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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627000 added December 31, 2008 at 9:38am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1451- 1475 in Hindi script



१४५१. आज लगता है मुझे बेकार अब मैं हो गया – एक और नज़्म, ई-कविता को ७ अप्रेल २००८ को प्रेषित


आज लगता है मुझे बेकार अब मैं हो गया
जो भी मेरे पास था लगता है वो सब खो गया
बेकसी और मुफ़लिसी को देख अपनी रो गया
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

कोई भी ऐसा नहीं मुझ को सहारा दे सके
डूबता हूं, बांह थामे ला किनारे पे सके
दे सके मुझ को ख़ुशी और ग़म को मेरे ले सके
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

जब मुझे जीने की हसरत ही नहीं तो क्यों जिऊं
जाम भी हो सामने, न प्यास हो तो क्यों पिऊं
घाव से छलनी हो दिल तो क्यों ज़ुबां को मैं सिऊं
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

यूं तो पहले से बहुत गर्दिश में मेरी जान है
किसलिये अब आ गया एक और ये तूफ़ान है
मर मिटूं, अब न बचूं, इतना ही अब अरमान है
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ अप्रेल २००८


एद
ज़िंदगी तू ही बता कब तक भुगतना है मुझे
कब तलक इन सर्द सांसों से निबटना है मुझे

चोट इतनी लग चुकी हैं दिल भी मेरा थक गया
पूछता है रोज़ ये कब तक धड़कना है मुझे

दोस्त मतलब के थे सारे हो गये कब के ज़ुदा
अब फ़कत तनहाइयों से ही गुज़रना है मुझे

यूं तो इक ख़ामोश- सी मैं ज़िन्दगी हूँ जी रहा
पर किसीकी याद में हर पल तड़पना है मुझे

आ ज़रा तू ही बता ऐ मौत इतना तो ख़लिश
कब तलक यूँ राह तेरी रोज़ तकना है मुझे.


१४५२. ज़िन्दगी तू ही बता कब तक भुगतना है मुझे – ८ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित--RAMAS


ज़िंदगी तू ही बता कब तक भुगतना है मुझे
कब तलक इन सर्द सांसों से निबटना है मुझे

चोट इतनी लग चुकी हैं दिल भी मेरा थक गया
पूछता है रोज़ ये कब तक धड़कना है मुझे

दोस्त मतलब के थे सारे हो गये कब के ज़ुदा
अब फ़कत तनहाइयों से ही गुज़रना है मुझे

यूं तो इक ख़ामोश- सी मैं ज़िन्दगी हूँ जी रहा
पर किसीकी याद में हर पल तड़पना है मुझे

आ ज़रा तू ही बता ऐ मौत इतना तो ख़लिश
कब तलक यूँ राह तेरी रोज़ तकना है मुझे.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८

000000000000

From: "Prem Sahajwala" <pc_sahajwala2005@yahoo.com>
Date: Tue, 8 Apr 2008 01:28:06 -0700 (PDT)
bahut khalish hoti hai aap ka har sher padh kar.
premchand sahajwala
००००००००००००००
bhupal sood <ayan_bhupal@ yahoo.co. in> wrote:
wah janab. bahut hi shreshtha ghazal hai. ekadh ghazal eisi sunayen jisme zindagi jine ki aas aur kamna ho. zindagi bahut khubsurat si lage.
bhupal sood
०००००००००००००००
Tuesday, 8 April, 2008 1:54 AM
From: "anmolsaab" anmolsaab@yahoo.co.in
wah khalish ji
bahut umda
००००००००००००








१४५४. ये न था किस्मत में मेरी जी सकूं ख़ुशहाल हो

ये न था किस्मत में मेरी जी सकूं ख़ुशहाल हो
पर न मालूम था जिऊंगा इस तरह बदहाल हो
जैसा मेरा हाल है न यूं किसी का हाल हो
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

