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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
१८२६. एक कली प्यार की तो खिली थी मग़र फूल बन के कभी मुस्कुरायी नहीं--RAS एक कली प्यार की तो खिली थी मग़र फूल बन के कभी मुस्कुरायी नहीं बात जो उससे कहनी थी वो चाह कर भी कभी मेरे होठों पे आयी नहीं न कभी कोई उसका पयाम आ सका, न मैं इज़हार उससे कभी कर सका सोचता रह गया यूं ही दिल में सदा हो चुकी हो कहीं वो परायी नहीं दिन गुज़रते गये वक्त ढलता गया पर दिलों की न दूरी कभी कम हुयी न कभी पास बैठे, न की गुफ़्तगू, बात दिल की सुनी न, सुनायी नहीं कोई मिलने की तदबीर न हो सकी और शहनाइयों की वहाँ धुन उठी ख़्वाब जलने लगे आग ऐसी लगी कि पड़ी वो किसी को दिखायी नहीं एक दिन वो ख़लिश आ गया बैठ कर जब चली पालकी इक किसी देस को आंख के सामने ही उजड़ सी गयी वो जो बस्ती असल में बसायी नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ अक्तूबर २००८ १८२७. मैं तन्हा हूँ और पराया है जहां—RAS, ईकविता, १७ अक्तूबर २००८ मैं तन्हा हूँ और पराया है जहां कोई तो होता मेरा अपना यहां हमसफ़र सब हो गये मुझसे अलग कौन खोया किस घड़ी जाने कहां जिस ज़गह हम तुम कभी छिप कर मिले है बहुत सुनसान सा आलम वहां घिर गये माज़ी की परतों में मग़र राज़ अब भी हैं मेरे दिल में निहां बढ़ चुका है वक्त पर मेरे ख़लिश हैं निशां-ए-पांव जहां के तहां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ अक्तूबर २००८ १८२८. है यही मन में मेरे इच्छा बड़ी है यही मन में मेरे इच्छा बड़ी पास बैठे कोई तो आधा घड़ी हैं बहुत से और भी घर में मग़र कोई मुझसे कुछ कहे किसको पड़ी बस उसी दिन से मेरी वो हो गयी आंख थी तनहाई से जिस दिन लड़ी अब बिना उसके सुकूँ पाता नहीं इस तरह दिल पर मेरे वो है चढ़ी पास आ लग जा गले मेरे ख़लिश, मौत क्यों है दूर कोने में खड़ी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ अक्तूबर २००८ १८२९. क्यों कोई मेरी गवाही चाहता है--RAS क्यों कोई मेरी गवाही चाहता है आग पानी में लगायी चाहता है सच कहूंगा मैं, भला क्यों मुद्दई फिर राज़ पड़ जाये दिखायी, चाहता है क्या हिफ़ाज़त दूसरों की कर सकेगा चोर बनना हर सिपाही चाहता है है नहीं कायल कोई परहेज़ का अब हर कोई केवल दवाई चाहता है मत ख़लिश नादान बन क्योंकर जहां से ख़त्म हो जाये बुराई चाहता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १८ अक्तूबर २००८ १८३०. रोज़ कल आयेगा हम न होंगे मग़र, आज हम इस जहां से चले जायेंगे--RAS रोज़ कल आयेगा हम न होंगे मग़र, आज हम इस जहां से चले जायेंगे हो गयी इन्तहा कर लिया फ़ैसला, इस ज़माने से अब हम परे जायेंगे आये दिन के ज़ुलम, आये दिन के सितम, कारवां गर्दिशों का ये चलता रहा अब न बर्दाश्त कर पायेंगे और हम, वक्त के हाथ अब न छले जायेंगे एकतरफ़ा कभी बात होती नहीं, तुम न कसमें निभा पाये अपनी कभी हमने वादे किये जो भी पूरे किये, और वादे न हमसे करे जायेंगे जान कर तो ख़ता कोई हमने न की, भूल से