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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626970 added December 31, 2008 at 6:19am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1151- 1175 in Hindi script

११५१. है ग़रीब की ये दीवाली --८ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ८ नवम्बर २००७
को प्रेषित [भाग ३ के रूप में]


है ग़रीब की ये दीवाली
जेब, पेट दोनों ही खाली

घिरा अन्धेरे में सारा घर
दो रोटी भी नहीं मुयस्सर

कहीं स्वर्ग सा दिखे ज़मीं पर
घर में है कोहराम कहीं पर

बच्चे हैं यतीम से दिखते
देखें खूब मिठाई बिकते

फुलझड़ियों को तरस रहे हैं
मन में आंसू बरस रहे हैं

बरपा उधर रंग, लज्जत है
इधर ग़रीबी बेइज़्ज़त है

ख़लिश मनाऊं क्या दीवाली
छाई सभी तरफ़ बदहाली.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ नवम्बर २००७

००००००००००००००००
from suresh sharma <surama_1008@yahoo.co.in
date Nov 8, 2007 1:34 PM

Wah, Dr. Sahib, Aapne Majority ki Diwali ka Bakhan kiya he. Kisi Mahan Shayar ne likha he-
Ghar Aakar Man Baap khoob roye akele men.
Mitti ke diye bhi Saste na the Mele mein.

००००००००००००००






११५२. शानू जी का कवि-सम्मेलन – बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ८ नवम्बर २००७
को प्रेषित

एक ताश के बावन पत्ते
सभी समझते खुद को इक्के
कविता सब ने तुरत सुनायी
अपनी करते रहे बड़ाई

उन में एक सुभट अवतारा
कहे सभी से हूं मैं न्यारा
तीस मिनट से कम न लूंगा
बीस बार दो दाद कहूंगा

शानू जी की शामत आयी
कवि सम्मेलन कर पछताई
जोड़े हाथ-पैर बहु बारी
कवि जन की आरती उतारी

कविता उगल खान को धाये
शानू जी पकवान बनाये
पेट भरन की आपा-धापी
ऊपर से फिर चाय-काफ़ी

डट कर सब ने माल डकारा
लिया सभी ने फिर हुंकारा
शानू जी ने शिक्षा पायी
कसम न फिर करने की खायी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ नवम्बर २००७



११५३. मैं कैसे त्यौहार मनाऊं --९ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ९ नवम्बर २००७
को प्रेषित

मैं कैसे त्यौहार मनाऊं
कैसे दीपक माल जलाऊं

मैं दरिद्र नारायण को किस
तरह धान्य का भोग लगाऊं

खाली पेट बहुत बच्चे हैं
कैसे उन की भूख मिटाऊं

जिन के घर में है अंधियारा
कैसे उन के भाग जगाऊं

चला फुलझड़ी और पटाखे
कैसे उन की हंसी उडा़ऊं

कृपा लक्ष्मी की है मुझ पर
तो क्या इस पर गर्व जताऊं

दो सुबुद्धि तुम मुझे ख़लिश प्रभु
पा कर धन मैं न इतराऊं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
९ नवम्बर २००७




११५४. मैं कोई भूला हुआ अरमान हूं --१० नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १० नवम्बर २००७
को प्रेषित


मैं कोई भूला हुआ अरमान हूं
जो न पूरा हो सका फ़रमान हूं

जब बरस लूंगा तो खुद थम जाऊंगा
चन्द अश्कों का ही इक तूफ़ान हूं

ज़ुल्म होने दो अभी ज़िन्दा हूं मैं
रुक गये क्यों, सोच कर हैरान हूं

मेरी हस्ती मिट नहीं सकती कभी
जो न होगा खत्म वो ईमान हूं

मत निकालो खुद चला जाता हूं मैं
सिर्फ़ दो दिन का ख़लिश मेहमान हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० नवम्बर २००७






११५५. तुम सलामत रहो मैं यही चाहता हूं

तुम सलामत रहो मैं यही चाहता हूं
तुम बिना मैं जिऊं यह नहीं चाहता हूं

ग़म-सितम न ज़माने के होंगे खतम
छोड़ दुनिया चलें हम कहीं चाहता हूं

चाहे बदले ज़माना, बदलना न तुम
तुम रहो पहले से बस वही चाहता हूं

मन में न फ़र्क हो, मानते ही रहें
एक दूजे को हम तुम सही चाहता हूं

क्या ख़ता कौन सी किस ने की है ख़लिश
न बनायें ये मन में बही चाहता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० नवम्बर २००७