वक्तेरुख्सत सज रही है दिल में यादों की बरात
आज हूं तनहा मग़र किस से कहूं मैं दिल की बात
हाथ में मेरे क़लम है सामने मेरे दवात
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

लिख चला हूं आखि़री नग़मा पढ़ोगे ये अग़र
शायद ये दिल पे करे कुछ तो किसी के यूं असर
शायरेगु़मनाम को दो कर चले आंसू नज़र
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं

आज जो मैं जा रहा हूं फिर न वापस आऊंगा
वक्त की तारीकियों में ही कहीं खो जाऊंगा
आ तसव्वुर में तुम्हारे फिर यही दोहराऊंगा
ऐ ग़मेदिल क्या करूं तू ही बता अब क्या करूं.

तारीक =अंधेरा [तारीकियां = अंधेरे]
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८

--पिछली कड़ी: १४५१
०००००००००००००





१४५५. क्या खबर थी कोई दिल के पास इतना आयेगा – १० अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित--RAMAS


क्या खबर थी कोई दिल के पास इतना आयेगा
जायेगा तो उम्र भर का ग़म मुझे दे जायेगा

था बहुत पुरनूर मौसम जब मिले थे तुम मुझे
जानता था कौन यूँ इक दिन अंधेरा छायेगा

देखते ही देखते अपने पराये हो गये
बस यही ग़म ज़िन्दगी भर को मुझे तड़पायेगा

शक्ल दिल के आईने में फिर तुम्हारी आयेगी
नाम कोई बेवफ़ाई का जो लब पे लायेगा

यूं वफ़ा तो प्यार में लाज़िम नहीं होती ख़लिश
बेवफ़ा तुम क्यों हुए ये सोच दिल भरमाएगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८

००००००००००००
Thursday, 10 April, 2008 7:59 PM
From: "bhupal sood" ayan_bhupal@yahoo.co.in
ek aur shreshtha rachna ke liye dhanyavad
bhupal







१४५६. तेरी सूरत को निगाहों से चुराया मैंने – ९अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित--RAMAS


तेरी सूरत को निगाहों से चुराया मैंने
तुझे नग़मा भी तसव्वुर में सुनाया मैंने

मुझे एहसास हुआ तू ही मेरे दिल में है
तुझे सपनों में सरेशाम ही पाया मैंने

मैंने महसूस किया रेशमी ज़ुल्फ़ों को तेरी
तेरे रुखसार से सपनों को सजाया मैंने

मैंने चाहा कि तेरे ख़्वाब मैं पूरे कर दूं
तू जो रूठी तो बहुत बार मनाया मैंने

मुझे रह- रह के यही ख्याल सदा आता था
कहीं भूले से न हो तुझको सताया मैंने

न मैं फिसला हूं कभी राहे-वफ़ा से अपनी
सब असूलों को मोहब्बत के निभाया मैंने

ख्याल आता है मुझे प्यार में क्या पाया है
सिर्फ़ तनहाई में अश्कों को बहाया मैंने

आज आगोश में ग़ैरों के तुझे देखा है
क्या इसी दिन को ख़लिश दिल था लगाया मैंने.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८





१४५७. एक इंसां एक दिन जब मौत से टकरा गया – ११ अप्रेल २००८ की गज़ल, ई-कविता को प्रेषित


एक इंसां एक दिन जब मौत से टकरा गया
आखिरी लमहे में वो ये देख कर चकरा गया

कल तलक जो दुश्मनी आये निभाते उम्र भर
आज उन की आंख में आंसू कहां से आ गया

वो हमेशा ही चला अपने असूलों पे मग़र
है बहुत ख़ब्ती, सनद ये दोस्तों से पा गया

उस की नादानी पे हंस के लोग सब कहते रहे
एक दिन मुफ़लिस मरेगा, अक्ल से सठिया गया

पर ख़लिश पाया जो उस ने चैन रूहानी था वो
जी के गु़रबत में भी वो शाहों के ऊपर छा गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८
000000000

From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com
Date: Thu, 10 Apr 2008 22:33:21 -0700 (PDT)

