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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१५२६. जिस हाल में रखे राम मुझे उस हाल में जीना सीख लिया जिस हाल में रखे राम मुझे उस हाल में जीना सीख लिया कोई कड़वा हो या मीठा हो हर जाम को पीना सीख लिया कहते हैं सारे ग़म केवल ख्वाहिश के कारण होते हैं हर तरह की ख्वाहिश से खाली कैसे हो सीना सीख लिया अब रोज़ की दुनियादारी के ग़म न मुझ को तड़पायेंगे ग़म और ख़ुशी के तूफ़ां से हो दूर सफ़ीना सीख लिया कोई दोस्त न कोई दुश्मन है एक नूर सभी में देखा है वे भी मुझ में मैं भी उन में अन्दाज़ ये झीना सीख लिया आरामतलब था बहुत ख़लिश दौलत के मद में खोया था है पाक बहुत जो मज़दूरों का बहे पसीना सीख लिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ मई २००८ १५२७. मातृ दिवस—RAS--११ मई, २००८ कितनी ही कविता लिख डालीं, गीत, गज़ल, सोरठे, कुंडली कितने ही विषयों पर लिखा, पूजा, प्रेम, रुदन और हास्य चलती रही कलम ये अब तक, नहीं विराम मिला है इस को किंतु आज यह रुक सी जाती, आज सुना है मातृ दिवस है जो कुछ तुम ने मुझे दिया है शब्दों में क्या कह पाऊंगा क्या मैं वर्णन कर पाऊंगा हर वात्सल्य भरे उस क्षण का जब तुम ने भूखी-प्यासी रह मेरी खातिर कष्ट सहे थे जिन से मैं अनभिज्ञ रहा और न तुम ने ही कभी जताया मेरे अंतर में तो माता तुम्हीं बसी हो जब से जन्मा तुम ने ही तो मुझे बनाया और बना कर बड़ा किया है तुम तो पल पल बसी रही हो सांसों की आवाजाही में एक बरस में एक दिवस यह कैसे नाम तुम्हारे कर दूं तुम को भैंट कोई दे कर क्या आज उऋण मैं हो जाऊंगा या मैं भेजूं पाती कोई ग्रीटिंग कार्ड तुम्हें इक दे दूँ मन में हो भावना नहीं तो व्यर्थ सभी कार्ड और सौगातें यदि मन में श्रद्धा है तो मां चरणों में एक आंसू काफ़ी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ मई २००८ To: ekavita@yahoogroups.com From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in> Date: Sun, 11 May 2008 07:48:10 +0100 (BST) Maa ke sambandhon par bahut achhi bhavpurna kavita hai. par yeh mothers day manane ka prachalan kabhi gale nahi utra. ma to sada ma hai, uske na rahne par bhi ham sada usi ko samarpit rahte hain. phir ek din yad karna...... slow mental cleaning jari hai. bhupal ०००००००००००००००० १५२८. मतलब के थे यार सभी कोई मुझ को अपना मिला नहीं मतलब के थे यार सभी कोई मुझ को अपना मिला नहीं छोड़ गये जो राहों में कुछ उन से मुझ को गिला नहीं बड़ी मेहरबानी है उस की दो रोटी मिल जातीं हैं क्या ग़म है जो कुर्ता मेरा बहुत दिनों से सिला नहीं यूं तो आये दिन चुनाव होते रहते हैं दुनिया में एक बार जो बैठ गया कुरसी से कोई हिला नहीं कवि की पहुंच बड़ी ऊंची है उस का है विस्तार बहुत रोके कभी तसव्वुर उस का ऐसा कोई किला नहीं ख़लिश लगाओ मन पे अंकुश वरना फिर पछताओगे पांव डिगे ग़र एक बार तो रुकता ये सिलसिला नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ मई २००८ १५२९. शायर की कलम चलती है तो अशआर