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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१६२६. हूं बहुत असहाय लेकिन चल रहा—ईकविता, २७ जून २००८ हूं बहुत असहाय लेकिन चल रहा लीक पर सिद्धांत की मैं पल रहा न मिले मंज़िल मुझे परवाह नहीं रास्ते को हर क़दम निगल रहा राह में चुक जाऊंगा मैं एक दिन सूर्य जीवन का निरंतर ढल रहा किसलिये तुलना करूं मैं और से ग़म नहीं जीवन में ग़र विफल रहा हक मेरा है कर्म करने पर ख़लिश मेरे चिन्तन में कभी न फल रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ जून २००८ ०००००००००० Sunday, June 29, 2008 10:19 PM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com हूं बहुत असहाय लेकिन चल रहालीक पर सिद्धांत की मैं पल रहा Sundar sher kahaa hai .. Khalish ji ..... रिपुदमन ०००००००००० From: smchandawarkar@ yahoo.com Date: Saturday, June 28, 2008, 3:05 PM खलिश साहब, बहुत खूब! मतले से चित्रा सिंग की गाई हुई ग़ज़ल का शेर याद आया एक मुसल्सल दौड़ में हैं मंज़िलें और फ़ासिले पाँव तो अपनी जगह हैं, रास्ता हैं अपनी जगह सस्नेह सीताराम चंदावरकर ००००००००००००००००००० Saturday, June 28, 2008 6:24 AM From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com>Add इसी लिए तो खलिश जी कहते हैं- किसलिये तुलना करूं मैं और से ग़म नहीं जीवन में ग़र विफल रहा ००००००००० १६२७. दग़ा दे गया कोई दिल को, क्यों जीवन बरबाद करूं दग़ा दे गया कोई दिल को, क्यों जीवन बरबाद करूं वफ़ा निभा न पाया कोई तो क्यों उसको याद करूं मेरी भी कुछ ग़ैरत है, कुछ तो वज़ूद है मेरा भी पैर पड़ूं औरों के क्योंकर, किस कारण फ़रियाद करूं आज ज़माना बदल गया है, बाप पकड़ता है उंगली घर से बाहर कर दे ऐसी क्यों पैदा औलाद करूं अब तक दिन काटे इज्जत से, क्यों एहसान किसीका लूं मुफ़लिस हूं दिन-रात सोच कर क्यों दिल को नाशाद करूं रहमत ही लेनी हो तो फिर क्यों न हो वो मौला की करूं इबादत रब की, ख़ुद को इंसां से आज़ाद करूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ जून २००८ १६२८. ज़िंदगी बस खार बन के रह गयी ज़िंदगी बस खार बन के रह गयी झाड़ और झंखार बन के रह गयी रीत कुर्बानी की न बाकी बची प्रीत इक व्यापार बनके रह गयी एक सूरत जो बसी थी आंख में दर्द का आसार बन के रह गयी वो मोहब्बत जो हक़ीकत थी कभी स्वप्न का संसार बन के रह गयी इक पलक पल को झुकी थी पर ख़लिश याद का आधार बन के रह गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ जून २००८ १६२९. अरमान दिल के छिपाऊं मैं कैसे—ईकविता, ३० जून २००८ अरमान दिल के छिपाऊं मैं कैसे मग़र उनको लब पर भी लाऊं मैं कैसे दिल में बहुत हैं मोहब्बत की बातें ज़ाहिर में उनको बताऊं मैं कैसे अदा की ज़ुबां से वो वाकिफ़ नहीं हैं इशारों का मतलब जताऊं मैं कैसे दिल तो तड़पता है पर दर्देदिल को महफ़िल में गा कर सुनाऊं मैं कैसे उमर ही ख़लिश न कहीं बीत जाये वो आते नहीं, पास जाऊं मैं कैसे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ जून २००८ ०००००००००० Monday, June 30, 2008 3:30 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com दिल में बहुत हैं मोहब्बत की बातें ज़ाहिर में उनको बताऊं मैं कैसे बहुत खूब! खलिश साहब- तभी तो ‘दाग’ ने कहा था- आशिकी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद बंदगी से नहीं खुदा मिलता ००००००००००० On Mon, 6/30/08, panda_archana <panda_archana@ yahoo.com> wrote: Date: Monday, June 30, 2008, 3:08 AM नमस्कार खलिश जी , आपकी शायरी हमें बहुत अच्छी लगी | हमें ज़्यादा तो लिखना आता नही है पर एक छोटी सी कोशिश की है की आपके शेरों में दिए गए expression ke issue के लिए कुछ सुझाव दे सकें | हमारा इरादा आपको या आपकी लेखनी को ठेस पहुंचाने का नही है | आशा है आप इसे सच्चे दिल से पढेंगे | शुक्रिया, अर्चना अरमान दिल के छिपाऊं मैं कैसे मग़र उनको लब पर भी लाऊं मैं कैसे >अरमां जो लब पे आ गए फिर बात बढेगी ये ख्वाब तो सीने में सजाने के लिए है .... दिल में बहुत हैं मोहब्बत की बातें ज़ाहिर में उनको बताऊं मैं कैसे >लगता है अभी वक्त है , पूरी रंगी नहीं , हसरत तुम्हारी उनको जो पाने के लिए है ..... अदा की ज़ुबां से वो वाकिफ़ नहीं हैं इशारों का मतलब जताऊं मैं कैसे >ऐसा भी हुस्न नादां नहीं है , मेरे आका , ये तुमसे पहला क़दम बढ़ाने के लिए है ..... दिल तो तड़पता है पर दर्देदिल को महफ़िल में गा कर सुनाऊं मैं कैसे >ज़माने भर के नग्मे , शेरों के प्यासे नाले , एक दिल की बात दिल को बताने के लिए है ... उमर ही ख़लिश न कहीं बीत वो आते नहीं, पास जाऊं मैं कैसे. >उनके ही आगे , उनके दोस्तों से बातें करना , ये छोटी सी जलन उनको बुलाने के लिए है ! शुक्रिया, अर्चना ००००००००००० १६३०. मैं अपनी छोड़ कर दुनिया चला आया जो अमरीका मैं अपनी छोड़ कर दुनिया चला आया जो अमरीका सराहा भाग्य को, सपना हुआ पूरा मेरे जी का भवन रंगीन, आलीशान जगमग थे यहां सारे यहां रहना मुझे लगता था मानो स्वर्ग सरीखा मुझे मालूम न था ऊपरी सब है दिखावा ये जो रहते हैं यहां उनके दिलों का स्वाद है फीका सभी दिल खोखले मुझको मिले, खाली मोहब्बत से अंधेरों से भरा था दिल हर इक उजली सी परी का मुझे अब याद आते हैं वो मेरा गांव वो बस्ती जहां की धूल-मिट्टी में ख़लिश जीवन मेरा बीता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ १६३१. चलता जा ओ थके मुसाफ़िर चलता जा—ईकविता, ३० जून २००८ चलता जा ओ थके मुसाफ़िर चलता जा पथ मुश्किल, तूफ़ान रहा घिर, चलता जा जिस दिन रुक जायेगा वही मरण होगा चलना ही जीवन है आखिर, चलता जा सांस चले जब तक यह जन्म सफल कर ले मानव तन शायद न मिले फिर, चलता जा राहें तुझ पर हावी न हो जायें कभी कट जाये पर झुके न यह सिर, चलता जा ठोकर खा कर गिरने में अपमान नहीं किंतु ख़लिश उठ कर फिर से तू चलता जा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ १६३२. सोचो न उनके ख्याल सताने के लिये हैं—ईकविता, ३० जून २००८ सोचो न उनके ख्याल सताने के लिये हैं ये ख्वाब तो सीने