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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
१९०१. बहुत दिनों के बाद तथ्य शाश्वत मैंने यह जाना है—RAS—ईकविता, १२ नवंबर २००८ बहुत दिनों के बाद तथ्य शाश्वत मैंने यह जाना है इंसां के हाथों में कुछ भी नहीं, मरम पहचाना है मैं कर्ता हूँ, मेरे करने से ही दुनिया चलती है ऐसे झूठे ख्यालों से मुश्किल बाहर आ पाना है राम और कृष्ण, मोहम्मद, यीशु, सब आये और चले गये मेरा दो पल जी लेना तो केवल एक बहाना है जो चाहे इस जीवन में ही पा सकता है मुक्ति को इस जीवन को गंवा दिया तो सिर धुन कर पछताना है विद्या प्राप्त करो कितनी ही, ज्ञान बिना सब थोथी है मत भूलो कि ख़लिश जगत में सतगुरु नाम ठिकाना है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ नवंबर २००८ ००००००००००००० Tuesday, 11 November, 2008 11:13 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश जी, बहुत सुंदर रचना है। बधाई! सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००० Wednesday, 12 November, 2008 10:35 AM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com ख़लिश जी, भक्ति, दर्शन, काव्य, संगीत इन सभी के ज्ञान का मिश्रण किसी भी रचनाकार में यदि हो तो वह इस युग गा तुलसीदास बन जायेगा। अब तुलसी जैसा व्यक्तित्व और गुण पाना तो कठिन है ही, पर प्रयास तो हम या आप कर ही सकते हैं। आपने अपने अनुभवो से वह सब जाना है; जानने का प्रयास किया है और सदा ज्ञान के लिए कौतुहल मैंने आपके मन में देखा है; आपकी रचनाओं और उन में छिपे अध्यात्मिक अलंकरण, अपनी छाप सहसा ही किसी के भी हृदय पर लगाने में सक्षम भी हैं। शायद यहि कारण है कि मैं आपका आध्यात्म और दृष्टांत पढ़ना चाहता हूँ। किन्तु, जैसा कि आप भी जानते हैं कि, किसी कारणवश वह सब पढ़ पाने का अवसर मुझे कम ही मिल पाता है मंगलकामनाओं सहित रिपुदमन ००००००००००० Wednesday, 12 November, 2008 12:12 PM From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com महेशजी शब्द संयोजन बहुत अच्छा लगा. बधाई स्वीकारें. सादर राकेश ००००००००००० १९०२. बच्चे घर के आजकल हुए बहुत उद्दंड—कुंडली--RAS बच्चे घर के आजकल हुए बहुत उद्दंड बात न मानें बड़ों की, ख़ुद पर करें घमंड खुद पर करें घमंड, नहीं वे सुनें किसी की तरह-तरह की अंग्रेज़ी की गाली सीखी कहै ख़लिश कविराय असूलों के हैं कच्चे बड़े बाप से अपने को समझें अब बच्चे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ नवंबर २००८ १९०३. जिस दिन मैंने जन्म लिया था इस धरती पर हे माता--RAS जिस दिन मैंने जन्म लिया था इस धरती पर हे माता उस दिन से ही सदा रही तू स्नेह और संबल की दाता बचपन बीता, गयी जवानी, जुग बीते अब जाना है तेरा प्यार न होता तो मैं जो हूँ वो न बन पाता कुछ बन कर मैं नाम कमाऊँ, सदा यही चाहा तूने तू न राह दिखाती तो मैं जाने कहाँ भटक जाता कभी न चाहा तूने कुछ भी, अपना सब कुछ दान किया लिया नहीं कुछ देने का ही सदा रखा मुझसे