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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#626995 added December 31, 2008 at 9:31am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1376- 1400 in Hindi script



१३७६. अरदास --१ मार्च २००८ की नज़्म-ए-बंदगी, ई-कविता को १ मार्च २००८ को प्रेषित


मैंने जब भी निगाह उठायी है
झूठ की शय जहां में पायी है
कोई अपना नज़र नहीं आता
जो भी सूरत मिली परायी है

मौत को एक दिन तो आना है
आयेगी कब न कुछ ठिकाना है
मेरे मौला दुआ है इक मेरी
मुझ पे इतना करम दिखाना है

चाहे जितनी भी तू नमी दे दे
मुझे थोड़ी सी ज़िंदगी दे दे
ग़म सहे हैं बहुत ज़माने में
मेरे अहसास को ख़ुशी दे दे

दिल अगर तेरा अक्स पा जाये
मेरे दिल को सुकून आ जाये
तीरगी के उदास आलम में
नूर की इक बहार छा जाये

रूह को तू मेरी जगा देना
मेरा दिल आप में लगा देना
भूल जाऊं तमाम दुनिया को
राहेजन्नत मुझे दिखा देना.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ मार्च २००८







१३७७. मैं जी रहा हूं इस तरह जीने की न कुछ आस है – ३ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३ मार्च २००८ को प्रेषित


मैं जी रहा हूं इस तरह, जीने की न कुछ आस है
है नामुराद सी ज़िंदगी, एक बुझी बुझी सी आग है

मैं चराग हूं इक भोर का, न है तेल न कोई रौशनी
बाती भी सारी जल चुकी, जो बच गयी वो राख है

आयेगा झौंका कोई तो, हूं उसी का अब मैं मुंतज़िर
जो मिटा दे मेरे वज़ूद को, मुझे उस हवा की तलाश है

कोई संग न मेरे चल सका, जो चला था वो भी बिछुड़ गया
तनहा सफ़र है ज़िंदगी, इस मर्ज़ का न इलाज़ है

अरमान थे दिल में बहुत, पूरा न पर कोई हुआ
अब भूल जा सब को ख़लिश, मरघट बहुत अब पास है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२ मार्च २००८









१३७८. निकले थे मंज़िल की तरफ़ पर वक्त ले आया कहीं

निकले थे मंज़िल की तरफ़ पर वक्त ले आया कहीं
चलते ही चलते थक गये आराम न पाया कहीं

इस ज़िंदगी की राह में रस्ते बहुत लंबे मिले
न जा सके हम ही कहीं, कोई मोड़ न लाया कहीं

देखे हैं मंज़र बहुत से कुछ शाद भी नाशाद भी
इस ज़िंदगी के सफ़र में कहीं धूप थी साया कहीं

मेरे पास आ जा दोस्त हम कुछ लमहे साथ गुज़ार लें
कल की ख़बर कुछ भी नहीं न फिर मिले छाया कहीं

माना कि हम चुप चुप रहे अब भूल जायें सब ख़लिश
हो जाये न इक दिन खतम सांसों का सरमाया कहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ मार्च २००८



१३७९. मैं ज़िंदगी से दूर यूं आता चला गया – ४ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ४ मार्च २००८ को प्रेषित


मैं ज़िंदगी से दूर यूं आता चला गया
पैगाम-ए-रुखसत सब को सुनाता चला गया

ये तो नहीं कि ज़िंदगी से है मुझे गुरेज़
क्या इस की हकीकत है बताता चला गया

होंगे दफ़न ज़मीं में, न इस के लिये लड़ो
ये न किसी की है ये समझाता चला गया

जितना रहा मौला की दुनिया में, ज़मीं से दूर
उतना सुकूं ज़मीन पर पाता चला गया

रूह को ख़लिश आज़ाद जिस ने कर दिया ग़म से
नग़मे उसी की शान में गाता चला गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ मार्च २००८

