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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१४२६. होली आयी फिर नये, ले बसन्त के रंग – एक कुंडली, ई-कविता को २२ मार्च २००८ को प्रेषित होली आयी फिर नये, ले बसन्त के रंग ढोल मजीरा बज रहे, मचे बहुत हुड़दंग मचे बहुत हुड़दंग, बनीं अबला भी सबला गोरा रंग हरे नीले पीले में बदला गले मिल रहे आज बड़े छोटे हमजोली ख़लिश लिखें कुंडली तमन्ना पूरी हो ली महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ मार्च २००८ १४२७. कुछ प्यार ने ऐसा मुझे दीवाना कर दिया – ३० मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को ३० मार्च २००८ को प्रेषित कुछ प्यार ने ऐसा मुझे दीवाना कर दिया मुझ को दरोदीवार से बेगाना कर दिया सोचा था राहेकैस पर हो जाऊंगा फ़ना लैला ने खड़ा इक नया अफ़साना कर दिया किस्से वफ़ा के सिर्फ़ किस्से बन के रह गये माहौल ज़माने ने ना-याराना कर दिया दिल को तो लेने देने की अब बात न रही ज़र और ज़मीं को प्यार का पैमाना कर दिया क्या कहिये इस ज़मातेशायरी को अब ख़लिश है इश्क को गज़लों का कारखाना कर दिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मार्च २००८ ००००००००००००००० Date: Sun, 30 Mar 2008 03:05:53 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> यह दो मिसरे पसंद आए.... ~ सोचा था राहेकैस पर हो जाऊंगा फ़ना मजनू ने खड़ा इक नया अफ़साना कर दिया ०००००००००००००० From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in> Date: Sun, 30 Mar 2008 04:11:05 +0100 (BST) mahodaya bahut achhi rachna hai. bhupal ००००००००००००० From: "renu" <renu_poetry@yahoo.co.in> Date: Sun, 30 Mar 2008 04:04:27 -0000 maashaa allaah, kyaa khyaal hai, PYAAR ME KUCHH AISAA DEEWAANAA KAR DIYAA ISHQ KO GHAZLON KAA KARKHAANA KAR DIYAA. -RENU. ००००००००००००० १४२८. बेवफ़ाई का जो इलज़ाम है सर पे मेरे -– एक और गज़ल, ई-कविता को २३ मार्च २००८ को प्रेषित बेवफ़ाई का जो इलज़ाम है सर पे मेरे वो मुझे याद दिलाता है तसव्वुर तेरे मैंने थामा था तुझे जब भी कभी बाहों में एक साया सा रहा तेरी नज़र को घेरे मैं तो सोचा ही किया तेरी यही फ़ितरत है कि तू शरमा के सनम अपनी निगाहें फेरे मुझे मालूम न था मेरे सिवा और भी है नाम पे जिस के तेरे दिल ने लगाये टेरे तुझे रुसवा न करूंगा मैं ज़माने में ख़लिश राज़ ये राज़ रहेगा चाहे दुनिया हेरे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मार्च २००८ १४२९. मेरे महबूब सुन दुहाई है – २८ मार्च २००८ का गीत, ई-कविता को २८ मार्च २००८ को प्रेषित मेरे महबूब सुन दुहाई है आज फिर तेरी याद आयी है पास आ जा तू मेरे पल भर को चार सू अब मेरे तन्हाई है देख कैसा सुहाना मौसम है हर तरफ़ प्यार का ही आलम है फूल भौरों की राह तकते हैं तू नहीं है मुझे यही ग़म है मुझ से मिलने की तू कसम खा के जाने ग़ुम हो गया कहां जा के मेरी दुनिया उजड़ गयी कैसी इक झलक देख जा ज़रा आ के तू जहां भी है एक दम आ जा