नाता ऋण से तेरे उऋण कभी न हो पाऊँगा जीवन भर मन में ख़्याल ख़लिश मेरे अब जाते-जाते है आता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ नवंबर २००८ १९०४. स्वप्न जी भर देख --RAS स्वप्न जी भर देख रोने को बहुत जीवन पड़ा है आज जो मन खिन्न करके रो रहा है अश्रु से मुँह धो रहा है सोचता है मृत्यु का तू वरण कर ले और फिर तू मुक्त हो जाये जगत से याद रख प्राणी न ऐसा हो सकेगा मोड़ कर मुँह जो कभी विपदाओं से तू दूर भागा दूर तक वे जायेंगी, पीछा करेंगीं और तू फिर गर्त में पायेगा ख़ुद को उठ तुझे इन शत्रुओं से जूझना है ये डरायेंगे तुझे केवल तभी तक जब तलक डरता रहेगा एक दिन जब तू स्वयं ही ठान लेगा मुक्ति संभव है, स्वयं यह मान लेगा बस उसी दिन मुक्त हो जायेगा तू पर विजयी होने से पहले देखने होंगे तुझे सपने विजय के रोज़ देखेगा ये सपने तो तुझे विश्वास हो पायेगा इन पर इसलिये ऐ दोस्त तुझको यह सलाह है स्वप्न जी भर देख रोने को बहुत जीवन पड़ा है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ नवंबर २००८ १९०५. मैं साथ चलूं सबके अपने दिल को मैंने तैय्यार किया--RAS मैं साथ चलूं सबके अपने दिल को मैंने तैय्यार किया मुझसे हर बार ज़माने ने दुश्मन की तरह व्यवहार किया थी शर्त मेरी कि असूलों से समझौता न कर पाऊंगा दुनिया ने मग़र धोखे का ही मेरे संग कारोबार किया हैं वक्त बहुत ऐसे गुज़रे अपने भी पराये जब निकले अकसर इन दर्द के लमहों ने मेरे दिल को लाचार किया ललचाया तो मुझको भी था शैतान के बंदों ने लेकिन नापाक इरादों से मुझको तूने ऐ ख़ुदा बेदार किया कट चुकी ख़लिश जैसे-तैसे, अफ़सोस भला अब क्या कीजे मैंने तो दीन-धरम से ही सारा अपना व्यापार किया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ नवंबर २००८ एद नैनों में एक सूरत आयी दिल में उतरी कुछ देर बसी फिर दर्द बनी उतरा नैनों में दर्द वही धूमिल नज़रें पलकें भीगीं फिर कोरों में एक हीरक-कण की झलक उठी धीरे धीरे वह मोती बन मेरे गालों पर सरक चला चाहा उसको बह जाने दूँ बिन रोके ही ढल जाने दूँ और मिट्टी में मिल जाने दूँ मेरे दिल में फिर हूक उठी है नहीं बूंद ये पानी की इसमें है तेरा प्यार छिपा था दिल में दर्द भरा जितना उससे ही तो ये छन-छन कर है अश्क एन अनमोल बना इस प्यार के मोती को अपने क्या यूँ ही बह जाने दोगे? ज्यों बादल से बरसात हुयी मिट्टी में मिल जाने दोगे? ये सुनते ही मैं चेत गया अपने दिल के अहसासों को नाज़ुक से प्यारे मोती को धरती पर गिरने से पहले मिट्टी में मिलने से पहले उंगली के छोरों से अपने धीरे से उसे सहेजा फिर कह दिया ख़लिश अपने दिल से तू जितना भी चाहे रो ले मैं तेरा साथ निभाऊंगा तू अश्क बहा मैं उन सबको दिल में ही रखता जाऊंगा दुनिया को नहीं दिखाऊंगा. ००००००० १९०६. नैनों में एक सूरत आयी—RAS—ईकविता, १३ नवंबर २००८ नैनों में एक सूरत आयी दिल में उतरी कुछ देर बसी फिर दर्द बनी उतरा नैनों में दर्द वही धूमिल नज़रें भीगीं पलकें फिर कोरों में एक हीरक-कण की झलक उठी धीरे धीरे वह मोती