००००००००००००

From: "shipraak" <shipraak@yahoo.co.in>
Date: Tue, 04 Mar 2008 11:01:31 -0000

aadarniye maheshji,
aapki ghazal sachmuch ruh se ruh ka sparsh karti hai.bahut badhai aur
dhanyavad hume itni acchi ghazal ke liye..mujhe to vaise apki sabhi
ghazal acchi lagti hai...\shipra

०००००००००००००००००००००








१३८०. बसा हुआ है वो मेरे जीवन में, तन में, कण-कण में – ५ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ५ मार्च २००८ को प्रेषित


बसा हुआ है वो मेरे जीवन में, तन में, कण-कण में
आती जाती सांसों में और मेरे दिल की धड़कन में

मंदिर, मस्जिद, मक्का, तीरथ में ढूंढा है उसे बहुत
उसे तलाशा मैंने परबत में, सहरा में, बन-बन में

कहीं न मिल पाया तो मैंने जब अपने भीतर झांका
आखिरकार उसे पाया है मैंने अपने ही मन में

उसी एक मौला की हस्ती हर चप्पे में कायम है
वही फूल में, वही खार में, कुदरत की हर चितवन में

उस की मर्ज़ी से ही ये सैलाब, ज़लज़ले आते हैं
उस का ही अहसास ख़लिश है नर्म फ़िज़ा की सिहरन में.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ मार्च २००८

ज़लज़ला = भूकम्प

०००००००००

From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com>
Date: Thu, 06 Mar 2008

खलिश जी,

गज़ल बहुत अच्छी लगी।

रिपुदमन

०००००००००००००००

From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com>
Date: Thu, 6 Mar 2008 05:53:38 -0800 (PST)

अकबर का एक शे’र याद आया:
ज़हन में जो घिर गया लाइन्तेहा क्योंकर हुआ
जो समझ में आ गया फिर वो खुदा क्योंकर हुआ

000





१३८१. आज मैं घर में पराया हो गया – ६ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ६ मार्च २००८ को प्रेषित

आज मैं घर में पराया हो गया
रास्ता ही ज़िंदगी का खो गया

कल तलक नाहक रहा मुझ को ग़ुमान
बीज मैं गुलज़ार में कुछ बो गया

सिर्फ़ कांटे ही उगे ये देख कर
आज दिल नादान मेरा रो गया

दान करना था, किया, क्या सोचना
पात्र या कुपात्र था, किस को गया

कीजिये क्यों फ़िक्र दुनिया की ख़लिश
कोई न आया पलट के जो गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ मार्च २००८






१३८२. जो हल न हो कभी ऐसा दिलों का मामला निकला – एक और गज़ल, ई-कविता को ६ मार्च २००८ को प्रेषित


जो हल न हो कभी ऐसा दिलों का मामला निकला
सफ़र करते रहे फिर भी दिलों में फ़ासला निकला

रहे मुफ़लिस हमेशा हम, चले तनहा ही राहों पे
मग़र उन का शहर में राजशाही काफ़िला निकला

मुझे दिखती है दुनिया चार सू पीली ही पीली अब
बहुत ही जानलेवा रोग मेरा कामला निकला

बहेड़ा और हरड़ के साथ मिल कर यूं बना नुस्खा
बहुत ही पुर-असर वो एक छोटा आंवला निकला

चलाता है सुदर्शन चक्र, बंसी भी बजाता है
बड़ा नटखट ख़लिश मेरा सलोना सांवला निकला.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ मार्च २००८

०००

Date: Thu, 06 Mar 2008 00:50:00 -0000
From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com

खलिश जी, ये दो
शेर बहुत
अच्छे लगे :)

बहेड़ा और हरड़ के साथ मिल कर यूं बना नुस्खा
बहुत ही पुर-असर वो एक छोटा आंवला निकला

चलाता है सुदर्शन चक्र, बंसी भी बजाता है
बड़ा नटखट ख़लिश मेरा सलोना सांवला निकला.

