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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१२५१. अब नहीं है नूर मेरी आंख में – ३१ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३१ मार्च २००८ को प्रेषित अब नहीं है नूर मेरी आंख में एक चिनगारी बची है राख में मैं बयां कैसे करूं अपना मिज़ाज़ जैसे तुरशाई भरी हो दाख में था किसी दिल का कभी नग़मा मग़र आज मुझ को रख दिया है ताख में कह रहे हैं पास हो दिल के बहुत पर दबा रखे हैं मुझ को कांख में है बुढ़ऊ आशिक ख़लिश, कहते हैं लोग लग गया है आज बट्टा साख में. तुरशाई = खटास दाख = अंगूर ताख = आला महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ १२५२. अब नहीं ख्वाहिश कोई बाकी रही – १ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को १ अप्रेल २००८ को प्रेषित अब नहीं ख्वाहिश कोई बाकी रही न रहा अब इश्क न साकी रही न रहे वो सब्ज़ वादी-ओ-चमन सिर्फ़ सहरा की ज़मीं खाकी रही कौन पीसे आज गेहूं हाथ से एक कोने में पड़ी चाकी रही खो गये माज़ी की परतों में सभी याद सीने में सिरफ़ मां की रही है प्रभु मूरत दिखी वैसी उसे भावना जैसी ख़लिश जा की रही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ १२५३. अब ज़माने को नहीं मंज़ूर हूं—– २ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित--RAMAS अब ज़माने को नहीं मंज़ूर हूं किंतु जीने के लिये मज़बूर हूं न किसी की राह का मैं हूं चिराग़ न किसी की आंख का मैं नूर हूं ज़ालिमों के ज़ुल्म से जब तक डरा मैं यही कहता रहा मशकूर हूं आज जब परवाह उनकी छोड़ दी लोग कहते हैं बहुत मग़रूर हूं किसलिये दिल में करूं मैं ग़म ख़लिश आ गया ग़म और ख़ुशी से दूर हूं. मशकूर = शुक्रगुज़ार, आभारी मग़रूर = घमंड से भरा, अभिमान से पूर्ण महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ ०००००००००००० bhupal sood <ayan_bhupal@ yahoo.co. in> wrote: khalish ji bahut achhi ghazal hai. meri shubhkamnayen. aapki rachnayen parhta raha hun. bahut prabhavit karti hain bhupal sood 2 April 2008 ००००००००००००० १२५४. याद जो दिल को तुम्हारी आ गयी याद जो दिल को तुम्हारी आ गयी चांदनी तारीकियों में छा गयी मुद्दतें बीतीं मग़र भूला नहीं जो कभी सूरत किसी की भा गयी आज फिर देखा तसव्वुर में उन्हें आज फिर दिल की कली मुस्का गयी क्या समां था वक्तेरुखसत ग़म भरा याद उस की आज भी तड़पा गयी जो चले जाते हैं वो आते नहीं कोई शय मुझ को ख़लिश समझा गयी महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ १२५५. लिखना मेरी एक ज़रूरत है इस से इनकार नहीं है –एक और गज़ल, ई-कविता को २७-१२-०७ को प्रेषित लिखना मेरी एक ज़रूरत है इस से इनकार नहीं है ये न करे शिकायत कोई मुझे क़लम से प्यार नहीं है यूं तो दोस्त बहुत हैं लेकिन सब अपने ही मतलब के हैं जो कलाम सुनने ख़ुद आये उस से अच्छा यार नहीं है दिल के बदले दिल देते हैं, है बराबरी का ये सौदा मांगॆं भीख मोहब्बत में हम, दिल पे ऐसी मार नहीं है अदा दिखाना उन का हक है नाज़ उठाना अपनी फ़ितरत हुकम बजाते हैं उन का पर वो कोई सरकार नहीं है ख़लिश प्यार करता है उन से, कायल नहीं गु़लामी का है वो चाहें तो प्यार करें पर उन का वह बीमार नहीं है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ ०००००००००००० Date: Thu, 27 Dec 2007 16:12:42 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> waah ! khalish ji ... yah rachnaa bhi bahut sundar likhi hai aapne.. Ripudaman ०००००००००००००००० १२५६. मैंने उस को प्यार किया था इस से तो इनकार नहीं है —२८ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ दिसम्बर २००७ को प्रेषित मैंने उस को प्यार किया था इस से तो इनकार नहीं है पर क्यों उस के सपने देखूं जिस को मुझ से प्यार नहीं है वो हसीन हैं नाज़नीन हैं लेकिन नहीं फ़रिश्ता कोई हाथ जोड़ फ़रियाद करूं मैं ऐसी तो दरकार नहीं है और मिलेंगे इन राहों में, वो ही एक हसीन नहीं हैं भरम हुआ है उन को नाहक उन के बिन संसार नहीं है उन के पास हुस्न की दौलत है तो गुरबत नहीं यहां भी अच्छी ख़ासी आमदनी है बन्दा ये बेकार नहीं है प्यार भले ही तुम ठुकरा दो, नहीं लौट कर आऊंगा मैं दीवानेपन की हद तक तो ख़लिश हुआ बीमार नहीं है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसम्बर २००७ 000000000000000000000 from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in> date Dec 28, 2007 2:28 PM Khalish Sahab, प्यार भले ही तुम ठुकरा दो, नहीं लौट कर आऊंगा मैं दीवानेपन की हद तक तो ख़लिश हुआ बीमार नहीं है. Achchi lagi apki rachana. Badhayee aur meri shubhkamana hai ki Khalish jee kabhi bimar nahin pade. Sadar Shyamal Suman Jamshedpur Mobile: 09955373288 000000000000000000 From: "Shilpa Bhardwaj" <greatshilps@yahoo.com Date: Thu, 27 Dec 2007 16:27:53 -0800 (PST) "अच्छा ख़ासा सरमाया है बन्दा ये बेकार नहीं है" बहुत अच्छी लगी कविता आपकी खलिश जी, सुन्दर बहुत सुन्दर! -- शिल्पा ========================== एद जो मिला था हमसफ़र उसने मुझे धोखा दिया और ये अफ़सोस कि बदनाम भी नाहक किया ज़िन्दगी में पा सका हूं सिर्फ़ कुछ नाकामियां हाथ से फिसला वही जो हाथ में मैंने लिया मत करो उम्मीद कि मैं रौशनी दे पाऊंगा जा रही है लौ मेरी अब सिर्फ़ हूं बुझता दिया क्या कहूं किससे कहूं सुनता यहां पर कौन है ठीक ही मैंने किया होठों को अपने जो सिया इस जहां में जी सका आराम से वो ही बशर है ख़लिश जिसने ख़ुदा के इश्क का प्याला पिया. १२५७. जो मिला था हमसफ़र उसने मुझे धोखा दिया --RAMAS —१ जनवरी२००८ की गज़ल, ई-कविता को १ जनवरी२००८को प्रेषित जो मिला था हमसफ़र उसने मुझे धोखा दिया और ये अफ़सोस कि बदनाम भी नाहक किया ज़िन्दगी में पा सका हूं सिर्फ़ कुछ नाकामियां हाथ से फिसला वही जो हाथ में मैंने लिया मत करो उम्मीद कि मैं रौशनी दे पाऊंगा जा रही है लौ मेरी अब सिर्फ़ हूं बुझता दिया क्या कहूं किससे कहूं सुनता यहां पर कौन है ठीक ही मैंने किया होठों को अपने जो सिया इस जहां में जी सका आराम से वो ही बशर है ख़लिश जिसने ख़ुदा के इश्क का प्याला पिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ दिसम्बर २००७ १२५८. चले धौंकनी बिना जीव की, असली उस में श्वास नहीं है –एक और गज़ल, ई-कविता को २८-१२-०७ को प्रेषित चले धौंकनी बिना जीव की, असली उस में श्वास नहीं है जैसे सारी कह देने का मतलब कोई ख़ास नहीं है लोग मुझे कहते हैं अकसर मैं शब्दों का जादूगर हूं किंतु जानता हूं कि मुझ में भावों का अहसास नहीं है शब्द जाल बुन अशआरों के चाहे फूल सजा लेता हूं किंतु गज़ल में जीवन की मुझ को कोई मधुमास नहीं है समझ न बैठे कोई निराशा मेरे मन में गहरी पैठी रास मुझे आया है सहरा, वादी की अभिलाष नहीं है शब्द रहेंगे जब तक मेरा एक अंश न मर पायेगा मेरा अंत कभी होगा ऐसा मुझ को विश्वास नहीं है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ दिसम्बर २००७ १२५९. कभी कभी मैं अपने ही सपनों में यूं खो जाता