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Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775 |
१७०१. यूं ही मैं ज़िंदगी बिताता हूं यूं ही मैं ज़िंदगी बिताता हूं मुश्किलें रोज़ की निभाता हूं कभी है धूप और कभी साया कभी रोता हूं मुस्कराता हूं मैंने चाहा कि नूर मिल जाये मैं जो छू लूं पहाड़ हिल जाये पायी कांटों की है फ़सल गोया मैंने चाहा कि फूल खिल जाये कामयाबी नहीं मेरी मंज़िल मेरा दुश्मन सदा रहा साहिल मुझे मझधार से गुज़रना है चाहे कश्ती नहीं मेरी काबिल हार को मैं सलाम करता हूं जीत दुनिया के नाम करता हूं कोशिशों में नहीं कमी रखी काम से सिर्फ़ काम रखता हूं चाहे मंज़िल नहीं निगाह में है दर्द हलका सा फिर भी आह में है न सही कुछ गिला ख़लिश लेकिन एक अहसासेदर्द चाह में है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ जुलाई २००८ १७०२. याद आयी किसी की तो ऐसा लगा-- ईकविता, २४ जुलाई २००८ हो ओ ... याद आयी किसी की तो ऐसा लगा जैसे कांच पे किरण जैसे प्यालियों में रंग जैसे बांसुरी की तान जैसे स्वप्न की उड़ान ओ ... जैसे छायी गगन में हो काली घटा…… हो ओ ... याद आयी किसी की तो ऐसा लगा जैसे ज़ुल्फ़ों की डोर जैसे मन की हिलोर जैसे बिजली कड़क जैसे फूल की सड़क ओ ... जैसे मौसम में आया नज़ारा नया…….. हो ओ ... याद आयी किसी की तो ऐसा लगा जैसे बदरी में बूंद जैसे गीतों की गूंज जैसे खिलता पलाश जैसे छाये अमलतास ओ ... जैसे गुलमोहर को हो संवारा गया …….. हो ओ ... याद आयी किसी की तो ऐसा लगा जैसे करवट सोयी जैसे ख़्वाब हो कोई जैसे बज उठे साज और छिड़ जाये राग ओ ... जैसे पत्र लौट कर के हो आया हुआ…… हो ओ ... याद आयी किसी की तो ऐसा लगा • राकेश खंडेलवाल जी के बिम्बों पर आधारित महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ जुलाई २००८ 0000000000000 Thursday, July 24, 2008 1:48 PM From: "Anoop Bhargava" anoop_bhargava@yahoo.com महेश जी: राकेश जी का गीत तो सुन्दर था ही , आप का ’फ़िल्मीकरण’ भी अच्छा लगा । सादरअनूप ००००००००००००० Friday, July 25, 2008 5:10 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com राकेश जी, बहुत सुंदर गीत है। विशेष रूप से यह अभिव्यक्ति मन को भा गई। ’एक बदरी पिरोये हुए बूंद में, आप के गीत को गाने लगी" महेश जी, आप ने किया हुआ इस गीत का रूपांतरण को देख कर ऐसा लगा- "गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागूं पांव" सस्नेह 0000000000000 १७०३. यूं प्यार की राहों में कदम डगमगा गये-- ईकविता, २५ जुलाई २००८ यूं प्यार की राहों में कदम डगमगा गये मासूम से चेहरे से एक मात खा गये ख़्वाहिश बतायीं जो उन्होंने कीं सभी पूरी हसरत हमारी सुन के धता वो बता गये कहते थे वो कि फ़ख़्त पहली है ये मोहब्बत जाने कहां से रोज़ नये यार आ गये हमने वफ़ा निभायी मग़र ये सिला मिला रिश्ता करेंगे तर्क वो हमको सुना गये इन मामलों में हम ख़लिश नादान थे बहुत बेकार कदम प्यार की राह में बढ़ा गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ जुलाई २००८ 000000000000 Friday, July 25, 2008 9:40 AM From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com कहते थे वो कि फ़ख़्त पहली है ये मोहब्बत जाने कहां से रोज़ नये यार आ गये तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही तू नहीं और सही और नहीं और सही 00000000000 Friday, July 25, 2008 9:48 AM From: kusumsinha2000@yahoo.com Aderniy maheshji bahut majedar gazal ke liye badhai. bahut sundar bahut khub kusum 0000000000 १७०४. किसको दिखाऊं मैं जो मेरे दिल में दाग़ है किसको दिखाऊं मैं जो मेरे दिल में दाग़ है बाकी है राख और धुआं दिल में न आग है इक महफ़िले-तारीक में जीता हूं रात दिन अब सिर्फ़ सीने में बुझा सा इक चराग़ है भौंरा न आया तो भला ये रूप-रंग क्या कहने को तो फूलों पे चमन में पराग है कातिल की दोस्ती है थानेदार से मग़र तफ़तीश कहती है नहीं कोई सुराग है ये ढूंढते रहते हैं ख़लिश काफ़िये अज़ीब इन शायरों का फिर गया शायद दिमाग़ है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ जुलाई २००८ १७०५. थे इश्क में नाकाम, शायरी पे आ गये थे इश्क में नाकाम, शायरी पे आ गये दर्दे-बयां करते रहे महफ़िल पे छा गये दिल पे जो लगा दाग़ तो फिर यूं असर हुआ निकले कलम से लफ़्ज़ और दिल को लुभा गये यूं तो कहो न अश्क ये बेकार हो गये बह के सुखनबरी को बुलंदी दिला गये सहते रहे हम और वो करते रहे सितम जितने भी दिये ग़म सभी हम हंस के खा गये उनसे तो कभी रू-ब-रू न कह सके ख़लिश महफ़िल में अपनी दास्तानेग़म सुना गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ जुलाई २००८ १७०६. पुरदर्द गज़ल हो गयी दिल में लगा जो दाग़-- ईकविता, २६ जुलाई २००८ पुरदर्द गज़ल हो गयी दिल में लगा जो दाग़ बुझने से पहले कर गया रौशन फ़िज़ा चराग़ देखे हैं हमने हादसे ऐसे भी दर्दनाक कि पेशतर सुहागरात लुट गया सुहाग धड़कन बुझी बुझी है सांस भी रुकी-रुकी अब डूबता सा जा रहा है ज़िंदगी का राग किसको भला क्या दोष दें किस्मत का फेर था ख़ुद ही लगायी थी कभी हमने चमन को आग अब तलक ख़लिश बैठे हो किस के इंतज़ार में क्योंकर बहार आयेगी जब जल चुका है बाग़. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ जुलाई २००८ १७०७. माना कि दौलतों से अब इंसां की शान है-- ईकविता, २६ जुलाई २००८ माना कि दौलतों से अब इंसां की शान है दौलत से ऊपर भी मग़र कुछ आन-बान है रेशम-ओ-ज़र, गौहर मेरे लिबास में नहीं दिल में मग़र पुरनूर रूहानी रुझान है ढल जायेगी ये शय फ़कत है खेल चंद दिन क्यों रंग-रूप पर तुझे इतना ग़ुमान है रहता हूं मैं भी आम इंसानों की शक्ल में मौज़ूद मेरे दिल में उस रब का निशान है नादान हो ऊंचे किलों पे फ़ख़्र करते हो इनसे कहीं ऊपर मेरे रब का मकान है अपना तो घर सभी बुहारते हैं पर ख़लिश घर दूसरों का जो सजाये वो महान है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ जुलाई २००८ १७०८. मशहूर है दुनिया में कि वो हैं मेरे रकीब मशहूर है दुनिया में कि वो हैं मेरे रकीब बर्ताव दुश्मनी का है, कहने को हैं हबीब उनको हज़ार दौलतें दुनिया में है वसूल दिल से मग़र लगते हैं वो हमको बहुत ग़रीब हैं दूरियां ही दूरियां दोनों के दरमियां ये सिलसिला-ए- इश्क है ज्यादा ही कुछ अज़ीब हो जायेंगी सब मुश्किलें आसान एक दिन अल्लाह को जब लाओगे इस दिल के तुम क़रीब कोई न काम आयेगा जब कूच करोगे चलना ख़लिश सभी को है अपना उठा सलीब. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ जुलाई २००८ १७०९. पास भी आते नहीं, वो दूर भी जाते नहीं पास भी आते नहीं, वो दूर भी जाते नहीं और बेरुखी की वज़ह कोई बतलाते नहीं वो जो पहलू में कभी करते रहे अठखेलियां आज हमको देख कर झूठे भी मुस्काते नहीं सोच कर हम थक गये कोई तो बता दे हमें क्या सबब है भूल कर भी शक्ल दिखलाते नहीं तितलियों और कोयलों से ये चमन गुलज़ार था आ गयी पतझड़ तो अब भौंरे भी मंडराते नहीं दोस्ती का इस जहां में है चलन ऐसा ख़लिश साथ रह कर उम्र भर फिर लौट कर आते नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ जुलाई २००८ १७१०. बहुत दिन हो गये जीते हुए अब मौत आ जाये-- ईकविता, ३० जुलाई २००८ बहुत दिन हो गये जीते हुए अब मौत आ जाये मेरे रिसते हुए घावों पे आ मरहम लगा जाये जिन्हें कहते थे अपना सब पराये हो चुके हैं अब कोई तो हो जो वीराने में मुझसे दिल लगा जाये नहीं आसान है तनहाई में जीवन बिता देना न क्यों ग़म की फ़िज़ा ऐसे में मेरे दिल पे छा जाये बहुत नग़मे सुने हैं वस्ल के अब जी नहीं लगता कोई नग़मा-ए-रुखसत आखिरी गा कर सुना जाये यहां क्या रह गया है सिर्फ़ है आलम-ए-बरबादी ख़लिश ऐसे में हमको भी कोई आ कर मिटा जाये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० जुलाई २००८ १७११. अग़र नहीं दिल घायल होता गज़ल कहां से आती ये—ईकविता, १ अगस्त २००८ अग़र नहीं दिल घायल होता गज़ल कहां से आती ये ख़ुद तो रोता हूं औरों को कैसे भला रुलाती ये मेरे दिल को दुनिया के ग़म अग़र तबाह नहीं करते कैसे दिल के तूफ़ां को औरों को भला दिखाती ये मन में कितनी पीर भरी है मैं जानूं या दिल जाने कैसे होता राज़ बयां ग़र गज़ल नहीं बतलाती ये कब तक अपने अहसासों को अशआरों में ढालूंगा काश मेरे आंसू थम जाते, काश गज़ल थम जाती ये ख़लिश गज़ल का और दिल का आपस में कुछ तो रिश्ता है वरना दिल की लाचारी पर क्यों इतना इठलाती ये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ अगस्त २००८ १७१२. मैं ज़िंदगी को इस तरह जीता चला गया मैं ज़िंदगी को इस तरह जीता चला गया हर सांस में इक ज़हर सा पीता चला गया है राह तो बाकी मग़र अब हमसफ़र नहीं था दर्द बांटने का सुभीता, चला गया यूं तो नहीं कि खेल में बाजी ही छोड़ दी जो भी लगाया दांव वो रीता चला गया मुझको सभी मंज़ूर हैं दुनिया के रंजोग़म दिल चाक जो होता गया, सीता चला गया. मेरी भी कुछ ख़्वाहिश थीं ख़लिश मैं मग़र दिल में अरमान के बदले बसा गीता चला गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ अगस्त २००८ १७१३. मन मीत बनाया था जिसको अब टूटा उससे नाता है—ईकविता, २ अगस्त २००८ मन मीत