रिपुदमन

०००००००००००००००००

From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com
Date: Thu, 6 Mar 2008 08:08:24 -0800 (PST)

खलिश साहब:

आप की गज़ल के काफ़िये में ’आवला’ का प्रयोग बड़ा मौलिक सा लगा । कल जब यह गज़ल पढी तो घनश्याम जी पास ही बैठे थे , उन्हें भी बचपन में बहेड़ा, हरड़ और आंवला से जुड़ी कुछ कहावतें याद आ गई ।
कामला शब्द का अर्थ नहीं समझ में आया ।

सादर

अनूप

00000000000000


१३८३. मेरा है दोस्त लेकिन हमसफ़र तू बन नहीं सकता– ७ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ७ मार्च २००८ को प्रेषित


मेरा है दोस्त लेकिन हमसफ़र तू बन नहीं सकता
बताऊं किस तरह रिश्ता हमारा जम नहीं सकता

हमारे बीच में हैं दूरियां वो तो रहेंगी ही
हमारे मज़हबों का फ़र्क तो हो कम नहीं सकता

लकीरों में लिखा था मिल के हम फिर से बिछुड़ जायें
ज़माना आ गया रुखसत का अब ये थम नहीं सकता

यही बेहतर है कि नज़दीक थे ये भूल जायें हम
हमें अब रोक ये दीदा हमारा नम नहीं सकता

न ये सोचो ख़लिश होगी ख़ुशी अब मेरी दुनिया में
मेरा दिल अब तुम्हारे बिन किसी में रम नहीं सकता.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ मार्च २००८







१३८४. ये तेरा घर नहीं तू तो किरायेदार है केवल


ये तेरा घर नहीं तू तो किरायेदार है केवल
नहीं मालिक है तू तो एक ठेकेदार है केवल

न जाने किस घड़ी ये धौंकनी रुक जायेगी पल में
हैं सांसें चल रहीं तब तक ही तू सरदार है केवल

न यूं मग़रूर हो तेरी यहां हस्ती नहीं कुछ भी
अमर वो आत्मा है जो कि पायेदार है केवल

ख़बर तुझ को नहीं अगले –ओ-पिछले लाख जनमों की
तू इन दरपेश लमहों का यहां हकदार है केवल

है दुनिया सिलसिला नाख़त्म जीने और मरने का
ख़लिश तू इस जनम का ही यहां किरदार है केवल.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मार्च २००८








१३८५. मेरे दिल में कहीं से आज ये आवाज़ आती है – ९ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ९ मार्च २००८ को प्रेषित--RAMAS


मेरे दिल में कहीं से आज ये आवाज़ आती है
ये मेरी ज़िंदगी जैसे कि अब बीती ही जाती है

कभी थी ज़िंदगी मेरी मग़र अब है परायी सी
लगे है आज ज्यों मुझ पर खड़ी ये मुस्कुराती है

नहीं लगता है मेरा दिल ज़माने की बहारों में
कमी कोई ज़हन में रात-दिन ज्यों कसमसाती है

जिया मैं जिसके दम पे वो नहीं हमदम रहा मेरा
मुझे पैगामे-रुखसत अब सदा कोई सुनाती है

वहीं पर जाऊंगा ये छोड़कर दुनिया ख़लिश मैं भी
जहां पर बस गया जाकर मेरे जीवन का साथी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मार्च २००८

0000000000000

From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com
Date: Sun, 9 Mar 2008 23:23:26 -0700 (PDT)

महेश जी:

खूबसूरत गज़ल है । यूँ ही बैठे बैठे आप की गज़ल को ’आशावादी ट्विस्ट’ देने की कोशिश में ये शेर :

यूँ तो मुझे गम के अंधेरे चार सूँ घेरे
एक आशा की किरण पर झिलमिलाती है

सादर
अनूप

०००००००००००००००००






१३८६. कोई ऐसा नहीं जिस को बुलाऊं पास आ जाये

कोई ऐसा नहीं जिस को बुलाऊं पास आ जाये
मेरे तनहाई के लमहे कभी आ कर घटा जाये

वो ही हैं रात-ओ-दिन वो ही दरोदीवार हैं हर दम
कोई तो हो नया एहसास जो आ कर करा जाये