हूं —२९ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २९ दिसम्बर २००७ को प्रेषित कभी कभी मैं अपने ही सपनों में यूं खो जाता हूं इस दुनिया की हर शय से मैं बहुत दूर हो जाता हूं ऐसे भी लमहे अकसर मेरे जीवन में आये हैं लोग मनाते रंगरेली, मैं ऊबा सा सो जाता हूं यहां मौत के साये में पल पल जीना क्या जीना है हार गया मैं तुम्हीं संभालो इस को मैं तो जाता हूं ये राह दीवानेपन की है या फिर बेतरतीबी की मुझे नहीं मालूम आज मैं किस मंज़िल को जाता हूं ख़लिश अग़र मुझ से आजिज़ आ चुके, सुनो सच कहता हूं और परेशां नहीं करूंगा दूर कहीं लो जाता हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ दिसम्बर २००७ १२६०. एक जीवन लुट गया और इक बम फट गया –एक और गज़ल, ई-कविता को २९-१२-०७ को प्रेषित एक जीवन लुट गया और इक बम फट गया बेनज़ीरी फूल इक खिलता हुआ सिमट गया हो गयी शहीद बेनज़ीर देश के लिये आज फिर ज़िहादियों का हो सफल कपट गया राह पे ज़महूरियत की उठ रहा था जो कदम दूर थी मंज़िल अभी कि वो कदम भी हट गया यूं तो पहले भी बहुत ऊंचा नहीं था नाम पर आज पाकिस्तान का और भी कद घट गया हुक्मरान फ़ौज़ के लौट जायेंगे ख़लिश पाक की अवाम का ख्वाब था पलट गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ दिसम्बर २००७ १२६१. मैं सभी ज़रूरतें नकारता चला गया —३० दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३० दिसम्बर २००७ को प्रेषित मैं सभी ज़रूरतें नकारता चला गया रात दिन उसे ही मैं पुकारता चला गया सारी शय फ़िज़ूल हैं मुझे न कुछ भी चाहिये दिल की सारी ख्वाहिशों को मारता चला गया उस की खुशबुओं के फूल दिल में बो चुका हूं मैं और गुनाह की फ़सल उखाड़ता चला गया लमहे लमहे का हिसाब देना होगा एक दिन ज़िन्दगी की राह को संवारता चला गया उस की रहमतें हैं बेहिसाब उस के नूर को दिल के आईने में मैं उतारता चला गया गुल-ओ-वादियों में वो ही दिख रहा है चार सू उस के हुस्न को ख़लिश निहारता चला गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० दिसम्बर २००७ १२६२. लो मनाओ दोस्त नये साल का है दिन नया —३१ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३१ दिसम्बर २००७ को प्रेषित लो मनाओ दोस्त नये साल का है दिन नया जाम पे चढ़ाओ जाम, किसलिये करो हया क्यूं करो खयाल कोई भूख से तड़प रहा क्या किया जो झूम के आज जाम न पिया ठंड से मरा कोई तो क्यों करे ज़माना ग़म ज़श्न आज न किया तो सारे साल क्या जिया साठ और छह बरस पार कर चुका हूं मैं न मनाऊं नया साल, फ़ैसला ये कर लिया साल एक और खत्म आज हो गया ख़लिश मंज़िलेसफ़र के आज और पास आ गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३१ दिसम्बर २००७ १२६३. क्या सोच मनाऊं साल नया –एक और कविता, ई-कविता को ३१-१२-०७ को प्रेषित क्या सोच मनाऊं साल नया है वही पुरानी भूख, ग़रीबी और छाई बीमारी है है जनता नंगे पांव, करे नेता परिवार सवारी है कब दुख मिटेंगे जनता के यह तो है नहीं सवाल नया क्या सोच मनाऊं साल नया कुछ मज़हब के दीवाने हैं, नारा ज़िहाद का करते हैं इस्लाम सभी से अव्वल है, खम ठोक यहां दम भरते हैं हर रोज़ यहां बम फटते हैं, होता है रोज़ धमाल नया क्या सोच मनाऊं साल नया कुछ अन्य लोग ऐसे भी हैं जिन को ईसा से नफ़रत है हिंदू ईसाई नहीं बनें कुछ ऐसी उन की फ़ितरत है वे कंधमाल में चर्च जला करते हैं एक कमाल नया क्या सोच मनाऊं साल नया जनता वो ही, नेता वो ही, ईसाई वही, इस्लाम वही हिंदुत्व वही, सब धर्म वही, चेहरे बदले पर नाम वही पोशाक नई न होगी तुम चाहे