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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१३२६. कभी कभी तुकबंदी यूं ही हसीं गज़ल बन जाती है —एक और गज़ल, ई-कविता को ८-२-०८ को प्रेषित कभी कभी तुकबंदी यूं ही / हसीं गज़ल बन जाती है कभी असल की माफ़िक ही / की गयी नकल बन जाती है मेकअप और प्रसाधन कर के / अकसर ऐसा होता है भीतर कुछ और बाहर कुछ / एक नयी शकल बन जाती है उल्फ़त और मोहब्बत में सब / ही बुद्धू हो जाते है जो थी पहले तेज़ कभी वो / मंद अकल बन जाती है माली पाल पोस कर भी / हाथों को मलता रहता है बिना फूल वाली जब उस की / भरी फ़सल बन जाती है गंदे कीचड़ में भी इक / तासीर खु़दा के मेहर से ख़लिश वक्त आने पर मोहक / फूल कमल बन जाती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ फ़रवरी २००८ १३२७. आप से खूबसूरत तो कोई नहीं आप से खूबसूरत / तो कोई नहीं आप का ख्याल है / आप से भी हसीं एक तबस्सुम खिला / हौंठ पर आप के गाज़ ऐसी गिरी कि / सिहर गयी ज़मीं कोई सैलाब था / एक पल को उठा दूरियां दरमियां / कोई भी न रहीं भूल बैठे हैं सब आज तनहाइयां जो जुदाई के आलम में हम ने सहीं आप ख्वाबों में यूं / बस गये हैं ख़लिश आज हम हैं कहीं / और दिल है कहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ फ़रवरी २००८ १३२८. मैं तुम्हारी बाट ही जोहता रहा हूं मैं तुम्हारी बाट ही जोहता रहा हूं एक दिन तुम से किया था कुछ निवेदन आज तक उत्तर नहीं पाया है ये मन कल मेरा तन हो न हो किस को ख़बर है मन प्रतीक्षा में रहेगा मूक, चेतन याद के पल छिन सदा मोहता रहा हूं मैं तुम्हारी बाट ही जोहता रहा हूं है बहुत संभव कि तुम वापस न आओ मुझ को इक सपना समझ के भूल जाओ न मिले फ़ुर्सत तुम्हें अपने से ही और ख्याल मेरा भूल कर मन में न लाओ पीर कितनी मैं सदा ढोता रहा हूं मैं तुम्हारी बाट ही जोहता रहा हूं जानता हूं तुम कभी न आ सकोगे दर पे मेरे तुम कभी अब न रुकोगे दूरियां अब ये कभी भी कम न होंगी प्यार की ड्यौढ़ी पे अब तुम न झुकोगे स्वप्न लेकिन लाख संजोता रहा हूं मैं तुम्हारी बाट ही जोहता रहा हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ फ़रवरी २००८ १३२९. आज न जाने मुझे क्या हो गया—ईकविता २९ सितंबर २००८ आज न जाने मुझे क्या हो गया उलझनों में ही कहीं मैं खो गया सूझती कोई नहीं तदबीर अब यूं लगे जैसे नसीब सो गया जो कभी मेरा बना था हमसफ़र छोड़कर मझधार मुझको वो गया ज़िन्दगी की देख कर मज़बूरियां चुप रहा, भीतर तलक मैं रो गया है मग़र दिल को तसल्ली ये ख़लिश खार चुन कर फूल मैं कुछ बो गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ फ़रवरी २००८ ०००००००००००००००००० Monday, 29 September, 2008 2:38 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com वाह खलिशजी, एक पुराना गीत याद आ गया -मुझ को क्या हो गया है खुदा जाने..... ००००००००००००० Monday, 29 September, 2008 2:37 AM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com आदरणीय खलिश जी, "है मग़र दिल को तसल्ली ये ख़लिश खार चुन कर फूल कुछ मैं बो गया" बहुत बढिया पंक्तियाँ ! सादर, शार्दुला ०००००००००००००००००० Monday, 29 September, 2008 9:36 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब, बहुत खूब! मक्ते से कबीरदास जी का दोह याद आया- "जो तोको कांटा बुवै, ताही बोव तू फूल तोको फूल के