मुझे सूरत तो आ के दिखला जा कैसे दिल को लगाऊं तेरे बिन क्या करूं ये तो आ के बतला जा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मार्च २००८ १४३०. काव्य-दोहे – २४ मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को २४ मार्च २००८ को प्रेषित कवि और कवि की लेखनी, किस को करूं प्रणाम धन्य लेखनी तुम बिना, न हो कवि का नाम कमी न कवि की जगत में, शायर फिरें अनेक शायर भी कवि भी रहे, ऐसे कोई एक गज़ल कहो या कुंडली, नज़्म कहो या गीत लिखो, कहो लेकिन वही, जिस में हो संगीत मुक्त छंद में मुक्त तो सहज समझ में आय किंतु नाम सुन छंद का, छंद खड़ा सकुचाय नियम साधना से चलै तो मंज़िल को पाय उछल कूद करता रहै, भांड वही कहलाय भाषा के शिल्पी कोई, कोई भावों की खान जिन में दोनों गुण भरे, उन से कौन महान प्रेम, हास्य और करुण रस, रोचक हैं सब कोय किंतु रचै जो भक्ति रस, तो मन का सुख होय. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ मार्च २००८ ०००००००००००००००० From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com> Add Date: Mon, 24 Mar 2008 गज़ल कहो या कुंडली, नज़्म कहो या गीत लिखो, कहो लेकिन वही, जिस में हो संगीत लिखीं आपने कुंडली, या गज़लों के शेर दोहे, मुक्तक, छंद फ़िर, अब है किसकी बेर ? बहुत खूभ. सादर राकेश 00000000000000000 Date: Tue, 25 Mar 2008 00:06:43 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> Add ढर यह भी .....अच्छे हैं ००००००००००००००० १४३१. भक्ति के दोहे -– एक और दोहावली, ई-कविता को २३ मार्च २००८ को प्रेषित वरद हस्त मां शारदे, रखना सिर पर आप निर्मल हो वाणी मेरी, कभी न झलके पाप लिखने वाला मैं नहीं, केवल कलम चलाऊं लोग भरम मो पे करें, सोचूं और लजाऊं बुद्धि कहै कविता लिखो, मन गाने पे आय कविता धरी किताब में, गाना दिल छू जाय मन से भाव निकाल के, ज्ञान न भरियो कोय भाव प्रभु का धरै तो ज्ञान स्वयं ही होय प्रभु मिलें हैं भाव से, चाहें न कछु और जा मन में नहीं भाव है, ता को कहीं न ठौर साधु संत के वास्ते माटी सोना एक आंखें प्यासी प्रभु की, मन में उस की टेक. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ मार्च २००८ 0000000000000 Date: Tue, 25 Mar 2008 00:05:46 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com खलिश जी, दोहे अच्छे लगे.... ००००००००००००० १४३२. दोहा-पंचमी – २५ मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को २५ मार्च २००८ को प्रेषित दोहा दोहा सब कहें, दोहन करे न कोय सार असार ते जब दुहें, कारज पूरन होय खंजर जो दिल पर चलै, वार घना कर जाय जो दिल को केवल छुए सो कविता कहलाय न्यारी कवि की कल्पना, ध्यान हरि का लाय उस अदृश्य अचिंत्य को कलमबद्ध कर जाय बाप ससुर दोनों खड़े, का के लागूं पाय बलिहारी वा ससुर की, बेटी दयी बिहाय पत्नी, बंधु, मित्र सब, स्वारथ के हैं धाये अंटी में पैसा नहीं, प्रेम खतम हो जाये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ मार्च २००८ ०००००००००००००००० Date: Tue, 25 Mar 2008 08:38:49 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> Add Mobile Alert Yahoo! DomainKeys has confirmed that this message was sent by yahoogroups.com. Learn more To: "Mahesh Gupta" <mcgupta44@yahoo.com> Subject: Re: १४३२. दोहा -पंचमी – २५ ऊ ?