जो हुयीं इल्म उनका नहीं आप ज़ुर्माना हमपे लगा दीजिये, पेश जाने के सारा भरे जायेंगे अलविदा दोस्तो तर्क है साथ अब, ज़िंदगी शुक्रिया तूने पाला मुझे ये हैं लमहात मेरे ख़लिश आखिरी, शुक्रिया आपका हम किये जायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० अक्तूबर २००८ १८३१. आज रोते हो क्यों, कीमती अश्रु हैं, नाम मेरे न इनको बहा दीजिये--RAS आज रोते हो क्यों, कीमती अश्रु हैं, नाम मेरे न इनको बहा दीजिये श्लोक बाईस, अध्याय दो का मुझे पाठ गीता से पढ़ के सुना दीजिये जो भी चाहा मुझे मिल न पाया कभी, मैं जिया जब तलक सिर्फ़ प्यासा रहा वक्त है आखिरी रूह भटके नहीं, घूंट गंगाजली से पिला दीजिये काम कुछ भी किसीके नहीं आ सका, स्वार्थ अपने सदा साधता मैं रहा जिन मेरे अवगुणों से रहे त्रस्त तुम, आज उनको हृदय से भुला दीजिये जो भी अच्छा किया या बुरा कर चला, आज किस्सा यहीं ख़त्म सब हो गया मेरे जाने का ग़म तुम न करना कभी, याद मेरी ज़हन से मिटा दीजिये तेरहवीं भी नहीं, कोई चौथा नहीं, भोज तुम ब्राह्मणों को कराना नहीं फूल कुछ डाल देना ख़लिश नाम को, बाद जाने के अर्थी जला दीजिये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० अक्तूबर २००८ १८३२. चंदावरकर-महिमा: कुंडली—ईकविता, २० अक्तूबर २००८ चंदावरकर जी हुये स्वस्थ, हुये हम शाद अब हम उनसे पायेंगे कभी-कभी इरशाद कभी-कभी इरशाद करेंगे सच्चे मन से उनके शब्द संजोयेंगे हम बड़े जतन से कहै ख़लिश कविराय उठा कर दोनों निज कर स्वस्थ रहें सौ वर्ष तलक श्री चंदावरकर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० अक्तूबर २००८ १८३३. यूँ न मुझसे शिकायत करो--RAS यूँ न मुझसे शिकायत करो प्यार मेरा तनिक उर धरो है ये माना सनम भूल बैठे थे हम प्रीत की राह से हट गये थे कदम पर वो लमहा कभी का गया है गुज़र आज फिर तुम हृदय से वरो प्यार मेरा तनिक उर धरो एक पल के लिये हम अलग क्या हुये जाम विष के भरे तल्ख़ लाखों पिये प्रेम कर लो प्रिय न डरो प्यार मेरा तनिक उर धरो दिल में चाहत लिये ले चली है मुझे राह किस ओर को कौन मंज़िल है ये संग मेरे सजन तुम बढ़ो प्यार मेरा तनिक उर धरो यूँ न मुझसे शिकायत करो. प्यार मेरा तनिक उर धरो महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० अक्तूबर २००८ १८३४. रोक लो हमले ज़िहादी, कल कहर हो जायेगी--RAS रोक लो हमले ज़िहादी, कल कहर हो जायेगी है अभी तल्खी फ़िज़ा में कल ज़हर हो जायेगी आज छोटी सी ये धारा न अग़र रोकी गयी बढ़ते-बढ़ते एक तूफ़ानी लहर हो जायेगी है मिली इक शाम आओ संग हम कर लें गुज़र देखते ही देखते फिर तो सहर हो जायेगी शायरों को चाहिये कि ताल पर जांचें गज़ल वरना ये मुमकिन है बेकाबू बहर हो जायेगी कामयाबी मुश्किलों से हाथ आती है ख़लिश हौसला फ़रहाद का रखो, नहर हो जायेगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ अक्तूबर २००८ १८३५. मुझे चाह कर भी न तुम पा सकोगे--RAS मुझे चाह कर भी न तुम पा सकोगे मेरे दिल के नज़दीक न आ सकोगे यूँ तो शिकायत नहीं कोई लेकिन मेरी ज़िंदगी पर न तुम छा सकोगे करो तुम न कोशिश, कभी दो दिलों को करीब एक दूजे के न ला सकोगे अंदाज़ मेरे-तुम्हारे अलग हैं मेरे साथ जीवन निभा ना सकोगे सच है ख़लिश ग़र बने हमसफ़र तो दिल को मेरे तुम न तड़पा सकोगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ अक्तूबर २००८ १८३६. किसके लिये हम आज दीवाली मनाइये—RAS, ईकविता, २२ अक्तूबर २००८ किसके लिये हम आज दीवाली मनाइये घर जल रहे हैं आज क्या दीपक जलाइये बस मुम्बई में जल रहीं, भुवनेश्वर में चर्च फटते ज़िहादी बम, पटाखे क्या चलाइये वोटों की राजनीति में दंगे करायें जो उन ज़ालिमों को त्रासदी हम क्या सुनाइये रक्षक बने भक्षक, नहीं विश्वास जनता को जिसने दिये हैं घाव उसे क्या दिखाइये है राम के अस्तित्व पर सवालिया निशान बेहतर है दीवाली दशहरा भूल जाइये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८३७. बहुत दिन हुए हैं मुझे मुस्कराये--RAS बहुत दिन हुए हैं मुझे मुस्कुराये आंखों को हैं सिर्फ़ आंसू सुहाये खुशी का भरोसा करूं किसलिये मैं दो दिन को आये, सदियों को जाये ख़्वाबों का क्या है फरेबी हैं ये तो अंधेरे में झूठे उजाले दिखाये क्यों छोड़ दूँ मैं ग़मों की ये बस्ती मुझसे ग़मों ने ही नाते निभाये पहले उन्हींने किया कत्ल मुझको ख़लिश अब खड़े है वो आंखें झुकाये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८३८. दर्द नहीं हो जीवन में तो जीने का फिर मज़ा कहां--RAS दर्द नहीं हो जीवन में तो जीने का फिर मज़ा कहां अनुभव खट्टे-मीठे न हों तो जीवन फिर सजा कहां ये कहना आसां है कि हम रब की मर्ज़ी में ख़ुश हैं दर्द मिले तो फिर क्यों पूछें ग़म में उसकी रज़ा कहां जो औरों पर ज़ुल्म करेगा भुगतेगा वो भी इक दिन सितम करे जो ख़ुद पर ही तो बोलो उसकी कज़ा कहां दिल में हो जब दर्दे-मोहब्बत चारागर क्या कर पाये हिकमत की लाचारी हो तो दवा कहां और गिज़ा कहां ख़लिश फ़कीरी बाना पहने जो दुनिया से अलग हुआ उसकी नज़रों में बाकी फिर फ़िज़ा कहां और खिज़ा कहां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८३९. रहोगे दूर ग़र मुझसे जलोगे आह से मेरी--RAS रहोगे दूर ग़र मुझसे जलोगे आह से मेरी मेरे नज़दीक आओगे, जलोगे चाह से मेरी मेरी ज़िंदादिली भी रास तुमको आ नहीं सकती गले में न उलझ जायें, डरोगे बांह से मेरी न जाने खुल के ये शोला बने या फिर बने शबनम परेशां तुम रहोगे अधखुली निगाह से मेरी महज़ इक कशमकश में ज़िंदगी तुमको बितानी है न चल पाओगे न हट पाओगे तुम राह से मेरी ख़लिश यूँ तर्क करके तुम अकेले जी न पाओगे मेरी ग़र सौत लाओगे, मरेगी डाह से मेरी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८४०. अग़र तुम पास आओ तो बढ़े दिल की परेशानी--RAS अग़र तुम पास आओ तो बढ़े दिल की परेशानी अग़र तुम दूर हो तो ज़िंदगी हो जाये बेमानी ये कैसी कशमकश है दोस्ती दरकार है मुझको मग़र मुझको दिखे है दुश्मनों की सी ये पेशानी कभी ये ख़्वाब देखे थे बनेंगे हमसफ़र हम तुम लगे है ज़िंदगी में ज्यों मेरी लिखी है वीरानी अजब है हाल दिल का आ नहीं सकता सुकूँ इसको न जाने बीत पायेगी ये कैसे रात तूफ़ानी हकीकत तो ख़लिश ये है कि मौसम है खिजाओं का करूँ क्या इस तमन्ना का न दिल से जाये दीवानी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८४१. मेरे मन के अंधियारे को……….