निकलते रहते हैं शायर की कलम चलती है तो अशआर निकलते रहते हैं हर काफ़िये पे हर मिसरे के अन्दाज़ बदलते रहते हैं हर शेर पे हम दिल थामते हैं न जाने क्या मतलब निकले कई बार लगे दिल के ग़म ही अश्कों में पिघलते रहते हैं हम प्यार तो उन से कर बैठे दीदार मग़र होता ही नहीं ख़्वाबों में कभी वो आ जायें जज़्बात मचलते रहते हैं हम जानते हैं न आएंगे पर कैसे मनाएं इस दिल को सौ ख्याल सजा कर के दिल में हर शाम संवरते रहते हैं इक हूक उठी दिल में हम भी निकले तो इश्क की राहों पर कहते हैं ख़लिश आशिक लेकिन सौ बार फिसलते रहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ १५३०. मैं ये सोच कर मंच पर आ गया था कि कविताएं सुन्दर किसी की सुनूंगा –ईकविता, १२ मई २००८ मैं ये सोच कर मंच पर आ गया था कि कविताएं सुन्दर किसी की सुनूंगा जो भी सुनाएगा गज़लों को अपनी, आलोचना मैं उसी की करूंगा मन में बहुत से खयाल उठ रहे थे कवि लोग क्यों दाद यूं मांगते हैं अग़र कोई काबिल-ए-तारीफ़ होगा मैं जयमाल से खु़द उसे ही वरूंगा सिरफ़ एक कविता ही कहना है वाज़िब, क्यों फ़ालतू बात सब को सुनाते ठाना था मैंने किसी के भी कोई, अनर्गल प्रलापों को मैं न सहूंगा मग़र मंच पर कवि कितने ही आये कोई हायकू कोई गज़लें सुनाये कोई कुंडली कोई दोहे दिखाये कोई डिग्रियां प्राप्त की हैं जताये चलाता है नर्सिंग होम ये बताये वकालत का माहिर हूं ये गीत गाये इंजीनिर हूं ये नारा लगाये सुन कर सभी को रहा चुप न जाये लो मैं आज लेता हूं रुख्सत सभी से, आलोचना के नहीं हैं ये काबिल साहित्यकारों की महफ़िल नहीं है, फिर मैं यहां पग कभी न धरूंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ 00000000000 From: "Om Prakash Tiwari" <omtiwari24@gmail.com> Date: Mon, 12 May 2008 19:49:22 +0530 ख़लिश जी , किसी भी समाज में बदलाव उसमें रहकर ही किया जा सकता है । उससे भागकर नहीं । हो सकता है , आपकी देखादेखी ही लोग स्वयं को सुधारने की कोशिश करें । - ओमप्रकाश तिवारी ०००००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com Date: Mon, 12 May 2008 23:07:10 -0700 (PDT) आप की गज़ल पढकर कैफ़ी आज़मी की वो पंक्तियां याद आ गई: मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था............ . ००००००००००००००००००० From: "bhupal sood" <ayan_bhupal@yahoo.co.in> Date: Tue, 13 May 2008 03:54:44 +0100 (BST) नही महेश जी आप क्यों जाएँ इस मंच से ? जिनके पास कविता नही है और क्या करेंगे अपने ऊल जुलूल बयानों के अलावा, आप कवितामय हैं. आपकी रचनाएँ हम जैसे पाठकों को बहुत भाती हैं, खूब लिखिए और मंच पर भेजिए. अच्छे लोग और रचनाकार कहाँ परवाह करते हैं महत्वाकांक्षी लोगों की. इन्ही से तो साहित्य चाटुकारिता का पर्याय बनता जा रहा है. भूपाल सूद ००००००००००००००००००००० १५३१. जब ज़िक्र किसी का होता है, आंखें खु़द ही झुक जातीं हैं जब ज़िक्र किसी का होता है, आंखें खु़द ही झुक जातीं हैं रुख पे लाली छा जाती है, नज़रें मिलते शरमातीं हैं तनहाई गवारा कैसे करें, इस से तो अच्छा माज़ी था पहलू में नहीं