\"Writing.Com
*Magnify*
SPONSORED LINKS
Printed from https://shop.writing.com/main/books/entry_id/627009-Poems--ghazals--no-1576--1600-in-Hindi-script
Item Icon
\"Reading Printer Friendly Page Tell A Friend
No ratings.
Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627009 added December 31, 2008 at 9:51am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1576- 1600 in Hindi script

१५७६. संसार में आ कर मानव को अपना कर्तव्य निभाना है—ईकविता, ६ जून २००८

संसार में आ कर मानव को अपना कर्तव्य निभाना है
क्यों मोह माया में उलझा कर अपने दिल को भरमाना है

एक उस का अग़र करम हो तो दुखड़े मिट जायें जन्मों के
कर लो उस का सिमरन उस को जो अंत समय में पाना है

मानव तन पाया है तो क्यों पशुओं का जीवन जीते हो
खाने पीने सोने में ही क्यों सारा वक्त बिताना है

नाहक इच्छायें मत पालो, इच्छा ही दुख की जननी है
केवल इच्छा रखो उस की जिस से ये दूर ज़माना है

बन के स्थितप्रज्ञ जियो ऐसे मन इच्छाओं से खाली हो
ऐसा हो जायेगा जिस दिन तो स्वर्ग तुम्हें मिल जाना है.
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ मई २००८











१५७७. हम राहे-मोहब्बत चल न सके–-RAS-- ईकविता, ३ जून २००८

हम राहे-मोहब्बत चल न सके
ठोकर वो लगी कि सम्हल न सके.

कीं बहुत कोशिशें, न मिला कुछ मग़र
स्वप्न की छांव में हम पल न सके

इस कदर हम फंसे इश्क के जाल में
लाख चाहा मग़र हम निकल न सके

हालेदिल की सभी को ख़बर हो गयी
चाह कर भी ज़माने को छल न सके

काश अंज़ाम ऐसा न होता ख़लिश
एक सांचे में दोनों ढल न सके.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ मई २००८







१५७८. बन के मेरा दोस्त जो भी आयेगा -- RAS– ईकविता, ३१ मई २००८


बन के मेरा दोस्त जो भी आयेगा
संग वो अपने छुरी भी लायेगा

है बहुत हुशियार इंसां आज का
सारी दुनिया को धता बतलायेगा

ग़र कहूं रस्ता तुम्हारा गल्त है
कह के "तुम को क्या पड़ी", गुर्रायेगा

जेब में धेला न होगा एक भी
रौब दुनिया पे मग़र जतलायेगा

है ख़लिश इंसां बहुत मग़रूर जो
नाम न दुनिया में वो कर पायेगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ मई २००८







१५७९. जब याद तुम्हारी आती है दिल को कुछ कुछ हो जाता है –ईकविता, १ जून २००८

जब याद तुम्हारी आती है दिल को कुछ कुछ हो जाता है
सहरा में कभी गुम होता है, वादी में कभी खो जाता है

आंखों में ख़ुशी होती है कभी, और कुछ पल ऐसे होते हैं
राह तकती थकी हुयी पलकों को ग़म आ कर धो जाता है

जब तुम्ही समायी हो दिल में और नैन मेरे मुंद जायें तो
अहसास तुम्हारा कितने ही नये ख़्वाबों को बो जाता है

रातों की तन्हाई में अकसर ऐसे भी मंज़र आये हैं
आगोश में तुम को पाता है, दिल चुपके से सो जाता है

सच पूछो तो ये ख़लिश ख़ुशी कुछ ही लमहे की होती है
फिर ख़ुद को अकेला पाता हूं तो दिल सच में रो जाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ जून २००८



१५८०. मैं आम इंसां का शायर हूं और आम कलम से लिखता हूं –--RASईकविता, १ जून २००८

मैं आम इंसां का शायर हूं और आम कलम से लिखता हूं
है आम तड़प मेरे दिल की इस एक भरम से लिखता हूं

बेख़बर भला कब तक ख़ुद को औरों के दुखों से रखूं
ग़म अपने हैं, औरों के भी, सच है कि अलम से लिखता हूं

कुछ तुकबंदी कर लेता हूं, कुछ दाद कभी मिल जाती है
अपनी मेरी क्या हस्ती है, अल्लाह करम से लिखता हूं

काफ़िये जुटा लेता हूं पर गहराई नहीं अहसासों की
हैं बहुत गज़लगो महफ़िल में, मैं बहुत शरम से लिखता हूं

अशआर मेरे रुखसत होने के ही पैग़ाम सुनाते हैं
मानो दुनिया से दूर ख़लिश मैं कहीं अदम से लिखता हूं.