११५६. मैं तो निभाता ही रहा दुनिया में अपना फ़र्ज़ --१२ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १० नवम्बर २००७
को प्रेषित

मैं तो निभाता ही रहा दुनिया में अपना फ़र्ज़
बाकी नहीं रहा है मुझ पे आज कोई कर्ज़

जीने की सब उम्मीद ही अब ख़त्म हो चली
कोई भी चारागर मेरा मिटा सका न मर्ज़

मैं क्यों करूं ये फ़िक्र मेरा मकबरा बने
दफ़नायेगी दुनिया मुझे उस को जो होगी गर्ज़

कोई तराना कूच का मुझ को सुना दो आज
कानों में गूंजती है अब चलाचली की तर्ज़

दोज़ख मिले या फिर ख़लिश जन्नत मुझे मिले
दुनिया में फिर न भेजना मालिक यही है अर्ज़.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ नवम्बर २००७








११५७. रात भर किसी की याद को न मैं भुला सका

रात भर किसी की याद को न मैं भुला सका
याद के सहारे पर न उसे बुला सका

तक रहे थे लोग घूर कर हज़ार आंख से
न्यौता आने का उसे दे न मैं खुला सका

कर के बेवफ़ाई रो रहा था ज़ार ज़ार वो
मेरे दिल के दाग अश्क से न वो धुला सका

यूं तो यार लौट कर मेरे पास गया
पस्त इस तरह हुआ न हौसले फुला सका

वो हवा चली ख़लिश कि दिल झुलस के रह गया
न बहार के हिंडोले ख्वाहिशें झुला सका.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ नवम्बर २००७






११५८. वो इंसान हो के फ़रिश्ता लगे है


वो इंसान हो के फ़रिश्ता लगे है
उस से कोई रूह का रिश्ता लगे है

न जाने खतम उस की कब नज़्म होगी
कलम रात दिन यूं ही घिसता दिखे है

जो है बाप अनब्याही बेटी का हर दम
चक्की के पाटों में पिसता दिखे है

है क्या भूख पूछो ग़रीबों के दिल से
रोटी हो रूखी तो पिस्ता लगे है

अशआर में हर गज़ल के ख़लिश की
कलेज़े का खूं जैसे रिसता दिखे है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ नवम्बर २००७







११५९. मुझे दुनिया भुलाती है मैं दुनिया को भुलाता हूं --१८ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १८ नवम्बर २००७
को प्रेषित

मुझे दुनिया भुलाती है मैं दुनिया को भुलाता हूं
बनाया है मुझे जिस ने उसे दिल में बुलाता हूं

न कुछ अरमान है बाकी मुझे सब हो गया हासिल
हटा के दिल को दुनिया से ख़ुदा के पास लाता हूं

बहुत से हैं बशर ऐसे जो खाली पेट सोते हैं
मैं दो रोटी जो खाता हूं तो दो रोटी खिलाता हूं

न कुछ ऐसा करूं जिस से किसी का दिल दुखाऊं मैं
गुनाह कोई न हो मुझ से कसम खुद को दिलाता हूं

ज़माने में बहुत से दोस्तों से दुश्मनी ठानी
मग़र अब दुश्मनों से भी ख़लिश दिल को मिलाता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ नवम्बर २००७






११६०. उस की हर बात मुझे याद बहुत आती है --१६ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १६ नवम्बर २००७
को प्रेषित

उस की हर बात मुझे याद बहुत आती है
दिल में नाखत्म सा तूफ़ान मचा जाती है

यूं तो बसती है मेरे दिल में वो रात और दिन
उसे तनहाई तसव्वुर में बहुत लाती है

वो जो मंज़र थे जहां दोनों कभी मिलते थे
उन पे पड़ते ही निगाह आज भी शरमाती है

वो जो आ जाये खयालों में कभी दम भर को
ज़िन्दगी एक नया राग हसीं गाती है

कैसे यादों को कलेज़े से हटा दूं मैं ख़लिश
मेरी बरबाद मोहब्बत की यही थाती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ नवम्बर २००७

000000000000

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com
date Nov 17, 2007 2:59 AM