ार्च २००८ क ी रचना, ई-कवऊ ?ता को २५ माऊ ?्च २००८ को ऊ ?्रेषित बाप ससुर दोनों खड़े, का के लागूं पाय बलिहारी वा ससुर की, बेटी दयी बिहाय यह अच्छा... विचार है :) 00000000000000000 rom: "Om Dhingra" <ceddlt@yahoo.com> Date: Tue, 25 Mar 2008 12:43:47 -0700 (PDT) Mahesh ji, Hamesha ki tarah atti sunder abhiviakti. Aader sahit, Sudha Om Dhingra 000000000000000 १४३३. मेरे महबूब न तुम मुझ सा कोई पाओगे – २७ मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को २७ मार्च २००८ को प्रेषित मेरे महबूब न तुम मुझ सा कोई पाओगे मेरे दिल में ज़रा झांको तो समझ जाओगे मैंने माना है ख़ुदा तुम को, परस्तिश की है दूर जाओगे अग़र मुझ से तो पछताओगे न कोई और मिलेगा जो तुम्हें समझेगा मुझे तुम याद करोगे, मुझे याद आओगे रोएगा दिल तो मेरा तुम भी न पाओगे सुकूं जो मेरे प्यार की फ़रियाद को ठुकराओगे मेरे पीछे जो ख़लिश याद कभी आयेगी भरी तनहाई में अपने को ही तड़पाओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ मार्च २००८ १४३४. मैं बुलाता रहा तुम न आये मग़र ज़िंदगी इस तरह ही खतम हो गयी – २६ मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को २६ मार्च २००८ को प्रेषित मैं बुलाता रहा तुम न आये मग़र/ ज़िंदगी इस तरह ही खतम हो गयी राहेउल्फ़त चला था कभी जिस पे मैं, आज वो एक राहेसितम हो गयी हर कदम पर बढ़ीं इस कदर दूरियां, एक दूजे से अनजान हम हो गये वो जो चाहत पली थी दिलों में कभी, वक्त के साथ दिल का भरम हो गयी कोई था वक्त मैं दिल में सोचा किया, हम उसूलों को दोनों निभाएंगे पर दायरों की न परवाह तुझको रही, यूं लगा मेरी उल्फ़त ज़ुरम हो गयी दिल की पूंजी थी जो भी वो कर के तेरे नाम सोचा था मुझ को मिलेगा सुकूं आज इंकार तू ने किया तो लगा / जैसे पूंजी ही सारी हज़म हो गयी मैंने शिद्दत से चाहा था तुझ को ख़लिश, लाज तूने रखी न मेरे प्यार की लो चलो मर्ज़ेउल्फ़त चुका तो सही, बेरुखी भी तेरी इक करम हो गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ मार्च २००८ १४३५. स्वास्थ्य-दोहे -– एक और दोहावली, ई-कविता को २६ मार्च २००८ को प्रेषित पूजा मुख के स्वाद की, सब रोगों की खान जिव्हा रस को जो जितै, ताहि सूरमा जान नमक, मिरच, घी, शर्करा और साथ में चाय इन सब से जो भी बचै, पूरी सेहत पाय रक्तदाब यदि बढ़ गया, पहले करो उपाय नमक बिना भोजन करो, रक्तदाब घट जाय खायें मिठाई जो बहुत, तो मधुमेह अधिकाय सादा भोजन राखिये, सो ही एक उपाय. बीड़ी हुक्का मत पियो, मत पीयो सिगरेट घुस के धुआं शरीर में, कर दे मटियामेट मोटापा यदि हो गया, कीजै तुरत इलाज़ रोग बढैं तन में बहुत, जग से आवै लाज बिन निरोध हो कामवश, कबहुं न कीजे संग पल भर के आनन्द से होवै आयु भंग. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ मार्च २००८ १४३६. आओ मित्रो पास ज़रा तुम को इक बात बतानी होगी -– एक और कविता, ई-कविता को २७ मार्च २००८ को प्रेषित आओ मित्रो पास ज़रा तुम को इक बात बतानी होगी कविता पढ़ने पर कर क्यों हो, गुत्थी यह समझानी होगी हर कवि कहे अन्य हेठे हैं, वही काव्य का एक विशारद बाकी तो थोथी बूंदें हैं, वही चमकता मोती पारद उस की ऐसी भ्रम-बुद्धि पर कुछ तो रोक लगानी होगी कविता पढ़ने पर कर क्यों हो, गुत्थी यह समझानी होगी काव्य गोष्ठी करो संयोजित, ताम झाम पूरा फैलाओ कुर्सी, तम्बू, मंच और माइक, सबका आयोजन करवाओ चाय-पान, भोजन पर भी एक राशि बड़ी बहानी होगी कविता पढ़ने पर कर क्यों हो, गुत्थी यह समझानी होगी तिस पर कवि महोदय आयें तो वे चाहें आवभगत भी रेल किराया, यात्रा भत्ता, पान, हाला, फ़ोटो, स्वागत भी इन सब की खातिर संयोजक को इक रकम जुटानी होगी कविता पढ़ने पर कर क्यों हो, गुत्थी यह समझानी होगी यदि कवि को कविता पढ़ने को मंच एक कोई मिल जाये उस की कविता सुनने खातिर श्रोतागण भी कोई जुटाये तो इस सब की कविवर जी को कुछ तो फ़ीस चुकानी होगी कविता पढ़ने पर कर क्यों हो, गुत्थी यह समझानी होगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ मार्च २००८ १४३७. मेरे बारे में कोई जाने या क्यों परवाह करे -– एक और गज़ल, ई-कविता को २७ मार्च २००८ को प्रेषित मेरे बारे में कोई जाने या क्यों परवाह करे रास्ते दुनिया के हैं ग़ुमनाम लोगों से भरे पास मेरे कुछ नहीं ऐ दोस्त देने के लिये ज़िन्दगी के हैं सभी एहसास जैसे अधमरे दिल में झांकोगे मेरे तो क्या तुम्हें मिल पायेगा सिर्फ़ कुछ भूली हुयी सी ख्वाहिशों के मक़बरे कुछ अभी लमहात तनहाई भरे महफ़ूज़ हैं मत कुरेदो क्या ख़बर आंसू ही कोई गिर पड़े कुछ नहीं हस्ती ख़लिश की फ़िक्र है किस को यहां चाहे कल को छोड़ कर वो आज ही बेशक मरे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ मार्च २००८ १४३८. दिल में इक हूक सी उठती है तो लिख लेता हूँ -– एक और गज़ल, ई-कविता को २८ मार्च २००८ को प्रेषित दिल में इक हूक सी उठती है तो लिख लेता हूँ याद भूली सी उभरती है तो लिख लेता हूँ यूं तो लिखने का कोई शौक नहीं है मुझ को शिद्दतेग़म जो तड़पती है तो लिख लेता हूँ न मैं लेखक हूँ, न शायर, न हूँ फ़नकार कोई जब तबीयत सी मचलती है तो लिख लेता हूँ मेरी तनहाई में है कौन जो आंसू पौंछे जब मेरी जान पे बनती है तो लिख लेता हूँ मेरे माज़ी के तसव्वुर में ख़लिश जब आ के कोई परछाई संवरती है तो लिख लेता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ मार्च २००८ १४३९. आज मेरी ज़िन्दगी ले आयी है मुझ को कहाँ -– एक और गज़ल, ई-कविता को २८ मार्च २००८ को प्रेषित आज मेरी ज़िन्दगी ले आयी है मुझ को कहाँ न कोई मंज़िल है आगे, न कोई पीछे निशां कौन है मेरा मैं जिस से हाल दिल का कह सकूँ है यही बेहतर कि रखूँ दर्द को दिल में निहां बाल रंगने से छिपेगी न हक़ीकत उम्र की ज़िक्र नाहक कीजिये क्यों था कभी मैं भी जवां