में सजाने के लिए हैं वो न मिले पर दर्द उनका याद दे गयी ये ग़म भी उनका इश्क बढ़ाने के लिये हैं हम प्यार यूं करते हैं कि रुसवाइयां न हों है इल्म कि ये राज़ छिपाने के लिये हैं परवाह नहीं ग़र तीरगी छायी है फ़ज़ा में शोले अंधेरे दिल के मिटाने के लिये हैं यूं न कहो बरबाद ख़लिश हो गये आंसू मरहम ये अश्क दिल पे लगाने के लिये हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ Monday, June 30, 2008 11:28 PM From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com खलिश साहब: आप की यह खूबसूरत गज़ल पढ कर मुझे जाँ निसार अख्तर साहब की यह गज़ल याद आ गई जो मुझे बहुत पसन्द है । मुकेश जी ने इसे गाया भी है : अशार मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिये हैं अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं आँखों में जो भर लोगे तो कांटों से चुभेंगे ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिये हैं देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिये हैं सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की वरना तो फकत आग बुझाने के लिये हैं ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं सादर अनूप ०००००००००००० Wednesday, July 2, 2008 2:54 AM From: "panda_archana" panda_archana@yahoo.com आदाब अर्ज़ है खलिश जी , सुभान अल्लाह ! आपकी शायरी वाकई बहुत ही उम्दा है - आपकी दी गई चमक ने तो हमारे ग़ज़ल का रंग ही बदल दिया | आशा है आगे भी आप इसी तरह हमारी लेखनी की बेहतरी में हमारी मदद करेंगे | More than your literary skill, I appreciate your attitude towards lesser mortal writers , like me ! I look forward to learn more from you. आप के लिए - जुबां मेरी भी सुधरे , दुआ उठी जो दिल से , आप सा उस्ताद जी पाने के लिए है ! सदर प्रणाम सहित , अर्चना ०००००००००००००००० १६३३. यूं तो लिखने को हम भी लिख लेते हैं—ईकविता, ३० जून २००८ यूं तो लिखने को हम भी लिख लेते हैं जो भी मन में आये सब कह देते हैं दाद अग़र न मिले हमें श्रोतागण से तो क्यों समझें अन्य किसी से हेठे हैं कविता का सागर गहरा है हम भी इक छोटी सी नैय्या को अपनी खेते हैं कविता मन से होती है, न शब्दों से इस तथ्य से बाद बहुत हम चेते हैं कभी गज़ल का हुनर हमें भी आयेगा मन में ख़लिश यही उम्मीदें सेते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ १६३४. काम बहुत है समय मुझे मिलता कम है—ईकविता, ३० जून २००८ काम बहुत है समय मुझे मिलता कम है कविता अधिक न कर पाता इसका ग़म है छंदों का सागर विस्तृत है क्षितिज तलक उनके अध्ययन का भी निश्चित क्रम है लिखने में हो जाती है अकसर देरी लगे अन्य को ज्यों लिखने में ही खम है बहुत शुक्रिया है ईश्वर का शनै: शनै: सफल मेरा कुछ तो हो जाता उपक्रम है पूरा न कर्तव्य कभी कर पाता है करता चाहे कितना ख़लिश परिश्रम है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ आदरणीय आप अच्छी रचनाएं दे रहे हैं इ-कविता पर,लेकिन कई जगह शायद अधिक लिखने की जल्दी में गड़्बड़ हो जाती है।