अलम = दुख, क्लेश, रंज, ग़म
अदम = यमलोक, परलोक, जहां मनुष्य मर कर जाता है

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ जून २००८
००००००००००००००
Monday, 2 June, 2008 1:08 PM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

मैं आम इंसां का शायर हूं और आम कलम से लिखता हूं
है आम तड़प मेरे दिल की इस एक भरम से लिखता हूं

वाह खलिश साहब। बहुत खूब! इसे कहते हैं आम के आम गुटलियों के दाम

००००००००००००





१५८१. जो फूल खिलाया बगिया में वो दे कर मुझ को शूल गया

जो फूल खिलाया बगिया में वो दे कर मुझ को शूल गया
व्यापार नहीं सीखा मैने, सब सूद छिना और मूल गया

हुशियार बहुत समझा ख़ुद को न सुनी किसी की बात कभी
वो सपना टूट गया मेरा जो दे कर मुझ को तूल गया

विश्वास भला किस का कीजे चाहत का कोई मोल नहीं
जिस को नैनों में रखा था दे कर आंखों में धूल गया

अहसास गज़ल में कोई नहीं न जज़्बा है न गहराई
दो लफ़्ज़ दाद में क्या पाये कि आसमान तक फूल गया

दुखड़े थे ख़लिश बहुत मेरे, कुछ लिये उधार परायों से
ग़ैरों के ग़म इतने निकले कि अपने ग़म को भूल गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२ जून २००८




१५८२. ये सोच के हम डरते हैं तुम नज़रों से गिरा दोगे हम को—ईकविता, १६ जून

ये सोच के हम डरते हैं तुम नज़रों से गिरा दोगे हम को
जायेंगे तुम्हारे पहलू से, तुम सुबह भुला दोगे हम को

ख़्वाबों में तुमको देखा था दरपेश मग़र अब पाया है
दिल में ये ख़ौफ़ समाया है बिन बात सज़ा दोगे हम को

दिल की दुखती रग और तुम्हारे ज़ुल्म न अब सह पायेगी
इक आह अग़र लब से निकली इल्ज़ाम सदा दोगे हम को

तुम करो सितम चाहे जितने हम को बेशर्त गवारा हैं
नुकसान तुम्हारा क्या होगा गर ख़ता बता दोगे हम को

क्या ख़लिश बचा है जीने में मर जाएं तो ही अच्छा है
मेरी रूह की खातिर तो शायद पाक दुआ दोगे हम को.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ जून २००८

०००००००००००००

Monday, June 16, 2008 6:22 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

जायेंगे तुम्हारे पहलू से, तुम सुबह भुला दोगे हम को

बहुत अच्छे खलिश साहब।

हुए एक दैर व हरम के मुसाफ़िर

कुछ इस राह चलकर कुछ उस राह चलकर!

०००००००००००००





१५८३. दुनिया ने सब कुछ लूट लिया, कुछ और नहीं है पास मेरे —RAS--ईकविता ४ जून २००८

दुनिया ने सब कुछ लूट लिया, कुछ और नहीं है पास मेरे
इक दिन ये भी चुक जायेंगे, बाकी हैं जो कुछ सांस मेरे

जिस ने जो भी मांगा वो दिया, न कोई तमन्ना की मैंने
जीने का सहारा चाहा था, वो दे न सके कुछ ख़ास मेरे

मुझ को न गिला है औरों से, ख़ुद ही ये ख़ता मैंने की है
उम्मीद लगाई क्यों उनसे, झूठे निकले विश्वास मेरे

कोई बात नहीं अब सीख लिया चुपचाप सभी कुछ सहना है
पतझड़ ये एक हकीकत है, सपने थे वे मधुमास मेरे

एक पत्ता शाख से टूटे तो न जाने ख़लिश किधर जाये
न इस दुनिया तक आएंगे उस दुनिया से उच्छ्वास मेरे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ जून २००८

तर्ज़—कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है ज़िद्द मेरे दिल की






१५८४. जिस दिल को कभी चाहा तुम ने, वो दिल तो कभी का टूट गया –ईकविता, ५ जून २००८

जिस दिल को कभी चाहा तुम ने, वो दिल तो कभी का टूट गया
एक प्यार का ख़्वाब संजोया था, कोई भेदी आ कर लूट गया