खलिश साहब:

जैसा कि पिछले कुछ दिनों से पढ रहा हूँ , आप की यह रचना शायद ’गज़ल’ न हो लेकिन नज़्म के रूप में सुन्दर भाव लिये है और अच्छी लगी ।

सादर
अनूप

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१४५८. कोशिशें करना सभी बेकार है

कोशिशें करना सभी बेकार है
आज इंसां इस कदर बीमार है

भाई-चारे का वकत जाता रहा
दो दिलों के बीच में दीवार है

खून पानी की तरह है बह रहा
हाथ में चाकू छुरी तलवार है

आज एक और विश्वयुद्ध की
कल्पना से त्रस्त यह संसार है

रो रही जनता ख़लिश और कान में
डाल उंगली सो रही सरकार है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अप्रेल २००८




१४५९. आत्मज्ञान: दोहे – एक और रचना, ई-कविता को १० अप्रेल २००८ को प्रेषित


दीप बनी है लेखनी, ज्योति शारदे मात
स्नेह मिले है दाद से, ख़लिश लिखे दिन रात
[स्नेह = तेल]

कवि तो लिखे सहज ही, जो कछु मन में होय
क्या पाठकगण को चहै, बिरला जानै कोय

भाव नहीं न शिल्प है, न कोई छ्न्द प्रकार
जो भाया सो लिख दिया, मुझ सा कौन गंवार

आलोचक जो मैं लिखूं, पढें बहुत आभार
तुकबन्दी में किस लिये ढूंढें कोई सार

क्षमा करें अज्ञानवश लिख डाले कुछ छन्द
किंतु आप के योग्य वे हो न सके कविवृन्द.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अप्रेल २००८




१४६०. हम ढूंढते उस को फिरे जाने कहां कहां – एक और गज़ल, ई-कविता को १० अप्रेल २००८ को प्रेषित


हम ढूंढते उस को फिरे जाने कहां कहां
जो शान से बैठा रहा दिल में मेरे निहां

मंज़िल की राह में लगे थे मील के पत्थर
हर एक पत्थर झूठ है हम को रहा गु़मां

जब आखिरी पत्थर पे क़दम आ के रुक गये
एक कब्र का ही रास्ता हम को दिखा वहां

पीछे निगाह डाली कि अपना घर तो देख लें
कुछ खंडरात के सिवा पाया न कुछ निशां

जिस राह चले उम्र भर न हो सकी रौशन
मंज़िल थी बूढ़ी थे अग़रचे रास्ते जवां

घर से ख़लिश चलते हैं मंज़िल की तलाश में
पर रास्ते ले जायें हैं हम को कहां कहां.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अप्रेल २००८




१४६१. हर लैला ने अन्दाज़ दिखाये अजीब हैं – एक और गज़ल, ई-कविता को १० अप्रेल २००८ को प्रेषित


हर लैला ने अन्दाज़ दिखाये अजीब हैं
हर कैस के हालात बनाये अजीब हैं

आह कोई है ख़ुशी की और कोई ग़म भरी
हर आह ने अफ़साने सुनाये अजीब हैं

होठों से आती आह कोई दिल से आती है
आहों के बारे में कई रायें अजीब हैं

आशिक को जान देनी है तो दे के रहेगा
सब कोशिशें कि उस को मनायें अजीब हैं

बेहतर है ख़लिश न लिखें शायर कोई कलाम
लोग मतलबे-अशआर लगायें अजीब हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अप्रेल २००८





१४६२. पास बैठो, जाओ मत मुंह मोड़ कर

पास बैठो, जाओ मत मुंह मोड़ कर
जा रहा हूं आज दुनिया छोड़ कर

थाम लो ये हाथ इक पल के लिये
आज तुम अपनी कसम को तोड़ कर

आखिरी लमहे में क्या मुझ से गिला
क्या मिलेगा आज मुझ से होड़ कर

कह दो सच चाहा मुझे भी था कभी
इक दफ़ा नज़रों को मेरी ओर कर

राज़ेदिल कब तक छिपाओगे ख़लिश
कल रहूंगा एक चादर ओढ़ कर.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८