बड़ा आसान है कहना मुझे न चाहिये कुछ भी
मग़र ये भी कहूं किस से, कोई आ कर बता जाये

भरी दुनिया है पर कोई नहीं अपना कहूं जिस को
किसी को भी नहीं फ़ुरसत कि दो पलदिल लगा जाये

रूहानी ख़्याल कहता है हमेशा साथ मौला है
मग़र उस से तो रिश्ता दोस्ती का न गढ़ा जाये

यूं ही कट जायेंगे दिन ज़िंदगी के चार बाकी हैं
बयां न दर्द हो पाये, ख़लिश न चुप रहा जाये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मार्च २००८






१३८७. बहुत अरमान है दिल में कोई तो पास आ जाये

बहुत अरमान है दिल में कोई तो पास आ जाये
मेरी तनहाई के एहसास को कुछ तो घटा जाये

ये सच है कि ख़यालों में गज़ब का लुत्फ़ होता है
अदा किस याद को लेकिन तसव्वुर के किया जाये

कभी अपने से बातें कर लिया करता हूं मैं थक कर
ये ख़ुद से दोस्ती का स्वांग भी कब तक भरा जाये

न आयेगा वो मेरा दोस्त जो राहों का साथी था
शरीकेज़िंदगी ऐसे में अब किस को करा जाये

बड़ा मुश्किल है यूं दिन काटना तनहाई में हर दम
भरा है दर्द जो दिल में ख़लिश किस से कहा जाये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ मार्च २००८






१३८८. दोस्ती के नाम पर वो दुश्मनी करता रहा – ८ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ८ मार्च २००८ को प्रेषित--RAMAS


दोस्ती के नाम पर वो दुश्मनी करता रहा
उम्र भर वो ख़ैरख्वाह होने का दम भरता रहा

मुस्कुराता ही रहा उसको दिखाने के लिये
पर कलेजा रात- दिन मेरा बहुत जलता रहा

सोच कर कि और भी ज़्यादा करेगा ज़ुल्म वो
न करी उसकी शिकायत उससे ही, डरता रहा

आये हैं मंज़र बहुत ऐसे सफ़र में बारहा
वो बचाने की जगह बरबाद ही करता रहा

था अजब रिश्ता निहां मेरे व उसके दरमियां
वो सितम करता रहा और प्यार भी पलता रहा

ज़िंदगी की शाम है अब ख्याल आता है ख़लिश,
वक्त सारा चुक गया मैं हाथ ही मलता रहा.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मार्च २००८









१३८९. नहीं है और कुछ ये ज़िंदगी चुप सी कहानी है – १० मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को १० मार्च २००८ को प्रेषित

नहीं है और कुछ ये ज़िंदगी चुप सी कहानी है
न कुछ एहसास, न मेरी रगों में कुछ रवानी है

बियाबां में परिंदा उड़ रहा है आसमानों पर
निशां है न नशेमन है कि बस आदत पुरानी है

मेरे नज़दीक मत आओ, नहीं कुछ पास है मेरे
फ़कत इक दास्तानेग़म मुझे सब को सुनानी है

सभी कुछ छिन गया लेकिन अभी टूटे हुए दिल में
बसी है याद कोई ख़ास जो नाज़ुक, सुहानी है

ख़लिश चलता रहा हूं उम्र भर लगता है अब जैसे
हुआ हासिल, न कुछ होगा, सफ़र मेरा बेमानी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ मार्च २००८

०००००००००

From: "pramod kush" <peekaykush@yahoo.co.uk>
Date: Mon, 10 Mar 2008 10:36:02 +0000 (GMT)

मेरे नज़दीक मत आओ, नहीं कुछ पास है मेरे
फ़कत इक दास्तानेग़म मुझे सब को सुनानी है

Sunder ghazal ke liye khalish ji ko badhaayee.