अब लाख बहाओ आंसू तुम, हासिल न गई दौलत होगी
मंज़िल तक क्या पहुंचेगा वो जिसका हो नसीबा फूट गया

क्यों ढूंढो फूल खिज़ाओं में, क्यों नाहक प्यार जताते हो,
हरकत न करेगा ये दिल अब, जो रूठ गया तो रूठ गया

तुम से तो नहीं शिकवा कोई, है गिला मुझे ख़ुद अपने से
जो कभी किया सच्चे दिल से मैंने वादा वो झूठ गया

वाज़िब था ख़लिश पैग़ामेविदा महफ़िल को सुनाता मैं लब से
पर बज़्म सजी थी उधर, इधर मैं गटक ज़हर का घूंट गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ जून २००८




१५८५. अभी तो तुम जवान हो —ईकविता ४ जून २००८

[कवि कुलवन्त के प्रति]

अभी तो तुम जवान हो
हसरतों की खान हो

है यही दुआ कि तुम पे
काव्य मेहरबान हो

पूरी आरज़ू करो
हसीं दिलों की शान हो

जो भी शायरी करो
शिद्दतोरुझान हो

जो तुम्हें पढ़े बहुत
कोई कद्रदान हो

आरज़ू ख़लिश की है
तुम्हारा यशोगान हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ जून २००८
००००००००००००००
Wednesday, 4 June, 2008 6:19 PM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com

ख़लिश जी, मंगल कामनाएं अच्छी लगीं :)

००००००००००




१५८६. कहीं है नफ़रत, कहीं है प्यार –ईकविता, ८ जून २००८

कहीं है नफ़रत, कहीं है प्यार
कोई है दुश्मन, कोई है यार

नित बदले दुनिया की रीत
कभी नकद और कभी उधार

राज भिखारी करे कभी
लोहा ठोके कभी सुनार

कभी सिपाही जंग लड़े
खु़द को भौंके कभी कटार

सीख धर्म की माने न
और ईश्वर की करे पुकार

चले अनीति की राह पर
कहे जगत को देऊं सुधार

करे इलाज़ मरीज़ों का
रहे मग़र ख़ुद ही बीमार

पहले ज़हर खसम को दे
सती बने पीछे वो नार

दुनिया एक झमेला है
रमो न, बोले ख़लिश विचार.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ जून २००८
०००००००००००००००००

Monday, June 9, 2008 1:33 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

पहले ज़हर खसम को दे
सती बने पीछे वो नार

बहुत खूब खलिश साहब! तभी तो कहा जाता हैः

अब कहां इन्सां जिसे इन्सां कहें
चलती फिरती देख लो परछाइयां

००००००००००००००









१५८७. नहीं है प्यार के संग में वफ़ा तो फ़ायदा क्या है –ईकविता, १० जून २००८

नहीं है प्यार के संग में वफ़ा तो फ़ायदा क्या है
हमारे बन के औरों के रहो ये का़यदा क्या है

हमें देंगे ख़ुशी, कह कर दिये हैं सिर्फ़ आंसू ही
कोई हम को बताए ये मोहब्बत की अदा क्या है

निगाहों से पिए जो जाम वो बेहोश हो जाए
नहीं आंखों में ग़र कोई छिपा जो मयकदा, क्या है

संदेसा है ये गीता का मनुज कर्तव्य को साधे
न ये परवाह करे कि कामनाओं की सदा क्या है

चला जा फ़र्ज़ की राह पर मिले मंज़िल कि या गर्दिश
ख़लिश मत फ़िक्र कर तकदीर में तेरी बदा क्या है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० जून २००८






१५८८. हम को वफ़ा के नाम पर कोई वफ़ा दे दे – ईकविता, १४ जून २००८

हम को वफ़ा के नाम पर कोई वफ़ा दे दे
है कौन जो घायल मेरे दिल को दवा दे दे

तिरछी नज़र से इस तरह न देखिये हमें
न आप को ये दिल मोहब्बत की दुआ दे दे

उम्मीद की उम्मीद भी सीने में न पालो
न जाने कब कोई ज़ुबां दे के दग़ा दे दे

बस नाम के दुनिया में अब तो रह गए मोहसिन
जिसपे भरोसा कीजिये वो ही सज़ा दे दे

है ये समां-ए-मौत भी कितना हसीं ख़लिश
जीने से ज़्यादा ज़िन्दगी का ये मज़ा दे दे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१४ जून २००८

००००००००००००

Sunday, June 15, 2008 12:42 AM
From: "K.P.Tyagi" kp_kusum@yahoo.com

खलिश जी

बहुत उम्दा बात है.

