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Rated: E · Book · Cultural · #1510519
Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward.
#627055 added December 31, 2008 at 1:49pm
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1801- 1825 in Hindi script
१८०१. रूह के सफ़र का मुसाफ़िर रहा हूँ--RAS


रूह के सफ़र का मुसाफ़िर रहा हूँ
राज़ एक दुनिया पे ज़ाहिर रहा हूँ

मौला की करता रहा हूं इबादत
दीनी निगाहों में काफ़िर रहा हूँ

क्यों मौलवी की परस्तिश करूँ मैं
फ़ने-इश्क का मैं भी माहिर रहा हूँ

माना कि मैं कोई हाफ़िज़ नहीं पर
दिल की नज़र से मैं नाज़िर रहा हूँ

पत्थर ख़लिश मारते हो मुझे क्यों
फ़ज़ल से ख़ुदा के मैं ताहिर रहा हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००८






१८०२. उनके कलेज़े में हरकत नहीं है--RAS

उनके कलेज़े में हरकत नहीं है
हमसे उन्हें कोई उल्फ़त नहीं है

क्या इश्क हमसे है ग़र पूछते हैं
उनकी बताने की फ़ितरत नहीं है

दो पल कभी पास मेरे वो आते
उनको ज़रा देर फ़ुर्सत नहीं है

मिल जायें वो एक है ये तमन्ना
दिल में कोई और हसरत नहीं है

एहसास मुझको ख़लिश हो गया है
किस्मत में लिखी मोहब्बत नहीं है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००८




१८०३. वोटों के सफ़र में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को: फ़्यूज़न-गीत—ईकविता, ७ अक्तूबर, २००८
[इसमें आधे गाने का आधार साहिर जी हैं, आधा मौलिक है. इसीलिये फ़्यूज़न-गीत नाम दिया है.]

वोटों के सफ़र में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें, कुछ तल्ख सी तड़पाने को
वोटों के सफ़र...

ये वोट की दौलत वाले, कब सुनते हैं पेट के नाले
तक़दीर न बस में डाले, इनके किसी अनजाने को
वोटों के सफ़र...

जो खेल को इनके खेले, दुख पाए मुसीबत झेले
फिरते हैं ये सब अलबेले, मत लेके मुकर जाने को
वोटों के सफ़र...

कोई संग जो इनके डोले, बदनाम जहां में हो ले
पर फिरते हैं ये अलबेले, बेदाग निकल जाने को
वोटों के सफ़र...

तैय्यार सदा रहते हैं, दल अपना बदल लेते हैं
ईमान लुटा देते हैं, मंत्री बन जाने को
वोटों के सफ़र...

मत ले के दग़ा देते हैं, जनता को सज़ा देते हैं
एक रोग लगा देते हैं, गणतंत्र के दीवाने को
वोटों के सफ़र...

वोटों के सफ़र में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें, कुछ तल्ख सी तड़पाने को
वोटों के सफ़र...

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ अक्तूबर २००८
०००००००००००००००००००००

Tuesday, 7 October, 2008 11:06 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

खलिश जी,
बहुत अच्छा बन पडा है!

०००००००००००००००००

Tuesday, 7 October, 2008 9:55 PM
From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in

खलिश साहब,

आपकी इस फ्यूजन रचना को पढकर इसी भाव-भूमि पर कही गयी किसी की दो पंक्तियाँ भेज रहा हूँ-

अभी जमीर मत बेचो कीमत बहुत है कम।
चुनाव आने पर भारी उछाल आएगा।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman. blogspot. com

०००००००००००००००






१८०४. सूरत से थे शरीफ़ पर नापाक थे बहुत--RAS

सूरत से थे शरीफ़ पर नापाक थे बहुत
कुछ उनके कारनामे शर्मनाक थे बहुत

लगते रहे मासूम हमेशा वो शक्ल से
पर दिल ही दिल में वो सदा चालाक थे बहुत

मशहूर थे दुनिया में जो मानिन्दे-सूरमा
उनके कलेजे भी सुना है चाक थे बहुत

पढ़ने गये थे जो मदरसे फ़ारसी, कुरान
वो शक्ले-ज़िहादी में खतरनाक थे बहुत

बैठे थे अपने दिल में समंदर को छिपाये
जब अश्क बाहर आये तो बेबाक थे बहुत.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अक्तूबर २००८


