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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१५५१. मुमकिन नहीं है उन को ता-उम्र भूल जायें –RAS--ईकविता, १९ मई २००८ मुमकिन नहीं है उन को ता-उम्र भूल जायें जीते हैं सोच कर ये शायद वो लौट आयें पायी थी इक झलक और उन के ही हो गये हम करते हैं प्यार उन से, कैसे उन्हें बतायें जिस दिन से उन को देखा, अपने को भूल बैठे कोई नहीं है दूजा जिस से ये दिल लगायें क्या चीज़ है मोहब्बत ये न पता था हम को करते हैं प्यार जिन से वो ही सितम भी ढायें कोई तो इस जहां में ग़म बांटता हमारा अफ़साना-ए-मोहब्बत किस को ख़लिश सुनायें. तर्ज़— तक़दीर का फ़साना जाकर किसे सुनाएं इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ मई २००८ ०००००००००००००००० Tuesday, 20 May, 2008 12:25 AM From: "Dr. Rama Dwivedi" ramadwivedi@yahoo.co.in बहुत सुन्दर ग़ज़ल है खलिश साहब ... क्या चीज़ है मोहब्बत ये न पता था हम को > करते हैं प्यार जिन से वो ही सितम भी ढायें > > कोई तो इस जहां में ग़म बांटता हमारा > अफ़साना-ए-मोहब्बत किस को ख़लिश सुनायें. .....मुबारकवाद.... ---Dr. Rama Dwivedi ०००००००००००००० १५५२. हम ने जो प्यार किया उन से दो दिन की फ़कत कहानी थी – ईकविता, २० मई २००८ हम ने जो प्यार किया उन से दो दिन की फ़कत कहानी थी पर उन दो दिन में ही हम ने जी ली भरपूर जवानी थी क्या मस्ती का वो आलम था बांहों में उन की रहते थे होती रग रग में गर्म खून की ज्यों दिन रात रवानी थी जब तक ये रही हकीकत हम जी खोल मोहब्बत किया किये मालूम हमें था इक दिन ये माज़ी में ही ढल जानी थी उन में हम में था फ़र्क बहुत, थे मज़हब, उम्र अलग दोनों उस वक्त मग़र मज़हब-ए-उल्फ़त की ही बात सुनानी थी जाने वो कहां गये लेकिन महफ़ूज़ ख़ुदा रखे उन को अब उम्र ढले कह चले ख़लिश, कब तक ये बात छिपानी थी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ ००००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Tue, 20 May 2008 01:15:37 -0700 (PDT) आप की जवानी की कहानि में जो रवानी है, उसे सुनानी पडी़ तो जो बात छुपानी थी वो अब जग-जानी हो गई। अब न कोई रंजिश, न कोई खलिश!!!!! 0000000000000 From: "Prem Sahajwala" <pc_sahajwala2005@yahoo.com> Add Date: Tue, 20 May 2008 04:30:48 -0700 (PDT) आप की जवानी आप की ज़बानी मेरी जवानी याद कर के याद आ जाती है नानी मैं उससे इजहार कर नहीं पाता था और वो सब को सुनाती रहती थी एक बुद्धू लड़के की कहानी एक दिन मेरे सपनों की रानी बन गई किसी और की patraani और मेरे pass रह गई सिर्फ़ मेरी प्रेम कहानी ००००००००० १५५३. तोहफ़ा-ए-दिल को ले कर हम तो गये मनाने तोहफ़ा-ए-दिल को ले कर हम तो गये मनाने करते रहे वो हम से झूठे मग़र बहाने सिर को पटक के हम ने चौखट पे फोड़ डाला वो तो न आये लेकिन लोग आ गये भगाने चाहत थी हम को सच्ची, ये वो भी जानते थे वो ग़ैर की मोहब्बत में हो रहे दिवाने अब उम्र ढल गयी तो सोचा कि हर्ज़ क्या है अफ़साना-ए-मोहब्बत सब को चले सुनाने दुनिया में किसलिये है रुसवा ख़लिश मोहब्बत हम तो गवां के दिल और जां न ये राज़ जाने. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५५४. कुछ धूप मिली कुछ छांह मिली कुछ फूल मिले कुछ खार मिले कुछ धूप मिली कुछ छांह मिली कुछ फूल मिले कुछ खार मिले कुछ बिछुड़ गये न आने को, कुछ गये मग़र कई बार मिले अपना या कोई पराया था ये कह सकना नामुमकिन है ग़ैरों ने माला पहनायी अपने ले के तलवार मिले कितनों ने दिल तोड़ा मेरा कितनों ने दिया सहारा है जो तोड़ गये दिल वो ही थे आंखों में ले कर प्यार मिले सौ घूंट पिये इस जीवन में कुछ कड़वे भी कुछ मीठे भी न मुझे तमन्ना है कोई कि और अधिक संसार मिले है ख़लिश बहुत अहसान सभी से अब मैं रुखसत लेता हूं इंशाअल्लाह अगले जनमों में भी सब का दीदार मिले. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५५५. मत पूछो मुझ से क्या मैं तुम को बतलाऊं कि कैसा हूं —ईकविता, २० मई २००८ मत पूछो मुझ से क्या मैं तुम को बतलाऊं कि कैसा हूं तुम जैसा छोड़ गये मुझ को बिल्कुल वैसा का वैसा हूं यह बात अलग है साथ वक्त के तुम तो बदल गये कितने मैं बाट जोहता रहा किनारे पर, जैसा का तैसा हूं मैं बिना ऋतु का पौधा हूं जिस को बहार से काम नहीं जिस में न कोई गंध-रूप, मैं उसी फूल के जैसा हूं दरकार नहीं मुझ को इन की, ये मोहरें तुम्हें मुबारक हों जिस के दिल में है छेद, समझ लो वो ताम्बे का पैसा हूं ढालो मदिरा पैमाने में, जी भरो ख़लिश मधुपान करो जो रहे बंद बोतल में ही, मैं तो उस प्यासी मय सा हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ 0000000000000 From: "parmod moudgil" <p2ptto@yahoo.com> Date: Tue, 20 May 2008 08:13:11 -0700 (PDT) केवट -निषाद ने भी तो यही कहा था जब राम ने लौट्ने पर उससे पूछा तब ‘प्रभु वैसा ही जैसा आप मुझे छोड़कर गये थे -खलिश जी श्यामस्खा श्याम १५५६. आंसुओं का कौन है मेरे जो मोल दे – ईकविता, २२ मई २००८ आंसुओं का कौन है मेरे जो मोल दे कड़वे जहां में दो वचन मीठे जो बोल दे हाथों की लकीरों में है लिखा नहीं कुछ भी कोई नहीं तक़दीर के ताले जो खोल दे शायर के तसव्वुर से क्या दुनिया को है मतलब अहसास दिल का क्यों कोई चान्दी से तोल दे हर बात में उस की भरा है बेतरह ज़हर सोचा था मैंने कान में मिसरी सी घोल दे गर्दिश में रह के जी चुका अब तक ख़लिश बहुत तू ज़िन्दगी अपने ही हाथों आज रोल दे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५५७. एक वो भी वक्त कभी था जब वो हम से उल्फ़त करते थे एक वो भी वक्त कभी था जब वो हम से उल्फ़त करते थे जिस दिन उन से न मिल पायें उस रात वो आहें भरते थे जब मिलने का मौसम था तो हर शाम दिवाली होती थी आने से पहले घंटों तक वो सजते और संवरते थे सूरत को हमारी देखें तो चेहरा रौशन हो जाता था हम को अपने दर पे पा कर लहरा के वो पग धरते थे कुछ आलम बदल गया है अब कोई साया ग़ैर पड़ा जैसे नज़रें वो आज चुराते हैं कल तक जो हम पे मरते थे तुम भी अब ख़लिश बदल जाओ जब प्यार तुम्हारा बदल गया कर दो माज़ी में बंद उन्हें जिनके शिकवों से डरते थे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५५८. यादों में कोई मुझ को नग़मा सुना रहा था यादों में कोई मुझ को नग़मा सुना रहा था सदके मेरे तसव्वुर, क्या लुत्फ़ आ रहा था ये बात और है कि माज़ी में सब दबा है पर कोई वक्त उन के मैं दिल पे छा रहा था पल भर को दूर जाऊं तो वो पुकारते थे एहसास उन का रंगीं सपने दिखा रहा था दिन बेशकीमती थे, लमहा ख़ुशी से इक इक वो भी बिता रहे थे, मैं भी बिता रहा था है याद दिन ख़लिश जब वो हो गये पराये वो हंस रहे थे और मैं आंसू बहा रहा था. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५५९. पर्दानशीन यूं कहते हैं क्यों बूढ़े घूरा करते हैं –ईकविता, २१ मई २००८ पर्दानशीन यूं कहते हैं क्यों बूढ़े घूरा करते हैं एहसास जवानी के बाकी थे, उन को पूरा करते हैं बंदूक तनी हो सीने पर भीतर गोली का नाम न हो इस को ग़र ज़ुर्म कहें तो भी वे ज़ुर्म अधूरा करते हैं डाका न पड़ा चोरी न हुई, न माल इधर से उधर हुआ कसरत कर के बस आंखों से चीनी को बूरा करते हैं भूरी आंखों वाली उन को भा जाये अग़र तो माज़ी की महबूबाओं की आंखों को सपनों में भूरा करते हैं कुछ रहम ख़लिश उन पर बख्शो, अरमान सजाते हैं कितने फिर गौर हकीकत पर कर के ख़्वाबों का चूरा करते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ 000000000 From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Wed, 21 May 2008 02:06:22 -0700 (PDT) बडे मिया दीवाने ऐसे न बनो हसीना क्या चाहे हम से सुनो ०००००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Wed, 21 May 2008 06:30:15 -0700 (PDT) ढलती उम्र को छोड़ जवानी को पुकारा तुमने अपनी कविता को श्रंगार से संवारा तुमने ०००००००००००००००० १५६०. था पहली बार मिला तुम से पर भूल नहीं पाया अब तक था पहली बार मिला तुम से पर भूल नहीं पाया अब तक सूरत जो बैठ गयी दिल में उस ने है भरमाया अब तक दिल पहली बार लगाया था इक ठेस लगी और टूट गया बस रहा है मेरे माज़ी में वो ख़ौफ़नाक साया अब तक मत वफ़ा मोहब्बत में ढूंढो दुनिया ने कितना समझाया मैं भूल गया खमियाज़ा इस का सदा उठाया है अब तक हमसफ़र बने थे दो दिन को, दोनों की राहें जुदा हुयीं पर उन लमहों की यादों ने कई बार रुलाया है अब तक मैं तो बेकार निकम्मा हूं, तुम मिलो मुकम्मिल चाहा था मुझ में है ख़लिश यही ख़ूबी कि तुम्हें सताया है अब तक. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ १५६१. जो बात उन्हें मामूली थी, मेरी जां को बन आयी है –ईकविता, २३ मई २००८ जो बात उन्हें मामूली थी, मेरी जां को बन आयी है उन का तो एक इशारा था और हम ने ठोकर खायी है दिल आप लगाया था हम ने, इलज़ाम उन्हें हम क्या दीजे दुनिया ने तो समझाया था मत प्यार करो हरजाई है बेहतर है दिल के ग़म को हम दिल में ही रखें छिपा कर के दुनिया को बतला देने से तो मिलती बस रुसवाई है अब लुटा दिया है सब कुछ तो क्या होगा रोने से हासिल बाकी जीवन की फ़िक्र करो वो बन सकता सुखदायी है राहेउल्फ़त पे चलने से पहले ही आगाह हो जायें तो दिल न टूटेगा इतना, ये बात ख़लिश समझायी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० मई २००८ ०००००००००००००० From: "Ripudaman" <pachauriripu@yahoo.com> Date: Thu, 22 May 2008 23:34:41 -0700 (PDT) वाह बहुत खूब ...... खलिश जी.... ~ रिपुदमन पचौरी... ००००००००००००० १५६२. कब चुकेगा मेरी ज़िन्दगी का सफ़र कब चुकेगा