१४६३. ये बातें हैं कुछ भेद भरी, कुछ हम को भी तो बतलाओ – एक और गज़ल, ई-कविता को ११ अप्रेल २००८ को प्रेषित [किंतु, बिना किसी संख्या या संदेश के]

ये बातें हैं कुछ भेद भरी, कुछ हम को भी तो बतलाओ
हे श्याम, अनूप और ब्रजवासी, क्या इंगित है यह समझाओ

जो विदित आप को हुआ हमें भी ज्ञानदान उस का दे दो
यूं अंधकार में रखो नहीं क्या छिपा हृदय में जतलाओ

कर दूंगा नज़्म-गज़ल पूरी तो सभी दोष देंगे मुझ को
न करूं, प्यास कवि मन की कैसे बुझे रास्ता दिखलाओ

हूं कोई विदूषक, सैकरीन सम, चीनी ढब का निर्माता
ये तीन सहे हैं उपालम्भ, कुछ और अग़र हों दे जाओ

मन में त्रिमूर्ति है तीनों की ई-कविता के निर्मातागण
है ख़लिश खड़ा करबद्ध आर्त, कुछ छींटे उस पर बरसाओ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८






१४६४. मैं परेशां हूं बहुत आज मुझे प्यार करो

मैं परेशां हूं बहुत आज मुझे प्यार करो
मुझे सीने से लगा लो मेरा दीदार करो

यूं तो खायी थी कसम तुम से नहीं बोलेंगे
आज इज़ाज़त है मेरी ज़ुल्फ़ से खिलवाड़ करो

मैंने माना कि तुम्हें मैंने सताया है बहुत
पास आ जाओ मेरे आज तो एतबार करो

फिर कभी तुम को शिकायत की वज़ह न होगी
वायदा प्यार निभाने का तो इक बार करो

अब न हम आप के कदमों से ख़लिश जायेंगे
जो हुयी हम से ख़ता माफ़ वो दिलदार करो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८



१४६५. सूरत मुझे धुंधली सी नज़र आयी थी

कोई सूरत मुझे धुंधली सी नज़र आयी थी
देख के उस को कली दिल की ये मुस्कायी थी

हमसफ़र कोई बनेगा ये खयाल आया था
हां तसव्वुर में मेरे बर्ख सी लहरायी थी

दिल में अरमान जो उठा था वो पूरा न हुआ
मुझे हासिल जो हुआ प्यार में रुसवाई थी

मैंने चाहा था मुझे प्यार कोई मिल जाये
मेरी किस्मत में लिखी सिर्फ़ ये तनहाई थी

आज माज़ी की तरफ़ देख ख़लिश लगता है
मेरी फ़ितरत भी जवां जोश में भरमाई थी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८



१४६६. सांसों की गिनती: दोहे – एक और रचना, ई-कविता को ११ अप्रेल २००८ को प्रेषित

कितनी सांसें ले चुके, कितनी बाकी और
पता नहीं इस जगत में, कितने दिन का ठौर

किये पाप और पुण्य है, कितने कौन गिनाय
बही खुली यमराज की, पढ़ लेंगे तहं जाय

सब को अपनी ही पड़ी, दूजा देखै कौन
अपनी करें बड़ाई सब, दूजे के प्रति मौन

नया ज़माना आ गया, खु़द को कहें महान
बुद्धू कहें उसे न जो अपना करे बखान

ता ते ख़लिश गिना रहा गज़ल पड़े न भूल
दूजा कोई गिन रहा, भ्रान्ति बहुत निर्मूल.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८



१४६७. आज लगता है मुझे काश मैं कम लिख पाता – एक और गज़ल-रूपी नज़्म, ई-कविता को ११ अप्रेल २००८ को प्रेषित