किस तरह ये ग़म सहूं दिन रात सारी उम्र भर काश बस एकबारगी जाये निकल मेरी ये जाँ यूं तो मेरे पास बाक़ी अब ख़लिश कुछ न रहा शुक्रिया ऐ रब तेरा कि है कलम अब तक रवां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ मार्च २००८ १४४०. कोई हमदम मुझे भी मिल जाता – २९ मार्च २००८ की रचना, ई-कविता को २९ मार्च २००८ को प्रेषित कोई हमदम मुझे भी मिल जाता मेरे दिल का कंवल भी खिल जाता दो कदम साथ कोई चल लेता मेरा ये चाक दिल भी सिल जाता आज चारों तरफ़ अंधेरा है गर्दिशों ने मुझे यूं घेरा है कोई भी राह नज़र नहीं आती यूं लगे खो गया सवेरा है कोई मेरे करीब आ जाये चाहे मैं हूँ ग़रीब आ जाये कौन जाने किसी की निस्बत से मेरा खोया नसीब आ जाये न तमन्ना दराज़ है कोई न किसी से नियाज़ है कोई एक तनहाई है ख़लिश बरपा इस का अब न इलाज़ है कोई. चाक = फटा हुआ दराज़ = दीर्घ नियाज़ = इच्छा महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ मार्च २००८ १४४१. मैं सरेराह चला था कि कोई देखेगा – ४ अप्रेल २००८ का नग़मा, ई-कविता को प्रेषित मैं सरेराह चला था कि कोई देखेगा, कोई मुझ पे भी निगाह होगी मेहरबान कभी. बड़े अन्दाज़ से दामन को मैं लहराता था, किसी आंचल का मिलेगा मुझे अहसान कभी. आंख में ख्वाब कई रंग के रहते थे मेरे, मेरे जीवन में तमन्ना की बहार आयी थी. हर तरफ़ मेरी निगाहों में हसीं साये थे, मेरी ज़ानिब भी कली कोई तो शरमायी थी. पर तमन्नाओं को मंज़िल न मेरी मिल पायी, मेरे ख्वाबों के चमन में वो उठे हैं शोले. आज लुटता सा नशेमन ही नज़र आता है, जामेउल्फ़त में ज़हर कोई लगे है घोले. जाने अंज़ाम मोहब्बत का मेरी क्या होगा, सोच कर ख़ौफ़ अजब दिल पे मेरे छाया है. कहीं ऐसा न हो मंज़िल ही मेरी छिन जाये, आज ये ख्याल ख़लिश दिल में मेरे आया है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अप्रेल २००८ ०००००० Date: Sat, 05 Apr 2008 00:27:44 -0000 From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> Khalish ji, rachanaa pasand aayee aapkee... Ripudaman ००००००००००००००० १४४२. बहुत से लोग दुनिया में बहुत आंसू बहाते हैं – ३ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को को प्रेषित बहुत से लोग दुनिया में बहुत आंसू बहाते हैं दिया दिल तो, मिला न दिल, ये ग़म दिल को लगाते हैं नहीं है प्यार सौदा कोई कुछ लेने-ओ-देने का जो सच्चा प्यार करते हैं वो दिल यूं ही लुटाते हैं तिज़ारत ही जो करनी थी तो राहेइश्क से बेहतर था कारोबार वो करते कि जिस में धन कमाते हैं ये मत भूलो कि पाने से अधिक ख़ुशियां हैं देने मैं फ़ना होते हैं लैला पे तभी मजनू कहाते हैं न दुनिया की तमन्ना है न हसरत है न ख्वाहिश है ख़लिश वो ही वली होते हैं जो सब छोड़ जाते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अप्रेल २००८ १४४३. मेरे दिल में जो है तुम को सनम बतलाऊं मैं कैसे मेरे दिल में जो है तुम को सनम बतलाऊं मैं कैसे मेरे भी दायरे हैं उन से बाहर जाऊं मैं कैसे इशारों को समझने की नहीं फ़ितरत तुम्हारी है