फूल हैं वाको हैं तिरसूल" सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००० १३३०. पर कट गये तो क्या अभी परवाज़ है बाकी --१० फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १० फ़रवरी २००८ को प्रेषित पर कट गये तो क्या अभी परवाज़ है बाकी मुंह में नहीं ज़ुबां मग़र आवाज़ है बाकी जब तक रहेगी दिल में अहसास की शिद्दत तब तक कहेंगे सब अभी अंदाज़ है बाकी हैं साज़ पर चलीं अभी तो उंगलियां केवल यारो अभी आलाप और आगाज़ है बाकी मुझ को ज़मीं से बेदखल तो कर दिया तुम ने उड़ने को मेरे वास्ते आकाश है बाकी ऐ मौत मेरे पास मत आना अभी कुछ दिन जीने का मकसद तो अभी कुछ ख़ास है बाकी माना कि मेरा प्यार मुझ से छिन गया लेकिन यादों का खज़ाना तो मेरे पास है बाकी चाहे चला गया है वो अब मुझ से बहुत दूर वो है मेरे नज़दीक ये आभास है बाकी लो मौत भी आयी तो ख़लिश इस तरह आयी जां तो चली गयी है मग़र सांस है बाकी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० फ़रवरी २००८ 000000000 From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com Date: Sat, 9 Feb 2008 23:34:45 -0800 (PST) महेश जी: अच्छी गज़ल है , ये शेर विशेष रूप से अच्छा लगा : >मुझ को ज़मीं से बेदखल तो कर दिया तुम ने >उड़ने को मेरे वास्ते आकाश है बाकी सादर अनूप 00000000000000 १३३१. जो ज़ुबां ने कहा वो सुना कान ने, मौन की किंतु आवाज़ दिल ने सुनी --११ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ११ फ़रवरी २००८ को प्रेषित जो ज़ुबां ने कहा वो सुना कान ने, मौन की किंतु आवाज़ दिल ने सुनी मौन संदेश का कुछ असर यूं हुआ, कल्पना से कहानी हृदय ने बुनी पांव थिरके अदा से हिलीं अंगुलियां, देख मोहित सभी हो गये विद्वजन किंतु क्या अर्थ था भंगिमा का यही / सोचते रह गये हैं ठगे से गुणी बीत गयी मस्त संध्या, कली भी महक / कर उदासीन हो के हैं मुरझा चली रात ढलने लगी, चांद छिपने लगा, क्यों मिलन की ये वेला सजन ने चुनी शूल चुभते रहे, पांव रिसते रहे, धूप चढ़ती रही, सांस बढ़ती रही किंतु उठते रहे पैर गंतव्य तक, कोई अपनी ही धुन का था ऐसा धनी जाने वाला चला ही गया अंतत:, कौन है रोक पाया पवन को ख़लिश किंतु कोने में दिल के रहेगी सदा याद की एक मूरत अमिट जो बनी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० फ़रवरी २००८ १३३२. हम तुम्हारे रहेंगे हमेशा सनम, आप हम को अग़रचे भुला दीजिये —एक और गज़ल, ई-कविता को १०-२-०८ को प्रेषित हम तुम्हारे रहेंगे हमेशा सनम, आप हम को अग़रचे भुला दीजिये हम वफ़ा ही करेंगे भले प्यार का / बेवफ़ाई से हम को सिला दीजिये एक ही था अदद मेरे सीने में दिल, पेश वो आप को कर दिया है सनम चाहे अपनाइये चाहे ठुकराइये, चाहे सहलाइये या मिटा दीजिये वो नदी का किनारा वो ठंडी हवा, दे रही थी तपिश मेरे ख्यालात को जो सुनाया था हम को इशारात में / वो ही नग़मा दुबारा सुना दीजिये जो भी तनहाई में आप की याद में / ख्वाब रातों को देखा किये जाग कर आज मिलने की बेला में हम को सनम / वो हसीं ख्वाब खु़द ही दिखा दीजिये जग चुके हैं बहुत रात है वस्ल की, एक हम को खुमारी अजब है चढ़ी इल्तज़ा है ख़लिश एक इतनी हमें, आज बांहों में अपनी सुला दीजिये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० फ़रवरी २००८ १३३३. मैं बहुत सोचा किया कि चुप रहूं —एक और गज़ल, ई-कविता को १०-२-०८ को प्रेषित मैं बहुत