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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१६५१. जब कभी दिल में मेरे उनका खयाल आने लगा जब कभी दिल में मेरे उनका खयाल आने लगा ज्यों अंधेरे में दिया ख़ुद एक जल जाने लगा दूर वीराने से यूं आवाज़ कोई दे गया अश्क इक पल थम गये जब यार मुस्काने लगा इस तरह माज़ी की कोई याद फिर तड़पा गयी कोई मंज़र-ए-तसव्वुर ख़्वाब दिखलाने लगा वो तो आ कर के खयालों में कभी के चल दिये याद करके याद उनकी इक नशा छाने लगा कीजिये क्या हसरतों का अब बुढ़ापे में इलाज़ ख्याले-रुखसत अब हमें दिन रात भरमाने लगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ जुलाई २००८ १६५२. कोई मेरे मन में आ कर अब सदा देता नहीं कोई मेरे मन में आ कर अब सदा देता नहीं इस दिलेबरबाद का अब जायज़ा लेता नहीं वक्त था कि लब हिलें और वो समझ जाते थे बात अब ज़ुबां से बात हो, कोई ख़बर लेता नहीं ज़िंदगी की नाव जर्जर हो चुकी है बेहिसाब भूल कर भी अब इसे मझधार में खेता नहीं अब दबा के दिल में रखता हूं तमन्ना हर कोई किस तमन्ना का गला सैय्याद ने रेता नहीं पांव तेरे कब्र में, पैमाना हाथों में ख़लिश और कब चेतेगा जो तू आज तक चेता नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ जुलाई २००८ १६५३. एक छोटा सा बनाया था कभी संसार अपना—ईकविता, ७ जुलाई २००८ एक छोटा सा बनाया था कभी संसार अपना फूल बगिया में खिलेंगे यह कभी देखा था सपना पर मेरे दिल की तमन्ना चाह कर भी पुर न पायी जल गया उपवन सुलगती राख में बाकी है तपना गोल है दुनिया न पाओगे कभी तुम छोर इसका चल रहे हो जो निरंतर, क्यों यहां दिन रात खपना कब तलक मन में संजोओगे खयाली ख़्वाब झूठे त्याग दो इच्छायें सारी, सोच लो है नाम जपना लिख चुके हो जो ख़लिश तुम गज़ल सोलह सौ तिरेपन कुछ वज़ह होगी न मुमकिन हो सका दीवान छपना. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ जुलाई २००८ १६५४. बिखरे-बिखरे मेरे अशआर नज़र आते हैं—ईकविता, ८ जुलाई २००८ बिखरे-बिखरे मेरे अशआर नज़र आते हैं नग़मा-ए-ज़िंदगी में खार नज़र आते हैं हुयी रफ़्तार-ए-क़लम मेरी बहुत धीमी है लफ़्ज़ लिखता हूं तो बीमार नज़र आते हैं हमने हर एक निभाया है वफ़ा का वादा ग़ैर के पहलू में दिलदार नज़र आते हैं राख में दिल की अभी भी हैं दबे कुछ शोले चाहे बुझते से वो अंगार नज़र आते हैं काम की रौ में ख़लिश डूब गये जब थे जवां आज बूढ़े हैं तो बेकार नज़र आते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६५५. अब कोई शय ज़िंदगी में रंग नया लाती नहीं अब कोई शय ज़िंदगी में रंग नया लाती नहीं अब तमन्ना कोई सीने में है इठलाती नहीं हर तरफ़ बरबादियों का छा रहा है सिलसिला अब कोई उम्मीद ख़ुशियों की नज़र आती नहीं आरज़ूएं कब तलक देतीं मेरी गर्दिश का साथ हिचकियां अब आंसुओं का साथ निभातीं नहीं एक जो तसवीर माज़ी में है उसको छोड़ कर ग़ैर की सूरत मेरी आंखों में समाती नहीं मान भी जाओ ख़लिश अब असलियत ये ज़ीस्त की तीरगी उम्मीद की लौ से कभी जाती नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६५६. इस तरह वो ज़िंदगी में रंग भरते ही गये इस तरह वो ज़िंदगी में रंग भरते ही गये ज्यों हसीं लब से तराने लाख झड़ते ही गये आफ़ताबी नूर उनके शाद रुख पे देख कर चांद तारे शर्म से पुर-रात गड़ते ही गये क्या गज़ब मासूमियत थी, खा गये धोखा वज़ीर कत्ल करके पैरवी वो आप करते ही गये दूर थी मंज़िल बहुत और पांव भी कमज़ोर थे ज़ानिबे-मंज़िल कदम बेबाक बढ़ते ही गये यूं अमीरी और ग़रीबी में रही ज़द्दो-ज़हद हर तमन्ना से ख़लिश ता-उम्र लड़ते ही गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६५७. हर कदम ये असलियत मुझको नज़र आने लगी हर कदम ये असलियत मुझको नज़र आने लगी रात में अब ज़िंदगी की शाम ढल जाने लगी क्या ख़बर कल की सहर मंज़ूर किस्मत को न हो धुंध सी नज़रों के आगे आज क्यों छाने लगी फ़िक्र थी पहले बढ़ाऊं दौलतें संसार की किस जहां