नज़रिया अपना अपना.


तिरछी नज़र से इस तरह देखिए हमें
शायद यह नज़र ही, दवा बन जाए हमें

Dr.K.P.Tyagi
Prof.& HOD. Mech.Engg.Dept.
Krishna institute of Engineering and Technology
13 KM. Stone, Ghaziabad-Meerut Road, 201206, Ghaziabad, UP

cell number 09999351269

०००००००००००

Saturday, June 14, 2008 7:28 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

तिरछी नज़र से इस तरह न देखिये हमें

बहुत खूब खलिश जी -

जिसने डाली नज़र, नज़र बुरी डाली

०००००००००




१५८९. ज़िक्र उसका कभी जो आता है

ज़िक्र उसका कभी जो आता है
मेरी आंखों में अश्क लाता है

कोई गहरा सा इक समंदर है
दिल में तूफ़ां उठा के जाता है

एक भीगे हुए तसव्वुर में
कोई धीरे से मुस्कराता है

मेरे दिल को सुकूं सा मिलता है
प्यार ग़म की जो चोट खाता है

कोई होता है ख़ुशनसीब ख़लिश
इश्क में चैन जो गंवाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ जून २००८

Ed

१५९०. दर्द बढ़ता रहे, नैन झरते रहें– ईकविता, १६ जून २००८

दर्द बढ़ते रहें, नैन झरते रहें
अश्रु छंदों में अविरत उमड़ते रहें

रोक सकता नहीं कोई सैलाब को
बांध बनते रहें और बिखरते रहें

ज़िंदगी मौत है ग़र रवानी न हो
घाव रिसते रहें, पांव चलते रहें

छू न पाएंगे वो रौशनी को कभी
ग़र अंधेरे चरागों को तकते रहें

इश्क की नींव है ग़म के दम से ख़लिश
ख़्वाब सजते रहें और बिगड़ते रहें.

०००००००००००००



१५९०. दर्द बढ़ते रहें, नैन झरते रहें -- ईकविता, १६ जून २००८

दर्द बढ़ते रहें, नैन झरते रहें
अश्रु छंदों में अविरत उमड़ते रहें

रोक सकता नहीं कोई सैलाब को
बांध बनते रहें और बिखरते रहें

ज़िंदगी मौत है ग़र रवानी न हो
घाव रिसते रहें, पांव चलते रहें

छू न पाएंगे वो रौशनी को कभी
ग़र अंधेरे चरागों को तकते रहें

इश्क की नींव है ग़म के दम से ख़लिश
ख़्वाब सजते रहें और बिगड़ते रहें.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ जून २००८

000000000000

From: "Vinay" vinaykantjoshi@yahoo.co.in
ज़िंदगी मौत है ग़र रवानी न हो
घाव रिसते रहें, पांव चलते रहें

बहुत बढिया शब्द/भाव है । ..... विनय
००००
From: "K.P.Tyagi" <kp_kusum@yahoo.com>Add sender to Contacts To: ekavita@yahoogroups.com
खलिश साहब बहुत ही सुन्दर रचना है.

त्यागी

०००००००००

from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com

date Jun 16, 2008 10:31 PM

महेश जी:

सुन्दर गज़ल है , विशेष रूप से ये पंक्तियां :


ज़िंदगी मौत है ग़र रवानी न हो
घाव रिसते रहें, पांव चलते रहें

छू न पाएंगे वो रौशनी को कभी
ग़र अंधेरे चरागों को तकते रहें

सादर

अनूप
०००००००००००

From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com
बेहद बढिया....ख़लिश जी.....