--RAS मेरे मन के अंधियारे को एक किरण मिल जाये तुम्हारी तो मैं सच कहता हूँ मेरा पथ आलोकित हो जायेगा गंतव्यस्थल मिल जायेगा राहों में चलते- चलते अब थका हुआ अनुभव करता हूँ हौले से जो छू लो मुझको तो ये ताप उतर जायेगा तन-मन शीतल हो जायेगा जीवन के झंझावातों से संभव नहीं निकलना मेरा मुझको केवल दिशा दिखा दो तो ये सागर तर जायेगा एक नया बल आ जायेगा मैं अपने एकाकीपन को और सहन न कर पाऊंगा कोई नूतन तान सुना दो तो ये जीवन कट जायेगा सुंदर सपना बन जायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००८ १८४२. वो कहते हैं हमसे चेहरा नाशाद हमारा लगता है—RAS—ईकविता, २३ अक्तूबर २००८ वो कहते हैं हमसे चेहरा नाशाद हमारा लगता है कैसे हम उनको समझायें अब ग़म ही प्यारा लगता है हम दर्द छिपाने के बदले चेहरा शीशे का रखते हैं जो कहता है ख़ुश है अकसर वो ग़म का मारा लगता है मिलने के लमहे थोड़े हैं और रात जुदाई की लंबी कुछ उखड़ा-उखड़ा हमको हर आशिक बेचारा लगता है हमसफ़र नहीं जब हो कोई तो जीवन की तनहाई में जो ग़म साथी ने दिया वही अनमोल सहारा लगता है अब चला चली की बेला है ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है रब जो भी दे दे ख़लिश हमें अब वही गवारा लगता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ अक्तूबर २००८ १८४३. कुछ लोग हैं जो अपनी हस्ती औरों पर थोपा करते हैं---RAS कुछ लोग हैं जो अपनी हस्ती औरों पर थोपा करते हैं नये कदमों, नये ख़यालों को नाहक ही रोका करते हैं है जिनकी सोच पुरानी और रहते हैं केवल माज़ी में दकियानूसी बातों पर वो ही लोग भरोसा करते हैं कुछ लोग नयी इक शम्म से जीवन को रौशन करते हैं नये पौधों से, नये फूलों से वो क्यारी रोपा करते हैं जो रोते रहते हैं हर दम ऐसे लोगों को क्या कहिये ख़ुद कोशिश करते नहीं मग़र किस्मत को कोसा करते हैं जो छोड़ ख़लिश सीधा रस्ता टेढ़ी राहों पर चलते हैं सच है कि नहीं ज़माने से, ख़ुद से ही धोखा करते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ अक्तूबर २००८ १८४४. ख़्वाबों में जिनको देखा था वो पेशे-हकीकत आ न सके—RAS—ईकविता २५ अक्तूबर २००८ ख़्वाबों में जिनको देखा था वो पेशे-हकीकत आ न सके अरमानों में तो बसे मग़र जीवन में उनको पा न सके जाने क्यों हर पल वो ही वो नज़रों में समाये रहते हैं है ख़बर ये कोरा सपना है पर दिल को हम समझा न सके उनसे मिलने की कोशिश में बदनाम हुये अकसर लेकिन हम में ही होगी कमी कोई जो दिल को उनके भा न सके हैं लोग बहुत जो उल्फ़त में मस्ती के नग़मे गाते हैं हालात के मारे इक हम हैं ग़म के भी गाने गा न सके कुछ और उभरनी बाकी थी अरमानों की शिद्दत शायद छूने की हद तक ख़लिश कभी उनके साये को ला न सके. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००८ ०००००००००००००००००० Friday, 24 October, 2008 11:08 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com खलिश जी, फिर बेहतरीन ! धनतेरस के दिन सोचा था कि स्वर्णकार कुछ गहने बेचेंगे, आप तो दर्द बेच रहे हैं! :) सादर शार्दुला ०००००००००००००००० Saturday, 25 October, 2008 12:30 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरनीय खलिश जी , तारीफ के लिये शक्रिया....यहाँ पर आप लोग इतना अच्छा लिखते हैं ...मैने बहुत डरते हुए कवितायें पोस्ट की थी ...आप को पसंद आयीं ...यह मेरी खुशनसीबी है ..आपकी अब तक की सभी कवितायेँ मेरे favourite हैं ख्वाबों मैं जिनको देखा था भी उन मैं से एक हुई ..... सुजाता ========================== १८४५. ज़िंदगी जहां रुकी वहाँ से मैं न जा सका—RAS—ईकविता २५ अक्तूबर २००८ ज़िंदगी जहां रुकी वहाँ से मैं न जा सका वक्त की भी चाल में न फ़र्क कोई आ सका वक्त बीतने पे रास्ते भी कुछ बदल गये किंतु नयी राह पर कदम नहीं बढ़ा सका देखता रहा खड़ा-खड़ा नदी की धार को धार के बहाव का मग़र न पार पा सका कशमकश के दरमियां उम्र ही गुज़र गयी मंज़िलों के पास मैं न ज़िंदगी को ला सका कौन कब रुका किसी के वास्ते ख़लिश यहाँ पर कहां गये सभी न कोई ये बता सका. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००८ ००००००००००००००००० Sunday, 26 October, 2008 12:21 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com वक्त बीतने पे रास्ते भी कुछ बदल गये बहुत खूब खलिश साहब। एक पुराना गीत याद आया— मंज़िल से भी कहीं दूर हम आगे निकल गए तुम जो हुए मेरे हम्सपर रस्ते बदल गए ०००००००००००००० Saturday, 25 October, 2008 11:29 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com खलिश साहब,भौत खूब! "वक के बीतने पे भी कुछ रास्ते बदल गए राह पर नयी मगर कदम नहीं बढा सका" किसीका एक बहुत पुराना शेर याद आया "चलने की जो मैंने कोशिश की हर कदम पर मेरा मुक्ज़ाम आया" दीपावलि की सब को शुभ कामनाएं! सस्नेहसीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००००० १८४६. मुझे ख़्यालों के हसीं ख़्वाब से फ़ुर्सत न मिली--RAS मुझे ख़्यालों के हसीं ख़्वाब से फ़ुर्सत न मिली मुझे बेकार के जज़्बात से फ़ुर्कत न मिली मैं तसव्वुर की बुलंदी पे हुआ ख़ुश ऐसा मेरे पांवों को ज़माने की हकीकत न मिली मेरी मंज़िल तो मेरी राह में बैठी ही रही उसे छूने की मेरे दिल को ही हिम्मत न मिली मैंने तकलीफ़ तो औरों की हटायी लेकिन जो मेरा दर्द घटा दे मुझे हिकमत न मिली यूँ तो दुनिया में हसीनों की कमी कोई नहीं मेरे दिल को ही ख़लिश एक मोहब्बत न मिली. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ अक्तूबर २००८ १८४७. तू थी मेरी हमसफ़र ज़िंदगी जहान में--RAS तू थी मेरी हमसफ़र ज़िंदगी जहान में ये बता मैं किस तरह रहा तेरे मकान में आज तो मुझे बता क्या है तेरा फ़ैसला किस तरह जिया तुझे रख न यूँ गुमान में अब विदा का वक्त है दूर देस जा रहा ये बता हैं खारो-गुल, क्या मेरे समान में क्या मैं कामयाब हूँ, या गुनाहगार हूँ क्या मिला है ज़िंदगी मुझे तेरी उड़ान में माफ़ दोस्तो करो न कुछ तुम्हें दिया ख़लिश लुट गया सभी जो था भरा मेरी दुकान में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ अक्तूबर २००८ १८४८. कोई अफ़सोस नहीं आज चला जाता हूँ—RAS—ईकविता २६ अक्तूबर २००८ कोई अफ़सोस नहीं, आज चला जाता हूँ कोई भी साथ नहीं, ख़ुद को तन्हा पाता हूँ राह में यूँ तो बहुत दोस्त मिले थे मुझको याद करने से उन्हें आज मैं कतराता हूँ जो मुझे अश्क मिले मुझसे कहीं उनका हिसाब मांग बैठे न कोई सोच के घबराता हूँ जान कर दुख तो किसी को न दिया है मैंने किसलिये फिर भी ज़माने से मैं शरमाता हूँ मेरे जाने से ख़लिश क्यों हो किसी को तकलीफ़ आज नग़मा-ए-विदा शौक से मैं गाता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ अक्तूबर २००८ ००००००००००००००० Sunday, 26 October, 2008 1:35 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com Adarneeye Mahesh Ji,Aap kyon aajkal aisi dukhad baatein soch rahe hein. Hum sab e-kavita wale aapke bharose baithe rahte hein ki aaj kahalish ji ki koi nayi kavita padne ko millegi. Pls aap khushnuma sa koi geet likhiye. Meine Diwali ke tayuhaar pe ghar ke badon se uphaar manga tha. Kisi ne nahin bheja kuch likh kar e kavita mein. Aap bhejiye Pls ek geet/ghazal.Dard bharaa nahin, aashison bhara!Asha karti hoon ki mujh jaise murkh ki yeh chitthi pad ke aap shayad ek kshan todha muskuraayeinge:)Deepawali ka parv aapke tan-man ke andhakaar ko door kar use jyotirmay kar de , isi kamna ke saath . . .Charan Sparsh,Shardula ०००००००००००० १८४९. घर में दीवाली आयी है—शार्दूलाजी को, २७ अक्तूबर २००८ घर में दीवाली आयी है खाने को मिली मिठाई है नये कपड़े घर में आये हैं हम नये खिलौने लाये हैं जल रहीं पटाखों की लड़ियाँ हाथों में सबके फुलझड़ियाँ सब हलवा पूरी खायेंगे दीवाली खूब मनायेंगे दीवाली पूजी जायेगी फिर लक्ष्मी घर में आयेगी घर-घर में दीये चमकेंगे छत पर चढ़ कर हम देखेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ अक्तूबर २००८ १८५०. उन्हें मोहब्बत हुयी है हमसे, ये राज़ हमको बता रहे हैं--RAS उन्हें मोहब्बत हुयी है हमसे, ये राज़ हमको बता रहे हैं समां तिलस्मी है कोई मानो, रोते हुए मुस्कुरा रहे हैं हमारी सूरत, हमारी सीरत, हमारी चाहत, हमारी उल्फ़त उन्हें कभी न पसंद आये, क्यों आज वो डगमगा रहे हैं हज़ार कोशिश-ओ-मिन्नतें कीं, ग़ुरूर उनका न तोड़ पाये हमारी ज़ानिब कदम बढ़ाये वो आज देखो ख़ुद आ रहे हैं जिन्हें था हमसे परहेज़ कल तक गले मिले हैं ख़ुद आ के हमसे कोई वज़ह है दरया-ए-उल्फ़त की धार उलटी बहा रहे हैं उन्हें दिलाते रहे यकीं हम वफ़ा का अपनी न माने लेकिन ख़लिश हुआ क्या लिपट के हमसे हज़ार कसमें खिला रहे हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ अक्तूबर २००८ |