अन्यथा न लेकर इसी रचना को देखें-यह सब आपकी इ मेल पर लिख रहा हूं क्योंकि मेरा मंतव्य ध्यान दिलाना है,नुक्ताचिनी नहीं पहले शेर में जो को अगर ‘पास शोलों के जो इतना जाओगे’ से ठीक होगा-यहां जो महत्व डाल रहा है पहले स्थान पर छंद पूरा करने हेतु लिया गया लग रहा है दूसरे शेर में तुमने सोचा सूरमाकहलाओगे में भाषा समप्रेषणियता हेतु सोचा था आना चाहिये, मगर लय बिगड़ेगी ,अतः ‘सोचते थे तुम’ इस का निदान हो सकता है तीसरे शेर के पहले मिसरे में पर व खुद interchange हो जायें तो स्पष्टता आजाती है,दूसरे में भी की जगह ही करने से अधिक ठीक लगेगा। मैने पहले भी एक दो बार लिखना चाहा पर संकोच कर गया कि आप को बुरा लगेगा -फिर आज यह साहस कर ही बैठा।बुरा लगे तो क्षमा करें। १६३५. हम न कहते थे कि तुम जल जाओगे—ईकविता, १ जुलाई २००८ हम न कहते थे कि तुम जल जाओगे पास शोलों के जो इतना आओगे दुनिया तुमको कह रही है नातवां सोचते थे सूरमा कहलाओगे पर जला बैठे हो लौ में अपने ख़ुद शम्म की रुसवाई ही करवाओगे इश्क को कहते हैं दरया आग का तुमने सोचा, पार तुम कर पाओगे! भूल बैठे तुम, ख़लिश टूटेगा दिल रात की तनहाई में पछताओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जून २००८ १६३६. मानिंदे-हवा आए और आ कर चले गये—ईकविता, २ जुलाई २००८ मानिंदे-हवा आए और आ कर चले गये दीवाना ज़िंदगी को बना कर चले गये सोचा न था कि चंद लमहे का है ये सफ़र हर लमहे को सीने में सजा कर चले गये न थी ख़बर कि उनसे बिछड़ जायेंगे कभी मिलने की सब उम्मीद मिटा कर चले गये वो तो नहीं पर याद है तनहाई में घुली कुछ ख़्वाब थे हसीन दिखा कर चले गये किसके लिये जियें ख़लिश अब ऐसी ज़िंदगी ख़ुशियों पे एक पर्दा गिरा कर चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ 0000000000 Sunday, July 6, 2008 5:27 PM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com Khalish Ji, Pranaam..... kaisey hain aap. bahut samay huaa aap se baat nahin ho sakee. health kaisee hai aapki? jaldee hee aap se phone par baat hogi..... aapki iss gazal ke baare mein....gazal sabhi sher acchey lagey par, yah sher, mujhe kuch theek sa nahin lag rahaa. samay miley to iss par vichaar avashy karein. अब वो हैं उनकी याद है और मेरी तन्हाई बीते हुये फिर ख़्वाब दिखा कर चले गये Shesh shubh....... Jai Hind Ripudaman ००००००००००००००००००० १६३७. मोहब्बत बहुत दरमियां है हमारे, कभी इसमें थोड़ी अदावत भी होती मोहब्बत बहुत दरमियां है हमारे, कभी इसमें थोड़ी अदावत भी होती वफ़ा तो बहुत प्यार में है तुम्हारे, मग़र इसमें थोड़ी शरारत भी होती ग़म और ख़ुशी तो बहुत इश्क में हैं, गुलाबों के संग खार भी हैं गवारा मंज़ूर हमको है उल्फ़त तुम्हारी, मग़र संग इसके इबादत भी होती फ़ितरत हमारी अलग हैं ये माना, मग़र कुछ ज़रा तुम बदल के तो देखो अब तक ज़ुलम तो बहुत कर चुके हो, कभी मेरे हमदम इनायत भी होती जो था पास मेरे तुम्हें दे दिया है, मग़र तुमसे दिल भी न पाया है अब तक अहसास तुमको दिलाऊं मै कैसे कि है चीज़ कोई शराफ़त भी होती दुनिया की राहों से हम बेख़बर थे, बिना शर्त ख़ुद को किया था हवाले विश्वास हमको ख़लिश हो गया है कि है प्यार में अब तिज़ारत भी होती. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६३८. मानव चलते रहना तू ये कदम न रुकने पायें—ईकविता, २ जुलाई २००८ मानव चलते रहना तू ये कदम न रुकने पायें राह कठिन हो, दुर्गम हो, तेरे पग चलते जायें कल का नहीं भरोसा जितना आज चल सके चल ले कल कितने तूफ़ान न जाने इन राहों में आयें इंसानी फ़ितरत है कुदरत पर हावी हो जाना इंसानियत कभी दिल से हम अपने नहीं भुलायें अगर बिछड़ जायें दो सच्चे साथी इन राहों में दिलबर से तनहा दिल को आती हैं बहुत सदाएं राहों में जो हमराही हो उसको भूल न जाना शोख इशारे तुमको चाहे कितना ख़लिश बुलायें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ नोट—यह गज़ल इस कथन के परिपेक्ष्य में लिखी गयी थी— “हम सब एक ही बिसात पर खेलने वाले खिलाड़ी या खिलाये जाने वाले मोहरे हैं, कोई बड़ा-छोटा नहीं है. अपनी अपनी रुचि के अनुसार सब अपनी अपनी दिशाओं में बढ़ते जाते हैं. किसकी दिशा अधिक सही या सफल है, इसका सवाल नहीं है. सवाल सिर्फ़ इतना है कि हम रुक न जायें, चलते रहें. चलना ही ज़िंदगी है”. ००००००००००० Wednesday, July 2, 2008 8:19 AM From: "Vinay k Joshi" vinaykantjoshi@yahoo.co.in गुप्त जी, आपका निम्नलिखित वक्तव्य बहुत ही प्रेरणास्पद है, आभार ! विनय हम सब एक ही बिसात पर खेलने वाले खिलाड़ी या खिलाये जाने वाले मोहरे हैं, कोई बड़ा-छोटा नहीं है. अपनी अपनी रुचि के अनुसार सब अपनी अपनी दिशाओं में बढ़ते जाते हैं. किसकी दिशा अधिक सही या सफल है, इसका सवाल नहीं है. सवाल सिर्फ़ इतना है कि हम रुक न जायें, चलते रहें. चलना ही ज़िंदगी है. १६३९. दिल सोचता था कोई हमें प्यार से छू ले दिल सोचता था कोई हमें प्यार से छू ले थी ज़िंदगी वीरान, गर्दिश के थे बगूले इक लमहे में सूरत कोई दिल में समा गयी रहते थे उनकी याद में हम रात-दिन भूले उनसे जो मुलाकात हुयी मिल गयी ज़न्नत किस्मत पे अपनी फिर रहे थे हम बहुत फूले सोचा न था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कातिल से इल्तज़ा करेंगे मेरा लहू ले सब ख़्वाब चूर हो गये ये जान कर ख़लिश कि ग़ैर की बांहों में वो हैं रात भर झूले. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६४०. यूं तो कहने को वो हमसे दिन-रात मोहब्बत करते हैं यूं तो कहने को वो हमसे दिन-रात मोहब्बत करते हैं पूछे तो कोई न अश्क कभी क्यों आंख से उनकी झरते हैं आसां हैं मोहब्बत के वादे, मुश्किल है उन्हें पूरा करना वो तिफ़्ल क्या पायेंगे मंज़िल डर-डर के कदम जो धरते हैं हम उनकी अदा से वाकिफ़ हैं, शिकवा क्यों करें उनसे कोई वो करके सितम पाते हैं ख़ुशी, पर प्यार का वो दम भरते हैं होते हैं जो सच्चे आशिक वो, शाहों के झुका देते हैं सर क्या जान की है परवाह उन्हें, अंज़ाम