खलिश जी,
यह ग़ज़ल अच्छी लगी।
रिपुदमन
00000000000000










११६१. अपने दर्दों को तुम्हें कैसे मेरी जां दे दूं --१७ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १७ नवम्बर २००७
को प्रेषित

अपने दर्दों को तुम्हें कैसे मेरी जां दे दूं
क्यों तुम्हें दिल में उठा है जो वो तूफ़ां दे दूं

ग़म मैं सह लूंगा अकेले ही बहा कर आंसू
क्यों तुम्हें वक्त इक नाहक ही परेशां दे दूं

दिल के दागों का सबब मेरे सनम न पूछो
तुम कहो तुम को मैं ये जान-ओ-ईमां दे दूं

ये तो जंगल है भरा खौफ़नुमा यादों का
कैसे इस दिल का भला तुम को बियाबां दे दूं

जो बनाया था तसव्वुर में ख़लिश ख्वाब-महल
मेरे किस काम का, वो आओ तुम्हें हां दे दूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ नवम्बर २००७












एद
















P११६२. जब याद तुम्हारी आती है तूफ़ान- सा दिल में आता है--१५ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १५ नवम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS

जब याद तुम्हारी आती है तूफ़ान- सा दिल में आता है
एक धुंधला सा चेहरा दिल के आईने में छा जाता है

वो ज़ुल्फ़, वो आरिज़, वो नज़रें, वो चाल, अदा मुस्काने की
जैसे कोई गैबी जादू हो, दिल को मेरे भरमाता है

क्या दिन थे जब हम- तुम दोनों दुनिया से छिपकर मिलते थे
उस मंज़र को तकने भर से ये दिल अब भी शरमाता है

मैं ला कर तुम्हें तसव्वुर में जब ख्वाबों में खो जाता हूं
कोई साज़ कहीं पर बजता है, कोई भूली तान सुनाता है

मालूम न था कि बात ख़लिश इस तरह तुम्हारी सच होगी
जाने क्यों तुमने कहा कभी बस दो दिन का ये नाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ नवम्बर २००७






११६३. रह रह के मेरे दिल में बस ये ही खयाल इक आता है --१४ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १५ नवम्बर २००७
को प्रेषित

रह रह के मेरे दिल में बस ये ही खयाल इक आता है
है कौन पराया या अपना, किस का किस से क्या नाता है

अपनी अपनी ढपली सब की, और अपने अपने राग यहां
सब धुन में अपनी मस्त, नहीं कोई सुनता और सुनाता है

हैं सभी मुसाफ़िर इस जग में, कोई आगे है, कोई है पीछे
जो आगे है वो औरों को पिछड़ा नाहक बतलाता है

पहले इंसान खु़दा बन के ढेरों ख्वाहिश गढ़ लेता है
फिर ख्वाहिश पूरी न हों तो किस्मत का खोट बताता है

जाने कब किस की बारी हो, कोई राहों में कब गिर जाये
इंसांन नहीं रब को पूजो, यह बात ख़लिश समझाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ नवम्बर २००७
00000000000

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com>

date Nov 15, 2007 8:55 PM

खलिश जी,

ग़ज़ल अच्छी लगी ख़ास तौर से यह शेर ...

हैं सभी मुसाफ़िर इस जग में, कोई आगे है, कोई है पीछे
जो आगे है वो �¤"रों को पिछड़ा नाहक बतलाता है

मंगल कामनाएं
रिपुदमन पचौरी
000000000000000


११६४. मैंने पूछा सूरज से क्यों आग उगलता रहता है – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १४ नवम्बर २००७
को प्रेषित

मैंने पूछा सूरज से क्यों आग उगलता रहता है
शीतल चान्द मन्द मुस्काता सहज मचलता रहता है

सूरज बोला मेरे आग उगलने का मतलब समझो
ताप तुम्हें देने को मेरा अंतर जलता रहता है

नहीं जलूंगा, न दिन होगा, होगी लम्बी काली रात
मेरे ही प्रकाश से चन्दा जग को छलता रहता है

ऐसे भी हैं लोग पराये धन को अपना कहते हैं
इसी कपट से कुछ लोगों का धन्धा चलता रहता है

चाहे कुपित कहो तुम मुझ को चाहे गर्वित, क्रूर कहो
सतत जलूंगा, मेरा जलना जग को फलता रहता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१४ नवम्बर २००७

