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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१३५१. जब दिन सोने को जाता है और शाम उतर के आती है --२२ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २१ फ़रवरी २००८ को प्रेषित जब दिन सोने को जाता है / और शाम उतर के आती है मेरे दिल की तनहाई भी / कुछ और अधिक बढ़ जाती है हर रात पहाड़ सी लगती है, हर ख्वाब रुला के जाता है ऐसे में कभी साया बन के / सूरत कोई मुसकाती है माज़ी की याद तसव्वुर में / रंग भरती है हर रोज़ नये रोता है कभी, हंसता है कभी, ये दिल कितना जज़्बाती है एहसास में हैं वो बसे हुए, माना कि नहीं अब दुनिया में जब भी याद उन की आती है / दिल को मेरे भरमाती है सांसें तो ख़लिश चलती हैं मग़र / ये जीना तो बेमानी है एक खालीपन सा है दिल में / कोई शय न उसे भर पाती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ फ़रवरी २००८ १३५२. जिस दिन मिले हम आप के / शैदाई हो गये --२१ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २० फ़रवरी २००८ को प्रेषित जिस दिन मिले हम आप के / शैदाई हो गये दुनिया समझती ही रही / सौदाई हो गये दिल तो दिया मग़र हमें / बदले में न मिला हम एक नामुराद सा / सौदा ही हो गये हम तो वफ़ा की राह पर / हर दम चला किये न जाने आप किसलिये / हरजाई हो गये न जाने कैसे वक्त में / हम आप से मिले नज़रों में हम सभी की / तमाशाई हो गये यूं तो रदीफ़, काफ़िया / और बहर थे सभी हम वो गज़ल जो न किसी / ने गायी हो गये शैदाई = चाहने वाला, प्रेमी सौदाई = दीवाना, पागल, विक्षिप्त महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ फ़रवरी २००८ १३५३. वो ज़िन्दगी में इस तरह आते चले गये --१८ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १८ फ़रवरी २००८ को प्रेषित वो ज़िन्दगी में इस तरह / आते चले गये नज़रों की राह दिल में / समाते चले गये हर सू नज़र आते हैं वो / देखूं जिधर जिधर दुनिया पे मेरी दम-ब-दम / छाते चले गये मुंह फेर चल दिये कभी, मुसकाये वो कभी अपनी अदा से हम को / लुभाते चले गये हाथों में गुलदस्ता दिया तो / वो हुआ भारी नाज़ुक हैं कितने हम को / जताते चले गये सांस उन के इशारे पे ख़लिश / हम लिया किये वो नाज़ अपने और / दिखाते चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ फ़रवरी २००८ १३५४. दुनिय कुछ कहती रहती है, मैं चुप्पी साधे रहता हूं --१७ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को १७ फ़रवरी २००८ को प्रेषित दुनिय कुछ कहती रहती है, मैं चुप्पी साधे रहता हूं आधे दिन ख्वाब संजोता हूं, ख्यालों में आधे रहता हूं है दिया सभी को दुनिया में, बदले में क्या पाया मैंने हैं सभी फ़िज़ूल ख़बर है पर, उम्मीदें बांधे रहता हूं जब तक मैं डरा ज़माने से, ड्यौढ़ी में अपनी क़ैद रहा ये सच है कि मैं अकसर अब / हर हद को लांघे रहता हूं मैं क्यों शराब को छोड़ूं अब, मर जाऊंगा पीते पीते मेरा जीना भी क्या जीना, औरों के कांधे रहता हूं हैं ऐब बहुत मेरे अंदर पर ख़लिश सभी का जिम्मा अब जिस ने ईज़ाद किया मुझ को, मैं उस को ही दे रहता हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ फ़रवरी २००८ १३५५. मेरे महबूब किसलिये है ख़फ़ा --१९ फ़रवरी २००८ का नग़मा, ई-कविता को १९ फ़रवरी २००८ को प्रेषित मेरे महबूब किसलिये है ख़फ़ा मेरी आंखों में देख ले है वफ़ा पर ग़रीबी में पिस रहे हैं जो डाल इन पे नज़र भी एक दफ़ा कहीं खेतों में पड़ रहा सूखा कोई मासूम रो रहा भूखा कहीं लज़्ज़त की दावतें बरपा कहीं टुकड़ा नहीं मिले रूखा कैसे दिल को सुकूं मिले मेरे आम इंसां को लाख ग़म घेरे लोग भूखे ही पेट सोते हैं काम मिलता नहीं, करें फेरे प्यार की हर अदा में हैं घातें हो रही हैं ज़हर भरी बातें आज फटते हैं बम चौराहे पे आज जनता की घुट रहीं सांसें रास्ते हैं अभी बहुत बाकी न मुझे मय है, न मुझे साकी फ़िक्र अपनी ही मैं करूं कैसे आज हालत ख़राब दुनिया की क्या मिलेगा ये मेरे ग़म ले कर न हो नाराज़ मैं कहूं जो अगर तेरे लायक नहीं मैं हो सकता ढूंढ ले और तू कोई बेहतर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ फ़रवरी २००८ १३५६. बदलाव की हवा भी एक है अजब बला -- एक और गज़ल, ई-कविता को १९-२-०८ को प्रेषित बदलाव की हवा भी एक है अजब बला करते पुराने से सभी हैं आजकल गिला सब कुछ बदल गया, पुराना एक मैं बचा क्योंकर यहां पर सोचता हूं अब जिऊं भला चढ़ते हुए सूरज को पूजते हैं लोग सब जो ढल गया उसे तो बस अवसान ही मिला अब प्यार में मरना महज़ है बेवकूफ़ी एक ग़र ये नहीं तो वो सही का बस है सिलसिला क्या एक मंगलसूत्र की बाकी है अहमियत फेरे बिना ही साथ सब रहते हैं अब खुला मेरे ज़माने का चलन था काबिलेतारीफ़ लगता है नयी पीढ़ी ख़लिश देगी उसे भुला. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ फ़रवरी २००८ १३५७. आज क्यों तर्केमोहब्बत का खयाल आया है --२० फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २० फ़रवरी २००८ को प्रेषित आज क्यों तर्केमोहब्बत का खयाल आया है किसलिये आज जुदाई का सवाल आया है आप क्यूंकर हैं ख़फ़ा हम को ये बतला दीजे आप के रुख पे सनम क्यों ये मलाल आया है कौन है ग़ैर है जो अब आप के दिल में है बसा किसलिये आप के चेहरे पे जमाल आया है वस्ल की रात है शरमाने की फ़ितरत छोड़ो आज रुखसार पे क्यों रंगेगुलाल आया है आप नाज़ुक हैं ख़लिश छूने से डर लगता है कोई फूलों की नज़ाकत को चुरा लाया है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० फ़रवरी २००८ १३५८. मैंने उल्फ़त में हसीं ख्वाब सजाये कैसे --२५ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २२ फ़रवरी २००८ को प्रेषित मैंने उल्फ़त में हसीं ख्वाब सजाये कैसे मेरे महबूब ने अंदाज़ दिखाये कैसे मेरे ख्वाबों को हकीकत का न अंज़ाम मिला दिल पे ग़म हैं मेरे महबूब ने ढाये कैसे मुझे अब इश्क के अहसास से डर लगता है दास्तां दिल की भला कोई सुनाये कैसे मैंने देखे हैं मोहब्बत के कई रंग मग़र कौन सच्चा है यहां कोई बताये कैसे मुझे दुनिया में ख़लिश तनहा सफ़र करना है हैं सभी गै़र यहां कोई निभाये कैसे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ फ़रवरी २००८ १३५९. आज आये हैं वो पर दिल में बिठाऊं कैसे --२४ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २३ फ़रवरी २००८ को प्रेषित आज आये हैं वो पर दिल में बिठाऊं कैसे दिल तो करता है मग़र दिल से लगाऊं कैसे जो कभी नग़मे लिखे उन को सुनाने के लिये