बनाया था जिसको अब टूटा उससे नाता है इस दिल में जिसकी सूरत है वो मुझसे आंख चुराता है गुज़रे थे कभी ऐसे लमहे कहते थे संग जियेंगे हम याद आते हैं वो पल-छिन तो जी चुपके से घबराता है अब किससे करें शिकायत हम ख़ुद ही यह रोग लगाया था दिन तो कट जायें रातों को सूनापन बहुत सताता है पहले नित मिलने आते थे अब सपनों में ही मिलना है उम्मीद का धागा भी अब तो लगता है टूटा जाता है मन और ज़हन ये कहते हैं, जाने वाले कब आते हैं पर ख़लिश नहीं माने है दिल, आंसू बेकार बहाता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ अगस्त २००८ १७१४. न तमन्ना है कोई अब न कोई हसरत बची न तमन्ना है कोई अब न कोई हसरत बची न मोहब्बत है किसी से न कोई नफ़रत बची दिल बहुत छोटे हैं उनके जिनके ऊंचे हैं महल अब नज़र में याख़ुदा तेरी ही बस अज़मत बची न तो हैं जज़्बात कोई न बहर अरकान हैं भेजता रहता हूं गज़लें बस यही शोहरत बची अब सिवा तनहाई के न साथ है मेरे कोई ख़ुद लिखूं ख़ुद को सुनाऊं बस यही नौबत बची छूट गये सब दोस्त फिर भी हूं अकेला क्यों कहूं दम-ब-दम जो साथ है उसकी तो है सोहबत बची जो करे मुझसे बुराई मैं भला उसका करूं है ये दकियानूस माना, पर यही फ़ितरत बची पाक दामन है मेरा इतना ही है मुझको बहुत पा लिया मैंने सभी कुछ ग़र मेरी अस्मत बची मुफ़लिसी में जो रहा इसका नहीं कुछ ग़म मुझे ऐ मेरे रब शुक्रिया अब तक मेरी इज़्ज़त बची बस्ती-ए-इंसान में रह के न कुछ हासिल हुआ हाथ फैलाने को अल्लाह की ख़लिश रहमत बची. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अगस्त २००८ १७१५. हस्ती है क्या इंसान की इक बुलबुला सा है हस्ती है क्या इंसान की इक बुलबुला सा है पुतला है माटी का मग़र कुछ चुलबुला सा है देता है दुहाई असूलों की बहुत लेकिन ख़ुदगर्ज़ है ये राज़ सभी पर खुला सा है खा के भी चोट आदतों से बाज़ न आये इंसान गलतियों का महज़ सिलसिला सा है दूजा न कोई लूट ले उसकी कहीं दौलत हर एक बशर दुनिया में मानो इक किला सा है यूं तो किसी के प्यार पर कुछ हक नहीं ख़लिश तनहाई पर अपनी मग़र फिर भी गिला सा है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ अगस्त २००८ १७१६. झरते पत्ते: हायकू—ईकविता, ४ अगस्त २००८ झरते जायें पात. छोड़ चले बच्चे मां को, दिल रोया चुपचाप. • हायकू, haiku, १७ ध्वनि-खंडों, syllables, की जापानी मूल की कविता है, जिन्हें तीन पंक्तियों में ५-७-५ के अनुपात से संजोया जाता है. इसी शैली में हायकू अंग्रेज़ी में भी बहुत लिखे गये हैं. हायकू के बारे में जानकारी यहां देख सकते हैं: http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1412261 • यह हायकू मूल अंग्रेज़ी के हायकू से अनूदित है, जिसे यहां देख सकते हैं: http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1262906 • हिंदी में कतिपय हायकू लेखक हायकू के मूल सिद्धांतों से हट कर ध्वनिखंडों के स्थान पर वर्ण गिनने लगे हैं. ऐसी रचना को हायकू कहना इस प्रचीन विधा के साथ अन्याय होगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ अगस्त २००८ १७१७. मुस्कान सखी उनकी प्यारी—ईकविता, ४ अगस्त २००८ मुस्कान सखी उनकी प्यारी खिल जाये मन की फुलवारी मुस्कान मेरे मनभावन की हरियाली जैसे सावन की ज्यों क्लांति हरे जलते मन की वो मुस्काये और मैं वारी मुस्कान सखी उनकी प्यारी ज्यों कूके कोयल अमराई ज्यों मंद बहे इक पुरवाई ज्यों रम्भापति ले अंगड़ाई ज्यों मुझसे कहे निकट आ री मुस्कान सखी उनकी प्यारी मैं सुधबुध अपनी भूल गयी ज्यों गोपी यमुना कूल गयी मन में कोई आशा झूल गयी अपने को समझा कर हारी. मुस्कान सखी उनकी प्यारी खिल जाये मन की फुलवारी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ अगस्त २००८ 00000000000 Monday, August 4, 2008 12:24 PM From: nirbhik_prakash@yahoo.co.in गजब ००००००००००००००० १७१८. मैंने सोचा था कि राहों को निभा पाऊंगा —ईकविता, ७ अगस्त २००८ मैंने सोचा था कि राहों को निभा पाऊंगा कोई मंज़िल तो मिलेगी जहां सुस्ताऊंगा थाम दामन को बियांबां में चला जाता था सोचता था कि कभी छाहं में रुक जाऊंगा दिल के दाग़ों को छुपा करके रखा दिल में ही ख्याल आता था कि तनहाई में सहलाऊंगा मेरी राहें न चुकीं न तो मिली मंज़िल ही राह बढ़ती ही रही और मैं चलता ही गया एक सपना जो कभी देख लिया ग़फ़लत में मान कर सच मैं उसे आप को छलता ही गया आज ये हाल है छालों से भरे पांव मेरे कोई मंज़िल भी नहीं सपना नहीं राह नहीं सिर्फ़ तनहाई का आलम है मेरे साथ ख़लिश न मुझे कोई ख़ुशी, रंज़ नहीं, चाह नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ अगस्त २००८ १७१९. कोई हीरा हो नायाब मग़र मुफ़लिस को गुमराह करता है –ईकविता ५ अगस्त २००८ कोई हीरा हो नायाब मग़र मुफ़लिस को गुमराह करता है वो क्या पहचाने हीरे को जो कांचों झोली भरता है आशिक की मोहब्बत को उसकी माशूक ने ये कह कर जांचा एक ताजमहल बनवाने का क्या तू भी कुछ दम भरता है इंसां की अपनी हस्ती है, शायर की अपनी मस्ती है बन जाये गज़ल है जीवन की ज्यों-ज्यों इंसां पग धरता है अब कौन यहां पर आयेगा इस तनहाई के आलम में तू किसके लिये भला इतना सजता है और संवरता है अब बहुत लिखा, जाने भी दे कोई पढ़ने वाला नहीं इन्हें तेरी गज़लों में जान नहीं, क्यों इससे ख़लिश मुकरता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ अगस्त २००८ १७२०. वो आ सके न उनको पुकारे चले गये—RAS-- वो आ सके न उनको पुकारे चले गये नज़रों के सामने से नज़ारे चले गये रो-रो के उनको रोकते ही रह गये मग़र जो ज़िंदगी के थे वो सहारे चले गये मंज़िल नहीं, रस्ता नहीं, न हमसफ़र कोई जिसके भरोसे थे वो इशारे चले गये कश्ती मेरी मझधार में ही फंस के रह गयी अब न मिलेंगे कह के किनारे चले गये हम भी वहीं तुम भी वहीं, मंज़र भी है वही वादे ख़लिश कहां पे तुम्हारे चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ अगस्त २००८ १७२१. ये कौन सा शहर है मैं पहचानता नहीं--RAS ये कौन सा शहर है मैं पहचानता नहीं क्या असलियत है मेरी मैं ही जानता नहीं मेरा कसूर क्या है कुछ मुझको बताइये यूं अजनबी पे कोई खंजर तानता नहीं