हैं वो लेकिन गुज़री रातें याद आती हैं वो भी क्या दिन थे हम दोनों, दुनिया से अलग हो रहते थे उन लमहों के किस्से सखियां कितने मुझ को बतलाती हैं अब वो जो नहीं तो जीवन में लगता है नहीं बाकी कुछ भी कुछ बातें हैं पोशीदा सी, तनहाई में तड़पाती हैं बतलाएं ख़लिश कैसे सब को अंज़ामेमोहब्बत क्या पाया कुछ अश्क और कुछ यादें हैं बस ये ही तो उन की थाती हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ १५३२. कोई पास नहीं होता है जब मायूस तमन्ना रोती है कोई पास नहीं होता है जब मायूस तमन्ना रोती है मैं तारे गिनता रहता हूं जब सारी दुनिया सोती है मेरे ख़्वाबों में आ जाते ग़र मिलने में कुछ मुश्किल है पर ख़्वाबों में कैसे आयें न आंख कभी बंद होती है अश्कों में याद भरी उन की, कैसे ज़मीन पर गिरने दूं पानी की बूंद नहीं हैं ये, हर आंसू मेरा मोती है दिन तो मेरा ऐसे वैसे चाहे जैसे कट जाता है हर रात भरी तनहाई से जाने कितने ग़म ढोती है तदबीर ख़लिश उन से मिलने की कोई सूझ नहीं पड़ती ख़्यालों पे ख़्याल मग़र भी दिल की तासीर पिरोती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ १५३३. मुंह से तो कुछ भी न बोले, एक भौंह हिली सब कह ही गये मुंह से तो कुछ भी न बोले, एक भौंह हिली सब कह ही गये उन की इस एक अदा से हम कितने ख्यालों में बह ही गये सौ राज़ छिपाये हैं दिल में ऊपर से बस मुस्काते हैं वो सितम भी हंस के करते हैं, उन के ग़म सारे सह ही गये कई बार किया मन तो उन से पूछें क्या हम को चाहते हैं पर ख़फ़ा न हो जायें हम से ये सोच के हम चुप रह ही गये महफ़िल में ऐसे बैठे हैं जैसे हम से पहचान नहीं उन के इस रुख को देख के सब अरमान हमारे ढह ही गये अंज़ामेमोहब्बत क्या होगा ये ख़लिश हमें मालूम नहीं वो कदम कदम पे मात के नाम पे देते हम को शह ही गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ १५३४. जिस दिल ने प्यार किया न हो रोना-ओ- रुलाना क्या जाने –ईकविता, १२ मई, २००८ जिस दिल ने प्यार किया न हो रोना-ओ- रुलाना क्या जाने जो गज़ल मोहब्बत की है उस के अश्क भरे हैं अफ़साने यूं इश्क तो सब कर लेते हैं पर दिल तक पहुंचे बिरले ही है प्यार बसा जिन की रूह में कितने हैं ऐसे दीवाने निकले जब इश्क की राहों पर अंज़ाम की परवाह क्योंकर हो सच्चे आशिक सारी दुनिया से हो जाते हैं बेगाने कोई समझ नहीं पाया इस को ये गहरा कोई फ़लस्फ़ा है जनमों के साथी बन जाते हैं जो पहले थे अनजाने शम्म को रौशन देख बहुत आसां है उस पर मंडराना मंज़िल तक पहुंचे वही ख़लिश जो जले प्यार में परवाने. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ मई २००८ १५३५. आज तुम्हारी सूरत में इक झलक परायी पायी है आज तुम्हारी सूरत में इक झलक परायी पायी है कोई छिप कर बैठा है मन में जिस की परछाई है पहले जब तुम आते थे आंखों में बातें होतीं थीं आज तुम्हारी नज़र सनम क्यों मिलने से शरमायी है जाने क्यों मुझ को सब कुछ अब सूना सूना लगता है कोई शय तुम ने जीवन से मानो आज चुरायी है आंखों में रंगीं डोरे हैं मग़र अदावत है हम से किस ने तुम को भरमाया, किस की उल्फ़त रंग लायी है दिल ग़र हम से ऊब गया है ख़लिश साफ़ बतला दीजे हम उस से क्यों नाता रखें निकला जो हरजाई है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५३६. मैंने कुछ कहना चाहा कुछ और समझ बैठे हैं लोग –ईकविता, १३ मई २००८ मैंने कुछ कहना चाहा कुछ और समझ बैठे हैं लोग जिन को सुलझाना चाहा वो और उलझ बैठे हैं लोग ये तो मंशा कभी नहीं थी महफ़िल से उठ कर जाऊं जिन को जाना वाज़िब था वो एक तरफ़ बैठे हैं लोग मेरी पाकनिगाही से वो जाने क्यों भरमाते हैं पढ़ कर मेरी नज़रों का अन्दाज़ गलत बैठे हैं लोग जो भी मैंने कहा सुना सारा वापस ले लेता हूं आते को भी जाने वाला आज समझ बैठे हैं लोग ख़लिश कभी कुछ कहना भी कितना मुश्किल हो जाता है सब से चुप्पी का आलम है, पास मग़र बैठे हैं लोग. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ 00000000000 From: "parmod moudgil" <p2ptto@yahoo.com> Date: Tue, 13 May 2008 03:57:16 -0700 (PDT) बहुत सुन्दर एक शे‘र मेरी अपनी नासमझी पर हैं अभी आये अभी कैसे चले जाएँगे लोग हमसे नादां को क्या और कैसे समझाएंगे लोग श्याम सखा ================= १५३७. जाने क्या मैंने कह डाला लोग बने दुश्मन सारे जाने क्या मैंने कह डाला लोग बने दुश्मन सारे बदल गये सहरा में मेरे जितने थे मधुबन सारे दिल की बातें साफ़ ज़ुबां पर आयें तो ही बेहतर है खामखयाली में कितने ही उलझ गये जीवन सारे जब हमराही आज बने हैं अलग अलग चलना कैसा ख्याल रहे हम कांटों से ही न भर दें उपवन सारे राह न भूलें हम फ़र्ज़ों की चाहे ख़ुशियों को ढूंढें जो पथ से डिग जाते हैं वो करते हैं क्रन्दन सारे ख़लिश डगर मुश्किल है ये, हर गाम फिसलने वाला है जो मंज़िल तक पहुंचे उस के कटते हैं बन्धन सारे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५३८. वक्त गुज़रा वो याद आता है वक्त गुज़रा वो याद आता है कोई अहसास फिर जगाता है जो गया चला गया लेकिन उस का हर लफ़्ज़ मुस्कराता है छूना मुझे कभी उस का आज भी गुदगुदी उठाता है लमहा जुदाई का लेकिन एक आग सी लगाता है वो न आएंगे पलट के अब आस नाहक ख़लिश लगाता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५३९. कौन दुनिया में मुकम्मिल हो सका है आज तक कौन दुनिया में मुकम्मिल हो सका है आज तक कौन किस के दिल में दाखिल हो सका है आज तक अपने अपने दायरे में जी रहे हैं लोग सब कौन किस के ग़म में शामिल हो सका है आज तक कोई जब जाता है आंखें भीगतीं हैं झूठ सी कोई न रोने के काबिल हो सका है आज तक फ़िक्र अपनी ज़िन्दगी की है सभी को किंतु कौन ग़ैर की ख़ुशियों में गाफ़िल हो सका है आज तक फ़ैसला औरों का करें पर हो जाती मामला तो ख़लिश कोई न आदिल हो सका है आज तक. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५४०. मैं जो भी वादे करता हूं सभी अधूरे रह जाते हैं मैं जो भी वादे करता हूं सभी अधूरे रह जाते हैं सपने सारे खुले पलक तो पल भर में ही ढह जाते हैं यूं तो मुझ को दुनिया में ग़म मिलते रहे हमेशा लेकिन तनहाई में रो लेता हूं और सभी ग़म बह जाते हैं यूं तो मुझ को नहीं मिली है ख़ुशी कोई भी इस जीवन में लेकिन कुछ फ़ितरत है ऐसी दर्द मुझे सब सह जाते हैं ये सच है मुश्किल के लमहों से तकलीफ़ बहुत होती है धीर धरो ये क्षणभंगुर हैं, यह आते हैं, वह जाते हैं मोह ममता और इच्छा से ही सारे दुख होते हैं जग में ख़लिश कोई माने न माने, हम तो सब से कह जाते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५४१. जो दिल को दुखायें औरों के उस के दिल को आराम नहीं जो दिल को दुखायें औरों के उस के दिल को आराम नहीं ऐसों से अधिक ज़माने में होता कोई बदनाम नहीं तोड़ें कानून तो बदले में देतीं हैं अदालत कड़ी सज़ा दिल तोड़ने का ज़ुर्मों की फ़हरिस्तों में होता नाम नहीं हम मीठे सुर में बात करें तो ख़ुशियां दूनी होती हैं जो दिल को तोड़ें लफ़्ज़ों से ये तो कोई वाज़िब काम नहीं है शय लफ़्ज़ों की बहुत बुरी, विष से भी कड़वी होती है ये सच है कि इस से बढ़ कर ज़हरीला कोई जाम नहीं ग़र घाव लगे है जिस्मानी कुछ देर हुए भर जाता है भर जायें दिल के घाव ख़लिश ऐसा होता अंज़ाम नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५४२. जो दिल तड़पे है उल्फ़त में उस दिल से आंसू बहते हैं जो दिल तड़पे है उल्फ़त में उस दिल से आंसू बहते हैं खामोश ज़ुबां है नैन मग़र दर्दों की बानी कहते हैं पहले ख़ुद मिलने आते थे अब आते नहीं बुलाने पर तुम वादे रखते याद नहीं हम तारे गिनते रहते हैं जब याद कोई आ जाती है बरसातें होने लगती हैं रातों रातों को जग के हम तनहाई में ग़म सहते हैं कोई वक्त कभी ऐसा आता इक दिन को मेरे हो जाते तुम ठंडा कर जाते दिल में अंगारे मेरे दहते हैं ये उम्र ख़लिश कट जायेगी है ख़बर नहीं आओगे तुम इस भंवर में इक वादे को ही तिनके की माफ़िक गहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ मई २००८ १५४३. क्या कहिये दिल की हालत को जब देख के वो शरमाते हैं –ईकविता, १४ मई २००८ क्या कहिये दिल की हालत को जब देख के वो शरमाते हैं है एक अदा ये ही जिस पर हम भी जी जान लुटाते हैं वो नाज़ुक लब नूरानी रुख आंखों में शोले चमके हैं जिन पे ये बिजली गिरती है वो जीते जी मर जाते हैं उन के आने से दिन निकले वो जायें अन्धेरा छा जाये उन की हर एक अदा से सौ पैग़ाम ज़िगर तक आते हैं वो मिल जायें तो जीना है वरना जीने में क्या रखा यूं तो ख़्वाबों में पा कर उन को रातें लोग बिताते हैं अब और ख़लिश क्या बतलाएं आज़िज़ आये हैं हम उन से न दूर वो हम से जाते हैं, न पास हमारे आते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ मई २००८ १५४४. क्यों ज़िन्दगी में कोई है इस तरह से आया—ईकविता, १६ मई २००८ क्यों ज़िन्दगी में कोई है इस तरह से आया वो तो नहीं मिला बस उस का मिला है साया छिपता रहा वो मुझ से अपना मुझे बना कर मैंने तो उस का खाली इक अक्स ही है पाया वो तो चला गया पर ग़म अपने दे गया है एहसास उस का अब तक दिल में रहा समाया चाहा था उस को मैंने, ये ही ख़ता थी मेरी क्या मिल गया उसे जो उस ने मुझे मिटाया कब तक ख़लिश जिऊं बस यादों के ही सहारे क्यों प्यार न किसी ने मुझ से कभी निभाया. --तर्ज़: रहा गर्दिशों में हर दम, मेरे इश्क का सितारा महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ मई २००८ ००००००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Add Date: Sat, 17 May 2008 03:09:22 -0700 (PDT) कुछ कटी हिम्मते-सवाल में उम्र कुछ उम्मीदे-जवाब में गुज़र गई [फ़ानी] जो मिल के फिर न मिल सका तक़दीर को न भाया क्यों ज़िन्दगी में फिर कोई इस तरह न आया? [क्या खलिश थी या फिर रंजिश] ००००००००००००००००० १५४५. हिन्दी हो चाहे उर्दू हो मतलब है दिल की बात कहूं –ईकविता १५ मई २००८ हिन्दी हो चाहे उर्दू हो मतलब है दिल की बात कहूं चाहे गद्य, चाहे पद्य बिन समझाये न बात रहूं जो कहना है वो कह डालूं ग़र भाव भरे हों उस में तो काफ़िया अगर न मिल पाये कुंठा क्योंकर दिन रात सहूं शायर अपने लफ़्ज़ों में दिल का दर्द छुपाये फिरता है बेहतर है जो भी लफ़्ज़ मिले रच गज़ल उसी के साथ बहूं एक दिशा सिरफ़ दिखलाने को व्याकरण गज़ल का होता है ऐसा न हो जाये ज्यादा बंधन ख़ुद अपने हाथ गहूं लिखता हूं गज़ल ख़लिश अपने दिल के जज़्बात बताने को कोई चूक अग़र हो जाये क्यों दिल में रख के ये बात दहूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ मई २००८ ००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Thu, 15 May 2008 08:00:40 -0700 (PDT) दिल ने दिल की बात समझ ली अब मुंह से क्या कहना है खलिशजी, सब कुछ आपने गज़ल/हज़ल के माध्यम से कह ही दिया है छोडो़ अब क्या कहना है ००००००००००००००० १५४६. ये उम्र बीती इस तरह सोते हुए जगते, जगते में गफ़लतों में और सोते में ख़्वाब में – ईकविता १७ मई २००८ ये उम्र बीती इस तरह सोते हुए जगते, जगते में गफ़लतों में और सोते में ख़्वाब में आधी तो हिम्मते-सवाल में ही कट गयी, बाकी बिता रहे हैं उम्मीदे-जवाब में सोचा था उन का साथ मिलेगा जो सफ़र में, ये ख़ुशनुमा हो जायेगा रस्ता-ए-ज़िन्दगी जैसी भी कट रही थी सब बर्बाद हो गयी, कच्चे रहे हम ज़िन्दगानी के हिसाब में करने चले थे इश्क तमाशा सा बन गये, रुसवाई-ओ-शिकवा के सिवा कुछ न मिल सका हासिल हुआ ख़ुदा न हमें वो ही मिल सके, वरके मिले खाली मोहब्बत की कि़ताब में वो मिल भी गये अब तो पूछेंगे सनम ज़रा इतना तो हमें पूछ के ख़ुद से बताइये क्या अब भी वो मस्ती छुपा रखी है आप ने, जैसी कभी होती थी नज़र की शराब में अब ज़िन्दगी की शाम है राहों में बैठ कर, यूं सोचते है किस तरफ़ रखें थके कदम मस्जिद यहां है तो ख़लिश वहां है मयकदा, खानए-ख़ुदा को जायें या खानए-ख़राब में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ मई २००८ ०००००००००००००० From: "Ripudaman" <pachauriripu@yahoo.com> Date: Sat, 17 May 2008 04:03:57 -0700 (PDT) और .... उम्रे दराज़ माँग कर लाए थे चार दिन दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तेज़ार में ०००००००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Sat, 17 May 2008 07:29:31 -0700 (PDT) Subject: [ekavita] उम्र बीती सोते..