को जाऊंगा अब फ़िक्र ये खाने लगी कर रहा बरबाद अपना आज कल की सोच में देख मेरी कशमकश शय कोई समझाने लगी छोड़ बैठा था ग़मो-ख़्वाहिश जहां के तू ख़लिश आज क्यों फिर से तमन्ना तुझको बहलाने लगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६५८. शब्द तो हों पुराने चितेरा नया—ईकविता, ८ जुलाई २००८ शब्द तो हों पुराने, चितेरा नया कोई उनमें नए अर्थ की सूझ दे वर्ण भी, तूलिका भी पुराने रहें किंतु सूरत को कोई नया रूप दे सुर वही सात हैं, साज़ भी है वही किंतु लय ताल ऐसा समां बांध दें स्वर उठें यूं कि शव में नई श्वास को फूंक, सीमाएं वे मृत्यु की लांघ दें रूढ़ियां सृष्टि की टूट जायें सभी कल्पना हों नई, मान्यताएं नईं किंतु सिद्धांत शाश्वत न छूटें कहीं चाहे छायें क्षितिज पर छटाएं नईं शारदे मैं सतत साधना में रहूं ज्ञान की जो पिपासा है बढ़ती रहे मैं जठर की क्षुधा की न चिंता करूं किंतु विद्या क्षुधा पींग भरती रहे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ ०००००००००००० Tuesday, July 8, 2008 12:24 PM From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com महेश जी: राकेश जी के बारे में आपने सही लिखा है । कई बार आश्चर्य होता है कि इतना प्रतिभावान कवि अपनी पूरी विनम्रता के साथ, ईकविता से जुड़ा हुआ है और ईकविता के सदस्यों को उन की नई कृतियों का सब से पहले रसास्वादन का अवसर मिलता है । आप की ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगी : रूढ़ियां सृष्टि की टूट जायें सभी कल्पना हों नई, मान्यताएं नईं किंतु सिद्धांत शाश्वत न छूटें कहीं चाहे छायें क्षितिज पर छटाएं नईं सादर , स्नेह अनूप 000000000 Tuesday, July 8, 2008 6:37 PM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com Mahesh Ji..... Namaste... aapki kavitaa bahut acchi lagi ....pichley kuch dino mein jo gazalein bheji hain ve bhi sabhi acchi lagiin... ~RIpudaman ००००००००००००० १६५९. जब कभी महफ़िल में उसके रूप का चर्चा हुआ—ईकविता, ८ जुलाई २००८ जब कभी महफ़िल में उसके रूप का चर्चा हुआ दिल पे छुरियां चल गयीं, गो आज है अर्सा हुआ इश्क में वो तो नहीं पर ढेर से आंसू मिले क्या बताएं किस तरह हम पर जमा कर्ज़ा हुआ एक रुपया रोज़ मिलता था शुगल के वास्ते एक दिन उनको घुमाया, माह का खर्चा हुआ दो दिनों के बाद सालाना बदा था इम्तिहां सोच लीजे आप ही कि किस तरह पर्चा हुआ हो गये हम फ़ेल, जो अव्वल था, दिलवर ले गया ज्यों ख़लिश ले जाये कोई थाल इक परसा हुआ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ ००००००००००० Tuesday, July 8, 2008 10:31 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com डॉ महेश्जी, हो गये हम फ़ेल, जो अव्वल था, दिलवर ले गया ज्यों ख़लिश ले जाये कोई थाल इक परसा हुआ. क्या बात है! मतले के शेर ने ’शब भर रहा चर्चा तेरा की याद दिला दी। सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००००००० Wednesday, July 9, 2008 1:14 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com जब कभी महफ़िल में उसके रूप का चर्चा हुआ वाह खलिश साहब! ये पंक्तियां याद आ गई -- कुछ ने कहा ये चांद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा १६६०. याद उनकी जब तसव्वुर में मुझे आने लगी याद उनकी जब तसव्वुर में मुझे आने लगी कोई शय तनहाई की दिल पर मेरे छाने लगी था वही धुंधला सा मंज़र फिर नज़र के सामने कुछ नमी आंखों को मेरी और धुंधलाने लगी देखते ही देखते फिर नूर का आलम हुआ शक्ल जब उनकी अचानक आ के मुस्काने लगी याद तो पल भर को आयी ज़ख्म गहरा कर गयी वो नहीं हैं पास ये एहसास करवाने लगी एक दिन वो अप्सरा ख़्वाबों में आ कर के ख़लिश भूल जाओ, कब तलक तड़पोगे, समझाने लगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६६१. यूं अमीरी और ग़रीबी में रही है अनबनी यूं अमीरी और ग़रीबी में रही है अनबनी बढ़ रही है रात दिन दोनों गुटों में दुश्मनी