बन मेरे गालों पर सरक चला चाहा उसको बह जाने दूँ बिन रोके ही ढल जाने दूँ और मिट्टी में मिल जाने दूँ मेरे दिल में फिर हूक उठी है नहीं बूंद ये पानी की इसमें है तेरा प्यार छिपा था दिल में दर्द भरा जितना उससे ही तो ये छन-छन कर है अश्क एन अनमोल बना इस प्यार के मोती को अपने क्या यूँ ही बह जाने दोगे? ज्यों बादल से बरसात हुयी मिट्टी में मिल जाने दोगे? ये सुनते ही मैं चेत गया अपने दिल के अहसासों को नाज़ुक से प्यारे मोती को धरती पर गिरने से पहले मिट्टी में मिलने से पहले उंगली के छोरों से अपने धीरे से उसे सहेजा फिर कह दिया ख़लिश अपने दिल से तू जितना भी चाहे रो ले मैं तेरा साथ निभाऊंगा तू अश्क बहा मैं उन सबको दिल में ही रखता जाऊंगा दुनिया को नहीं दिखाऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ नवंबर २००८ 0000000000000 From: Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo. com> Date: Thursday, 13 November, 2008, 10:39 PM महेश जी, "१९०६. नैनों में एक सूरत आयी" अत्यन्त सुन्दर प्रवाहपूर्ण रचना है। - घनश्याम 00000000000000 Saturday, 15 November, 2008 1:05 PM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरनीय खलिश जी ,...... ये सुनते ही मैं चेत गया अपने दिल के अहसासों को नाज़ुक से प्यारे मोती को धरती पर गिरने से पहले मिट्टी में मिलने से पहले उंगली के छोरों से अपने धीरे से उसे सहेजा फिर कह दिया ख़लिश अपने दिल से तू जितना भी चाहे रो ले मैं तेरा साथ निभाऊंगा तू अश्क बहा मैं उन सबको दिल में ही रखता जाऊंगा दुनिया को नहीं दिखाऊंगा. आप बहुत अच्छा लिखते हैं ..आपकी हर गजल ,कविता मेरी favouraite होती है सादर, सुजाता ००००००००००००० Sunday, 16 November, 2008 10:22 AM "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com महेश जी नमस्ते... रचना सुन्दर लगी .... रिपुदमन ००००००००००००००० १९०७. है इश्क बुलाये पर कैसे आ जाऊँ मैं—RAS-- ईकविता, १२ नवंबर २००८ है इश्क बुलाये पर कैसे आ जाऊँ मैं क्यों न आशिक आये, ये रीत निभाऊँ मैं मैं हासिल हूँ लेकिन कोई पास मेरे आये परदे हैं निगाहों पे किस तरह उठाऊँ मैं पहचान के नूर मेरा आलम में मेरे आ जा मैं दूर नहीं तुझ से कैसे समझाऊँ मैं बेवफ़ा नहीं हूँ मैं तेरी है गलतफ़हमी क्यों छोड़ तुझे ग़ैरों को गले लगाऊँ मैं तू झांक ज़रा दिल में मुझको ही पायेगा किस गली में रहता हूँ क्या ख़लिश बताऊँ मैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ नवंबर २००८ 000000000000 Thursday, 13 November, 2008 12:03 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com खलिश साहब, बहुत खूब! सस्नेह सीताराम चंदावरकर ००००००००००००००० Thursday, 13 November, 2008 3:32 AM From: "Manju Bhatnagar" manju@ei-india.com आदरणीय खलिश जी, आपकी ग़ज़ल और नज्म तो निरंतर प्रवाहित रहने वाली सुरसरि [गंगा] है,जिसमे अवगाहन करने से हमारे पाप [ग़लतियां] भी धुल जाते हैं और पुण्य [आनंद ]भी प्राप्त हो जाता है | धन्य