से कब वो डरते हैं ग़र हम से मोहब्बत होती तो हो के भी जुदा क्यों ख़ुश रहते कैसे कर लें एतबार ख़लिश वो नामेवफ़ा पर मरते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६४१. जिस फ़न के हम उस्ताद नहीं उस फ़न की वकालत क्या कीजे जिस फ़न के हम उस्ताद नहीं उस फ़न की वकालत क्या कीजे हम ही मुद्दई, हम ही मुज़रिम, थाना व अदालत क्या कीजे ये हमको शिकायत रहती थी मिलने को नहीं आते हमसे अब रिश्ता ही जब तर्क हुआ, शिकवा-ओ-अदावत क्या कीजे जब पास थे वो उनमें हमको सौ ऐब दिखाई देते थे अब तनहाई में याद आये जब उनकी शराफ़त क्या कीजे है दुनिया का दस्तूर यही इंसान को जो कुछ हासिल है उससे न भरे है दिल उसका, बेबात की आफ़त क्या कीजे बेहतर है तमन्ना दफ़्न करो और ध्यान असूलों का रखो दानिश भी ख़लिश जब मज़हब की करते हैं ख़िलाफ़त क्या कीजे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६४२. मुझसे पूछा एक मित्र ने क्यों मैं कविता करता हूं—ईकविता, २ जुलाई २००८ मुझसे पूछा एक मित्र ने क्यों मैं कविता करता हूं किस कारण से छप जायें ये ऐसी इच्छा रखता हूं मैंने कहा फूल हूं मैं तो बिखर एक दिन जाऊंगा ख़ुशबू मेरी बनी रहे मैं यही सोच कर लिखता हूं मैंने जो हैं भाव उंडेले, कुछ उधार, कुछ अपने हैं मेरे भाव कोई अपनाये सपने ऐसे रचता हूं आजीवन तो गान-सरोवर से मैंने मधुपान किया फ़र्ज़ निभाता हूं, कृतज्ञतावश अब उसको भरता हूं जो मैंने दुनिया से पाया क्यों न वापस लौटाऊं कर्ज़ ख़लिश मुझ पर रह जाये इस विचार से डरता हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ ०००००००००००० Thursday, July 3, 2008 3:03 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com गान-सरोवर से मैंने दिल बहलाने को पान किया यह ‘गान सरोवर’ अब कविता का मानसरोवर बनता जा रहा है। इस ‘गुलाब’ की महक सदा बनी रहे ०००००००००००० १६४३. मिला न मोहब्बत का हमको सिला है मिला न मोहब्बत का हमको सिला है नामे-मोहब्बत से अब तो गिला है ये भोले से चेहरे बड़े बेवफ़ा हैं दुनिया से ही अब भरोसा हिला है हमसे कभी वो लगा दिल न पाये गै़रों की बांह में तबस्सुम खिला है राहों में लूटें ये रस्ता दिखा कर तिलस्मी बहुत इश्क का ये कि़ला है वारे थे जिस पर ख़लिश जानोदिल ये बना अजनबी सा हमसे मिला है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६४४. भुला न पाये हम आज तक भी भुला न पाये हम आज तक भी छिपा न पाये ये राज़ तक भी भरी हैं दिल में तुम्हारी यादें नहीं है मुमकिन आवाज़ तक भी बस एक पल तो मिलने ही देते न थी ज़माने को लाज तक भी बहल ही लेते गा के या रो के हमारा छीना है साज़ तक भी ख़लिश ज़माने की बात क्या है झुके मोहब्बत में ताज तक भी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जुलाई २००८ १६४५. मेरे साथ तनहाई यूं चल रही है—ईकविता, ४ जुलाई २००८ मेरे साथ तनहाई यूं चल रही है हर पल मेरी मौत संग पल रही है मैं दर्द अपना दिखलाऊं किसको दिल को कमी यार की खल रही है रुकना नहीं जानते हैं ये आंसू यादों की दिल में