सोचा किया कि चुप रहूं फिर यही सोचा कि क्यों न कुछ कहूं किंतु कहने के लिये कोई तो हो किस तरह सब कुछ अकेले ही सहूं ग़र सहारा न मिला औरों का तो है बहुत मुमकिन कि मैं इक दिन ढहूं आज ये मुझ को समझ में आ गया मैं अकेला इस जहां में कुछ न हूं है यही बेहतर कि सब के संग ही बन के हिस्सा मैं ख़लिश सब का बहूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० फ़रवरी २००८ १३३४. तुम ने केवल पुस्तक पढ़ना सीखा है, नयनों की भाषा से तुम अनजाने हो --१२ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १२ फ़रवरी २००८ को प्रेषित तुम ने केवल पुस्तक पढ़ना सीखा है, नयनों की भाषा से तुम अनजाने हो तुम्हें भावनाओं से कोई काम नहीं, केवल विद्या पाने के दीवाने हो अक्ल ज़रूरी है पर वही नहीं सब कुछ, दिल है कोई चीज़ तुम्हें मालूम नहीं सिर्फ़ किताबों की दुनिया में रहते हो, इंसानों की दुनिया से बेगाने हो शब्द कोश में ही सब अर्थ नहीं मिलते, सारे मतलब नहीं कलम से झड़ते हैं लफ़्ज़ों के भी परे इल्म कुछ होता है, तुम केवल लफ़्ज़ों के ही परवाने हो जो दिखता है वही नहीं सच्चा होता, पर्दे के पीछे भी बातें होती हैं शर्मीली नज़रें भी धोखा देती हैं, माना झुकी नज़र के तुम मस्ताने हो दिल की बात निगाहों में आ जाती है, लाख छिपाओ, छिपती नहीं ज़माने से आंखों में तो दर्द झलकता है लेकिन / गाते क्यों तुम ख़लिश ख़ुशी के गाने हो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ फ़रवरी २००८ ००००००००००० From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com Date: Tue, 12 Feb 2008 04:51:13 -0800 (PST) महेशजी, बहुत आसानी से बड़ी बात कही है आपने शब्द कोश में ही सब अर्थ नहीं मिलते, सारे मतलब नहीं कलम से झड़ते हैं लफ़्ज़ों के भी परे इल्म कुछ होता है, तुम केवल लफ़्ज़ों के ही परवाने हो बधाई स्वीकारें. राकेश ००००००००००००००००००० From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> Date: Mon, 18 Feb 2008 04:57:31 -0000 महेश जी, रचना अच्छी लगी ... लिखते रहें .. .. रिपुदमन पचौरी ०००००००००००००००००० १३३५. मेरे ग़म को सनम अपने कभी दिल में न ला मेरे ग़म को सनम / अपने कभी दिल में न ला मेरी तासीर में, फ़ितरत में मेरी, ग़म है घुला मेरी ज़ुल्फ़ों से, मेरे ज़िस्म से तू दिल से भी खेल मेरे अहसास, मेरे ग़म, मेरे अश्कों को भुला मेरे पांवों की भी / थिरकन से तू हो बावस्ता मेरी बुझती हुयी / धड़कन से नहीं करना गिला तेरी ख़ुशियों के लिये / फ़क्त है मेरा ये वज़ूद मेरे हालात पे / ग़म कर के न / तू मुझ को रुला मेरे होठौं का तबस्सुम / है ख़लिश तेरे लिये मेरी आंखों की नमी से / तो नहीं काम भला. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ फ़रवरी २००८ १३३६. इस जहां में आप पर ऐतबार है इस जहां में आप पर ऐतबार है साथ हम को आप का स्वीकार है पास आ कर देखिये तो एक बार कब कहा हम ने हमें इंकार है दूर दानिश्ता न हम से जाइये आप से ही तो बसा संसार है दिल को मिलने दीजिये दिल से सनम किसलिये यह दरमियां दीवार है प्यार दुनिया में न जो हासिल हुआ तो यहां जीना ख़लिश बेकार है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ फ़रवरी २००८ १३३७. अनगिनत राह पर अनवरत मैं चला, ज़िन्दगी आज किस मोड़ पर आ गयी --१४ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १४ फ़रवरी २००८ को प्रेषित