मेरी ज़िन्दगी का सफ़र हर घड़ी, दिन, महीना बरस आज तक मैं निरंतर चला हूं, चला जा रहा कोई मंज़िल नहीं कोई छाया नहीं राह से ज़िन्दगी की छला जा रहा मैं हकीकत से अपनी रहा बेख़बर जानता है नहीं कोई किस रोज़ मैं एक दिन यूं ही राहों में खो जाऊंगा जो न सपनों से विचलित कभी हो सके एक ऐसी ही निद्रा में सो जाऊंगा लोग देंगे उसे नाम मेरी कबर राह में जब तलक बिन रुके मैं चला फ़िक्र करता रहा था मैं प्रत्येक दिन आज यूं रुक गया, आखिरी है कदम और जीना नहीं है मुझे एक दिन आज हो जाऊंगा मैं ख़लिश ज्यों अमर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ मई २००८ १५६३. वो कहते हैं हम जल्दी से कैसे कविता लिख लेते हैं –RAS-- ईकविता २१ मई, २००८ वो कहते हैं हम जल्दी से कैसे कविता लिख लेते हैं हम क्या बतलायें ये नैय्या क्यों जल्दी जल्दी खेते हैं सब उम्र बिता दी बस यूं ही न पढ़ा-लिखा हम ने कुछ भी अब काल विराजा है सिर पर तो हम सहसा ही चेते हैं कल का है नहीं भरोसा कुछ और आज समय कुछ ठीक नहीं जो मन में आये इसीलिये हम जल्दी से लिख देते हैं यूं ख़बर हमें है मतलब की इन शेरों में कुछ बात नहीं शायद फिर भी ये छप जायें, ऐसे सपनों को सेते हैं मत ख़लिश इन्हें पढ़ कर हंसना, हैं उपज फ़क़त दस मिनटों की जेते मज़बून अज़ब मेरे ये शेर अजब भी तेते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ मई २००८ तर्ज़— वो पास रहें या दूर रहें नज़रों में समाए रहते हैं 0000000000000000 From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Wed, 21 May 2008 10:21:36 -0700 (PDT) जाने कैसे जल्दी से कविता लिख देते हैं लोग सॊचते ही रहते हैं हम, झट से कह देते हैं लोग 00000000000 From: "Kunwar Bechain" <kunwar.ekavita@yahoo.com> Date: Thu, 22 May 2008 07:05:23 -0700 (PDT) Subject: Re: [ekavita] Fw: दो मुक्तक स्नेही महेश गुप्ता जी नमस्कार म्रेरे मुक्तकों पर आपकी प्यारी प्रतिक्रिया मुझे आनंदित कर गई | किसी भी रचनाकार को पाठकों की प्रतिक्रियाऐं बहुत प्रेरणा देतीं हैं | और अगर ये प्रतिक्रियाएं आप जैसे सुधी लेखक की हों तो उसका महत्व और भी बढ़ जाता है | आपकी तुरत-फुरत लिखी ग़ज़ल भी बहुत मज़ेदार है | स्नेह बनाए रखें कुंअर बेचैन ००००००००००००० १५६४. आप महफ़िल में आये बहुत शुक्रिया, रंग महफ़िल का अब और बढ़ जायेगा – ईकविता २२ मई २००८ आप महफ़िल में आये बहुत शुक्रिया, रंग महफ़िल का अब और बढ़ जायेगा सुन कलाम आप का दिल तड़प जायेगा, कुछ सरूर आज ज्यादा ही चढ़ जायेगा किस तरह हम बतायें हमारे लिये आप क्या हैं यही जान लीजे सनम ज़िन्दगी से हमारी अग़र जायेंगे, प्राण तन से उसी दिन बिछड़ जायेगा बागेहसरत में रखा है हम ने कदम, आप को देख कर ही धड़कता है दिल ग़र निगाहें कभी फेर लीं आप ने, बाग से फूल जैसे उखड़ जायेगा आप भूले से कर दें इशारा कभी, कौन जाने उठे, कौन जाने गिरे जो उठे आसमां की बुलन्दी मिले, जो गिरेगा ज़मीं में वो गड़ जायेगा आप का हुस्न सदियों सलामत रहे, देख कर आप को हम भी जीते रहें न ख़लिश पर हकीकत से मुंह मोड़िये, रूप ये चार दिन में ही झड़ जायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ मई २००८ तर्ज़— रुख से परदा हटा दे ज़रा साकिया, बस अभी रंगेमहफ़िल निखर जायेगा १५६५. रो के रातों में बहुत दिल को मनाया मैंने रो के रातों में बहुत दिल को मनाया मैंने सभी अरमान-ओ-ख़्वाहिश को मिटाया मैंने जब भी हसरत-ओ-तमन्नाओं ने दी है आवाज़ सारे अहसास कुचल के है दबाया मैंने जो भी कलियां थीं उम्मीदों की मसल डालीं हैं जीना तनहाई में है मन को सिखाया मैंने माफ़िकेअजनबी समझूंगा मिलोगे जो कभी न ये सोचूंगा गले से था लगाया मैंने कोई अब तुम से मुझे चाह नहीं गर्ज़ नहीं तुम हो आज़ाद चलो दिल से भुलाया मैंने हो गयी राह जुदा आज तुम्हारी मेरी फिर न कहना ये ख़लिश क्यूं न बुलाया मैंने. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ मई २००८ तर्ज़— १५६६. कोई अब दर्द नहीं, फ़िक्र नहीं, आस नहीं कोई अब दर्द नहीं, फ़िक्र नहीं, आस नहीं दिलेबरबाद में अब कोई भी अहसास नहीं कभी महफ़िल में मेरे दिल को सुकूं आता था आज है चैन मुझे कोई मेरे पास नहीं जिसे पाने की बहुत दिल में तमन्ना रखी अब ज़रूरत ही रही उस की कोई ख़ास नहीं मुझे तारीक मकानों में बसर करने दो ये बहारों का समां आज मुझे रास नहीं अभी नोचो न ख़लिश ऐसे गिरेबां मेरा सांस चलती है अभी पूरी तरह लाश नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ मई २००८ १५६७. जिये तुम्हारे संग ऐसे कि मरते मरते जिया किये जिये तुम्हारे संग ऐसे कि मरते मरते जिया किये अमृत नहीं ज़हर के प्याले हम जीते जी पिया किये तुम से करते गिला अग़र तो क्या उस से हासिल होता अपनी नादां किस्मत को ही दोष बराबर दिया किये तुम से कुछ उम्मीद नहीं थी न थी कभी ज़माने से बंद ज़ुबां रखी और अपने होठ बराबर सिया किये ज़ुल्म सितम सहते आये हैं जब से हम ने जन्म लिया जां छूटे और चैन मिले बस यही दुआ हम किया किये मुज़रिम हो कोई भी लेकिन सज़ा हमें ही मिलनी थी जान बूझ कर अपने सर इलज़ाम ख़लिश हम लिया किये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ मई २००८ १५६८. ज़िन्दगी की गज़ल न लिखी जा सकी, काफ़िये पर अटक के अटकती रही –RAS-- ईकविता, २३ मई २००८ इक गज़ल ज़िन्दगी की न लिख पाये हम, काफ़िये पे जो अटकी अटकती रही इब्तदा हो गयी, न मुकम्मिल हुयी, बाद मतले के जैसे भटकती रही ज़िंदगी चल पड़ी, चाल न बन सकी, न तो राह ही मिली, न ही मंज़िल मिली न इधर जा सकी न उधर जा सकी, बन के जैसे त्रिशंकु लटकती रही शायरी की तो गागर अधूरी रही, पनघट पे कदम ही पहुँच न सके कोई नार ज्यों पनिया भरन को चली और डगर में वो सिर्फ़ मटकती रही व्याकरण सीख पाया गज़ल का नहीं, भेद अरकान का भेद ही रह गया लफ़्ज़ तो जुड़ गये पर न जज़्बात थे, औ’ कमी भी वज़न की खटकती रही अब है आलम कि मकते का वक्त आ गया, सिर्फ़ भानुमती का पिटारा बना कीजिये क्या न काबिल हुये हैं ख़लिश, इक गज़ल बिन बहर ही सिसकती रही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मई २००८ ००००००००००००००० From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com> Date: Sat, 24 May 2008 07:05:58 -0700 (PDT) महेश जी: सुन्दर मतला है , >ज़िन्दगी की गज़ल न लिखी जा सकी, काफ़िये पर अटक के अटकती रही >इब्तदा हो गयी, न मुकम्मिल हुयी, बाद मतले के जैसे भटकती रह सादर अनूप ०००००००००००००० Friday, 23 May, 2008 5:58 AM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com वाह !!! आप तो गा़लिब हो गए, ख़लिश जी......