१८०५. आंसू न बहा, दिल थाम ज़रा, ग़म है तो ख़ुशी भी आयेगी--RAS

आंसू न बहा, दिल थाम ज़रा, ग़म है तो ख़ुशी भी आयेगी
मत सोच कि जीवन भर तुझको तनहाई यूं तड़पायेगी

ये सच है प्यार किया तूने और तुझ को वफ़ा न मिल पायी
मायूस न हो कुछ देर ठहर, जीवन बगिया मुस्कायेगी

ये राह मोहब्बत की आसां दिखती है लेकिन मुश्किल है
इक राह अग़र बंद हो गयी तो दूजी खुद ही खुल जायेगी

जो जीता पुजा वही जग में, हारे को ये जग भूल गया
बढ़ चल आगे सिर-आंखों पर दुनिया तुझको बिठलायेगी

परवाह न कर मंज़िल की तू, हिम्मत न गंवा, बस चलता चल
जज़्बा जो ख़लिश दिल में होगा, मंज़िल क्यूं न मिल पायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अक्तूबर २००८







१८०६. बस मोहब्बत याद बन कर रह गयी--RAS

बस मोहब्बत याद बन कर रह गयी
ज़िंदगी फ़रियाद बन कर रह गयी

कोई गलती परवरिश में ही रही
बेवफ़ा औलाद बन कर रह गयी

ख़त्म उल्फ़त की कहानी यूं हुयी
एक शय नाशाद बन कर रह गयी

तर्क हो गयी दोस्ती दो रोज़ में
आलमे-बरबाद बन कर रह गयी

पेश तो की थी गज़ल लेकिन ख़लिश
खोखली सी दाद बन कर रह गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अक्तूबर २००८




१८०७. हम वफ़ा की आस करते रह गये--RAS

हम वफ़ा की आस करते रह गये
ख़्वाब सारे आंसुओं में बह गये

लब तलक न आह दिल की आ सकी
दर्द जितने भी मिले हम सह गये

खामुशी भी क्या गज़ब की है ज़ुबां
हाल दिल का बिन बताये कह गये

कोई था जादू हमें खींचा किया
हम गये उस राह जिससे वह गये

क्यों बनाये थे ख़लिश ऐसे महल
वक्त की ठोकर लगी और ढह गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ अक्तूबर २००८



१९०८. बर्फ़ीले आलम में कैसी तपिश है--RAS

बर्फ़ीले आलम में कैसी तपिश है
क्यों चांदनी आज लौ के सरिस है

दिल ले के मेरा न अपना दिया है
कैसी रवायत है, कैसी रविश है

न खत्म होती है समझाया दिल को
पुरज़ोर कैसी मिलन की हविस है

आंखों पे पट्टी, उसी गोल रस्ते
दिल चल रहा है, जैसे महिष है

ये प्यार भी इक बला है गज़ब की
ज्यों ज़िंदगी भर की इक ख़लिश है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
९ अक्तूबर २००८





१९०९. अब नहीं मुझको किसीसे प्यार है--RAS

अब नहीं मुझको किसीसे प्यार है
न कोई दुश्मन न कोई यार है

जी रहा हूँ चूँकि मर सकता नहीं
वरना मेरी ज़िंदगी बेकार है

दिल लगाने से यहां क्या फ़ायदा
मतलबी केवल सभी संसार है

न पराया न कोई अपना यहां
एक झूठा खेल ये घर-बार है

पास मत आओ मेरे अब दोस्तो
क्या हुआ जो हाल कुछ बीमार है

छोड़ दो तनहा ख़ुदा के वास्ते
न किसी की अब ख़लिश दरकार है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
९ अक्तूबर २००८





१८१०. दे के अपना एक पल एहसान मुझ पर कर गये--RAS

दे के अपना एक पल एहसान मुझ पर कर गये
था मेरा पर छीन दिल को मेरे बेघर कर गये

उड़ रहा था ख़्वाहिशों के आसमानों में कभी
ख्याल अपना दे गये जैसे कि बेपर कर गये

दिल तो मेरा ले लिया पर न मुझे अपना दिया
खिल रही थी एक बगिया हाय ऊसर कर गये

यूं नशा उन पर चढ़ा पीने लगे जब वो शराब
लाख मुझ पर ज़ुल्म वो दो जाम पी कर कर गये

दिल में अपने दे सके न वो कभी हमको ज़गह
हक ख़लिश मांगा हमें वो घर से बाहर कर गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
९ अक्तूबर २००८