- p k kush ' tanha'

०००००००००००००००






१३९०. बराक ओबामा स्तुति –RAS-- एक और कविता, ई-कविता को ९ मार्च २००८ को प्रेषित


हे ओबामा जी नमो नमो
जन जन की आशा नमो नमो
तुम ही तुम जीतो नमो नमो
व्हाइट हाउस पहुंचो नमो नमो

अश्वेत प्रतिनिधि नमो नमो
मुस्लिम के भ्राता नमो नमो
ईराक बचाओ नमो नमो
कुछ सुमति लाओ नमो नमो

इतिहास रचेता नमो नमो
कानून के ज्ञाता नमो नमो
संसार निहारे नमो नमो
हृदयों के तारे नमो नमो

अल्प-संख्यक तारो नमो नमो
दुनिया पर छाओ नमो नमो
मत हिम्मत हारो नमो नमो
यू एस सुधारो नमो नमो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
९ मार्च २००८

००००००००००००

From: "Laxmi N. Gupta" <lngsma@rit.edu>

Date: Sun, 09 Mar 2008 23:36:29 -0000
महेश जी,

अति उत्तम। मेरी
'दquot;बामा की आशा' तो
आपने पढ़ी ही होगी।
मैं हिलरी का समर्थक
हूँ किन्तु दquot;बामा का
विरोधी नहीं हूँ। दो
में से जो भी
नामांकित होगा, मेरा
मत उसी को जाएगा।

लक्ष्मीनारायण

००००००००००००००००



१३९१. करूं क्या दिल के मेहमां ने ही मेरे दिल को है तोड़ा – एक और गज़ल, ई-कविता को १० मार्च २००८ को प्रेषित


करूं क्या दिल के मेहमां ने ही मेरे दिल को है तोड़ा
न रुसवा तो मुझे करता, भले था मुझ से मुंह मोड़ा

तुम्हारे प्यार पर हक तो नहीं था तुम मगर मुझ को
कभी इतना बता देते कि था दिल किसलिये जोड़ा

मुझे मालूम न था एक दिन इस प्यार की राह में
कदम रखते ही यूं पड़ जायेगा तकदीर का कोड़ा

अंधेरों से घिरा हूं आज ग़म के चार सू लेकिन
अभी उम्मीद का दामन मेरे दिल ने नहीं छोड़ा

मैं दीवाना बहुत था प्यार में माना ख़लिश लेकिन
मग़र तुम से न झूठे भी हुआ इज़हार ही थोड़ा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० मार्च २००८









१३९२. इंसान को सौ ख्वाब दिखाती है ज़िंदगी – एक और गज़ल, ई-कविता को १० मार्च २००८ को प्रेषित


इंसान को सौ ख्वाब दिखाती है ज़िंदगी
हर ख्वाब पे सौ नाच नचाती है ज़िंदगी

हैं ख्वाब तो बस ख्वाब ही वो टूट जाते हैं
जी भर के फिर इंसां को रुलाती है ज़िंदगी

आंसू भी बहें कब तलक चुकते हैं एक दिन
होठौं पे फिर मुस्कान खिलाती है ज़िंदगी

रोने -ओ-हंसने का अजीब सिलसिला सा एक
रह रह के उम्र भर ये चलाती है ज़िंदगी

रूहानी इल्म हो तो ख़ुशी और ग़म हैं एक
इंसान को ये पाठ पढ़ाती है ज़िंदगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० मार्च २००८

००००००००००

From: "Shyamal Kishor Jha" <shyamalsuman@yahoo.co.in>
Date: Wed, 12 Mar 2008 12:49:02 +0530 (IST)

खलिश साहब
नमस्कार
आपकी सृजनशीलता को नमन. बात से बात निकालना कोई आपसे सीखे. आपने कहा-

इंसान को सौ ख्वाब दिखाती है ज़िंदगी
हर ख्वाब पे सौ नाच नचाती है ज़िंदगी

किसी की दो पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -

ख्वाहिशों को खूबसूरत शक्ल देने के लिए.
ख्वाहिशों की कैद से आजाद होना चाहिए..