अनगिनत राह पर अनवरत मैं चला, ज़िन्दगी आज किस मोड़ पर आ गयी कोई मंज़िल नहीं कोई राह भी नहीं, दिन ढला रात की कालिमा छा गयी राहें जाती कहीं भी नहीं थीं मगर, इतना संतोष था कि हमारी हैं वे पांव भी थे चले, राह भी थी चली, है जुदा बात ये लौट कर आ गयी थक गया पर मुझे अंत में क्या मिला, बस तिरस्कार व्यंग और उपालम्भ ही किंतु इस की मुझे आज परवाह नहीं, दर्द की ज़िन्दगी अब मुझे भा गयी बाद मरने के भी संग होगा ख़ुदा, जिस जहां में वो चाहे हमें ले चले नाम कायम ज़मीं पर हमारा रहे, फ़िक्र ये बेवज़ह है हमें खा गयी पर मिले थे बशर को फ़ुदक ले कभी, आदमी आसमां लूटने को उड़ा मार ऐसी ख़ुदा की पड़ी बेपनाह, एक पल में ज़मीं पर उसे ला गयी एक मासूम को दुख हज़ारों दिये, वो बेचारी सभी ज़ुल्म सहती रही आखिरी चीख निकली जो उस की ख़लिश, एक बिजली गिरी, एक कहर ढा गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ फ़रवरी २००८ ०००००००००००००० From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com Date: Thu, 14 Feb 2008 17:23:28 -0800 (PST) अनगिनत राह पर अनवरत मैं चला, ज़िन्दगी आज किस मोड़ पर आ गयी कोई मंज़िल नहीं कोई राह भी नहीं, दिन ढला रात की कालिमा छा गयी >> राहें जाती कहीं भी नहीं थीं मगर, इतना संतोष था कि हमारी हैं वे पांव भी थे चले, राह भी थी चली, है जुदा बात ये लौट कर आ गयी सादर राकेश ००००००००००००००००० Date: Mon, 18 Feb 2008 01:57:34 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> महेश जी ... ग़ज़ल अच्छी लगी ... ०००००००००००००० १३३८. न दर्द समाये जब दिल में, आंखों से बाहर आता है --१३ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १३ फ़रवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS न दर्द समाये जब दिल में, आंखों से बाहर आता है पर मेरे अश्कों पर कोई क्यों दूर खड़ा मुस्काता है पहले मुझको दुख देता है, जब रोता हूं वो ही मुझको रोने से क्या हासिल होगा, ये कह करके समझाता है मैंने तो कुछ न मांगा था हां दिल में आस संजोई थी वो भी अब टूट गयी मुझको बस ख्याल यही तड़पाता है कुछ और समय बीतेगा तो मन भी पत्थर हो जायेगा यह घाव अभी ताज़ा है, हलकी चोट लगे रिस जाता है क्यों ख़लिश सजाता है सपनों के बाग सिरफ़ उम्मीदों पर बगिया का माली नहीं रहा, आंसू बेकार बहाता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ फ़रवरी २००८ ०००००००० From: "Om Dhingra" <ceddlt@yahoo.com> Date: Wed, 13 Feb 2008 12:57:32 -0800 (PST) Mahesh ji, "Na dard samaya jab dil mein, Gazal mein aap ne mere dil ke dard ko urer diya hai. Jo mein nahi likh paie veh aap ne likh dia hai.Gazal bahot achi lagi. Dhanyavad. Regards, Sudha Om Dhingra. ०००००००००००००००० १३३९. जिस अमरीका को कहते हैं / इन्तहा यही है ख्वाबों की —एक और गज़ल, ई-कविता को १३-२-०८ को प्रेषित जिस अमरीका को कहते हैं / इन्तहा यही है ख्वाबों की दौलत ही पुजती वहां सिरफ़ / नगरी है एक नवाबों की कुछ वो नवाब जो कभी देश में / अपने हेय तिरस्कृत थे खोये हैं इस दुनिया में वो / सुंदरियों और शराबों की ये संस्कृति भौतिकवादी है, मानवता का कुछ दाम नहीं इंसानों की तो नहीं यहां / पर कीमत है असबाबों की अमरीकी नेता दूजे देशों / पर बमबारी करते हैं अच्छों की कोई पूछ नहीं, इज्जत है यहां ख़राबों की अमरीकी