हैं आप , कैसे निरंतर लिख लेते हैं ? माँ सरस्वती की इस असीम अनुकम्पा से तो हमें भी डाह होने लगी है :) आध्यात्म रूप से यह रचना सशक्त बन पडी है | इस शाश्वत रचना के लिए अभिनन्दन. manju mahimaAh'bad 0000000000000 १९०८. क्यों पूछते हो सबसे अच्छा या बुरा क्या है--RAS क्यों पूछते हो सबसे अच्छा या बुरा क्या है पूछो दिल से अपने क्या गलत, भला क्या है कुछ लोग दुहाई तो मज़हब की देते हैं पर इल्म नहीं उनको मज़हब में लिखा क्या है क्रिस्तान, हिंदू, मुस्लिम, सब धर्म सिखाते हैं कि सबसे प्यार करो, मुख्तलिफ़ कहा क्या है उपदेश कबीरी है रट लो ढाई अक्षर जो इस पर अमल किया, करने को रहा क्या है हो जाओ समर्पित तुम भक्ति में ईश्वर की चरणों में ख़लिश उसके आंसू न बहे क्या है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ नवंबर २००८ १९०९. एक सूरत नैनों में आयी और झलक दिखा कर चली गयी--RAS एक सूरत नैनों में आयी और झलक दिखा कर चली गयी क्षण भर में ही जाने कैसे सौ ख़्वाब सजा कर चली गयी ख़्वाबों का लेकिन क्या कहिये, वे तो आते हैं जाने को मेरे मन की मूरत दिल में अहसास जगा कर चली गयी एहसासों की ही दुनिया में हर लमहा अब दिल रहता है मेरे अहसासों को झूठा विश्वास दिला कर चली गयी दिल के विश्वासों की पुष्टि ताबीर नहीं करती लेकिन दोनों हैं थोथे, पल भर में ये बात बता कर चली गयी बातें उसकी याद आती हैं, दे गयी ख़लिश कितनी यादें तनहाई में वो यादों का एक राग सुना कर चली गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ १९१०. ये गीत रहेंगे जब तक मैं अपनी धड़कन सुन पाऊंगा—RAS—ईकविता, १४ नवंबर २००८ ये गीत रहेंगे जब तक मैं अपनी धड़कन सुन पाऊंगा जब गीत भुला दोगे मेरे प्रस्थान तभी कर जाऊंगा है गीतों से मेरा जीवन, जीवन का दम है महफ़िल से तुम मुझे भुला दोगे तो मैं गीतों से दिल बहलाऊंगा मेरा दिल नर्तन करता है मेरे ही गीतों की धुन पर यह नर्तन रुका यदि अपने ही गीतों से शरमाऊंगा तब तक ही केवल लिखूंगा जब तक ये तुम्हें लुभाते हैं जिस दिन महफ़िल उकतायेगी मैं फिर न गीत सुनाऊंगा वह दिन इस कवि के जीवन का शायद अंतिम ही दिन होगा उस दिन अपना अस्तित्व ख़लिश अपने से ही ठुकराऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ १९११. मुझे अच्छी नहीं लगतीं हैं अब ये प्यार की बातें--RAS मुझे अच्छी नहीं लगतीं हैं अब ये प्यार की बातें कभी इकरार की बातें, कभी इंकार की बातें कभी रहती थी इन बातों से रंगीं ज़िंदगी मेरी नहीं अब ये लुभातीं हैं मुझे इसरार की बातें कभी दिल को लगातीं थीं मेरे खिलवत-ओ-फ़ुरकत में मग़र लगतीं हैं अब थोथी मेरे दिलदार की बातें चुकी है उम्र मंज़र देख कर संगीन उल्फ़त के पुरानी हो चुकीं हैं वो सभी दीदार की बातें ख़लिश रूहानगी में अब तसल्ली पा चुका हूँ मैं हुयीं बेमायना मेरे लिये संसार की बातें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ • खिलवत = ऐसा स्थान जहाँ आपस के या एक दो इष्ट व्यक्तियों के सिवा और कोई न हो। एकान्त स्थल। • फ़ुरकत = वियोग। जुदाई। बिछोह। • इसरार = किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला आग्रह। जिद। हठ। भेद। रहस्य। १९१२. बहुत चाहा मग़र मंज़िल नहीं मिल पायी जीवन में--RAS बहुत चाहा मग़र मंज़िल नहीं मिल पायी जीवन में किसी प्यासे हिरण सा ही रहा मैं दौड़ता वन में कोई पूछे अग़र मुझसे भला क्या ढूंढता हूं मैं कहूंगा कुछ तरल मिल जाये, है इक आग सी तन में भले विष हो कि अमृत हो पिला दो घूँट भर मुझको मेरे तर होंठ हो जाते रहे न आस ये मन में नहीं परवाह मरने की न मुझको शौक जीने का मेरे मन में नहीं है फ़र्क अब माटी में और धन में चले है सांस जब तक पाल लो शिकवे गिले मुझसे भुला देना ख़लिश दुनिया से रुखसत होऊँ जिस क्षण मैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ १९१३. मेरे दिल की परेशानी किसी को क्यों नहीं दिखती--RAS मेरे दिल की परेशानी किसी को क्यों नहीं दिखती मोहब्बत की पशेमानी किसी को क्यों नहीं दिखती मेरी आंखों के सपने हो गये हैं हासिले-गर्दिश मेरी आंखों की हैरानी किसी को क्यों नहीं दिखती लगा इलज़ाम है मुझ पर किसी से बेवफ़ाई का दिलो-जां की ये कुरबानी किसी को क्यों नहीं दिखती सभी को सब्र है ये सोच कर कि सब्र है मुझको मेरी हसरत ये दीवानी किसी को क्यों नहीं दिखती करूँ क्या मैं ख़लिश चाहा जिसे न वो हुआ मेरा मेरे दिल की ये वीरानी किसी को क्यों नहीं दिखती. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ १९१४. क्यों पूछ रहा है मेरे दिल प्रस्थान करूँ या वास करूँ--RAS क्यों पूछ रहा है मेरे दिल प्रस्थान करूँ या वास करूँ तू पूछ ज़रा अपने से ही, क्यों माया का विश्वास करूँ जग झूठ सपना है केवल जब आंख मुंदी खो जायेगा यह दुनिया एक सराय है, कुछ सोच यहाँ क्या आस करूँ इक भूल-भुलैय्यां में आशा, अरमानों की दुनिया खोयी लाज़िम है तुझको सोचे कि मुक्ति का आज प्रयास करूँ स्थितप्रज्ञ तू बनना चाहे तो मुमकिन न हो पायेगा जब तक न तू ये ठानेगा मन से इच्छा का नाश करूँ क्यों जोड़ रहा है काँच ख़लिश ये जीवन बीत चला तेरा अब सोच ख़ुदाई हीरे को पाने की कोशिश ख़ास करूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १४ नवंबर २००८ १९१५. उल्फ़त की मैं इक निगाह खोजता हूँ--RAS उल्फ़त की मैं इक निगाह खोजता हूँ दिल के लिये कोई राह खोजता हूँ मेरे दर्द से भीग कर जो किसी के कलेज़े से निकले वो आह खोजता हूँ जो चाहे मुझे न कि दौलत को मेरी मैं वो पुरवफ़ा एक चाह खोजता हूँ न धोखा न कोई छिपी दुश्मनी हो कोई नेक सच्ची सलाह खोजता हूँ सज़ा में भी हो एक लज़्ज़त अनोखी हसीं वो ख़लिश मैं गुनाह खोजता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ नवंबर २००८ १९१६. है ये इंसान की फ़ितरत गुमां सारे ये करते हैं--RAS है ये इंसान की फ़ितरत गुमां सारे ये करते हैं कि हम हुशियार हैं सबसे भरोसा मन में धरते हैं न ये सोचो कि जो करते हो वो ही सबसे अच्छा है बहुत तुमसे भी दाना हैं, गज़ब का इल्म रखते हैं मिटा दो खाक में ख़ुद को अग़र कुछ मर्तबा चाहो