शमा जल रही है उम्मीद ये कि तमन्ना हो पूरी झूठी है, नाहक मुझे छल रही है ख़लिश ज़िंदगी के सभी ग़म भुला दो ढली उम्र अब, और भी ढल रही है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जुलाई २००८ ०००००००००० Friday, July 4, 2008 1:44 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com वाह खलिश साहब ! क्या खूब कहा- मेरे साथ तनहाई यूं चल रही है हर पल मेरी मौत संग पल रही है कभी मीर ने भी कहा था- रफ़्तगां१ में जहाँ के, हम भी है साथ उस कारवाँ के, हम भी हैं जिस चनज़ार का है तू गुले-तर बुलबुल उस गुलिस्ताँ के हम भी हैं॥ ०००००००००००००० १.गुज़रे हुए लोग १६४६. कभी खिलते गुलाब हम भी थे—ईकविता, ४ जुलाई २००८ कभी खिलते गुलाब हम भी थे किसी दिल का शबाब हम भी थे आज बदली है उम्र की छायी वरना इक आफ़ताब हम भी थे क्यों जवानी पे नाज़ करते हो प्यार पे एतराज़ करते हो हुस्न ढल जायेगा ये दो दिन में जो ग़रूर इस पे आज करते हो क्या कहें आपसे गिला क्या है प्यार का ये अजब सिला क्या है पूछ लीजे ये अपने ही दिल से प्यार में आपके मिला क्या है. मेरी बातों का न गिला कीजे आप ख़ुद ही ये फ़ैसला कीजे शाम जब ज़िंदगी की आ जाये ख़त्म क्यों शौक न भला कीजे आपकी याद ने बुलाया है दिले-बरबाद ने बुलाया है आखिरी रात है ख़लिश मिल लो सुबह सैय्याद ने बुलाया है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जुलाई २००८ ०००००००००० Friday, July 4, 2008 12:40 PM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com वाह खलिश साहब! सुंदरमुक्तकों के गुलाब पिरोए हैं। बधाई आप को याद ने बुलाया है जाल सैय्याद ने फैलाया है वस्ल की रात अभी है बाकी मिलन का वक्त बर आया है ००००००००००००० Friday, July 4, 2008 12:56 PM From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com महेश जी: सुन्दर अशआर हैं । सादर अनूप ०००००००००००००००० Saturday, July 5, 2008 12:49 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" डॉक्टर साहब, बहुत खूब! आखरी रात है ’खलिश’ मिल लो सुबह सैयाद ने बुलाया है वाह! क्याबात है! सस्नेह सीताराम चंदावरकर 0000000000 Sunday, July 6, 2008 3:58 AM From: "shyam skha moudgil" <p2ptto@yahoo.com>View contact details To: ekavita@yahoogroups.com उंगली पकड़ कर पकड़े पहुंचायार बड़ा पहुंचा लगता है ----- Original Message ---- From: Sharad Tailang <sharadtailang@ yahoo.com> Sent: Sunday, July 6, 2008 8:52:51 Subject: Re: [ekavita] १६४६. कभी खिलते गुलाब हम भी थे—ईकविता, ४ जुलाई २००८ खलिश जी जब भी आप की ग़ज़ल पढ़ता हूं सोचता हूं कुछ लिखूं जैसे ही लिखने बैठता हूं फिर एक नई गज़ल सामने आ जाती है। आपकी लिखने की गति बहुत ही तेज़ है । आप तो १६४६ तक पहुंच गए हैं हम तो अभी शतक बनाने के लिए ही जूझ रहे है । हर बार नई बात के लिए बधाई ! शरद तैलंग 00000000000000000 १६४७. सुनो फ़साना तुम्हें सुनाऊं इस दुनिया में खालों का सुनो फ़साना तुम्हें सुनाऊं इस दुनिया में खालों का खाल