है हमें जीने का हक ये मुफ़लिसों की है गुहार देख ज़ंज़ीरों के तेवर बढ़ रही है सनसनी इंतकामी आग में कैसे मिले रूह को निज़ात डर रहा है दिल ही दिल में अब वतन का हर धनी फ़ैसला हो जायेगा जब राख कर देगी ये आग करवटें बदले है भूखे पेट में शय अनमनी ज़िल्द-ए-तारीख में लमहात ऐसे हैं ख़लिश ज़ंगे-मैदां में गु़लामों और ताजों में ठनी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६६२. आ गया है वक्ते-रुखसत, बात याद आती रही आ गया है वक्ते-रुखसत, बात याद आती रही और जी लेने की कुछ उम्मीद उलझाती रही एक तरफ़ मेरा बुढ़ापा और जवानी इक तरफ़ मेरी लाचारी का वो एहसास दिलवाती रही ज़ब्त तो करता रहा फिर भी ज़ुबां खुल ही गयी एक आह निकली मेरी रुसवाई करवाती रही क्यॊ धड़कता है दिले-बरबाद अब रहने भी दे तेरी धड़कन भी ग़मों का गीत ही गाती रही दिल रुके और सांस भी रुक जाये तो हो चैन फिर और हो महसूस जीने की सज़ा जाती रही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६६३. इस तरह अब ज़िंदगी के दिन गुज़रते जायेंगे इस तरह अब ज़िंदगी के दिन गुज़रते जायेंगे वो करेंगे झूठ वादे, हम बहलते जायेंगे न हमें मालूम था ऐसा भी मंज़र आयेगा पास रह कर के भी वो दिल से बिछड़ते जायेंगे कर चुके हैं दूर अपने दिल से सारी ख़्वाहिशें आरज़ू जो भी करेंगे, वो मुकरते जाय़ेंगे कीजिये आगे किसीके क्या मोहब्बत का बयान अपनी धुन में वो सिरफ़ सजते संवरते जायेंगे वो हमारे न हुए हम हो गये उनके ख़लिश ज़िंदगी भर याद में उनकी तड़पते जायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जुलाई २००८ १६६४. तीर मारा एक पल, दूजे, नज़र नीचे झुकी तीर मारा एक पल, दूजे, नज़र नीचे झुकी क्या करें उससे शिकायत क्यूं करी ये दिल्लगी तीर का है सामने मालिक मग़र क्या कीजिये देखता मासूमियत से, यां मेरी धड़कन रुकी कतरा कोई न तो खूं का, न ही आंसू का बहा ज़ख़्म दिल पर हो गया और ग़म मिला ता-ज़िंदगी दीजिये इलज़ाम क्या, साबित करे कैसे कोई न है करार-ओ-सनद और न गवाह है कोई भी अब यही बेहतर है ख़लिश ये ख़लिश सहते रहो इश्क की मुश्किल है मंज़िल, न चुके है राह ही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ १६६५. कत्ले-हक़ीक़त—ईकविता, ९ जुलाई २००८ मौलवी, काज़ी के आगे जब उसे लाया गया मु़ज़रिमे-इस्लाम है, ये उस को बतलाया गया वो ख़ुदा की राह पर चलता रहा था उम्र भर पर ज़ुदा उसका ख़ुदा है उसको समझाया गया वक्त है, इस्लाम को कर ले अग़र अब भी क़बूल माफ़ कर देगा ख़ुदा ये कह के फ़ुसलाया गया वरना दोज़ख में हमेशा को जलेगी उसकी रूह राज़ ये उस पर हज़ारों बार जतलाया गया आत्मा उसकी अमर है ज्ञान ये गीता का था मौलवी से दिल हकीकत का न भरमाया गया जीत मज़हब की हुयी, अल्लाह चुप देखा किया यूं हकीकत को ख़लिश था कत्ल करवाया गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ १६६६. चुपके चुपके कोई दिल में इस तरह आता रहा चुपके चुपके कोई दिल में इस तरह आता रहा बिन बताये राज़ मोहब्बत के समझाता रहा गै़र था वो किस तरह न जाने मेरा हो गया गुफ़्तगू का न ख़तों का ही कभी नाता रहा शक्ल भी देखी नहीं पर्दानशीं की है कभी ख़्वाब में सूरत हसीं हर रात दिखलाता रहा याद उसकी आयी है जब भी मेरा दिल रो दिया न मिला वो अब तलक हर बार कतराता रहा है अजब किस्सा-ए-उल्फ़त, अब ख़लिश क्या कीजिये न बढ़े न तर्क हो, सारा मज़ा जाता रहा. १६६६. कौन जाने ये कदम कब सहम जायें राह में कौन जाने ये कदम कब सहम जायें राह में कौन जाने कब मेरी मुस्कान बदले आह में क्या भरोसा है दिलों का, प्यार है धोखा महज़ कौन जाने फ़र्क आये कब किसी निगाह में प्यार की संगीन राहों को समझ पाया है कौन सौ तरह की बंदिशें हैं, फ़ासले हैं चाह में चन्द माह की थी बहू सासू के हाथ जल गयी कौन जाने कब पड़े दरार किस विवाह में चन्द माह की थी बहू जो जल गयी सासू के हाथ कौन जाने कब पड़े दरार किस विवाह में थी वफ़ा की रूह, सच्चे प्यार की थी जान जो आज उसे ही ख़लिश देखा है ग़ैर बांह में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ १६६७. इश्क पर मेरे ज़माने के सवाल आने लगे इश्क पर मेरे ज़माने के सवाल आने लगे और भी वो प्यार को मज़बूत बनाने लगे ख्याल था लोगों का मैं डर जाऊंगा, झुक जाऊंगा पर बग़ावत के इरादे और लहराने लगे क्यों मेरी आज़ादियों पर कोई पाबन्दी लगे कह के ऐसी बात मेरे दोस्त उकसाने लगे जब भी माशूका गुज़रती सब बड़ी मस्ती के साथ आशिकाना गीत उसके सामने गाने लगे ले गयी मुझको पकड़ के जब पुलिस मुंसिफ़ के पास कोई भी न साथ आया, सब बिदक जाने लगे प्यार की आज़ादियों का भूत तब उतरा ख़लिश जब सिपाही लाठियां बेबाक बरसाने लगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ १६६८. सिख बालकों का बलिदान: गूजरी मां और पोतों को पकड़ लाया गया—ईकविता, ९ जुलाई २००८ गूजरी मां और पोतों को पकड़ लाया गया हैं गुरु गोबिंद सिंह के पूत, बतलाया गया जो नवाबी कर रहा सरहिंद की, जल्लाद था छोड़ देंगे ग़र वरो इस्लाम, जतलाया गया जब किया इंकार वह बोला अभी कल और है दूसरे दिन फिर यही था प्रश्न दोहराया गया देख उनका बालपन इक और फिर मौका दिया तीसरे दिन भी वही उत्तर मग़र पाया गया ख़ून खौला उस मुसलमानी नवाबी शख्स का ज़ोरावर और फ़तेह को दीवार चिनवाया गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ Baba Zorawar Singh and Baba Fateh Singh http://www.sikhiwiki.org/index.php/Martyrdom_of_the_sons_of_Guru_Gobind_Singh Under Emperor Aurangzeb's orders, the Mughal governors of Lahore and Sarhind, with all their troops, marched against Guru Gobind Singh. They were joined by the Hindu hill chiefs and the Muhammedan Ranghars and Gujjars of the locality The combined armies besieged Anandpur and cut off all supplies. The Guru and his Sikhs bore the extreme hardships of the long seige with steadfast courage. The besiegers began to despair of success. They sent messengers to the Guru. The messenger said, 'The Mughal governors and the hill chiefs have sworn on the Quran that if you vacate the fort they willnot harm them. The Guru had no faiths in them but was prevailed upon by his mother and others to leave the fort. When Guruji was crossing the river sarsa they attacked him and in this confusion Guru's mother, Mata Gujri became separated from him and his sikhs. His two younger sons, Baba Zorawar Singh and Baba Fateh Singh were with her. In the biting winter they travelled through a thick jungle where they met a Brahman who had once been a cook at the Guru's house. He offered them protection in his house. The mother decided to take her grandsons with her and accept the shelter offered by Brahman. When the Guru's mother went to sleep, he stole her saddle-bag which contained her valuables and money and buried it somewhere in the house. When the mother wokeup she found the bag missing and questioned Brahman. He pretended to be furious at this and said,'So you suspect me! you think me to be a thief! This,then, is the return that you propose to make for my service to you! I saved you from sure death. I exposed myself to grave risks in giving you shelter and protection. The return that you make to me for all this is that you charge me with theft! You have insulted me. Mata Gujri tried to calm him but he refused to listen and at once went to Muhammedan Chaudri of the village and told him that the Guru's mother and his two sons have just come to his house. Mata Gujri and his two grandsons were arrested and taken to the Nawab Wazir, governor of Sarhind . Nawab ordered them to be confined in a tower of his for. They had to pass the cold December night with the bare, hard floor as the bed. Next day, the two grandsons were parted from their grandmother and were taken to Nawab Wazir Khan's court. On reaching there, they shouted loudly in one voice, 'Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru JI Ki Feteh', All eyes were turned in their direction. Their slim, their calm, bright faces and their fearless apperance won the admiratioj of all present in the court. Sucha Nand, a Brahman courtier of the Nawab advised the little princes to bow the Nawab. No, said Baba Zorawar Singh the elder of the two. 'We have been taught to bow to none but God and the Guru. We willnot bow to the Nawab. This bold, unexpected reply astonished everbody, and even the Nawab. He said to the children that your father and your two elder brothers have been killed in the battle at Chamkaur. They were infidels and deserved the fate but you are lucky. Good luck has brought you to an Islamic darbar. Embarace Islam, and become one with us. You will be given wealth, rank and hounour and you will live good lives. You will be honoured by the Emperor. If you say 'No' to my offer, you will be treated as infidels are treated and will be put to death Baba Zorawar Singh, looking at his younger brother said in a whisper, 'My brother, the time to sacrifice our lives has arrived. What do you think we should reply?. Baba Fateh Singh, who was just six years old then replied, 'Brother dear, our grandfather, Guru Teg Bahadur, parted with his head; he stoutly refused to part with his religion. We should follow his example. We have received the baptism of the spirit and the sword. We are the Guru's lions. Why should we fear death ? It is best that we should give our lives for the sake of our religion'. Then Baba Zorawar Singh raised his voice and said to Nawab that you say that our father has been killed, that is a lie. He is alive and yet to do a good deal of work in this world. He has to shake your empire to its root. Know that we are the sons of him who at my age sent his father to sacrifice his life at Delhi. We reject your offers of pleasures. It has been the custom of our family to give life but not to give faith. Let your sword do the work. We invite you to do your worst'. These words alone were enough to inflame the haughty Nawab. But Sucha Singh chose to pour oil over the fire and said, such is their behaviour at this tender age. What will be it when they grow up? They will follow the example of their father and destroy the imperial armies. This offsprings of a cobra should be crushed'. The Nawab said that you are true and wise but I want them to embrace Islam. Let us give them some time to think and consult their grandmother. We shall try again tommorrow to make them yield. Then he said to the two brothers that i don't want to act in haste and I give you some time to think over it. If you refuse you will be given tortures that your cries will be heard far and wide and then you will be cut into pieces. Then he ordered to take them back to the tower where Mata Gujri had been waiting for them eagerly. A look at their faces convinced her that they had kept firm in their faith and she said a brief prayer of thanks to God. Then she rushed towards them and hugged