000000000
from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>

date Nov 15, 2007 11:43 AM


श्री अनूप जी व खलिश जी
सूरज पर आप दोनों की कवितायें पढ़ी। अच्छी लगीं।
"मेरे ही प्रकाश से चन्दा जग को छलता है।" बहुत सुन्दर पंक्ति है।
खलिश जी को वधाई।

अगर सुबह को फिर आना है,
तो फिर शाम को ढलता क्यों है।

अनूप जी सूरज से बहुत अच्छा प्रश्न किय है। वधाई।
दूसरी पंक्ति में क्या यह परिवर्तन उचित रहेगा -

अगर सुबह को फिर आना है,
तो संध्या को ढलता क्यों है।
सन्तोष कुमार सिंह

000000000



















११६५. मानव, जग में भरे बुराई, तनिक न इस का खेद – बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १५ नवम्बर २००७ को प्रेषित

मानव, जग में भरे बुराई, तनिक न इस का खेद
ऊपर से पूछे सूरज से क्या जलने का भेद!

हरूं तेरी गन्दगी जला कर मैं अपना सीना
तभी मुझे पावक की संज्ञा दे गये चारों वेद

तेरी खातिर जलूं और तू टेरे चन्दा को
मानो तेरी बुद्धि में ही प्रबल हुआ है छेद!

तू कर ले विश्राम रात भर यूं छिप जाता हूं.
हारा समझ लिया मुझ को, क्यों बुद्धि से विच्छेद?

रात और दिन का क्रम जिस दिन हो जायेगा खत्म
ख़लिश उसी दिन जग से होगा जीवन का उच्छेद.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ नवम्बर २००७
११६६. था नाज़ुक तार दिल का उम्र भर को आज टूटा है

था नाज़ुक तार दिल का उम्र भर को आज टूटा है
जो मेरा हमसफ़र था साथ उस से आज छूटा है

बहाओ अश्क कितने पर खुशी न लौट आयेगी
लगा के दिल किसी ज़ालिम ने ऐसे दिल को लूटा है

इधर है ग़म मोहब्बत का उधर है ग़म-ए-रुसवाई
घड़ा तकदीर का मेरी भरे बाज़ार फूटा है

मनाऊं किस तरह वो मानने को ही नहीं राज़ी
मेरा दिलबर न जाने किस खता पर आज रूठा है

सभी ने जब निगाहें फेर लीं तब ये समझ आया
ख़लिश इंसान का दुनिया से नाता सिर्फ़ झूठा है.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ नवम्बर २००७







११६७. दुनिया को दिखाने की खातिर अकसर मुस्काया करता हूं

दुनिया को दिखाने की खातिर अकसर मुस्काया करता हूं
पर देख के रंग ज़माने के मन में भरमाया करता हूं

यूं तो घन्टों बैठा बैठा तसवीर से करता हूं बातें
वो सामने ग़र आ जायें तो अकसर शरमाया करता हूं

जब मिलने की तरकीब न हो तो पाने को बस एक झलक
उस के घर के आगे हो कर मैं यूं ही जाया करता हूं

वो कभी ख़फ़ा हो जाये तो फिर उसे मनाने की खातिर
मैं चन्दा तारे लाऊंगा ये कसमें खाया करता हूं

वो ख़लिश भला क्या मंज़र है जब फ़ुरसत में चुप होते हैं
उलझा कर उस की ज़ुल्फ़ों को खुद ही सुलझाया करता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ नवम्बर २००७





११६८. आये वो जब भी कुछ नये ग़म ले के आये हैं

आये वो जब भी कुछ नये ग़म ले के आये हैं
पर उन के हर ग़म में निहां खुशियों के साये हैं

लगता था यूं पहचानते वो हैं नहीं कल तक
कुछ बात है कि आज खुद ही मुस्कराये हैं

हमने तो आप से सनम कुछ भी कहा नहीं
अपने ही दिल के चोर से क्य़ॊं सकपकाये हैं

पूछे जो हाल कोई तो कैसे बतायें कि
हम भी निगाहेनीमकश का तीर खाये हैं

उस की नज़र ने कर दिया कैसा ख़लिश कमाल
इक जाम भी पिया नहीं और लड़खड़ाये हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ नवम्बर २००७




११६९. जब नाम तुम्हारा और मेरा इक साथ हज़ूर आ जाता था --१९ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १९ नवम्बर २००७ को प्रेषित