कहीं इससे भी कोई बात निकल जाए.
सादर
श्यामल सुमन
Jamshedpur - India
Mobile: 09955373288

००००००००००००००







१३९३. न जाने क्या-क्या रात भर मैं सोचता रहा –RAMAS—ईकविता, ८ अक्तूबर २००८

न जाने क्या-क्या रात भर मैं सोचता रहा
बहने से अपने आंसुओं को रोकता रहा

क्यों बेवफ़ाई ही मिली करके मुझे वफ़ा
रह- रह के यही ख्याल मुझे नोचता रहा

जिस दिन मेरा साथी गया था छोड़कर मुझे
उस वक्त से ही ज़िंदगी को कोसता रहा

जाते हुये दो प्यार की बातें न कह सका
अपनी ज़ुबां से वो ज़हर ही घोलता रहा

क्या था ख़लिश कसूर मुझे तो पता नहीं
दुश्मन की नज़र से मुझे वो तोलता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० मार्च २००८







१३९४. तमन्ना अब नहीं मुझ को कि मैं खेलूं बहारों से – ११ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को ११ मार्च २००८ को प्रेषित


तमन्ना अब नहीं मुझ को कि मैं खेलूं बहारों से
फ़ना होना मुझे अब, खेलना शोलों शरारों से

इशारे कर रही हैं आज ये गहराइयां मुझ को
मुझे मझधार जाना है, न अब लगना किनारों से

ज़मीं पर रह चुके काफ़ी, हमारे पास आ जाओ
सदाएं आ रही हैं अब फ़लक के चांद तारों से

गुलों से दोस्ती कर के मिले हैं घाव ही तुम को
जरा रिश्ता निभा के देख लो इक बार खारों से

ख़लिश अंज़ाम उल्फ़त का कोई जाना न दुनिया में
जो दुश्मन भी न दे पाये, मिले हैं दाग यारों से.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० मार्च २००८






१३९५. किस से करें हम प्यार यही सोचते रहे – एक और गज़ल, ई-कविता को ११ मार्च २००८ को प्रेषित


किस से करें हम प्यार यही सोचते रहे
न दिलरुबा मिली कोई हम खोजते रहे

जिस पे भी दिल आया उसी ने हाल न पूछा
ख्वाबों में ही नाता किसी से जोड़ते रहे

चाहा उन्हें हम ने मग़र वो पास न आये
अपनी नज़र हम से हमेशा मोड़ते रहे

चेहरे पे हैं कुछ दाग़ भी और रंग है काला
किस्मत को देख आईना हम कोसते रहे

दिल तो लगाया था मग़र अंज़ाम ये हुआ
उम्मीद बंधा के ख़लिश वो तोड़ते रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ मार्च २००८







१३९६. बिछुड़ जाते हैं जो अकसर दिलों को याद आते हैं – १२ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को १२ मार्च २००८ को प्रेषित--RAMAS


बिछुड़ जाते हैं जो अकसर दिलों को याद आते हैं
ज़खम भर जायें तो कुछ दर्द उनके बाद आते हैं

जो उनके ख्याल आ जायें तो फिर रुकना नहीं आसां
दु:खी आंखों में अश्कों के बहुत सैलाब आते हैं

कोई तो बात है उनमें बुलायें से वो न आयें
कभी मेरे तसव्वुर में चले वो आप आते हैं

बुलाने और आने का चलेगा सिलसिला कब तक
न जाने क्यों वो जाने के लिये हर बार आते हैं

गये जो शान से कितनी कभी राहे-मोहब्बत में
वही वापस ख़लिश ले कर दिले-बरबाद आते हैं.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ मार्च २००८






१३९७. ख्वाहिशों का क्या भरोसा ये न पूरी हों कभी – एक और गज़ल, ई-कविता को १२ मार्च २००८ को प्रेषित


ख्वाहिशों का क्या भरोसा, ये न पूरी हों कभी
आदमी मर जाये, रहतीं हैं अधूरी ये सभी

चार दिन की ज़िंदगी है, कल रहें कि न रहें
लुत्फ़ जीने का उठा लो, जो उठा पाओ अभी

पर कभी ख्वाहिश की न करना गुलामी तुम सुनो
है ये बेहतर मार दो इस को उठाये सिर जभी

ख्वाहिशें दिल पे जो हावी हो गईं इंसान के
न कभी होंगी वो पूरी, जाये दिल का चैन भी

आदमी को चाहिये सब ख्वाहिशों को छोड़ कर
ये ख़लिश ख्वाहिश रखे, उस पे मेहरबां हो नबी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ मार्च २००८