खींचने पर भी इश्क बढ़े है कुछ मतवालों का रंग-बिरंगी खाल कभी गिरगिट जैसी भी होती है पल में तोला, पल में माशा, हाल है ये दिल वालों का कोई गोरी, कोई काली, कोई खाल सांवली है कारण बन जाता खालों का रंग अनेक बवालों का जिनकी मोटी खाल असर क्यों उन पर कभी नहीं होता नहीं फ़ायदा कभी हुआ ऐसे बेकार सवालों का सबसे खाल कीमती वो है भिश्ती की जो मश्क बने प्यास बुझाती है मरुथल में, ताप हरे बदहालों का. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ जुलाई २००८ १६४८. हम तो हुए या न हुए, जनाब ख़ुश हुए—ईकविता, ५ जुलाई २००८ हम तो हुए या न हुए, जनाब ख़ुश हुए किस्मत को मेरी देख कर खराब ख़ुश हुए हमने हज़ार मिन्नतें कीं न असर हुआ आईने में खु़द देख कर शबाब ख़ुश हुए लाल और गौहर से उन्हें ख़ुशी न मिल सकी मलका-ए-हुस्न का मिला खिताब, ख़ुश हुए औलाद घर पे भूख से करती थी परेशान ठेके पे जा चढ़ाई जो शराब ख़ुश हुए सालों कलम घिसी ख़लिश लिखीं गज़ल हज़ार घटिया सी एक छप गयी कि़ताब, खुश हुए. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ जुलाई २००८ ००००००००००००००००००० Sunday, July 6, 2008 1:34 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com हम तो आप की कविता पर खुश हुए, न कि आपके हालात परहमारी वाह! आपकी गज़ल के लिए और आह! आप के गम के लिए हैदराबाद के एक बहुत पुराने शायर अहमद अब्दुल अज़ीज़ ‘विला’ का एक शे’र पेश-ए-किदमत है- गम से भर आई आँख तो पीने लगे अश्क ज़ब्ते अलम ने आँख को सागर बना दिया ०००००००००००००००००० १६४९. हैं चार दिन जीने के और खयाल हैं हज़ार—ईकविता, ६ जुलाई २००८ हैं चार दिन जीने के और खयाल हैं हज़ार लिख के गज़ल चुका रहा जैसे कोई उधार माना कि तन्हा हूं मग़र अशआर में मेरे झलके किसी हसीन की नज़ाकतों का प्यार अब न रहा वो इश्क मोहब्बत हुयी हवा दिल से गया नहीं अभी वो खब्त वो बुखार गज़लें नहीं हैं सिर्फ़ तरन्नुम के वास्ते अश्कों में ला रहीं हैं किसी दर्द का निखार ये बात है ज़ुदा कि तख़्ती पे खरी न हों लमहाते-ग़म का है ख़लिश इनमें भरा खुमार. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ६ जुलाई २००८ १६५०. पूछ के औरों से लिखें ये नहीं हम मानते—ईकविता, ७ जुलाई २००८ पूछ के औरों से लिखें ये नहीं हम मानते काव्य की यूं तो विधायें हैं सभी हम जानते हम गज़ल लिखें या कविता, हमारा फ़ैसला काव्य में हम भेद भाषा का नहीं पहचानते जो तरन्नुम है गज़ल में सोरठे में है नहीं सुन रदीफ़-ओ-काफ़िया हैं लोग दिल को थामते जिस तरह चौपाई और दोहा चुने गोसांई ने हक हमें भी है गज़ल हम लिखने की ठानते कुंडली हो चाहे दोहा या कोई मुक्तक ख़लिश धर्म और वतन से नहीं हैं वे स्वयं को बांधते. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ जुलाई २००८ ००००००००००० Monday, July 7, 2008 12:43 PM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com जिस तरह चौपाई और दोहा चुने गोसांई ने हक हमें भी है गज़ल लिखने की ठानते लिखिए, खूब लिखिए ...ठन,ठनाठन ००००००००००० |