुझे दोस्तों ने ज़हर दिया मुझे दुश्मनों ने दी दवा, मुझे दोस्तों ने ज़हर दिया मुझे बेखुदी में करार था, मुझे होश ने ही कहर दिया मेरे दिल में थी सूरत कोई न असर था उस का मय से कम मुझे याद ने मेरे दोस्त की, कोई जाम आठों पहर दिया मैं तो जी रहा था चैन से सहरा में ग़म से बेखबर मुझे क्यूं ज़माने बुला लिया, मुझे किसलिये ये शहर दिया मेरे प्यार ने खुशियां भी दीं दुनिया के मेले में बहुत पर याद ने तनहाई में मुझे दर्द शामोसहर दिया. जितने भी थे दुनिया के ग़म, तेरी बन्दगी से हुए हैं कम तेरा शुक्रिया है ख़लिश मेरे रब तू ने अपना मेहर दिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६८. दिल के हाथों आज मैं मज़बूर हूं दिल के हाथों आज मैं मज़बूर हूं खुद के असूलों से कितना दूर हूं इश्क ने दीवाना ऐसा कर दिया लोग कहते हैं नशे में चूर हूं मैं नहीं करता नुमाइश प्यार की प्यार के अहसास से भरपूर हूं गो मेरी फ़ितरत नहीं तुम को पसन्द आंख का मैं भी किसी की नूर हूं माफ़ कर डाले गुनाह मेरे ख़लिश याखुदा तेरा बहुत मश्कूर हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०६९. कोई मेरा कर रहा है इन्तज़ार कोई मेरा कर रहा है इन्तज़ार आज खिलते फूल हैं दिल में हज़ार एक पल नज़रें मिलीं कुछ हो गया कल तलक मालूम न था क्या है प्यार खत्म हो गयीं रात की तनहाइयां छा रही दुनिया में मेरी है बहार एक इशारा इस तरह से कुछ हुआ हो गया नज़रों से किसी की शिकार भूलना इस को नहीं मुमकिन ख़लिश याद आयेगा ये लमहा बार बार. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०७०. क्या कहूं काम क्या करता हूं क्या कहूं काम क्या करता हूं बस गज़लों का दम भरता हूं अशआर ही दिल की सांसें हैं इन के दम जीता मरता हूं जब तनहाई तड़पाती है लिख कर अपना ग़म हरता हूं जज़्बातों की मय पीता हूं लफ़्ज़ों का चारा चरता हूं मालूम कलम की ताकत है करते इज़हार न डरता हूं है ख़लिश गज़ल बनती खुद ही कोई ख्याल न मन में धरता हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०७१. मैं इस तरह खोया रहा अपने खयाल में मैं इस तरह खोया रहा अपने खयाल में आते रहे जाते रहे सपने खयाल में खुशियां मिलीं तो भर गया दामन बहार से ग़म आ गया तो हम लगे तपने खयाल में नज़रें मिलीं तो बर्ख सी लहराई इस कदर हो गये शुरू हैं ख्वाब पनपने खयाल में एहसास-ए-तसव्वुर ने ऐसा कर दिया कमाल अब तो लगे दीवान हैं छपने खयाल में एक मोड़ ज़िन्दगी में नया आ गया ख़लिश जब नाम-ए-खुदा हम लगे जपने खयाल में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० सितम्बर २००७ १०७२. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते…..--बिना तिथि की कविता, ई-कविता को २ अक्तूबर २००७ को प्रेषित नारियों से चल रहा संसार है नारियों से चल रहा घरबार है नारियों ने रंग दुनिया में भरा नारियों के बिन सभी बेकार है नारियों ने संस्कृति प्रदान की नारियों ने सीख दी बलिदान की धन्य हैं वो भारतीय नारियां त्याग की परम्परा महान की नारियों को जिस जगह पूजा गया कहा उसे स्वर्ग से दूजा गया रास न आयी अगर समाज को, नाम दे कर के सती, भूंजा गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अक्तूबर २००७ १०७३. कहते हैं कुछ लोग कि बापू आ जाओ इक बार--बिना तिथि की कविता, ई-कविता को २ अक्तूबर २००७ को प्रेषित कहते हैं कुछ लोग कि बापू आ जाओ इक बार तुम बिन देखो देश जा रहा आज रसातल पार नमन करूं बापू का मैं भी उन लोगों के साथ पर अकर्मण्य हो कर क्यों बैठूं धरे हाथ पे हाथ सौ करोड़ से अधिक अगर मुंह हैं खाने वाले इस से दुगने कर भी हैं भारत के रखवाले कोई उगाये कोई खाये क्यों हो ऐसी रीत पाप बढ़ा तो करो सामना, क्यों उस से भयभीत बापू दे कर चले गये नैतिकता का हथियार स्वयं चलाओ उन्हें बुलाते क्यों तुम बारम्बार. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अक्तूबर २००७, गान्धी जयन्ती १०७४. मैं किसी के प्यार में यूं हो गया बरबाद मैं किसी के प्यार में यूं हो गया बरबाद आज अपने प्यार की ही खो गयी है याद अब तलक देती रही जो रात दिन खुशियां आज वो ही याद मुझ को कर रही नाशाद दाद हर इक शेर पर देते थे जो पहले वे नहीं कहते हैं मुझ को अब कभी इरशाद मैं न टूटा अब तलक तो मेरे दुश्मन ने नये तरीके हैं सितम के कर लिये ईज़ाद झेल लूंगा मैं सभी ग़म हंस के अब ख़लिश एक रूहानी खुशी अब दिल में है आबाद. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अक्तूबर २००७ १०७५. जो मिला मुझे वो मेरे दिल को न कबूल था जो मिला मुझे वो मेरे दिल को न कबूल था दाम दिल का दे दिया न दिल मगर वसूल था मांगे बिन ही मिल गये हैं मुझ को ज़िन्दगी में खार जो मुझे पसन्द था वो सिर्फ़ एक फूल था पेश दिल किया था मैंने लाख शिद्दतों के साथ वो निगाह में तुम्हारी सिर्फ़ खाक धूल था न मुझे किसी नज़र में प्यार की झलक मिली शायद मैं बनाने वाले की ही कोई भूल था जा रहा हूं लौट के न फिर कभी मैं आऊंगा मेरा इस जहां में जीना ही ख़लिश फ़िज़ूल था. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अक्तूबर २००७ |