१३९८. कोई बुला रहा है कौन है पता नहीं – १३ मार्च २००८ की गज़ल, ई-कविता को १३ मार्च २००८ को प्रेषित


कोई बुला रहा है कौन है पता नहीं
आसार हैं बारिश के फ़लक में घटा नहीं

खंजर चलाये जा न कर तू फ़िक्र ऐ कातिल
दिल पे लगी है चोट अभी तक फटा नहीं

मेरा कसूर तो नहीं हैरान ग़र हैं आप
कितने ही तीर खा चुका अब तक मरा नहीं

इतना हुज़ूर आप लेकिन जान लीजिये
हाफ़िज़ ख़ुदा है जब, मेरी कोई खता नहीं

सीने में ग़म तो हैं मग़र दिखाऊं क्यों ख़लिश
चुपचाप सहने के सिवा है रास्ता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ मार्च २००८



०००००००

From: "sunita(shanoo)" <shanoo03@yahoo.com>
Date: Thu, 13 Mar 2008 01:24:49 -0700 (PDT)

कोई बुला रहा है कौन है पता नहीं
आसार हैं बारिश के फ़लक में घटा नहीं

बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ है...

सुनीता शानू

०००००००००००००००००





१३९९. कृष्ण सुदामा की गाथा जब भी बचपन में सुनते थे--– एक और गज़लनुमा नज़्म, ई-कविता को १३ मार्च २००८ को प्रेषित

कृष्ण सुदामा की गाथा जब भी बचपन में सुनते थे
मित्र प्रेम कैसा होता है मन में अकसर गुनते थे

बचपन बीता तो यूं ही मन में इक दिन ये उठा सवाल
मित्र प्रेम के अंकुर मुरली धर मन क्यूं न उठते थे

उन के पास कमी न थी राजा थे नौकर चाकर थे
कोई दूत रवाना सहपाठी के घर न करते थे

मित्र प्रेम तो ऐसा कुछ न रहा सुदामा के मन में
पर पत्नी के ताने घर में कलह मचाये रहते थे

निकल पड़े इक रोज़ सुदामा परेशान हो चिख-चिख से
सोचा कुछ तो चैन मिलेगा घर में क्या सुख मिलते थे

उधर गले आ पड़े सुदामा, चतुर कृष्ण ने जब देखा
सोचा दे कर दान उन्हें मशहूर बहुत हो सकते थे

न कुछ गया जेब से उन की दौलत तो सरकारी थी
दान पंथ पे चल के दो दो काज श्याम के सधते थे

दो दिन रह कर टली मुसीबत, ख़लिश दान दे लौटाया
युग युग तक वे मित्रभक्त हैं ऐसे चर्चे चलते थे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ मार्च २००८




१४००. आईना था छोटा सा, पर सब कुछ बता गया --– एक और गज़ल, ई-कविता को १३ मार्च २००८ को प्रेषित


आईना था छोटा सा, पर सब कुछ बता गया
झांका जो उस में तो समझ, ये राज़ आ गया

कितनी मोहब्बत, हम से वो करते हैं असल में
आईना उन की आंख का, हम को जता गया

कितने वफ़ा के कायल हैं, वो राह-ए-इश्क में
आईना उन के दिल का सब, पैग़ाम ला गया

उन को ख़बर न थी कि उन्हें, तक रहे हैं हम
चेहरे का आईना शकल दिल की दिखा गया

हां तो कहा उन्होंने, पर अंदाज़ और था
आईना-ए-आवाज़, ये हम को सुना गया

आईने ख़लिश देखिये हैं कितनी किस्म के
उन का हर एक अक्स, इस दिल में समा गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ मार्च २००८

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