१८११. समझा किये हम जिन्हें हैं मसीहा, वो आबरू के खरीदार निकले—RAS—ईकविता पर अनूप जी को gaurson Times के लिये प्रेषित, १० अक्तूबर २००८

समझा किये हम जिन्हें हैं मसीहा, वो आबरू के खरीदार निकले
उनसे भला दोस्ती क्या निभाते, ख्यालों से वो कुछ बीमार निकले

क्या कर गयी तालीमे-मदरसा, पढ़ने गये, आये बन के ज़िहादी
भोले बहुत थे मोहल्ले के लड़के, झोले में उनके हथियार निकले

जनमे यहीं व पले भी यहीं पर, आबो-हवा भी यहीं की मिली थी
जाने वज़ह कौन सी हो गयी है, क्यों देश के वो गद्दार निकले

कुछ ताकतें हैं दुश्मन हमारी, बच्चों को वो गुमराह कर रहीं हैं
है ये नतीजा घर के हमारे, घर बेचने को तैय्यार निकले

क्यों न ख़लिश दर्द उठे ज़िगर में, क्या सोचते थे, क्या हो गया है
बच्चों की माफ़िक पाला किये, पर बिल्ली के बच्चे खूंखार निकले.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अक्तूबर २००८
०००००००००००००००००००००००००००
Friday, 10 October, 2008 8:00 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
खलिश जी,
उम्दा है !
सादर, शार्दुला
०००००००००००००००००००
Friday, 10 October, 2008 5:45 PM
From: "Ms Archana Panda" <panda_archana@yahoo.com>Add sender to Contacts To: ekavita@yahoogroups.comनमस्कार मित्रों,
(खालिशजी, शार्दुलाजी, शरदजी , कुसुमजी, सतिशजी एवं सभी कवि गण ),
**
समझा किये हम जिन्हें - खालिशजी ( Ustaadji, kya cool hai ye !)
००००००००००००



१८१२. उम्र भर जो दास्ताने-प्यार मैं गाता रहा –RAS—ईकविता, १० अक्तूबर २००८


उम्र भर जो दास्ताने-प्यार मैं गाता रहा
चुक गयी वो आज न उससे कोई नाता रहा

तर्के-उल्फ़त क्या हुयी, बस ज़िंदगी ही रुक गयी
हर कदम पर ख्याल उसका ही मुझे आता रहा

हमसफ़र तो हमसफ़र हैं छूट जाते हैं सभी
बस इन्हीं ख्यालों से दिल को लाख समझाता रहा

दिल मेरा रोया बहुत था जब ख़ुदा हाफ़िज़ कहा
रस्म निभाने मग़र मैं सिर्फ़ मुस्काता रहा

आज फिर वो ही समां है आ गया बरसी का दिन
ख़ुदकुशी का ख्याल मुझको आज फिर आता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अक्तूबर २००८




१८१३. जब चला जाऊंगा दुनिया से कभी

जब चला जाऊंगा दुनिया से कभी
सब कहेंगे हाँ ये बंदा था सही

मरसिये में दाद वो देंगे मुझे
जो ख़फ़ा हैं आज महफ़िल में सभी

आज गो मुझ पर बहुत इल्ज़ाम हैं
एक दिन मुझको कहेंगे सब नबी

जब पढ़ोगे तुम वसीयत को मेरी
जान पाओगे हकीकत तुम तभी

चल रही है सांस धीमी सी ख़लिश
कब्र में डालो मुझे मत तुम अभी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० अक्तूबर २००८




१८१४. अश्कों से लिखी हमने उल्फ़त की कहानी है--RAS

अश्कों से लिखी हमने उल्फ़त की कहानी है
तनहाई में खुद को रो-रो के सुनानी है

निकले थे कभी हम भी राहों में मोहब्बत की
सोचा था हमारी भी पुरकशिश जवानी है

मालूम न था चाहत बिकती है बज़ारों में
हस्ती है दौलत की, ये चाल पुरानी है

पर हम भी नहीं उन में जो रो के बिताते हैं
अपने ही दम पर खुद तकदीर बनानी है

कह दो ये ज़माने से ताकत है बाज़ू में
और ख़लिश है जो दिल की वो बनी रवानी है.

तर्ज़—
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
एक धुँध से आना है एक धुँध में जाना है

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ अक्तूबर २००८





१८१५. सफ़र चल पड़े तो न जाने किधर को—RAS—ईकविता, १२ अक्तूबर २००८


सफ़र चल पड़े तो न जाने किधर को
बहम चल पड़े तो न जाने किधर को

शायर के दिल में अहसास लाखों
कलम चल पड़े तो न जाने किधर को

बहक जाये ग़र ये जवानी दिवानी
कदम चल पड़े तो न जाने किधर को

रुक न सकेंगी समन्दर की मौज़ें
लहर चल पड़े तो न जाने किधर को

हो न सकेंगे हवाओं पे पहरे
पवन चल पड़े तो न जाने किधर को

क्या है ख़लिश काफ़िये का भरोसा
गज़ल चल पड़े तो न जाने किधर को.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अक्तूबर २००८
०००००००००००००

Sunday, 12 October, 2008 3:52 PM
From: pachauriripu@yahoo.com
ख़लिश जी,
बहुत अच्छी, बहुत सरल....मज़ा आ गया। लिखते रहें।
रिपुदमन पचौरी
००००००००००००००००





१८१६. शोरे-कत्ले-आम सा है हर तरफ़

शोरे-कत्ले-आम सा है हर तरफ़
आदमी बदनाम सा है हर तरफ़

कौन जाने बम कहां फट जायेगा
एक डर गु़मनाम सा है हर तरफ़

है ज़िहादी नाम मासूमों का आज
शख़्स हर अनजान सा है हर तरफ़

नाम पर मज़हब के कौमी अक्ल पर
छा गया सरसाम सा है हर तरफ़

फ़िक्र है मुझको ख़लिश कि दिख रहा
वहशती अंज़ाम सा है हर तरफ़.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अक्तूबर २००८


१८१७. जाने कहां से आ गया करने जहां में सैर—RAS—ईकविता, १३ अक्तूबर २००८

जाने कहां से आ गया करने जहां में सैर
दुनिया में आ के फंस गया अल्लाह करे खैर

कठपुतलियों सा नाचता रहा हूँ हर समय
जैसे नचाने वाले से मेरा रहा हो वैर

थी रौ कोई नाचा किया बन के मैं घुड़सवार
न बागडोर हाथ में, रकाब में न पैर *

यूँ इश्क के बारे में शायर कोई कह गया
एक आग का दरया है और जाना है पार तैर

क्यों प्यार के अंज़ाम से हैरान है ख़लिश
बहका के ले गया तेरी लैला को कोई ग़ैर.

*--ग़ालिब ने कहा था:

रौ में है रख़्शे-उम्र कहां देखिये थमे
ने हाथ बाग पर है ने पा है रकाब में

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अक्तूबर २००८
०००००००००००००

Monday, 13 October, 2008 9:27 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
हा, हा ! क्या मुस्कुराती सुबह है आज :)
०००००००००००००

Monday, 13 October, 2008 6:14 PM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com
ख़लिश जी, आपकी यह स्टेटमेन्ट पढ़ कर मैं हंस हंस के पागल होगा:- कि "जो वास्तविक अर्थ है, वह तो ग़ालिब जानें या घनश्याम जी, लेकिन जो मुझे समझ आया वह इस गज़ल से ज़ाहिर है"
आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी। औफ़िस से थके हारे घर आओ, और आपकी ऐसी ग़ज़ल पढ़ने को मिल जाए, तो मन प्रसन्न हो जाता है।

लिखते रहें......

मंगलाभिलाशी
रिपुदमन पचौरी
०००००००००००००००
Monday, 13 October, 2008 6:22 PM
From: kusumsinha2000@yahoo.com
Priy maheshji
namaskar
bahut hi sundar gazal hai bahut achha laga.Vaise to aap mahan gazal likhnevale hain hi kabhi kabhi unhe padhakar man halka ho jata hai
kusum
000000000000000000000000000000000000000000000000000




१८१८. बहुत सुनते हैं दुनिया में नहीं इंसाफ़ मिलता है—RAS—, ईकविता, १५ अक्तूबर २००८

बहुत सुनते हैं दुनिया में नहीं इंसाफ़ मिलता है
हर इक इंसान का चेहरा यहां बेताब मिलता है

किसी को फ़िक्र है दो जून रोटी भी न होने की
किसीके दिल में दौलत कम है ये अहसास मिलता है