आज हाज़िर हैं मग़र उन को सुनाऊं कैसे न तो वो ही वो रहे और न हम हैं जो थे वक्त ने कैसे सितम ढाये बताऊं कैसे एक मुद्दत से जिन्हें दिल में छिपा रखा है दिल के जज़्बात को होठौं पे मैं लाऊं कैसे बड़ा पुरदर्द है अफ़साना मेरी उल्फ़त का दर्दे दिल अपना ख़लिश सब को दिखाऊं कैसे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ फ़रवरी २००८ १३६०. क्या हस्ती-ए-इंसान है भगवान के आगे --२७ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २७ फ़रवरी २००८ को प्रेषित क्या हस्ती-ए-इंसान है / भगवान के आगे इंसान को दिखता नहीं / इंसान के आगे कल की ख़बर न आज की / कुछ भी बशर को है क्या कर सके मौला के वो फ़रमान के आगे किस्मत में जो लिखा है / वो है कौन पढ़ पाया जाने न है वो राह / कब्रिस्तान के आगे इंसान चाहे रहम तो परवरदिगार का पर सर झुकाता है दरेशैतान के आगे तसबीह के दाने घुमा के / हो रहा है ख़ुश रखता है पर फ़रेब को / ईमान के आगे जज़्बा-ए-रूहानी से है इंसान बेख़बर हैवानियत में है ख़लिश / हैवान के आगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ फ़रवरी २००८ १३६१. जो कवि हृदय है उस को तो कविता करना ही आता है --२८ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २८ फ़रवरी २००८ को प्रेषित जो कवि हृदय है उस को तो कविता करना ही आता है वह कविता में ही हंसता है, कविता में अश्रु बहाता है यूं तो कवि मन कल्पना कभी सीमा बंधन में नहीं बंधी पर कभी कभी उस का मन भी चुप सा, कुंठित हो जाता है जिस की खातिर माली ने स्वप्न संजोये सतरंगे मन में वह निर्मोही बन जाता है, कैसा ये जग का नाता है है किस का कौन, पराये सब, हैं सभी मुसाफ़िर इस पथ में यह दो पल का है साथ मग़र नाहक ही हमें लुभाता है हे नाथ सत्य को स्वीकारें, हम हैं अशक्त, आप हैं सशक्त हैं कर्ता आप और हम निमित्त, गीता का ज्ञान बताता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ फ़रवरी २००८ १३६२. मेरे सीने के घाव गहरे हैं --२९ फ़रवरी २००८ की नज़्म, ई-कविता को २९ फ़रवरी २००८ को प्रेषित मेरे सीने के घाव गहरे हैं मेरे मन पर हज़ार पहरे हैं हाल दिल का किसे सुनाऊं मैं लोग भी इस शहर के बहरे हैं नहीं रोने की भी इज़ाज़त है आंसुओं की बहुत हिफ़ाज़त है कोई अहसास अब नहीं बाकी और दिल में न कोई हाजत है कौन मंज़िल ये आज पायी है न कोई राह पड़े दिखायी है चार सू गर्दिशों का आलम है एक चुप सी अजीब छायी है मेरे मौला मुझे सुकूं दे दे क्या करूं, हुक्म ये मुझे दे दे ज़िंदगी मौत से भी बदतर है मेरे जीने को आबरू दे दे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ ००००००० From: "Om Dhingra" <ceddlt@yahoo.com Date: Fri, 29 Feb 2008 13:26:32 -0800 (PST) महेश जी, नज़म बहुत पसंद आई.'' हाल दिल का किसे सुनाऊं मैं /लोग इस शहर के बहरे हैं'' सुधा ओम ढींगरा ००००००००००० १३६३. एक कठपुतली बराबर मैं यहां – एक और गज़ल, ई-कविता को २९ फ़रवरी २००८ को प्रेषित एक / कठपुतली बराबर / मैं यहां हर वकत / मुझ को नचाता/ है जहां नाचने से / क्यों करूं / परहेज़ मैं ठौर मिल पायेगा अब मुझ को कहां घर मेरा / अपना पराया हो गया कौन है / जिस के लिये / जाऊं वहां ग़म में / खु़शियों के बहाने ढूंढ लो