चमड़े का सिक्का / दुनिया में अकसर चलता है परवाह किसी को नहीं ख़लिश, तफ़सीलों और हिसाबों की. इन्तहा = चरम प्राप्ति असबाब = सामान तफ़सील = विवरण, विस्तृत जानकारी, तथ्य चमड़े का सिक्का = मोहम्मद तुग़लक के चमड़े के सिक्के की मिसल / उपमा महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ फ़रवरी २००८ १३४०. क्या जानूं मैं कितनी बीती, कितनी बाकी और अभी क्या जानूं मैं कितनी बीती, कितनी बाकी और अभी जाने कितनी लिखी पीसनी / मुझ को चाकी और अभी वही रोज़ का रोना धोना, वही टूटना सपनों का जाने कितनी मुझे देखनी / जीवन झांकी और अभी मेरा अपने जीवन का भी / है अवसान निकट ही अब याद आयेगी कब तक मुझ को / अपनी मां की और अभी नहीं भरा दिल / रुक मत / तीर चलाये जा तू नयनों के जरा देख लेने दे अपनी / चितवन बांकी और अभी पास तेरे आ कर दुनिया के / ग़म सारे खो जाते हैं ख़लिश होश बाकी है जाम / पिला दे साकी और अभी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ फ़रवरी २००८ १३४१. नींद ऐसी एक दिन सो जाऊंगा –RAMAS—ईकविता, ४ अक्तूबर २००८ नींद ऐसी एक दिन सो जाऊंगा इस जहां से दूर मैं हो जाऊंगा पाप दुनिया में किये लेकिन उन्हें पेशतर जाने के मैं धो जाऊंगा मैं सदा खोया रहा संसार में अब कहीं पर और मैं खो जाऊंगा छोड़ जाऊंगा मग़र अपने निशां बीज गज़लों के यहां बो जाऊंगा फ़िक्र दुनिया की ख़लिश क्योंकर करूं एक दिन मैं भी कभी तो जाऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ फ़रवरी २००८ ०००००००००००० Saturday, 4 October, 2008 10:24 AM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com बहुत ख़ूब! राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा। मीना कुमारी ०००००००००००००००००० Saturday, 4 October, 2008 10:45 AM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com खलिश जी, बहुत भाव भरा गीत है। बधाई स्वीकारें ! ------------ --------- पर याद रखिये जो वहाँ आप जायेंगे, कुछ दिनों में हम भी वहीं पर आयेंगे, फिर सजेगी गीत की महफिल खलिश साथ मिल हम सब वहाँ भी गायेंगे । सादर शार्दुला ००००००००००००००००० Saturday, 4 October, 2008 12:44 PM From: "kusum sinha" <kusumsinha2000@yahoo.com> Aderniy Maheshji namaskar Bahut hi sundar gazal hai.Etna achha aap kaise likh lete hain ye samajh me nahi aata? lekin aapki gazalo me kuchh udasi ka rang aane laga hai.Aap jaise jindadil log sau saal jiye meri yahi prarthana hai aur khub likhen aur humlog aise hi padhte rahen kusum ०००००००००००००० Saturday, 4 October, 2008 1:42 PM From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com खलिश जी, शार्दुला: आप दोनो की यह यात्रा जितनी देर से शुरु हो उतना ही अच्छा. यात्रा के लिये सभी अशुभ कामनाओं के साथ :-~ ऊपर लगने वाली महफ़िल को ज़रा इन्तज़ार करने दें ... गज़ल बहुत अच्छी लगी । >छोड़ जाऊंगा मग़र कुछ तो निशां >बीज गज़लों के यहां बो जाऊंगा सादर स्नेह अनूप ००००००००००००००००० १३४२. जुल्फ़ें झटक, तुनक के वो ऐसे चले गये --१५ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १५ फ़रवरी २००८ को प्रेषित जुल्फ़ें झटक, तुनक के वो / ऐसे चले गये आंखों से मेरी ख्वाब सब / जैसे चले गये बागेमोहब्बत में हमें / कुछ न हुआ हासिल आये थे जैसे लौट कर / वैसे चले गये अंगूर