जब नाम तुम्हारा और मेरा इक साथ हज़ूर आ जाता था
सच कहती हूं अपने पे तब खुद ही ग़रूर आ जाता था

सौ तरह सजा कर कागज़ पे दो नाम उतारा करती थी
उन तस्वीरों को देख मुझे जैसे सरूर आ जाता था

जब तनहाई में कभी तुम्हारी याद सताती थी मुझ को
बस एक झलक भर पाने को मुझ पे फ़ितूर आ जाता था

था नाम वो छोटा सा लेकिन उस में कमाल की फ़ितरत थी
उन दो लफ़्ज़ों से जुड़ कर के मुझ में शऊर आ जाता था

किस्मत ने यूं पलटा खाया, वो वक्त ख़लिश अब बीत गया
जब पढ़ के नाम तुम्हारा कुछ एहसास ज़रूर आ जाता था.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७
००००००००००

from shilpa bhardwaj <greatshilps@yahoo.com>

date Nov 19, 2007 2:59 PM


किस्मत ने यूं पलटा खाया, वो वक्त ख़लिश अब बीत गया
जब पढ़ के नाम तुम्हारा कुछ एहसास ज़रूर आ जाता था.

Bahot sundar lagi ye panktiyan. Bahot sundar kavita. Kavita pasand karne ke liye shukriya

Regards
Shilpa

00000000000

from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com>
date Nov 19, 2007 9:29 PM



खलिश साहब:

आप की गज़ल के काफ़िये पर ही लिखा अपना एक मुक्तक याद आ गया :

तुम को देखा तो चेहरे पे नूर आ गया
हौले हौले ज़रा सा सुरूर आ गया
तुम जो बाँहों में आईं लजाते हुए
हम को खुद पे ज़रा सा गुरूर आ गया

सादर
अनूप
00000000000000000000






११७०. मैंने गर्दिश की धूल बहुत दिन तक दुनिया में फांकी है --२२ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ नवम्बर २००७ को प्रेषित

मैंने गर्दिश की धूल बहुत दिन तक दुनिया में फांकी है
पोशाक नहीं बस अन्धियारे से मैंने इज्जत ढांकी है

दीदार ज़रा मैं भी करता कोई आगे तो आता मेरे
सूरत मेरी छिप छिप कर के लोगों ने अकसर ताकी है

वो खौ़फ़नाक शय जिस से दिल कांपे है आज ज़माने का
वो मन्दिर या मस्जिद या फिर आवाज़ किसी गिरजा की है

मैं नहीं मुन्तज़िर खुशियों का ग़म रास आ गये हैं मुझ को
वो महफ़िल उजड़ गयी मेरी न मय है अब न साकी है

मत मुझे सताओ अब यादो कुछ नहीं बचा अब सीने में
इस तरह ख़लिश छलनी है दिल एहसास न कोई बाकी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७








११७१. रखिये हज़ूर तीर को अपने कमान में --२५ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ नवम्बर २००७ को प्रेषित


रखिये हज़ूर तीर को अपने कमान में
जीना है अभी और भी मुझ को जहान में

यूं बेदखल न कीजिये बेआबरू कर के,
रहने का हक मेरा भी है दिल के मकान में

सूरत हज़ार आप को मिल जायेंगी मगर
न प्यार ही मिल पायेगा कोई दुकान में

दिल में तो मेरे झांकिये और देखिये सीरत
मैं हूं बुरा क्यों जी रहे हैं इस गु़मान में

पुर्ज़े में कागज़ी ख़लिश कुछ राज़ है निहां
लम्बी छिपी है दास्तां छोटे निशान में.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७

००००००००००००००

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com

date Nov 25, 2007 8:16 PM


वाह !!!!!!!!!!!!.
बेहद खूब सूरत है। �¤"र कुछ हट के भी।

सादर
रिपुदमन
०००००००००००००००

from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com>
date Nov 26, 2007 6:52 AM

खलिश साहब:

अच्छी गज़ल का ये शेर विशेष रूप से अच्छा लगा :

पुर्ज़े में कागज़ी ख़लिश कुछ राज़ है निहां
लम्बी है दास्तां छिपी छोटे निशान में.