आज लगता है मुझे काश मैं कम लिख पाता
न गज़ल लिखता अधिक कौन ज़ुलम हो जाता

मैं तो लिखता हूं सिरफ़ अपनी ख़ुशी की खातिर
जाने क्यों बज़्म के हज़रात को गुस्सा आता

कोई कहता है बहुत तुम जो अधिक लिखते हो
यूं लगे चीन का स्तरहीन कोई निर्माता

कोई ढूंढे है मिठाई का असर गज़लों में
स्वाद सेकेरीन का उस को है बहुत भरमाता

कोई कहता है विदूषक की तरह लगता हूँ
भांड नक्काल हूँ मैं मुझ को कोई समझाता

तर्ज़ फ़िल्मी है शिकायत भी किसी की है ये
ग़र ये साहिर का सुखन सुनता बहुत शरमाता

आज गलती को मैं तसलीम ख़लिश करता हूँ
माफ़ कर देना मुझे तोड़ चला ये नाता.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८
१४६८. कोई होता मैं जिसे दर्देज़िगर कह पाता

कोई होता मैं जिसे दर्देज़िगर कह पाता
मेरे साये से बिछुड़ के जो बहुत घबराता

हमसफ़र कोई नहीं ये भी कोई जीना है
मैं भी हौले से किसी ज़ुल्फ़ को तो लहराता

ज़िन्दगी एक बियाबां सी नज़र आती है
कोई होता जो कभी पास तो दम भर आता

क्या करूं बरपा मेरे चार सू तनहाई है
सच तो ये है कि नहीं और सहा अब जाता

क्यों है इंसान की संगत का तलबदार ख़लिश
संग मौला से निभा पाक वही है नाता.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८



१४६९. मैंने सोचा था कि दुनिया को बदल जाऊंगा

मैंने सोचा था कि दुनिया को बदल जाऊंगा
न ये सोचा था कि हो कर के कतल जाऊंगा

मुझे नाहक ही भरोसा था कि ताक़त है बहुत
वार कोई मुझ पे करेगा तो सम्हल जाऊंगा

न मेरी याद में तुम अश्क बहाना यारो
मौत की राह से कैसे मैं निकल जाऊंगा

न मुझे इल्म है अरकान का पर सोचा था
लिख के मैं कोई गज़ल बहरेरमल जाऊंगा

यही इक बात ख़लिश दिल में हमेशा सोची
हुक्मेमौला पे सदा करता अमल जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८




१४७०. इश्क क्यों छोड़ दूं ग़र देता ये रुसवाई है

इश्क क्यों छोड़ दूं ग़र देता ये रुसवाई है
दिल की दुनिया ही सदा मुझ को नज़र आयी है

लोग कहते हैं कि समझौता करूं किस्मत से
मैंने तो वक्त से लड़ने की कसम खायी है

कोई होता जो मेरा अपना उसे कह देता
आज दुश्मन ही लगे बनता हुआ भाई है

क्या है तहज़ीब ये तुम मुझ को सिखाते क्यों हो
मग़रबी हुस्न की शीरीं में भी तुरशाई है

आज लगता है ख़लिश सब से किनारा कर लूं
मैंने ठोकर ही यहां जी के बहुत खायी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८




१४७१. मैं जानता हूं मुझ से आज़िज़ आ गये हो तुम

मैं जानता हूं मुझ से आज़िज़ आ गये हो तुम
हूँ फ़ालतू एहसास ये करवा गये हो तुम

लाऊं कहां से हुस्न जो तुम को पसन्द हो
आईने में सूरत मेरी दिखला गये हो तुम

कच्चा घड़ा बना के महीवाल जो चला
क्या हश्र था उस का हुआ बतला गये हो तुम

काजल मेरे रुखसार पे जंचता तो है लेकिन
कुछ धार को तीखी करूं सिखला गये हो तुम

तीरेनिगाह हैं मेरे पैने मग़र अभी
हैं ज़हर से खाली ख़लिश जतला गये हो तुम.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अप्रेल २००८