कोई फाका करे फिर भी न खोये नीन्द वो अपनी
किसीको रह के महलों में न कोई ख़्वाब मिलता है

ख़ुदा है ज़र्रे-ज़र्रे में, करोड़ों हैं नज़र उसकी
हक अपना हर बशर को जोड़ कर हिसाब मिलता है

जो सोचे है कि अन्याय किया भगवान ने उससे
ख़लिश कुछ सोच में उसकी गलत अन्दाज़ मिलता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८
००००००००००

Tuesday, 14 October, 2008 11:53 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
बहुत खूब नजरिया !
००००००००००००

Wednesday, 15 October, 2008 2:10 AM
From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in


खलिश साहब,

आज जब इन पंक्तियों को पोस्ट किया, उसके कुछ ही पल बाद रिपुदमन जी का फोन आया, जो मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। साथ ही इस पर चर्चा भी हुई। रिपुदमन जी से मैंने खासकर कहा कि खलिश साहब में अपार क्षमता है। हर टिप्पणी पर गीत, गजल निकलने की संभावना बनी रहती है और अभी मैं देख रहा हूँ कि आपने उस संभावना को मूर्त रूप दे दिया। आपके रचनाशीलता को नमन।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman. blogspot. com
०००००००००००००००००००००००







१८१९. आज क्यों हसीन रुख पे छा रहा मलाल है -- RAS

आज क्यों हसीन रुख पे छा रहा मलाल है
कुछ तो बोलिये सनम, किसलिये ये हाल है

इत्मीनान आपको हमारा किसलिये नहीं
आप ही बताइये दिलायें किस तरह यकीं
मेरे दिल में उठ रहा इक यही सवाल है
कुछ तो बोलिये सनम, किसलिये ये हाल है

चान्द को ज़मीन पर कहें तो मैं उतार दूँ
आपकी निगाह कहे, ज़ुल्फ़ को संवार दूँ
सुन के बात आपका रुख हुआ गुलाल है
कुछ तो बोलिये सनम, किसलिये ये हाल है

आप हुक्म दीजिये, जान को निसार दूँ
खिदमतों में आपकी रात-दिन गुज़ार दूँ
आपके बिना सनम ज़िंदगी मुहाल है
कुछ तो बोलिये सनम, किसलिये ये हाल है

आज क्यों हसीन रुख पे छा रहा मलाल है
कुछ तो बोलिये सनम, किसलिये ये हाल है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८
तर्ज़-- आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है.





१८२०. महफ़िल का फ़ज़ल है कि न गुमनाम रहा हूँ –RAS—श्यामल सुमन जी को प्रेषित, १५ अक्तूबर २००८

महफ़िल का फ़ज़ल है कि न गुमनाम रहा हूँ
न हो सका ख़ुशनाम तो बदनाम रहा हूँ

परछाइंयों में छिप के रहने का नहीं कायल
बनके खुली किताब सरेआम रहा हूँ

मैं कामयाब न हुआ ये और बात है
आठों पहर करता सदा मैं काम रहा हूँ

अब थक गया हूँ सांस मैं ले लूँ ज़रा रुक के
ता-उम्र मैं चलता बिना आराम रहा हूँ

तोहमत लगाऊं मैं ज़माने को भला क्योंकर
मुझमें कमी होगी अग़र नाकाम रहा हूँ

मज़हब सभी हैं एक, मैं पुकारता ख़लिश
हे यीशु, मोहम्मद, हे मेरे राम रहा हूँ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८
००००००००००००

Wednesday, 15 October, 2008 11:44 AM
From: shyamalsuman@yahoo.co.in

खलिश साहब, सचमुच आप पर सरस्वती की कृपा है और मेरी हार्दिक चाहत है कि आपकी कृपा, आपका स्नेह मुझे लगातार मिलता रहे। कितनी बडी बात आपने कह दी कि- तोहमत लगाऊं मैं ज़माने को भला क्योंकर
मुझमें कमी होगी अग़र नाकाम रहा हूँ लेकिन खलिश साहब (क्षमा याचना के साथ) मैं भी तुकबंदी (गलत या सही, गलत होने पर तो आप ठीक कर ही देंगे) करने की कोशिश करता ही रहूँगा। पेश है-

खुद को छुपा के जीना फितरत नहीं मेरी।
बनके खुली किताब सरेआम रहा हूँ।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
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१८२१. होठों पे हंसी झूठी आयी, वो हमको शाद समझ बैठे—RAS—ईकविता, १५ अक्तूबर २००८