बदलो रुमाल नया क्या सोच मनाऊं साल नया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३१ दिसम्बर २००७ ००००००००००००००००००० From: "anand krishna" <anandkrishan@yahoo.com> Date: Wed, 2 Jan 2008 05:29:33 -0800 (PST) SSARTHAK KAVITAA KE LIYE SWEEKAAREN "SAADHUWAAD" AUR NAYE SAAL KI SHUBHKAAMNAAYEN. (YADI ANYTHAA NAA LEN TO AGLI POST MEN APNAA PHONE/MOBILE NO. DEN) ANANDKRISHAN, JABALPUR MOBILE : 09425800818 ०००००००००००००००० १२६४. सितम कर ले ज़माने तू सभी हंस हंस के ढोऊंगा —२ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २ जनवरी २००८ को प्रेषित सितम कर ले ज़माने तू सभी हंस हंस के ढोऊंगा ग़मों की पड़ गयी आदत, मैं उन की बाट जोहूंगा सताओगे मुझे कब तक, कभी ज़ुल्मों की हद होगी कभी टूटेंगी जंज़ीरें, कभी आज़ाद होऊंगा बढ़ूंगा ज़ानिबेमंज़िल ख़ुशी पाऊं कि ग़म पाऊं सहूंगा दर्द सौ फिर भी न दिल का चैन खोऊंगा. मसर्रत तो नहीं देखी मग़र मैं और की खातिर चमन से खार चुन कर हसरतों के बीज बोऊंगा अभी बचपन सिसकता है, बुढ़ापा आह भरता है मैं आंसू पौंछ लूं सब के, ख़लिश तब तक न सोऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी२००८ ज़ानिबेमंज़िल = मंज़िल की ओर मसर्रत = प्रसन्नता खार = कांटे १२६५. मैं बहुत दूर इक दिन चला जाऊंगा मैं बहुत दूर इक दिन चला जाऊंगा कोई आवाज़ देगा, न सुन पाऊंगा जाऊंगा तो मग़र मैं तुम्हारे लिये लौट कर कोई तोहफ़ा नहीं लाऊंगा आयेगा जब समय आखिरी कूच का मत समझना तनिक भी मैं घबराऊंगा आशियाना बनेगा फ़लक पे मेरा जाऊंगा जब जहां से तो मुस्काऊंगा जो गज़ल लिख रहा हूं उसी को ख़लिश वक्त आने पे मैं शौक से गाऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी२००८ १२६६. ज़िन्दगी जी रहा हूं इसी आस पर ज़िन्दगी जी रहा हूं इसी आस पर एक आंसू बहाओगे तुम लाश पर आंख तकती हैं पर हौंठ हिलते नहीं नाचती मौत है अब मेरी सांस पर मान ली हार चारागरों ने मेरे लाख सूई लगा बांह के मांस पर देखता हूं नज़ारा बुझी आंख से दूत यम के मुझे ले चले फांस पर और तुम से ख़लिश कुछ नहीं चाहिये एक पल बैठ जाना मेरे पास पर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी २००८ १२६७. आप बिन अब और जी सकते नहीं आप बिन अब और जी सकते नहीं मय-ए-ग़म अब और पी सकते नहीं बंध गये हैं हम दिलों के तार से दूर जा अब आप भी सकते नहीं आप से रिश्ता है गहरा इस कदर तर्क कर एकबारगी सकते नहीं हालेदिल अपना सुनाएंगे ज़रूर मौत तक हम हौंठ सी सकते नहीं दम निकलता है ख़लिश आ जाइये और रुक अब दो घड़ी सकते नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी २००८ १२६८. याद हम ने किया वो भुलाते रहे याद हम ने किया वो भुलाते रहे आए ख्वाबों में, हम को सताते रहे जो बनाये तसव्वुर में रंगीं महल तोड़ते वो रहे हम बनाते रहे दूर रह के वो दिल के बहुत पास थे कोई मीठा तराना सुनाते रहे वो मिले, हम न कह पाये कुछ भी मग़र ख्याल आते रहे ख्याल जाते रहे हुयी सहर यूं ख़लिश कि उन्हें रात भर प्यार करते हैं कितना बताते रहे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी २००८ १२६९. अब तुम्हारे सिवा मैं किसी का नहीं —३ जनवरी२००८ की गज़ल, ई-कविता को ३ जनवरी२००८ को प्रेषित अब तुम्हारे सिवा मैं किसी का नहीं छोड़ तुम को किसी भी खु़शी का नहीं तुम मिले चैन दिल का मुझे मिल गया आंसुओं का नहीं, अब हंसी का नहीं न कोई शौक है न कोई खौफ़ है ज़िन्दगी का नहीं, ख़ुदकुशी का नहीं तुम समाए हो जब से ज़हन में मेरे कोई लमहा