000000000000000

From: "pachauriripu" pachauriripu@yahoo.com
कैसी बात कर रहे हैं, ख़लिश जी, ये शेर तो, ख़ास-तौर पर, बहुत ही उम्दा है।

> ज़िंदगी मौत है ग़र रवानी न हो
> घाव रिसते रहें, पांव चलते रहें

इन दो मिसरों ने जो धमक पैदा की है, वो दूर तक महसूस हो रही है।

रिपुदमन






१५९१. ज़िंदगी मेरी नुमायश दिन-ब-दिन बनती गयी

ज़िंदगी मेरी नुमायश दिन-ब-दिन बनती गयी
हो गया नीलाम घर और मुफ़लिसी बढ़ती गयी

आह निकली एक दिल से, लफ़्ज़ होठों ने दिये
चंद अश्कों के सहारे ही गज़ल बहती गई

हर समय बहते रहे न हो सके खाली मगर
याद मेरे चश्म को दिन-रात यूं भरती गयी

ग़ैर के पहलू में उसको देख कर जाना है ये
बेवफ़ा थी हम पे जो सोचा किये मरती गयी

दास्तानेइश्क क्यों सब को सुना बैठा ख़लिश
हर ज़ुबां चर्चा मेरी रुसवाई का करती गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जून २००८





१५९२. जाती उमर में बीते दिन याद आ रहे हैं – ईकविता, १७ जून २००८

जाती उमर में बीते दिन याद आ रहे हैं
हम भी कभी जवां थे, सब को बता रहे हैं

जब थे जवां तो हम पे पाबन्दियां बहुत थीं
मुरझे खयाल कुछ- कुछ अब सांस पा रहे हैं

इन मंज़रों से मिल के शरमाएं किसलिये हम
लमहात आखिरी में नज़रें मिला रहे हैं

हम को रखे हुए हैं इक कशमकश में हर दम
न पास आ रहे हैं, न दूर जा रहे हैं

क्या राज़ उनके दिल में है ये तो वो ही जानें
आंखें भी तर हैं उनकी और मुस्कुरा रहे हैं

नाराज़ इस कदर हैं, चुप्पी लगी है हमसे
पर किसलिये ख़फ़ा हैं, कुछ न जता रहे हैं

बालों को रंग, बुढ़ापा अपना छुपा रहे हो
सोचो ख़लिश न धोखा सब लोग खा रहे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जून २००८

000000000000

From: "Prem Sahajwala" pc_sahajwala2005@yahoo.com
महेशजी,
जब ग़ालिब ने लिखा होगा की 'खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता' तब आप जन्मे नहीं होंगे. वरना मैं उन्हें बता देता की अब तो खलिश भी होती है और खलिश का हर शेर जिगर के पार भी होता है. प्रेम सहजवाला

००००००००००००००

From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

जब थे जवां तो हम पे पाबन्दियां बहुत थींमुरझे खयाल कुछ- कुछ अब सांस पा रहे हैं

बहुत खूब महेशजी

राकेश
००००००००००००००००००

Wednesday, June 18, 2008 2:09 AM
From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com

खलिश साहब,

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है। बधाई! खास कर यह शेर

’क्या राज़ उन के दिल में है तो वो ही जानें

आंखें भी तर हैं उनकी और मुस्कुरा रहे हैं’

बहुत अच्छा लगा।

" तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या ग़म है जो छुपा रहे हो"

की याद आई।

सस्नेह

सीताराम चंदावरकर

00000000000000000000

Monday, June 23, 2008 12:06 PM
From: "shipraak" shipraak@yahoo.co.in

aapke gajal ki ye sher mujhe kafi achchha laga waise gajal bahut
achchha aur dil ke karib hai

हम को रखे हुए हैं इक कशमकश में हर दम
न पास आ रहे हैं, न दूर जा रहे हैं

०००००००००००००००

Tuesday, June 17, 2008 10:50 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

हम भी कभी जवां थे, सब को बता रहे हैं

बहुत खूब खलिश साहब! कभी नज़ीर ने भी कहा था-

अब आके बुढापे ने किए ऐसे अधूरे
पर झड़ गए, दुम झड़ गई, फिरते हैं लंडूरे
सब चीज़ का होता है बुरा हाय बुढा़पा

०००००००००००००००






१५९३. मुंह पे तारीफ़ सभी लोग किया करते हैं– ईकविता २४ जून २००८


मुंह पे तारीफ़ सभी लोग किया करते हैं
हैं बहुत लोग जो इस फ़न से जिया करते हैं

होश खोते हैं यहां सिर्फ़ नसीबों वाले
जाम उल्फ़त में कई लोग पिया करते हैं

सभी चाहते हैं समेटो जो मिले जिससे भी
यूं तो कहने को ज़कत लोग दिया करते हैं

दाग़ेदिल सब को दिखाने से भला क्या हासिल
चाक दिल बंद-ज़ुबां हम तो सिया करते हैं

कोई बिरले ही ख़लिश पाक करम करते हैं
नाम अल्लाह का हौंठों से लिया करते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ जून २००८
०००००००००००००