कोई कहे शैतान, फ़रिश्ता कहे कोई इंसान हूं मैं भी कोई ये मानता नहीं मैंने दफ़न किया न होता ख़्वाहिशों को ग़र यूं मुफ़लिसी में भी मज़े में छानता नहीं रब पे व बाजुओं पे है मुझको यकीं ख़लिश दरया में कूदने की वरना ठानता नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ अगस्त २००८ १७२२. पूछ रहे हो क्यों तुम मुझसे प्यार तुम्हें करता हूं क्या--RAS पूछ रहे हो क्यों तुम मुझसे प्यार तुम्हें करता हूं क्या झूठे से ही मैं तुम पर मरने का दम भरता हूं क्या लेना है इम्तिहां अगर तो पूरी कर लो ये ख़्वाहिश जान मोहब्बत में देने से सोच रहे डरता हूं क्या मुझे यकीं हो गया कि तुम बिन जीना है बेकार मेरा वरना यूं ही अपनी जान लुटाने को फिरता हूं क्या मुझ से पूछो ताजमहल की कीमत भी तुमसे कम है तुमको दुनिया से पाने को बिन कारण लड़ता हूं क्या ख़ुशकिस्मत हूं ख़लिश जहां में साथ तुम्हारा मिला मुझे कैसे बतलाऊं मन में नित ख़्वाब नये गढ़ता हूं क्या. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ अगस्त २००८ १७२३--ये ज़िंदगी में क्यों मेरी तूफ़ान आ गया ये ज़िंदगी में क्यों मेरी तूफ़ान आ गया क्यों ग़म मुझे करने है परेशान आ गया समझा था मैंने यार है मेरे बहुत क़रीब मंज़िल के पास रास्ता वीरान आ गया महफ़िल सजी हुयी है यूं तो रंगो-नूर से तकदीर में मेरी ही क्यों सुनसान आ गया यूं तो शहर की हर गली से मैं गुज़र चुका मंज़र ये जाने कौन सा अनजान आ गया ख़ुश रह ख़लिश कि छूट गयी दुनिया ये आप ही मिलने का रब से वक्त आलीशान आ गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ अगस्त २००८ १७२४. जिसको नहीं मनाना मुमकिन नाहक उसे मनाऊं क्यों--RAS जिसको नहीं मनाना मुमकिन नाहक उसे मनाऊं क्यों दिल के दाग़ सितमगर को ख़ुद जा कर मैं दिखलाऊं क्यों जिसने कर दी तर्क मोहब्बत उसका क्यों मैं ज़िक्र करूं भरी हुयी महफ़िल में ख़ुद अपनी तौहीन कराऊं क्यों दुनिया का दस्तूर है ये तो दे कर साथ बिछुड़ जाना याद करूं संगदिल को क्योंकर, ग़म के गाने गाऊं क्यों देख लिये इंसां के रंग-ढंग, कोई किसी का नहीं हुआ झूठा है ये सभी ज़माना दिल को यहां लगाऊं क्यों ख़त्म हुआ अब इस दुनिया से नाता जो भी जोड़ा था चलने की बेला में अपने दिल की ख़लिश बढ़ाऊं क्यों. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ अगस्त २००८ १७२५. दिल दे कर क्यों करें शिकायत उनसे ही उनके ग़म की--RAS दिल दे कर क्यों करें शिकायत उनसे ही उनके ग़म की बादल गरज़ रहे हैं तो क्यों पूछें बिजली क्यों चमकी चिकनी-चुपड़ी बातों से पहले तो हमको भरमाया तर्क करेंगे हमसे रिश्ता अब वो देते हैं धमकी कितना आसां है कह देना दुनिया में सबको ग़म है जिसकी दुनिया उजड़ गयी वो फ़िक्र करे क्या आलम की अब हममें सौ ऐब नज़र उनको जाने क्यों आते हैं हम से तो तारीफ़ सुनी जी भर के ज़ुल्फ़ों के ख़म की छप्पर फाड़ दिया करते हैं मेहरबान जो होते हैं ख़लिश दिये ग़म बहुत हमें उम्मीद नहीं थी कुछ कम की. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ अगस्त २००८ |