both of them lovingly to her bosom. Seating them on her lap she asked them to tell her what had happened.Baba Zorawar Singh narrated the whole thing to his grandmother. Mata Gujri was immensely pleased to hear what her grandsons narrated to her. Then she said to them that you should behave tommorrow in the same manner as you did today. Remember your grandfather example and teachings. If they torture you, pray to God for strength and think of your grandfather. And on the next day when they were presented before the Nawab, he gave them the same threats and made them the same offer if they embrace Islam but they refused to his offer. Sucha Nand again pressed the Nawab to give them the death punishment. But the latter decided to give them more time to thing over. He still had hopes that they would yield. The next day they were taken to the court for the third time. The Nawab again gave them the same offer and the brave sons of Guru Gobind Singh made the same reply as on the previous two occasions. Then the Nawab pretented to be kind. He softened his voice and said that I hesitate to give orders for your death. By the way, what would you do if we were to give you your liberty. The bold brave boys replied that we would collect our Sikhs, supply them with weapons of war, fight against you and put you to death. The Nawab said if you were defeated in the fight what would you do then ? The boys replied that we would collect our armies again and either kill you or be killed. By now the Nawab pretended kindness was gone and he ordered his men to bricked the boys alive. Under the Nawab's orders a part of the outer wall of the fort was pulled down and the children were made to stand in the gap thus created. The pathans were standing nearby and had their swords on shoulders of the children. Masons were ordered to erect a wall around the children. They were told to take care that the bricks press wall and tightly against their bodies. After each layer the Qazi urged them to accept Islam but the boys stood calm and quiet. They were busy reciting Japuji and other hymns of the Gurus. When they were buried in the wall up to the shoulders the Nawab came himself and urged them to accept Islam to save their lives. The boys stood calm and shook their heads. The boys were martyred. When the news of martyrdom reached the Mata Gujri she said ,'O my dear ones take me with you! Now that you have gone what have I left to do? O my soul, fly after them to the bosom of the Merciful Father. O my dear ones we shall meet again in our True Home'. On the spot where the three bodies were creamted was later erected a gurudwara called Joyti Sarup. At the place where the two Sahibazadas were bircked alive stands the gurudwara called Fatehgarh Sahib. Nearby, at the site of the tower(burj) in which the three had been imprisoned and where Mata Gujri breathed her lasts, stands a gurudwara called Mata Gujri's Tower (Burj). १६६९. लोग कहते हैं बहुत बेकार हूं, नाकाम हूं—ईकविता, ९ जुलाई २००८ लोग कहते हैं बहुत बेकार हूं, नाकाम हूं या किसी मनहूस कोशिश का बुरा अंज़ाम हूं एक अनचाही सी मानो मैं कोई औलाद हूं या किसी की गलतियों का गल्त सा ईनाम हूं हूं कोई नापाक साया, कुछ नहीं जिसके असूल या मुसीबत फ़ालतू सी या ज़हर का जाम हूं न मुझे कोई शिकायत न कोई मुझको गिला न मेरे हकूक कोई, एक इंसां आम हूं ऐ ज़माने शुक्रिया तूने मुझे