दबी है बात हौंठों मैं ज़ुबां पर लाऊं मैं कैसे तुम्हारा दिल ही जब एहसास के माद्दे से है खाली तुम्हें वाकिफ़ असूलेइश्क से करवाऊं मैं कैसे ये न वो इल्म है हासिल किताबों से जो होता है किताबेइश्क को लेकिन तुम्हें पढ़वाऊं मैं कैसे न कहना ही गवारा है न यूं सहना गवारा है अजब उलझन है दिल में पार इस से पाऊं मैं कैसे कोई तो रास्ता होता कि तुम ख़ुद ही समझ जाते ख़लिश ये राज़ की बातें तुम्हें समझाऊं मैं कैसे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ अप्रेल २००८ एद अकेला हूँ मैं दुनिया में सहारा कोई तो होता दिखाता राह जो मुझको, सितारा कोई तो होता जरा सी बात पर मुंह फेर कर उनका वो चल देना बुला लेता मुझे दिल से दोबारा कोई तो होता इधर कूआं, उधर खाई, भंवर में फंस गया हूं मैं नज़र आता धुंधलके में, किनारा कोई तो होता गये जो दूर बन बैठे पराये देस के वासी तरीका मिल सकें फिर से ख़ुदारा कोई तो होता पलट के अब न आओगे, गये जो फिर नहीं आते ख़लिश दिल से भुलाए ग़म तुम्हारा, कोई तो होता. १४४४. अकेला हूं मैं दुनिया में सहारा कोई तो होता—RAMAS—ईकविता ९ अक्तूबर २००८ अकेला हूँ मैं दुनिया में सहारा कोई तो होता दिखाता राह जो मुझको, सितारा कोई तो होता जरा सी बात पर मुंह फेर कर उनका वो चल देना बुला लेता मुझे दिल से दोबारा कोई तो होता इधर कूआं, उधर खाई, भंवर में फंस गया हूं मैं नज़र आता धुंधलके में, किनारा कोई तो होता गये जो दूर बन बैठे पराये देस के वासी तरीका मिल सकें फिर से ख़ुदारा कोई तो होता पलट के अब न आओगे, गये जो फिर नहीं आते ख़लिश दिल से भुलाए ग़म तुम्हारा, कोई तो होता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ अप्रेल २००८ १४४५. एक खोयी सी लड़की – ५ अप्रेल २००८ का गीत, ई-कविता को को प्रेषित मुझे देख कर जब कोई मुस्कराया हसीं कोई चेहरा मेरे दिल पे छाया तो ख़ुद को बहुत बार रोका मग़र ये मेरे दिल में रह रह के इक ख्याल आया ये क्या प्यार की इब्तदा तो नहीं है कहीं उस के दिल की सदा तो नहीं है मग़र फिर कहीं से ये आवाज़ आयी ये भोली महज़ इक अदा तो नहीं है न फिर वो दिखी न वो फिर मुस्करायी मग़र इस कदर मेरे दिल पे वो छायी बहुत बार रोका मग़र वो पलट के बहुत बार मेरे खयालों में आयी ये आलम है अब प्यार उस से हुआ है रहे ख़ुश जहां हो ख़लिश ये दुआ है मेरा दिल सदाएं ये देता है उस को वो मुस्कायी मुझ पे, बहुत शुक्रिया है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ अप्रेल २००८ १४४६. कोई तो मेरी ज़िन्दगी में / आ गया होता – ६ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित कोई तो मेरी ज़िन्दगी में / आ गया होता इस दिल में प्यार की शमा / जला गया होता जब हमसफ़र कोई नहीं तो / जी के क्या करूं झूठा ही भरोसा कोई / दिला गया होता जीने को यूं तो जी रहा हूं / तनहा भी मग़र जीने की तमन्ना कोई / बढ़ा गया होता मैं ख़ुदमुख्तियार हूं भला ये / किस तरह कह दूं यादें कोई दिल से मेरे / मिटा गया होता है बेसुरा नग़मा ख़लिश मेरी ये ज़िन्दगी लय ताल सुर में कोई इस