होठों पे हंसी झूठी आयी, वो हमको शाद समझ बैठे
दर के भीतर तनहाई थी, घर को आबाद समझ बैठे

दिल के ग़म दूर भगाने को मसखरी ज़रा की थी हमने
नाहक ही हमको फ़ितरत से वो कुछ आज़ाद समझ बैठे

कोई गिला नहीं हमको उनसे ये तो नज़रों का किस्सा है
हमने ही कब चाहा कोई हमको बरबाद समझ बैठे

इस ख़ामख़याली के सदके वो आज हुए हम पर आशिक
दिलजला है कैसे बतलायें जिसको दिलशाद समझ बैठे

इस कद्र बढ़ी ग़म की शिद्दत हम हो गये जैसे सौदाई
दीवानेपन को देख ख़लिश वो प्रेम-उन्माद समझ बैठे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८




१८२२. काश वे दिन भी कभी आते कि मन की गांठ खुलती--RAS

काश वे दिन भी कभी आते कि मन की गांठ खुलती
प्रेम पथ में जम गयी जो दो दिलों की काई धुलती

तल्ख़ बातों की ज़गह होती ज़ुबां शीरीं की माफ़िक
कोई मिसरी भी कभी कड़वाहटों के साथ घुलती

हमसफ़र तो बन गये राहें जुदा थीं, मिल न पायीं
काश अंगारे न होते, बूंद भी पलकों पे तुलती

जो लगा बैठे थे क्यारी शौक से हम ज़िंदगी की
सींच न पाये उसे देखा किये वो रोज़ रुलती

जानते थे गल्तियां हम कर रहे हैं ख़लिश लेकिन
देख न पाये सिरों पर मौत की परछाईं डुलती.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८




१८२३. दिल को ये ख़्याल सताता है, न जाने तुम कब आओगे--RAS

दिल को ये ख़्याल सताता है, न जाने तुम कब आओगे
क्या जीवन भर हमको यूं ही तनहाई में तड़पाओगे

हर रोज़ नया ग़म आता है हर रात रुला कर जाता है
हालत पर मेरी फिर भी क्या तुम तरस कभी न खाओगे

यूं तो पहले भी इस दिल में कुछ ख़ुशियों की भरमार न थी
मालूम न था तुम दुखिया के दुखों को और बढ़ाओगे

एक उम्र मिली थी जीने को मरते-मरते ही बीत गयी
वक्ते-रुख्सत भी क्या अपनी न झलक मुझे दिखलाओगे

फिर न आने को चले गये चाहे तुम मेरी दुनिया से
तुमको है ख़लिश ख़बर लेकिन दिल से न जाने पाओगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अक्तूबर २००८




१८२४. राग चाहत का कोई हिज्र में गाये कैसे--RAS

राग चाहत का कोई हिज्र में गाये कैसे
दिल में ग़म हो तो ख़ुशी कोई मनाये कैसे

यूं तो है दिल में मोहब्बत को जगाना मुश्किल
प्यार नफ़रत से भरे दिल में जगाये कैसे

मर्ज़े-उल्फ़त में सदा नींद चली जाती है
गै़र आंखों से कोई नींद चुराये कैसे

प्यार की राहों में ऐसा भी ख़याल आता है
भार ज़ुल्फ़ों का कोई शख़्स उठाये कैसे

कांच का एक खिलौना है दिले-आशिक तो
टूट जाये तो ख़लिश फिर से लगाये कैसे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ अक्तूबर २००८





१८२५. जब मोहब्बत का समां ज़िंदगी में आता है--RAS

जब मोहब्बत का समां ज़िंदगी में आता है
दिल में जज़्बा हो तो फिर इश्क भी हो जाता है

ये वो आतिश है लगाने से नहीं लगती है
ये करम जिसने बनाया है वो फ़रमाता है

प्यार की रुत भी मग़र रोज़ नहीं आती है
जो गंवा देता है मौके को वो पछताता है

यूं तो आदाबे-मोहब्बत भी ज़रूरी हैं मग़र
जो निडर है तो सफलता भी वही पाता है

सिर्फ़ चाहत ही ख़लिश दिल में नहीं है काफ़ी
क्या करे प्रीत जो इज़हार से घबराता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ अक्तूबर २००८
© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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