खट्टे हैं ये ज़माने से कह दिया हम मल के हाथ जैसे के / तैसे चले गये खाली वो कर के जेब मेरी / हो गये रुखसत बरबाद करवा के मेरे / पैसे चले गये आता रहा है ख्याल हम को बारहा ख़लिश नाहक चमन-ए-इश्क में / कैसे चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४३. ख़ुशियां चला था ढूंढने ग़म मिल गये इतने —एक और गज़ल, ई-कविता को १६-२-०८ को प्रेषित ख़ुशियां चला था ढूंढने ग़म मिल गये इतने तारे भी आसमान में शायद नहीं जितने ये सिलसिला-ए-दर्द कभी तो खतम होगा मैं सह चुका उन के सितम जाने भला कितने एक माहरुख़ के वास्ते मैं हो गया बरबाद नादान हूं, न ये कहा मुझ को भला किस ने दौलत से दिल से और मैं ईमान से गया हालत पे मेरी रो दिया देखा किया जिस ने मुझ को रुला रहीं हैं ख़लिश इश्क की यादें बैठा हूं अश्कों की ज़ुबां अशआर कुछ लिखने. माहरुख = चन्द्रमुखी महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४४. जब तनहाई होती है कुछ आशिक के दिल में होता है —एक और गज़ल, ई-कविता को १५-२-०८ को प्रेषित जब तनहाई होती है कुछ / आशिक के दिल में होता है दुनिया से छिप कर के अपना / दामन वो आप भिगोता है दुनिया वाले तो आशिक पर / सौ- सौ इलज़ाम लगाते हैं जिस दिल पर मार सितम की हो / वो चुपके चुपके रोता है सोते जगते भी आशिक के / ख्वाबों में पलता और कोई वह तारे गिनता रहता है / जब सारा आलम सोता है वो चले गये तो चले गये / अब पलट नहीं वो आयेंगे बरबाद न कर क्यों अश्कों से / तू चेहरा अपना धोता है तू कभी न उन के दिल में था, और था तो भूल चुके हैं वो अब ख़लिश भुला भी दे उन को / क्यों चैन भला तू खोता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४५. मैं शायर एक आवारा हूं —एक और गज़ल, ई-कविता को १५-२-०८ को प्रेषित मैं एक शायर आवारा हूं दुनिया कहती मतवारा हूं कोई क्या जाने दिल की बातें मैं किसी हसीं का मारा हूं मैं जिया प्यार की ख़ातिर पर सब कहते हैं नाकारा हूं दिल की दौलत है पास मेरे मत कहो कि मैं बेचारा हूं पल भर को अलग नहीं होते मैं बहुत ग़मों का प्यारा हूं न धड़कन किसी हसीना की न किसी आंख का तारा हूं मेरा वज़ूद है सिर्फ़ यही आंखों का पानी खारा हूं पावन, निर्मल, दिल से निकली मैं अविरत अश्रु-धारा हूं चमका, पर कहीं न टिक पाया मैं अस्थिर, चंचल पारा हूं उठता, गिरता फिर औंधे मुंह * एक अनजाना फ़ौवारा हूं है ख़लिश मरण में ही जीवन दुनिया को देता नारा हूं * सिर उठा फ़ौवारा निकला पर गिरा वो सिर के बल आदमी को सिर झुका दुनिया में चलना चाहिये महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४६. प्यार हम से सदा आप पाते रहें: कवि कुलवन्त जी की प्रशस्ति में रचित-- एक और गज़ल, ई-कविता को १५-२-०८ को प्रेषित प्यार हम से सदा आप पाते रहें और सम्मान नये रोज़ लाते रहें शारदा मां कृपा और करती रहे आप कविता सदा गुनगुनाते रहें काव्य-धारा बहे कोकिला-तान सी आप श्रोता-समाजों पे छाते रहें लेखनी से लिखे जायें हम शब्द बन भाव ये सोच कर कसमसाते रहें और क्या कामना हम करेंगे ख़लिश आप इस मंच को नित सजाते रहें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४७. मन में व्यथा भरी है मेरे कारण किंतु ज्ञात नहीं है --१६ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १६ फ़रवरी २००८ को प्रेषित मन में व्यथा भरी है मेरे / कारण किंतु ज्ञात नहीं है कोई दुख है, आस-पास