सादर

अनूप

००००००००००००००००
from AJAY KANODIA <ajay.kanodia@gmail.com>
date Dec 8, 2007 2:35 PM
खलिश जी आपको मेरा नमस࣠ते क࣠छ समय से व࣠यस࣠त रहने के कारण पढने का समय नहीं मिला बह࣠त स࣠ंदर गीत है यह आपका हमेशा हमें प࣠रेरीर करतें रहिये इसी तरह सादर अजय



११७२. मोहनी सूरत पर नादां तो इस दुनिया में इतराते हैं --२१ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २१ नवम्बर २००७ को प्रेषित

मोहनी सूरत पर नादां तो इस दुनिया में इतराते हैं
पर समझदार सूरत अपनी नज़रों से लाख छिपाते हैं

कुछ लोग संज़ीदा रहते हैं और बात नहीं करते ज्यादा
कुछ और मग़र अन्दर तक के सब भेद खुले बतलाते हैं

है दिल की लाज अहम आंखों की लाज कभी देती धोखा
होते हैं वो बेशरम बहुत जो बाहर से शरमाते हैं

मैं अपने दर्द छिपाता हूं औरों के ग़म में रोता हूं
दुनिया वाले मुझ को मूरख जाने क्योंकर बतलाते हैं

मैं बेवकूफ़ हूं गु़रबत में ही जीता रहा ख़लिश अब तक
जो जानकार हैं वो अकसर ये ताने मुझे सुनाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७

०००००००००००००००००

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com>
date Nov 21, 2007 10:18 AM


yah sher pasand aayaa :-

मैं बेवकूफ़ हूं गु़रबत में ही जीता रहा ख़लिश अब तक
जो जानकार हैं वो अकसर ये ताने मुझे सुनाते हैं.

००००००००००००००००००००००००










P११७३. कोई याद कभी आ कर यूं मुझे सताती है --२० नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २० नवम्बर २००७ को प्रेषित


कोई याद कभी आ कर यूं मुझे सताती है
ज्यों पिंजरे की चिड़िया कोई निकल न पाती है

दिल के दरवाज़े पर हैं लगे हुए पहरे
कोई बात है जो लब पे आ कर रुक जाती है

थम जाते हैं आंसू तनहाई में रातों की
वो जब भी तसव्वुर में आ कर मुस्काती है

जुग बीत गये कितने पर आज तलक मेरे
ख्वाबों में कोई छाया रह रह कर आती है

अब ख़लिश ये जाना है पत्थर दिल इंसां भी
कैसे इक दिन बन जाये शायर जज़बाती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७










महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७





११७४. हैं फूल बहुत रंगीं सारे, इन से है क्यारी खिली हुयी --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १९-९-०७ को प्रेषित


हैं फूल बहुत रंगीं सारे, इन से है क्यारी खिली हुयी
गैन्दा, गुलाब या चम्पा हो, या फिर वो नाज़ुक लिली हुयी

जितने गुल हैं अशआर हैं ये, इन से मिल कर है गज़ल बनी
मत कहो अखाड़ा तुम इस को, इस में है शोखी मिली हुयी

इस में रदीफ़ की गांठ लगी, काफ़िया पिरा है धागे सा
मतले से मकते तक ले कर यह लहराती सी सिली हुयी

अकरान, वज़न और बहर बनाते हैं इस का नक्शा बेहतर
बतलाये तखल्लुस है ये शय किस शायर से है हिली हुयी

हर गज़ल ख़लिश लिखी जाती है किसी दर्द के साये में
इस में तस्वीर उभरती है शायर के दिल की छिली हुयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७
००००००००००००००००००००००

from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com>
date Nov 19, 2007 10:51 PM

वाह वाह वाह !!!!

खलिश जी मैं अभी सोच ही रहा था कि क्या उत्तर दूँ �¤"र आपने बाज़ी मार भी ली।

शत-शत नमन
रिपुदमन
०००००००००००००००००००००००००





११७५. क्यों नमन इंसान का तुम कर रहे --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १९-९-०७ को प्रेषित


क्यों नमन इंसान का तुम कर रहे
दम्भ दम्भी में निरन्तर भर रहे

सिर्फ़ पुतला है ये हाड़ और मांस का
क्यों भला भगवान से ऊपर रहे

बाज न आया गुनाहों से कभी
सैकड़ों इलज़ाम बेशक सर रहे

न कमाया पुण्य कुछ जब तक जिये
वक्तेरुखसत कांप क्यों थर थर रहे

है ख़लिश वाज़िब बशर के वास्ते
मौत का उस के ज़हन में डर रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ नवम्बर २००७






© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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