खलिशजी की! खलिशजी के मालिशे-मस्तिष्क के लिए ज़फ़र की दो पंक्तियां: उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन दो आरज़ू में कट गए दो इंतेज़ार में 0000000000000 एद मैं न फिसल जाऊँ क़दम को रोकता गया मंज़िल का क्या भरोसा यही सोचता गया न ये सफ़र चुके पर मैं चलता ही रहूंगा मंज़िल जो न मिली मैं राहें मोड़ता गया ये रास्ते तनहा हैं, न संगी है न साथी आवाज़ कुछ सुनूं, मैं ख़ुद से बोलता गया मैं न बुलन्दियाँ किसी वली की पा सका दुनिया को दौलतों से ही मैं तोलता गया वक्तेरुखसत है आ गया ये जान कर ख़लिश माज़ी में बन्द यादों को मैं खोलता गया. १५४७. मैं न फिसल जाऊँ क़दम को रोकता गया–RAS-- ईकविता, १८ मई २००८ मैं न फिसल जाऊँ क़दम को रोकता गया मंज़िल का क्या भरोसा यही सोचता गया न ये सफ़र चुके पर मैं चलता ही रहूंगा मंज़िल जो न मिली मैं राहें मोड़ता गया ये रास्ते तनहा हैं, न संगी है न साथी आवाज़ कुछ सुनूं, मैं ख़ुद से बोलता गया मैं न बुलन्दियाँ किसी वली की पा सका दुनिया को दौलतों से ही मैं तोलता गया वक्तेरुखसत है आ गया ये जान कर ख़लिश माज़ी में बन्द यादों को मैं खोलता गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ मई २००८ ००००००००००००० From: "krishna kanhaiya" <kanhaiyakrishna@hotmail.com> Date: Mon, 19 May 2008 06:36:11 +0000 khalish Saheb, Bahut umda kahate hain Aapki sonch bahut door tak hain aur bahut aalag bhi. Labhanwit karate rahiyaga. Krishna Kanhaiya ००००००००००००००००००० १५४८. पूछते हैं वो वज़ह क्या थी मेरे इंकार की पूछते हैं वो वज़ह क्या थी मेरे इंकार की किस तरह कर दूं बयां नाज़ुक अदावत प्यार की है नहीं मुमकिन निभाना वो बहुत हैं मुख्तलिफ़ आदतें रंगीन हैं ज्यादा ही मेरे यार की आज सोचा आईने में शक्ल अपनी देख लूं अब तलक आलोचना करता रहा संसार की क्या पता किस दिन जहां से कूच कर जाऊं ऐ दोस्त आओ बैठो बात कर लें काम की बेकार की वो ख़लिश तब आये हैं जब ज़िन्दगी की शाम है कब तलक रहती तमन्ना यार के दीदार की. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ मई २००८ १५४९. कितना हसीं है ज़िन्दगी का आखिरी नग़मा कितना हसीं है ज़िन्दगी का आखिरी नग़मा फूटे है माज़ी से कोई नाख़त्म सा चश्मा ये ज़िन्दगी की शाम भी रंगीन है बहुत भूली हुयी यादें लगाने आयी हैं मज़मा थक सी गयीं हैं धड़कनें रुक जायें तो बेहतर कुछ ग़म नहीं लग जाये ग़र दिल को मेरे सदमा कुछ तो बताना या छिपाना चाहते हो तुम है क्या वज़ह इतना रहे हो आज तुम शरमा बेटा-बहू हंस हंस के ख़लिश ज़ुल्म कर रहे औलाद ख़ुश है सोच के दिन काटती है मां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ मई २००८ १५५०. दुनिया बनाने वाले, दुनिया ये क्यों बनायी दुनिया बनाने वाले, दुनिया ये क्यों बनायी सब ओर गर्दिशें ही गर्दिश पड़े दिखायी आओगे एक दिन तो, कब तक छिपोगे हम से हम एक हैं तो आखिर, है किसलिये जुदाई रिश्ता हमारा क्या है, क्यों पूछते हो हम से अपने ही दिल से पूछो, देगी सदा सुनायी आलम-ए-बदहवासी बरपा है इस जहां में रहबर जो है सभी का, फांसी उसी ने पायी जी कर भी क्या करेंगे माहौलेबेरुखी में बेहतर है आज ले लें सब से ख़लिश विदाई. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ मई २००८ |