ज़िंदगी / हो जायेगी / फिर से रवां भूल जाओ / पांव के छाले ख़लिश दर्द में भी / इक ख़ुशी सी / है निहां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ ००००००००००० From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com> Date: Thu, 28 Feb 2008 22:13:23 -0800 (PST) महेश जी: ये दो शेर बहुत अच्छे लगे : ग़म में / खु़शियों के बहाने ढूंढ लो ज़िंदगी / हो जायेगी / फिर से रवां भूल जाओ / पांव के छाले ख़लिश दर्द में भी / इक ख़ुशी सी / है निहां. सादर अनूप ०००००००००००००००००० १३६४. वो दिन अब क्यूं नहीं आते जो इस दिल के सहारे थे—RAMAS—ईकविता, ७ अक्तूबर २००८ वो दिन अब क्यूं नहीं आते जो इस दिल के सहारे थे कभी जब हम तुम्हारे थे कभी जब तुम हमारे थे समायी थी नज़र में प्यार की मस्ती भरी दुनिया कभी सबसे हंसीं थे आप, हम आंखों के तारे थे जिये वादे पे हम जिनके पराये हो गये हैं वो न था हम को ग़ुमां कि खोखले वादे वो सारे थे बहुत तकलीफ़ होती है ये जब भी ख्याल आता है कभी हम जीत कर भी प्यार की बाजी में हारे थे न ये मालूम था अंज़ाम उल्फ़त का जुदाई है ख़लिश मिल पाये न हम इक नदी के दो किनारे थे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ ००००००००००००००० Tuesday, 7 October, 2008 10:07 AM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com जिये वादे पे हम जिनके पराये हो गये हैं वो न था हम को ग़ुमां कि खोखले वादे वो सारे थे" खलिश जी, वाह ये शेर तो एक तीर से दो शिकार कर रहा है। आपके महबूब के साथ-साथ हमें दल-बदलू नेता और वादाफरोश मंत्रियों की याद भी आ गयी। सादर शार्दुला ०००००००००००००००००००००००० October, 2008 11:25 AM From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in खलिश साहब, यूँ तो हर पँक्ति अच्छी है, लेकिन बहुत तकलीफ़ होती है ये जब भी ख्याल आता है कभी हम जीत कर भी प्यार की बाजी में हारे थे बिशेषरूप से अच्छी लगी। रिजवाँ वास्ती साहब कहते हैं कि- इक दर्द है कि दिल से हँटाया न जा सके। इक चैन है जो ढूँढ के लाया न जा सके।। सादर श्यामल सुमन 09955373288 मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं। कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।। www.manoramsuman. blogspot. com १३६५. मुझे हर लमहा तुम्हारा ही ख़याल आया है मुझे हर लमहा / तुम्हारा ही / ख़याल आया है मैंने हर रात को / ख्वाबों में तुम्हें पाया है दिल की धड़कन है रवां / सिर्फ़ तुम्हारे दम पे मेरी हर शय पे तुम्हारा ही नशा छाया है ये है रिश्ता-ए-वफ़ा, तर्क न ये हो जाये सोच के आज ये मन / किसलिये भरमाया है ये मेरे अश्क न बरबाद कहीं हो जायें मुझे उल्फ़त में मिला / एक ही सरमाया है मैंने पायी है मोहब्बत में / फ़कत रुसवाई दिलेनादान मेरा / सोच के पछताया है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ १३६६. मैं भी कभी धड़कन था किसी और के दिल की मैं भी कभी धड़कन था किसी और के दिल की मैं भी कभी था जान किसी रंगेमहफ़िल की आज इस लायक नहीं दो गाम चल सकूं चलते मुसाफ़िर देखता हूं मैं लबेखिड़की सेहतपसंद आदमी को है यही दरकार कसरत करे ग़म खाये और रखे गिज़ा हलकी ख्याली पुलाव से न भरा पेट किसी का कब तक करूं चर्चा भला रुखसार-ओ-तिल की अफ़सोस अपने हाल पे क्योंकर करूं ख़लिश अब तक तो कट गयी करूं मैं फ़िक्र क्यों कल की. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ १३६७. राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं ग़म खड़े पास मुस्कराते हैं लाख जज़्बात को छिपायें हम अश्क आंखों में आ ही जाते हैं राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं ग़म खड़े पास मुस्कराते हैं हर पलक पर हंसी नहीं मिलती हर कदम पर खुशी नहीं मिलती इश्क की राह में हैं कांटे भी सेज हर इक सजी नहीं मिलती धार आंसू की हम बहाते हैं ग़म खड़े पास मुस्कराते हैं राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं दाग़ दामन पे हैं लिये अब तक हम अकेले ही हैं जिये अब तक न कोई हमसफ़र मिला हम को कोशिशें तो बहुत किये अब तक राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं ग़म खड़े पास मुस्कराते हैं लाख जज़्बात को छिपायें हम अश्क आंखों में आ ही जाते हैं राहेउल्फ़त पे हम जो जाते हैं ग़म खड़े पास मुस्कराते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ नोट— लोग पीते हैं लडखडा़ते हैं दिल की दुनिया के गम मिटाते हैं एक हम हैं के तेरी महफ़िल में प्यासे आते हैं प्यासे जाते हैं --फ़रार, हेमन्त, १९५५, कैफ़ी आज़मी १३६८. उन से मिलने के ख्याल आते हैं उन से मिलने के ख्याल आते हैं एक तूफ़ान सा मचाते हैं उन से मिलने के ख्याल आते हैं आज शब-ए-विसाल आती है हर फ़िज़ा आज मुस्कराती है कैसे रोकूं मैं दिल की धड़कन को कोई आहट मुझे बुलाती है उन से मिलने के ख्याल आते हैं एक तूफ़ान सा मचाते हैं उन से मिलने के ख्याल आते हैं रास्तो मेहरबान हो जाओ मेरी मंज़िल की शान हो जाओ मेरा महबूब आ रहा होगा हसरतो तुम जवान हो जाओ उन से मिलने के ख्याल आते हैं एक तूफ़ान सा मचाते हैं उन से मिलने के ख्याल आते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ नोट— लोग पीते हैं लडखडा़ते हैं दिल की दुनिया के गम मिटाते हैं एक हम हैं के तेरी महफ़िल में प्यासे आते हैं प्यासे जाते हैं --फ़रार, हेमन्त, १९५५, कैफ़ी आज़मी १३६९. वो ही फिर फिर के खयालों में मेरे आता है वही फिर फिर के / खयालों में / मेरे आता है कभी सपने में मुझे / दिखती है / सूरत उस की कभी तनहाई के / मौसम में वो / तड़पाता है कभी दिखती है / तसव्वुर में ही / मूरत उस की मेरे अहसास की / शिद्दत है उसी के दम से वो ही हर दम / मेरी धड़कन में / बसा रहता है ख़त लिखता हूं मैं / उस को जो दीदा-ए-नम से ख़त का हर हर्फ़ मेरे दिल में / जवां रहता है जाने कब मिलना हो / मुद्दत हुयी / राहें तकते अब तो उम्मीद भी / थकती सी / नज़र आती है सभी सुनसान हैं जो / मैंने सजाये रस्ते दिलेनाशाद हुआ / आज ये जज़्बाती है आज दम भर तो ख़लिश / आओ जहां भी हो तुम आस की डोर मेरी / टूट ही न जाये कभी मेरे जीने की वज़ह, मेरी सदा ही हो तुम मेरी तकदीर मुझे / लूट ही न जाये कभी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ फ़रवरी २००८ १३७०. कली ये मेरी मोहब्बत की खिलेगी या नहीं कली ये मेरी मोहब्बत की खिलेगी या नहीं प्यार की राह में मंज़िल भी मिलेगी या नहीं राहेउल्फ़त में सुना है कि बहुत कांटे हैं जाने ये प्यार की शय