जीने दिया सांस लेने का न हक था, न ख़लिश इंसान हूं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जुलाई २००८ ०००००००००००० Thursday, July 10, 2008 8:48 AM From: "Vinay k Joshi" vinaykantjoshi@yahoo.co.in शोरीदा-सर, आशुफ्ता-जां इक नजर का मुन्तजिर हासिये में कैद महरूम खुशनुमा इंसान हूँ ००००००००० १६७०. इश्क क्या है कशमकश का नाम है इश्क क्या है कशमकश का नाम है दो दिलों पर बिन वज़ह इलज़ाम है धड़कनें दो, ताल उनकी एक हो ये वफ़ा, सबसे बड़ा ईनाम है ज़िंदगी की है ये मंज़िल आखिरी प्यार से बढ़ कर न कोई काम है जब तलक न दे मोहब्बत को कुचल क्यों ज़माने न तुझे आराम है मत समझ तू जीत जायेगा ख़लिश चाह का जज़्बा दिलों में आम है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ १६७१. वे मिले दो दिन को हमसे, दिल लगा कर चल दिये—ईकविता, १० जुलाई २००८ वे मिले दो दिन को हमसे, दिल लगा कर चल दिये ख़ुद तो दिल बहला लिया, हमको भुला कर चल दिये प्यास जो हमने बुझायी, शुक्रिया बस कह दिया पर हमारी प्यास को दूना बढ़ा कर चल दिये क्या शिकायत कीजिये ख़ुद ही लगा बैठे थे दिल वो बहुत मसरूफ़ थे पीछा छुड़ा कर चल दिये ज़ुल्फ़ चेहरे से हटाई तो ख़फ़ा वो हो गये सर झटक, रुखसार पे फिर से गिरा कर चल दिये दूसरा उनसा ख़लिश कोई मिलेगा क्या पता वो ख़ता कोई हमारी न बता कर चल दिये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ १६७२. तुम चले जाओगे लेकिन याद फिर भी आयेगी तुम चले जाओगे लेकिन याद फिर भी आयेगी आंख में आंसू भरेगी, रात-दिन तड़पायेगी ये बता दो क्या करें जब याद हमको आओगे बेज़ुबां तसवीर ये बहला न दिल को पायेगी कोई मंज़र ख़्वाब में जब फिर उभर के आयेगा वादियों की वो फ़ज़ा भूले तराने गायेगी तुम चले जाओगे पर माज़ी कभी न जायेगा हर तुम्हारी बात आंखों में नमी भर लायेगी अलविदा ऐ दोस्त जहां भी रहो जैसे रहो पर ख़लिश दिल से हमारे न ये सूरत जायेगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ १६७३. माना हैं आप हुस्न के मालिक जहान में, आईने पे न इतना सितम अजीब ढाइये माना हैं आप हुस्न के मालिक जहान में, आईने पे न इतना सितम अजीब ढाइये हम हैं बहुत कायल ज़नाब आपके मग़र इतना भी न ग़रूर हमें यूं दिखाइये जब हुस्न बंट रहा था ख़ुदा के हज़ूर में, तो आपको ज़रूर ही अव्वल ज़गह मिली पर अक्ल की फ़हरिस्त में है नाम नदारद, तफ़सील आप कुछ हमें इसकी बताइये लाल और गौहर, आपका ये रेशमी लिबास, जो दे रहे हैं अज आपको अज़ीम शान हमने ही तो नज़र किये थे आपको कभी, छू लें कभी इन्हें ज़रा मंशा जताइये तनहाइयों में जो जिये तो किसलिये जिये, इस दिल की तमन्नाओं का खयाल कीजिये क्या है वज़ह रहते हैं हमसे आप दूर-दूर, लमहे को एक तो कभी क़रीब आइये कहते हैं नोक-झोंक से बढ़ता है और इश्क, नाराज़ होइये न इस तरह मेरे आका छोटा सा जो मज़ाक किया, क्यों हुए ख़फ़ा, जाने भी दीजिये ख़लिश गुस्सा न खाइये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ १६७४. उनकी तबीयत यूं लगे रंगीन हो गयी उनकी तबीयत यूं लगे रंगीन हो गयी फ़ितरत लगे है आज कुछ शौकीन हो गयी उनसे करें जो बात तो सुनते नहीं हैं वो उनकी जहानत आज क्यों ग़मगीन हो गयी हमने सलाम के जवाब में हलो कहा इसमें न जाने किस तरह तौहीन हो गयी उनको असूले-दोस्ती कैसे सिखाये कौन ज्यों भैंस के आगे सलाह बीन हो गयी आईना देख कर करें अपने पे यूं ग़रूर उनको बहुत अपनी शकल यासीन हो गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ १६७५. बही जा रही है नदिया की धारा बही जा रही है नदिया की धारा इसे रोक पाया न कोई किनारा बहते ही रहना फ़कत काम इसका गुज़री जहां से न आयी दोबारा खेतों को सींचा, दिया अन्न सबको कितने ही प्यासों को इसने उबारा श्रंगार इसने किया है ज़मीं का हसीं वादियों को है इसने संवारा पिलाया ख़लिश जल सभी को है मीठा मिली जिस समंदर में पानी है खारा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० जुलाई २००८ |