को / गा गया होता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ अप्रेल २००८ १४४७. यूं मेरी ज़िन्दगी में कोई आ गया – ७ अप्रेल २००८ की एक हल्की-फुल्की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित यूं मेरी ज़िन्दगी में / कोई आ गया राज़ उल्फ़त के धीरे / से समझा गया अब तलक तो हमेशा / मैं तनहा रहा आज धड़कन में मेरी / कोई छा गया ज़िन्दगी की अजब है / ये कैसी अदा गै़र था जो वही अब मुझे भा गया किसलिये ज़िन्दगी से शिकायत करूं जो भी चाहा था मैंने वही पा गया अब ख़ुदा से यही मांगता है ख़लिश वो न छीने कभी जो है तोहफ़ा दिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ अप्रेल २००८ १४४८. घर घर की कहानी है – एक और गज़ल, ई-कविता को ६ अप्रेल २००८ को प्रेषित घर घर की कहानी है जो तुम को सुनानी है क्यों पैर छुए बीबी यह रसम पुरानी है पति पैर दबाए, नई तहज़ीब चलानी है पत्नी परमेश्वर है यह बात सिखानी है हर सुबह बना चाय पत्नी को पिलानी है सब से पहले थाली पत्नी की लगानी है हर हफ़्ते नयी उस को कोई फ़िल्म दिखानी है बिन बात ही पत्नी की फिर डांट भी खानी है वो लगे ख़लिश बूढ़ी तो कहो जवानी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ६ अप्रेल २००८ १४४९. घर मेरा है किंतु मैं हूं अजनबी – एक और गज़ल, ई-कविता को ६ अप्रेल २००८ को प्रेषित घर मेरा है किंतु मैं हूं अजनबी यूं तो कहने को हूं मैं मालिक अभी है यहां फ़ितरत सभी की मुख्तलिफ़ अपने अपने रास्ते जाते सभी कौन है परवाह जो मेरी करे एक प्याली चाय की दे दे कभी पर शिकायत भी भला किस से करूं अंग हैं परिवार के मेरे सभी काम दिन भर कर के थक जाता हूं मैं हाल तो मेरा कोई पूछे कभी हमसफ़र कोई नहीं है अब मेरा न बहू बेटे को है फ़ुरसत कभी ज़िन्दगी अब नाम है तनहाई का अब पराये हैं ख़लिश अपने सभी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ६ अप्रेल २००८ १४५०. सास भी क्या चीज़ है! – एक और कविता, ई-कविता को ७ अप्रेल २००८ को प्रेषित सास भी क्या चीज़ है! जब बहू को घर में ले के आयी वह बस उसी दिन से यही कोशिश रही किस तरह उस को सदा वश में रखे वह करे महसूस ज्यों हैं पर कटे सास ससुर और पति को पूज कर धन्य जीवन को सदा करती रहे. जब तलक जीती रहीं थीं सास जी सब तरह सेवा बहू ने की बहुत एक दिन दुनिया में जब वे न रहीं बढ़ गयीं तब उस की जिम्मेदारियां जिस गृहस्थी में बनी दासी रही अब चलाना था उसे अपने ही बल. काम था घर का कभी चुकता नहीं पालना बच्चे, पढ़ाना भी उन्हें पार्टी साहब के मित्रों के लिये आये दिन घर में जुटानी थीं उसे काम घर में हैं हज़ारों किस्म के जो निगाहेमर्द को दिखते नहीं. है मग़र अफ़सोस सासू जी अभी गो कि पूरी उम्र कर के जा चुकीं मोह घर का छोड़ न पायीं अभी आत्मा उन की अभी भी रात-दिन ताकती रहती है फ़ोटो-फ़्रेम से ज्यों कि बेटे को जताने के लिये: "देख मेरे बिन तेरा क्या हो गया अब बहू के हाथ में तू खो गया". सास भी क्या चीज़ है! महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ अप्रेल २००८ |