बचा बेबसी का नहीं इस गज़ल में समाई है रूहानगी मामला ये ख़लिश दिलकशी का नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००८ १२७०. दुनिया से छिपा कर इक तसवीर बनायी है –एक और गज़ल, ई-कविता को ३-१-०८ को प्रेषित दुनिया से छिपा कर इक तसवीर बनायी है देखे न कोई इस को नाहक रुसवाई है हैं पास नहीं फिर भी मुझ को छू जाते हैं है असर हवाओं का, मौसम हरजाई है उन का साया जैसे छाया है फ़िज़ाओं में शायद ये हवा उन की ख़ुशबू ले आयी है ये प्यार की राहें भी लंबी हैं बहुत ज्यादा मिलने की घड़ी आये, इक उम्र बितायी है इक लाज की लाली थी और नैन झुके थे दो इस दिल में ख़लिश अब तक वो याद समायी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००८ ००००००००००००००० From: "sunita(shanoo)" <shanoo03@yahoo.com> Date: Thu, 3 Jan 2008 10:02:39 -0800 (PST) वाह महेश जी एक बात कहें हम तो इस विधा मे कमजोर हैं मगर आप बेजोड़ है कैसे चंद लम्हो मे ही गज़ल बना लेते है....बहुत सुन्दर...सचमुच अच्छी लगी... सुनीता(शानू) ००००००००००००००० From: "Vinay" <vinaykantjoshi@yahoo.co.in> Date: Thu, 3 Jan 2008 18:39:16 +0000 (GMT) खलिश जी, इक लाज की लाली थी और नैन झुके थे दो इस दिल में ख़लिश अब तक वो याद समायी है. बहुत अच्छा लगा। दो शब्द मेरे भी स्वीकार करे। इक लाज की लाली थी और नैन झुके थे दो वही लम्हा है पता खलिश का बाकी सब परछाई है ००००००००००००००००००००० १२७१. इक प्यार का दीवाना सारा ये ज़माना है —४ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ४ जनवरी २००८ को प्रेषित इक प्यार का दीवाना सारा ये ज़माना है पर इस की हकीकत को बिरला ही जाना है इन इश्क की राहों को समझा न कोई अब तक एक भूल-भुलैय्यां है घिर कर खो जाना है मंज़िल को चले कितने राहों में बहुत टूटे होने का फ़िदा वाकई बस एक बहाना है फ़रियाद से क्या होना, उम्मीद से क्या हासिल पत्थर की मूरत है, सिर पटक मनाना है आ जाओ ख़लिश अब तो बुझती है शमा दिल की ग़र तुम न मिले हम को फिर कौन ठिकाना है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००८ १२७२. हिलना --एक मुक्तक –एक और मुक्तक, ई-कविता को ३-१-०८ को प्रेषित आम आदमी हाथ हिलाता है फिर कुछ कर पाता है शायर कलम हिलाता है तब कविता का रस आता है चित्रकार की हिले तूलिका, मनभावन तब चित्र बने भौहें हिलें किसी की तो जग पल भर में रुक जाता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००८ १२७२. आंखों में इशारा है होठों पे शिकायत है आंखों में इशारा है होठों पे शिकायत है कुछ हुस्न के बंदों की ऐसी ही रवायत है पल में वो तोला हैं पल में वो माशा हैं वो ख़फ़ा हैं तो चुप हैं, बोलें तो इनायत है एक फूल से खिलते हैं हर वक्त मग़र हम को मुस्कान ज़रा दे दें इस में ही किफ़ायत है हैं एक वही जिन के दम पे हम जीते हैं हम से दीवानों की उन को बहुतायत है कुछ और ख़लिश उन से चाहा न कभी हम ने बस एक निगाह डालें इतने में कनायत है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जनवरी २००८ १२७३. ये दिल भी तुम्हारा है ये जां भी तुम्हारी है --११ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ११ जनवरी २००८ को प्रेषित ये दिल भी तुम्हारा है ये जां भी तुम्हारी है तकदीर ये उजड़ी थी तुम ने ही संवारी है ये कर्ज़ मोहब्बत का किस तरह अदा होगा हर शय ये कहती है तुम पर बलिहारी है तुम चले गये लेकिन यादें तो बाकी हैं तसवीरेवफ़ा गहरी इस दिल में उतारी है बरबाद हुए ऐसे हम इश्क की राहों में रोज़ी न रोटी है, छाई बेकारी है हम ख़लिश कभी उन से इज़हार न कर पाये अब बिछुड़ गये हैं वो कैसी लाचारी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जनवरी २००८ P१२७४. मंज़िल न मिल पायी हम को भटक गये हम राहों में --१० जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १० जनवरी २००८ को प्रेषित मंज़िल न मिल पायी हम को हम भटक गये हम राहों में बिता दिया ये जीवन हम ने अश्कों में और आहों में ऐसा कड़वा जाम मिला है मयखाने में हम को आज दिलबर को पाया है हम ने किसी ग़ैर की बाहों में बिखर जायेगा रंगीं सपना ऐसा कभी न सोचा था हमें प्यार के बदले केवल नफ़रत मिली निगाहों में पल भर वादी से गुज़रे पर किस्मत में तो सहरा था सोचा था जीवन बीतेगा कभी ज़ुल्फ़ की छाओं में इस से तो बेहतर था करते ख़लिश इबादत मौला की क्या पाया जो सर को पटका संगदिलों के पाओं में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जनवरी २००८ ०००००००००००००००० from "Sklal@aol.com" <Sklal@aol.com> 5 January 2008 WAH! WAH !! KYA KHOOB NAGMA Keep it up Mahesh ! 0000000000000000 From: "sunita(shanoo)" <shanoo03@yahoo.com> Date: Thu, 10 Jan 2008 07:12:04 -0800 (PST) खलिश जी बहुत खूबसूरत गज़ल है...सबसे सुन्दर लगा यह शेर... इस से तो बेहतर था करते ख़लिश इबादत मौला की क्या पाया जो सर को पटका संगदिलों के पाओं में. सादर सुनीता(शानू) ०००००००००००००० From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com> Date: Thu, 10 Jan 2008 07:20:18 -0800 (PST) पल भर वादी से गुज़रे पर किस्मत में तो सहरा था बहुत खूब महेशजी राकेश ०००००००००००००००००००० From: "anand krishna" <anandkrishan@yahoo.com Date: Thu, 10 Jan 2008 06:33:02 -0800 (PST) bahut achhi gazal kahee hai khalish jee aapne. waakai isse jyaadaa kadwee baat aur kyaa ho sakti hai ki ऐसा कड़वा जाम मिला है मयखाने में हम को आज दिलबर को पाया है हम ने किसी ग़ैर की बाहों में anandkrishan, jabalpur mobile 09425800818 ०००००००००००००००००००००० १२७५. छुप छुप कर क्यों तुम दुनिया का बेबाक नज़ारा करते हो --७ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ७ जनवरी २००८ को प्रेषित छुप छुप कर क्यों तुम दुनिया का बेबाक नज़ारा करते हो जब छोड़ चुके हो दुनिया क्यों फिर ख्वाब संवारा करते हो जब दुनिया से दिल मोड़ चुके तो धन दौलत की परवाह क्यों दुनियादारी की तोहमत तुम बेकार गवारा करते हो जब सब से नाता तोड़ चुके तो क्यों मन में मोह पाला है इस रंग-बिरंगी दुनिया का रुख आज दोबारा करते हो एक कदम बढ़ा कर मंज़िल को फिर ठिठक रहे हो राहों में इस मायावी दुनिया से क्यों तुम नहीं किनारा करते हो भगवा कपड़े जब पहन लिये तो ख़लिश करो मन को वश में तुम अपनी ही इच्छाओं से क्यों अकसर हारा करते हो. -- Old version-- छुप छुप कर तुम क्यों दुनिया का आज नज़ारा करते हो छुप छुप कर क्यों दुनिया का इस तरह नज़ारा करते हो छोड़ चुके दुनिया तो क्यों फिर ख्वाब संवारा करते हो दुनिया से दिल मोड़ लिया तो धन दौलत की परवाह क्यों दुनियादारी की तोहमत बेकार गवारा करते हो मन में मोह क्यों पाला है जब सब से नाता तोड़ चुके रंग-बिरंगी दुनिया का रुख आज दोबारा करते हो कदम बढ़ा मंज़िल की जानिब ठिठक रहे हो राहों में मायावी दुनिया से क्यों तुम नहीं किनारा करते हो भगवा कपड़े पहने हैं तो ख़लिश करो मन को वश में अपनी इच्छाओं से अकसर क्यों तुम हारा करते हो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जनवरी २००८ |