( यहाँ गा़लिब का मतलब गा़लिब है, संज्ञा ’गा़लिब’ नहीं) दो दिन पहले आपका सपना आया था विस्तार से नहीं लिख रहा.... पर जो भी लिख रहा हूँ उसका कम से कम मैंने बहुत आनंद लिया। इसलिए सोचा कि आप लोगों को भी बताऊं। सपने में आपकी एक ग़ज़ल का, जो मकता मैं अपनी कापी में टीप रहा था उसके, ऊला में ’दिल’ शब्द था। जैसे ही मैं ’दिल’ शब्द लिखने लगा तो निब, कागज़ में धंस गई और ’दिल’ से खून बहने लगा। मैंने हड़बड़ाहट में कहा ... "ओह माय गौड ये क्या हो गया (और मन में सोचने लगा कि यह अपने महेश जी का दिल तो बहुत सौफ़्ट है रबर की तरह)" यह सुनते सी ’सनी’ ने कहा.... "ये खलिश कहाँ से होती जो दिल के पार होता"इसपर मैने ’सनी’ से कहा... "मेरे पास एक आइडिया है..कि क्यों ना जादू की पिटारी खोल दी जाए; इस दिल में थोड़ी सी सलफ़र घोल दी जाए! "~~सपना समाप्त............ .. ( यह व्यंग नहीं है; मुझे ऐसे ही सपने आते हैं, और जो कुछ लोग मुझे जानते है, वे यह भी जानते हैं कि मैं झूठ नहीं बोलता और मेरे सभी सपने ऐसे ही होते हैं ) खलिश जी, आपकी ग़ज़ल सच में काफ़ी पसंद आई। शेष दिन के लिए मंगल कामनाएं रिपुदमन पचौरी १५६९. क्यों मेरे आज पहलू में फिर आ गये, क्या मेरे पास है जो तुम्हें दे सकूं – RAS--ईकविता, २४ मई २००८ क्यों मेरे आज पहलू में फिर आ गये, क्या मेरे पास है जो तुम्हें दे सकूं मेरे अपने ही ग़म हैं ज़ियादा बहुत, ग़म तुम्हारे मैं शायद न अब ले सकूं एक अरसा हुआ प्यार मैंने किया, पार दरया के तुम तक आया सही वो तुम्हें रास प्यार न आया सनम, नाव टूट चुकी किस तरह खे सकूं ये संदेसा भिजाया है लिख के सनम, न ये जानो कि मिलना मैं चाहता नहीं है ज़ाहिर कि नाज़ुक बात है ये, कह भला किस तरह सामने मैं सकूं यही बेहतर है माज़ी में हम न जियें, भूल जायें जो लमहे गुज़ारे कभी जानता हूं कि कहना ये आसान है, न लगा याद पर मैं पहरे सकूं है मुनासिब ख़लिश न दोबारा मिलें, कौन जाने कि सैलाब आ जाये कब है ख़ुदा जो मेहरबां, बख़्शे रहम, पा चैन मैं उस के करम से सकूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मई २००८ १५७०. दीवाना सा कुछ मौसम हैं, कलियां बागों में आयीं हैं – ईकविता २३ मई २००८ दीवाना सा कुछ मौसम हैं, कलियां बागों में आयीं हैं कोई कहे बहुत ये कमसिन हैं कोई कहे कि ये हरजाई हैं यूं तो मामूली सी उन की मुंह फेर अदा हंसने की है पर सीने पे यकदम मेरे ज्यों छुरियां लाख चलायीं हैं कोई रोके उन्हें तड़पता है, ये दम न आज निकल जाये है सुना कि वो भी शोखी में कुछ आज हुयीं सौदाई हैं अब होना है जो हो जाये हम ने भी बंधन तोड़ दिये बरसात सी है अब होने को ऐसी बिजलियां गिरायीं हैं क्यों ख़लिश करें परवाह कल की, दरपेश है ज़न्नत क्या कीजे एक निगाह जो हम ने डाली है तो ख़ुदा कसम शरमायी हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ मई २००८ १५७१. ताबीर जिस की कुछ नहीं, बेकार का वो ख़्वाब हूं –RAS-- ई कविता, २४ मई २००८ ताबीर जिस की कुछ नहीं, बेकार का वो ख़्वाब हूं पढ़ के भी न समझा कोई, मैं वो अज़ब किताब हूं कोई रंग है न रूप है, न फूल न बहार है मीज़ान जिस का है सिफ़र बिन काम का हिसाब हूं रुख की शिकन दिखती नहीं, आंसू बहें चुपचाप ही सब से छुपाये असलियत, वो रेशमी हिजाब हूं एक लमहा आज़ादी मिली, दूजे में हस्ती न रही जो उम्र-कैद पा चुकी, बोतल की वो शराब हूं लिखता तो हूं गज़ल ख़लिश, न शायरों में नाम है जिस की रियासत न रही, वो नाम का नवाब हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ मई २००८ ०००००००००००० From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com> Date: Fri, 23 May 2008 23:32:51 -0700 (PDT) गुप्ता जी, बहादुर शाह ज़फ़र की याद दिला दी 000000000 १५७२. मैंने इल्म और असूलों की सज़ा पायी है—RAS--ईकविता, २५ मई २००८ मैंने इल्म और असूलों की सज़ा पायी है मुझे कहते हैं सभी, आदमी सौदाई है मेरे लिखने का न मतलब ही कोई समझा है मेरे लफ़्ज़ों से मिला है जो वो रुसवाई है मैं असूलों पे चलूं ये ही सदा चाहा था यही चाहत मेरी अब जान पे बन आयी है राहे-अनजान अकेला ही चला जाता हूं हर तरफ़ मेरे उदासी है औ’ तनहाई है कोई साथी न सही रब है मेरे संग ख़लिश कोई शय रूह में इक रंग नया लायी है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ मई २००८ १५७३. साथी कोई न दोस्ती मुझ से निभा सका – ईकविता, २५ मई २००८ साथी कोई न दोस्ती मुझ से निभा सका मरघट तलक तो ले गया, आगे न जा सका मज़बूर मेरे हाल पे था मेरा खैरख़्वाह मेरी मदद को हाथ न हरगिज़ बढ़ा सका न हो सका इस रास्ते में कोई हमसफ़र राहों की मुश्किलों को न कोई घटा सका मन में ये खौ़फ़ था कि अब आगे बदा है क्या इस का जवाब कोई न मुझ को बता सका जाता हूं कर देना ख़लिश मुझ को मुआफ़ तुम मैं ज़िन्दगी में काम तुम्हारे न आ सका. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ मई २००८ १५७४. हर वक्त मुझे डर लगता है उल्फ़त में मुझे दग़ा देंगे हर वक्त मुझे डर लगता है उल्फ़त में मुझे दग़ा देंगे कोरे पानी की बूंद समझ पलकों से मुझे गिरा देंगे जायेंगे मुझ से दूर बहुत न कोई संदेसा आयेगा ख़त लिखूंगा उन को लेकिन वो खोले बिना जला देंगे अपनी मर्ज़ी से तो हरगिज़ न मुझ को याद करेंगे वो जो ख़्वाबों में आ जाऊंगा, खुलने पे आंख भुला देंगे बेवफ़ा अग़र वो निकले हैं, फ़रियाद से क्या होना हासिल जो फिसल गये किस तरह मोहब्बत का वो तुम्हें सिला देंगे अब ख़लिश भुला दो तुम उन को बस यही प्यार की किस्मत है न ठंडे शोले भड़केंगे ग़र उन को और हवा देंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ मई २००८ १५७५. मुझे ख्यालों में बहुत उस ने बुलाया होगा मुझे ख्यालों में बहुत उस ने बुलाया होगा मेरी राहों में निगाहों को बिछाया होगा उस के दिल ने मुझे पैग़ाम भिजाये होंगे जब किसी ग़म ने उसे फिर से सताया होगा शय-ए-बदरंग कोई चार-सू छायी होगी हौसला उस का किसी ने न बंधाया होगा उस ने रो रो के मदद सब से ही मांगी होगी हाथ लेकिन न किसी ने भी बढ़ाया होगा बेबसी में न कोई राह दिखी होगी तो कांपते हाथ से माचिस को लगाया होगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ मई २००८ |