Tuesday, June 24, 2008 6:40 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
वाह खलिश साहब, एक गाना याद आ गया:

जाने क्य़ों लोग मुहब्बत किया करते हैं
क्यों दर्देदिल छुपा लिया करते हैं

००००००००००००








१५९४. बड़ा दिलचस्प इंसां और ख़ुदा के बीच नाता है – ईकविता २० जून २००८

बड़ा दिलचस्प इंसां और ख़ुदा के बीच नाता है
बनाया किस ने किसको है पता ये चल न पाता है

अग़र इंसान उसको पूजता है तो ये ज़ाहिर है
ख़ुदा की बंदगी करता है वो दिल में बिठाता है

ख़ुदा ने ही बनाया था कभी इंसान को लेकिन
वही इंसां ख़ुदा के वास्ते अब घर बनाता है

कभी मंदिर, कभी मस्जिद, कभी गिरजा उसे कह कर
घरों के बीच में वो भेद नाहक ही बढ़ाता है

वज़ह ज़ाहिर है कि भगवान का वो नाम ले कर के
बहुत व्यापार करता है बहुत वो धन कमाता है

कोई तैय्यार हो मज़हब पुराना छोड़ने को तो
नए मज़हब का ठेकेदार फिर कीमत लगाता है

ये कब से खेल है ज़ारी ख़लिश इंसान है भोला
बरहमन पादरी मुल्ला के आगे हार जाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० जून २००८



१५९५. घर से निकाला आज चौराहे पे आ गया -- ईकविता २० जून २००८

घर से निकाला आज चौराहे पे आ गया
कुर्ता फटा हुआ मेरी हालत बता गया

सिक्के हथेली पे जो राहगीर धर गये
टूटा कटोरा हाथ में बेटा थमा गया

किससे कहूं मैं हाल भला किसलिये कहूं
जो कर गया बेहाल वो तोहमत लगा गया

कल तक मेरा मुरीद था जो सब के सामने
महफ़िल को मेरे ही ख़िलाफ़ बरगला गया

दिन आखिरी हैं ज़िंदगी के सह चलो ख़लिश
अब तो तुम्हारा वक्त ही जाने का आ गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० जून २००८

०००००००००००००००

From: "Vinay" <vinaykantjoshi@yahoo.co.in>Add sender to Contacts To: ekavita@yahoogroups.comसिक्के जो राहगीर चंद दे गये मुझे

टूटा कटोरा हाथ में बेटा थमा गया

इन दो पंक्तियों मे बहुत दर्द भरा है, आंख नम हो गई ।

विनय के जोशी
००००००००००००





१५९६. जब कभी याद कोई आती है-- ईकविता २० जून २००८

जब कभी याद कोई आती है
इक नया घाव दे के जाती है
दर्द वो कितना मीठा-मीठा है
ये नमी चश्म की बताती है

छाईं रंगीन सी बहारें हैं
आंख से बह रहीं कतारें हैं
मेरे भूले हुए खयालों को
और उकसा रहीं फुहारें हैं

हैं तसव्वुर में आज मंज़र कुछ
लगे सीने में आज खंजर कुछ
आज दिल से लहू बहा है फिर
हरे हो गए मुकाम बंजर कुछ

मैं ग़मों का मनाऊं ग़म क्यूंकर
दर्द हो जाएं चाहूं कम क्यूंकर
यही मेरी ख़ुशी का बायस हैं
मेरी ख़ुशियों पे हो सितम क्यूंकर

आज बरसात ग़म की होने दो
आज जी भर के मुझको रोने दो
मेरा माज़ी जवान हो जाये
आज यादों में मुझको खोने दो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० जून २००८
००००००००००००००००००

From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com

आदरणीय महेशजी, यह पंक्तियाम विशेष पसन्द आईं. दाद कबूलें

मैं ग़मों का मनाऊं ग़म क्यूंकर
दर्द हो जाएं चाहूं कम क्यूंकर
यही मेरी ख़ुशी का बायस हैं
मेरी ख़ुशियों पे हो सितम क्यूंकर