पर / कोई दुख की बात नहीं है जब मेरे मन में चाहत थी, तब तो मिला न जो भी चाहा वापिस ले लो रास मुझे अब / ख़ुशियों की सौगात नहीं है मुझे ख़बर है कभी न मिलता / पूरा इक संसार किसी को सदा रहे रंगीन हुई ऐसी तो कोई रात नहीं है यूं तो कुछ परहेज़ नहीं है / विषय भोग करने से मुझ को सुख से मुझ को दुख मिलता हो / ऐसी तो कुछ बात नहीं है लौटा लो ये प्रेम निमंत्रण, मैं अब इस के योग्य नहीं हूं कैसे मैं समझाऊं तुम को, मन में अब जज़्बात नहीं हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४८. ये शेर भी उन का है, उन की ही है ये गज़ल ये शेर भी उनका है, उन की ही है ये गज़ल हम आज जो शायर हैं उनका ही है ये फ़ज़ल यादों का ठिकाना क्या, जब चाहे आती हैं आ कर वो तसव्वुर में, करते है आंख सजल दर पे तुम माज़ी के दस्तक धीरे देना नाज़ुक जानो इस को दुलहन का है ये हज़ल शुरुआत न इस की है न खत्म कभी होगा ये दिल का फ़साना है इस का है वक्त अज़ल हैं ख़लिश बहुत गहरे ये दाग़ कलेज़े के नामुमकिन है निकले मेरे दिल का ये कज़ल फ़ज़ल = मेहरबानी तसव्वुर = कल्पना माज़ी = बीता वक्त हज़ल = दुल्हन का कमरा अज़ल = अनादि कज़ल = लंगड़ापन महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३४९. हम हर कदम पे उन को बुलाते चले गये --२६ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २२ फ़रवरी २००८ को प्रेषित हम हर कदम पे उन को बुलाते चले गये वो थे कि हम को दिल से भुलाते चले गये दिल में तो उन के प्यार की फ़ितरत कभी न थी हम को हसीन ख्वाब दिखाते चले गये तनहाई के आलम में उन के ख्याल और अंदाज़ मीठी सी नींद हम को सुलाते चले गये जाना था कर के तर्क मोहब्बत उन्हें मग़र हम थे कि उन को दिल में बिठाते चले गये लाचार थे आदत से ख़लिश जाते वक्त भी कुछ लफ़्ज़ पुर-ज़हर वो सुनाते चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ फ़रवरी २००८ १३५०. मेरे हुए न तुम यही दिल में मलाल है --२३ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २१ फ़रवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS मेरे हुए न तुम यही दिल में मलाल है क्या थी ख़ता मेरी यही दिल में सवाल है क्या ग़ैर में देखा था जो मुझमें नहीं मिला रह- रह के दिल में आ रहा ये ही ख़याल है मिलता है धोखा प्यार में, कहता था ज़माना इस बात की महफ़िल में अब मेरी मिसाल है न होश है अपना न कुछ दुनिया की है ख़बर ख़ुद आ के देख लो कभी मेरा जो हाल है मरना नहीं मुमकिन ख़लिश दूरी बढ़ेगी और जीना भी आपके बिना लेकिन मुहाल है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ फ़रवरी २००८ 000000000 From: "Sitaram Chandawarkar" <smchandawarkar@yahoo.com> Date: Sun, 24 Feb 2008 00:28:15 -0800 (PST) म्हेश जी, खूब कहा है आप ने न होश है अपना न कुछ दुनिया की खबर खुद आ के देख लो कभी मेरा जो हाल है लेकिन जब वो आएंगे, तो क्या हाल होगा ? ग़ालिब कहते हैं उन के देखे से जो आ जाती है चेहरे पे रौनक वो समझते हैं कि मरीज़ का हाल अच्छा है। इसी ग़ज़ल के दो और शेर भी मशहूर हैं कतरा दरिया में जो मिल जाए तो दरिया हो जाए काम अच्छा है वो जिस का कि म’आल अच्छा है। हम को मालूम है ज़न्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल को खुश रखने को ’ग़ालिब’ ये खयाल अच्छा है। सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००० |