१४७२. दिल ये कहता है कि मैं छोड़ जहां को जाऊं

दिल ये कहता है कि मैं छोड़ जहां को जाऊं
राह में चलता हुआ थक के कहीं सो जाऊं

मैंने खाये हैं ज़माने में सभी से धोखे
भूल जाऊं वो सभी याद कहीं खो जाऊं

यूं तो नफ़रत ही मिली मुझ को ज़माने में सदा
प्यार के बीज मग़र जाते हुए बो जाऊं

न कोई मुझ पे बहाए कहीं झूठे आंसू
क्यों मैं कान्धे पे चढ़ूं गाम फ़कत दो जाऊं

मुझे दरकार नहीं मर्सिया कोई पढ़ता हो
प्यार नकली है सभी देख न क्यों रो जाऊं

देख दुनिया का चलन दिल है मेरा ऊब गया
इस से बेहतर है कि सौदाई ख़लिश हो जाऊं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अप्रेल २००८




१४७३. जब तक निगाहों में तुम बस रहे थे

जब तक निगाहों में तुम बस रहे थे
तसव्वुर में दिल में मेरे सज रहे थे
न कुछ और तब तक मुझे सूझता था
मैं और तुम संग में चल रहे थे

दिलकश बहुत था बहारों का मौसम
बसा था नज़र में नज़ारों का मौसम
हवाओं में ख़ुशबू अजब थी समायी
था रंगीन चान्द और तारों का मौसम

अंधेरा मग़र रात का अब चुका है
हकीकत का आखिर सवेरा हुआ है
उजाले में दिन के दिखा और कुछ है
दामन वफ़ा का गिरा सा दिखा है

है क्या आज लाज़िम तुम्हें सोचना है
एक राह से दिल तुम्हें रोकना है
मेरा प्यार पहले सा अब भी है कायम
रस्ता तुम्हारा तुम्हें खोजना है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अप्रेल २००८



१४७४. तुम्हारे खयालों में यूं खो गया था

तुम्हारे खयालों में यूं खो गया था
दुनिया से सारी अलग हो गया था
भुला कर सभी ग़म ज़माने के जैसे
तुम्हारे ही आग़ोश में सो गया था

न कोई हकीकत मुझे सूझती थी
निगाह बस तुम्हारे कदम पूजती थी
न दिखते थे कांटे मुझे रास्ते के
गुंचे ही गुंचे नज़र ढूंढती थी

खुलीं आज आंखें तो पाया है मैंने
तुम्हारे लिये सब गंवाया है मैंने
जो थी सिर्फ़ मेरे ही ख्वाबों की दुनिया
फ़कत उस से दिल को लुभाया है मैंने

किस्मत को अपनी ख़लिश कोसता हूं
जगा नीन्द से आज मैं सोचता हूं
जाऊं किधर कोई मंज़िल नहीं है
अभी तक नयी राह मैं खोजता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अप्रेल २००८




१४७५. आज प्याला भी नहीं, साकी नहीं—नज़्म, ईकविता, १५ अप्रेल २००८

आज प्याला भी नहीं, साकी नहीं
कैसे कह दूं रात बिरहा की नहीं
क्या लिखूं किस को सुनाऊं आज मैं
अब कलम में ताब वो बाकी नहीं

कुछ ज़गह इस बज़्म में मेरी नहीं
वक्त ने किस की गति फेरी नहीं
थी कभी ख़ुश-आमदीद भी मेरी
आज नफ़रत भी मेरी चेरी नहीं

यार गये हैं छोड़ कर नाहक नहीं
मैं किसी के साथ के लायक नहीं
पर करूं अफ़सोस भी मैं किसलिये
दोस्ती पर तो किसी का हक नहीं

तल्खियां ही मैं ख़लिश दे जाऊंगा
आज सब को छोड़ कर के जाऊंगा
चाहे मिल न पायेंगे हम फिर कभी
संग तुम्हारी याद को ले जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अप्रेल २००८
© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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