हम को फलेगी या नहीं ये जो शुरुआत की मुश्किल हैं बहुत बेढब हैं दास्तां इश्क की बेदाग चलेगी या नहीं मेरे दिल में तो भड़कते हैं हज़ारों अरमान उन के सीने में भी ये आग जलेगी या नहीं इब्तिदा वस्ल की है, शाम न जाने ये ख़लिश शोख रंगीन फ़िज़ाओं में पलेगी या नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ १३७१. दिलेबरबाद को पाया भी तो क्या पायेंगे दिलेबरबाद को पाया भी तो क्या पायेंगे मेरे चेहरे को पढ़ेंगे तो समझ जायेंगे न कोई ख्वाब न अरमान कोई बाकी है दिलेनाकाम को दिल देंगे तो पछतायेंगे अभी उल्फ़त का सनम आप को झूठा है गु़मां वक्त गुज़रेगा तो ग़म आप को तड़पायेंगे हमसफ़र अपनी उम्मीदों का चुना तो होता लोग हर गाम पे यूं आप को समझायेंगे बज़्मेसहरा में ख़लिश दाद मिलेगी किस की कौन है जिस के लिये राग यहां गायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ १३७२. वो ज़िन्दगी में मेरी आ कर भी आ न पाये वो ज़िन्दगी में मेरी आ कर भी आ न पाये घेरे रहे दिलों को नापाक शक के साये ऐसा सिला मिला है राहेवफ़ा में हम को पहले कदम पे ठोकर खायी और लड़खड़ाये पूछो न दोस्ती में क्या क्या हमें मिला है पायी ख़ुशी तो संग में ग़म भी हज़ार आये हम से वो मिलने आये तो कुछ अदा थी ऐसी आंखें तो नम थीं लेकिन होठों से मुस्कराये हम को गु़मां हुआ है तनहाइयों में अकसर जैसे वो आ रहे हैं नज़रें ख़लिश झुकाये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ १३७३. वो ज़िन्दगी में मेरी समाते चले गये वो ज़िन्दगी में मेरी समाते चले गये दिल और जां पे हर दम छाते चले गये एक बार मिल के उन से उन के ही हो गये पर राज़ ये उन्हीं से छिपाते चले गये उन के भी दिल में कुछ तो एहसास है ज़रूर जब भी मिले वो नज़रें चुराते चले गये ग़म इतने सह चुके हैं उल्फ़त की राह में हम करना न इश्क सब को बताते चले गये ज़ाहिर में राज़ेदिल हम किस से कहें ख़लिश लिख के गज़ल सभी को सुनाते चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ १३७४. दिल के एहसास को दिल में ही छिपाये रहिये दिल के एहसास को दिल में ही छिपाये रहिये चाहे अपने को ग़मेदिल में डुबाये रहिये कौन समझेगा ग़मेदिल की ज़ुबां दुनिया में यही बेहतर है कि चुप्पी सी बनाये रहिये दर्देदिल को जो गंवाओगे तो पछताओगे बड़ी अनमोल है सौगात बचाये रहिये ग़म नहीं हो तो भला ज़िन्दगी जीना कैसा प्यार की याद में खु़द को ही भुलाये रहिये दिल की दुनिया से ख़लिश वास्ता तोड़ो न कभी चाहे व्यौपार के रिश्ते को जमाये रहिये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ १३७५. मेरे महबूब मेरे प्यार में क्या पाओगे – २ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को २ मार्च २००८ को प्रेषित मेरे महबूब मेरे प्यार में क्या पाओगे साथ मेरे जो बंधोगे तो बिखर जाओगे मेरे तकदीर है भटकी हुयी मेरी ही तरह न समझना कि मुझे राह पे ले आओगे मेरी आंखों में अंधेरे हैं तन्हा रातों के न सितारों की चमक इन में कभी पाओगे क्या मिलेगा तुम्हें आलम-ए-उदासी के सिवा छोड़ महफ़िल जो मेरे संग चले आओगे न कभी मुझ को ख़लिश ये तो गवारा होगा अश्क पी के जो सनम झूठ ही मुस्काओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ मार्च २००८ |