राकेश खंडेलवाल
००००००००००००००००००



१५९७. दोस्तियां हो गयीं दुश्वार हैं कितनी—ईकविता, २१ जून २००८


दोस्तियां हो गयीं दुश्वार हैं कितनी
अब घरों में चिन गयीं दीवार हैं कितनी

हाल क्या होगा वतन का, दिल दहलता है
मज़हबों में खिंच गयीं तलवार हैं कितनी

दल बदलने की कवायद, तेरा शुक्रिया
चंद बरसों में गिरीं सरकार हैं कितनी

नौजवानों को नशे की पड़ गयी है लत
आज माता हो रहीं बेज़ार हैं कितनी

बच गये तूफ़ां से तुम लेकिन न ये भूलो
कश्तियां डूबीं ख़लिश मझधार हैं कितनी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जून २००८





१५९८. अब मेरे बच्चे सयाने हो गये—ईकविता, २१ जून २००८


अब मेरे बच्चे सयाने हो गये
ख्याल मेरे अब पुराने हो गये

कल तलक उंगली मेरी पकड़ा किये
आज ज़ोरू के दीवाने हो गये

ख़ून पतला हो गया है आजकल
आज अपने ही बेगाने हो गये

पास मेरे दो घड़ी आते नहीं
दूरियों के सौ बहाने हो गये

क्या मेरी पसंद है पूछे हुए
अब ख़लिश कितने ज़माने हो गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जून २००८

००००००००००००००००

[प्रेरणा- ग़ज़ल :


मेरे बच्चे जब सयाने हो गए
दूर तब उनके ठिकाने हो गए ।

पहले रुपया में थे वो पैसे बराबर,
अब तो हम खुद चार आने हो गए ।

अब श्रवण और राम के किस्सों से क्या हो
वो तो सब गुज़रे फसाने हो गए ।

आ गई अब जब सदी इक्कीसवीं
हम लगा सदियों पुराने हो गए ।


अब तो बस खुद को बचाते वार से,
तीर वो और हम निशाने हो गए ।

आज भी अक्सर छलक आते हैं आँसू,
उनसे बिछडे़ यूं ज़माने हो गए ।

शरद तैलंग]






१५९९. आज ग़म मुझको रास आया है—ईकविता, २१ जून २००८


आज ग़म मुझको रास आया है
हर तरफ़ गर्दिशों का साया है
है अंधेरा, नहीं किरण कोई
एक माहौले-ख़ौफ़ छाया है

कोई मुझको नहीं शिकायत है
दर्द होना तो इक रवायत है
चाहे खुशियां मुझे नहीं हासिल
दोस्त-ए-ग़म की पर इनायत है

दोस्ती को भला दग़ा क्यों दूं
आज ख़ुशियों को मैं हवा क्यों दूं
साथ मेरा निभाते आये हैं
ग़मो-दर्दों को मैं भुला क्यों दूं

मुझे तारीकियों में रहने दो
वक्त के ज़ुल्म मुझको सहने दो
अभी बाकी ख़लिश है हिम्मत कुछ
मुझे दरया-ए-ग़म में बहने दो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जून २००८





१६००. यूं तो भरे हैं प्यार की राहों में लाख ग़म—ईकविता, २१ जून २००८


यूं तो भरे हैं प्यार की राहों में लाख ग़म
ऊपर से हमसे आजकल वो बोलते हैं कम

है तो मनाही बोलने पर कुछ नहीं लेकिन
हर बात में पड़ जाये है पेचीदगी-ओ-ख़म

खोलें ज़ुबां तो हम पे हैं पहरे लगे हज़ार
पाबन्दियां उन पर नहीं, करते रहें सितम

न उफ़ कोई निकले न ही कोई शिकायत हो
है प्यार की तौहीन जो हो जाये आंख नम

उनको न एतबार हो दिल पे हमारे ग़र
ये तो ख़लिश बताये कोई कीजिये क्या हम.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जून २००८

००००००००००००००००

From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com

न बोलने की क्यों खाई है कसम
ऐसा न करो ‘खलिश’ पर सितम

०००००००००००

From: "smchandawarkar@yahoo.com

खलिश साहब,
खूबसुरत ग़ज़ल है। बधाई!

’वो कत्ल करते हैं तो चर्चा नहीं होता
हम आह करते हैं तो बदनाम होते हैं’

सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

000000000000000000

© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
Printed from https://shop.writing.com/main/books/entry_id/627009-Poems--ghazals--no-1576--1600-in-Hindi-script