गुले-गुलज़ार होने का सभी दम लोग भरते हैं जो उड़ते हैं परे धरती से ऊँचे आसमानों पर कटे-पर जब वो गिरते हैं बहुत तब हाथ मलते हैं जो अपने को बड़ा समझे बड़ा वो हो नहीं सकता ख़लिश उठते हैं वो ही जो ख़ुदा के पांव पड़ते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ नवंबर २००८ १९१७. ख़त हमने लिखा रो के नग़मा वो समझ बैठे—RAS—ईकविता, १५ नवंबर २००८ ख़त हमने लिखा रो के नग़मा वो समझ बैठे शायर हैं, कवि हैं हम, क्या-क्या वो समझ बैठे भूले से कहा हमने वो हुस्न के पैकर हैं करते हैं सरे-महफ़िल रुसवा वो समझ बैठे जो दाग था दामन पे स्याही का लगा इक दिन है ग़ैर की आंखों का कजरा वो समझ बैठे फूलों को चुना हमने, हसरत से बनाया था सौतन के लिये लाये गज़रा वो समझ बैठे हम प्यार तो करते थे इज़हार न कर पाये करते हैं ख़लिश उनसे शिकवा वो समझ बैठे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ नवंबर २००८ ०००००००००००००० Sunday, 16 November, 2008 3:42 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब, बहुत खूब!" जो दाग़ था दामन पे स्याही का लगा इक दिन है ग़ैर की आँखों का कजरा वो समझ बैठे" अगर यह हालत है तो किसी दिन यह भी कहना पडेगा "चाक गरेबाँ से सियाह धागा क्या छूटा इक दिन है ग़ैर के ही गेसू वो ज़ालिम समझ बैठे"सस्नेहसीताराम चंदावरकर १९१८. कुछ लोग हैं जो अपनी हस्ती औरों पर थोपा करते हैं--RAS कुछ लोग हैं जो अपनी हस्ती औरों पर थोपा करते हैं नये कदमों को, नये ख़्यालों को नाहक ही रोका करते हैं है जिनकी सोच पुरानी और रहते हैं केवल माज़ी में दकियानूसी बातों पर वो ही लोग भरोसा करते हैं जो नयी शमा करते रोशन, बहते हैं संग समय के जो नये पौधों को, नये ख़्यालों को क्यारी में रोपा करते हैं जो रोते रहते हैं हर दम ऐसे लोगों को क्या कहिये ख़ुद तो कुछ काम नहीं करते, किस्मत को कोसा करते हैं जो ख़लिश नहीं चलते सीधे और ट्ढ़े रस्ते जाते हैं वो नहीं ज़माने से केवल, ख़ुद से भी धोखा करते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९१९. आप भी और आपकी ज़िन्दादिली मशहूर है—RAS—ईकविता, १६ नवंबर २००८ आप भी और आपकी ज़िन्दादिली मशहूर है आपके संग जो हमें उल्फ़त मिली मशहूर है इश्क का ऐसा असर पहले कभी देखा नहीं आपके चेहरे पे जो रौनक खिली मशहूर है आपके ही हुस्न के चरचे हैं फैले चार सू हर चमन में आपके दिल की कली मशहूर है आप आये अब रहा हमको जुदाई का न ग़म तीरगी में रात भर शम्म जली मशहूर है ज़िक्र महफ़िल में ख़लिश जब भी हुआ है हुस्न का आपके ही नाम की चर्चा चली मशहूर है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२०. है अग़रचे आज सूना चार सू ये आसमां है अग़रचे आज सूना चार सू ये आसमां भूलना मत हैं मग़र तनहाई में शोले निहाँ आज जो तारे भी बैठे हैं छिपा कर मुँह कहीं आयेगा तूफ़ान चमकेंगी हज़ारों बिजलियां हर नदी में एक दिन सैलाब आता है ज़रूर ख़त्म होता है चमन से एक दिन दौरे-खिज़ां आज है मुर्दार आलम दूर तक फैला हुआ कल इसी में गूँजते होंगे रवानी के निशां बर्फ़ की ये आंधियां केवल बहेंगी चन्द रोज़ पाओगे इक दिन ख़लिश खूंखार लपटों का समां. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२१. हम प्यार की राहों में इस दिल को लुटा देंगे--RAS हम प्यार की राहों में इस दिल को लुटा देंगे उनके बिन क्यों जीये, अपने को सज़ा देंगे अब और रखा क्या है उनके बिन दुनिया में जो पा न सके उनको इस जां को मिटा देंगे तकता है क्यों हमको हैरत से ज़माना ये है इश्क भला क्या ये दुनिया को दिखा देंगे तुम सोचते हो हावी हो सकते हो दिल पर हम प्यार की बाजी में शाहों को झुका देंगे ग़र दम है ज़माने तो आ जाओ ख़लिश आगे मर गये अग़र आशिक दुनिया के दुआ देंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२२. कोई तो हमारा है अहसास कभी होता--RAS कोई तो हमारा है अहसास कभी होता रिश्ता तो बना इसमें इंसाफ़ कभी होता मालिक हैं वो कहने को मेरे व मेरे दिल के दुनिया में हमारा भी कोई ख़ास कभी होता फेरे जो लिये हमने, मुज़रिम तो नहीं थे हम औरत के लिये रस्ता तो साफ़ कभी होता हेठी है ज़माने की सेवा ही करती है ग़र प्यार करे सच्चा तो माफ़ कभी होता क्या करे ख़लिश कोई कानून भी अन्धा है कानून दिलों का भी बर्दाश्त कभी होता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२३. हम राह में उलफ़त की इस दिल को लुटा देंगे--RAS हम राह में उलफ़त की इस दिल को लुटा देंगे वो हँस के अग़र मांगें हम जान गंवा देंगे पूछे न कोई हमसे क्या दिल में इरादे हैं आने दो ज़रा मौका कुछ कर के दिखा देंगे देते हैं वफ़ा का हम वादा, ग़र तर्क किया तुम से पहले हम ख़ुद अपने को सज़ा देंगे परवाह रिवाज़ों की है नहीं ज़माने सुन रस्मों की किताबों को हम आग लगा देंगे ये जोशे-जवानी है टकराओ न तुम इससे हम ख़लिश बगावत से ज़ुल्मों का सिला देंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२४. इस जीवन के रस्ते मुश्किल लगते हैं कितने अनजाने--RAS इस जीवन के रस्ते मुश्किल लगते हैं कितने अनजाने किस्मत से अपनी डरता हूँ ले जाये कहाँ मुझको जाने हर रोज़ नयी उलझन आती, हर रोज़ नयी इक मंज़िल है जो भी चाहे दे जाता है दुखड़े मुझको नित मनमाने कहने को तो कह देते हैं तकलीफ़ सभी कट जायेगी फिर क्यों रोते हैं लोग वही जो आते मुझको समझाने जो कहते हैं मुझसे अपने दिल को बहलाओ सब्र करो जब उन पर पड़ती है पीते हैं पैमाने पर पैमाने अपनी-अपनी तरतीबें हैं सबके ग़म हैं अपने-अपने कैसे निपटें ग़म से बेहतर अब कौन ख़लिश ये पहचाने. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२५. खेल फिर से क्यों शुरू ये कर दिया--RAS खेल फिर से क्यों शुरू ये कर दिया रो रहा है आज फिर मेरा जिया कर दिया फिर से कलेज़ा चाक क्यों जानते हो मुश्किलों से था सिया बंधनों में बंध रहा था अब तलक आज मनचाहा करेगा ये हिया कुछ ख़फ़ा मुझसे रही तकदीर है छिन गया अमृत, हमेशा विष पिया न कमायीं दौलतें न नेक नाम किसलिये अब तक ख़लिश तू है जिया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ |