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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
१९२६. दुनिया से चला जाऊँ कहीं मन चाहता--RAS दूर दुनिया से चला जाऊँ कहीं मन चाहता फिर नहीं मैं लौट कर आऊँ कभी मन चाहता ग़र कहे किस्मत कि जाना दूर है मुमकिन नहीं तो ख़ुदारा ख़त्म हो जाऊँ यहीं मन चाहता अब भी वो मंज़र वहीं है पहली मुलाकात का एक पल के वास्ते जाऊँ वहीं मन चाहता कशमकश में पड़ गया हूँ जी रहूँ या मर रहूँ छोड़ दूँ प्यारों को अपने ये नहीं qÉlÉ cÉÉWûiÉÉ ख़्याल फिर आता है रब से और प्यारा कौन है जा मिलूँ उससे ख़लिश अब है यही qÉlÉ cÉÉWûiÉÉ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२७. कहीं पर ज़श्ने-आज़ादी नगाड़ों से मनाते हैं—RAS—ईकविता, १७ नवंबर २००८ कहीं पर ज़श्ने-आज़ादी नगाड़ों से मनाते हैं कहीं बच्चे परेशां भूख से हो बिलबिलाते हैं जो हैं ख़ुदगर्ज़ उनको है नहीं परवाह औरों की पटाखे और बम खुल कर दिवाली पर चलाते हैं बड़ी कारों, बड़े महलों के मालिक आये दिन सबको बहुत अच्छा है जीवन सादगी का यह सिखाते हैं करोड़ों ख़र्च कर देते हैं अपने जीतने ख़ातिर चुनावों के जो लमहे पाँच सालों बाद आते हैं मुनासिब है ख़लिश वो सादगी की ज़िंदगी जीयें गरीबों के लिये हमदर्दियां जो नित दिखाते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १६ नवंबर २००८ १९२८. मेरी मंज़िल को हसीं कोई इशारा दे दो--RAS मेरी मंज़िल को हसीं कोई इशारा दे दो मेरी राहों को मोहब्बत का सहारा दे दो शाम गहराती है साहिल न नज़र आता है मेरी कश्ती को दुआओं का सहारा दे दो इन निगाहों ने जगाया था तमन्ना को कभी वो ही पैग़ाम निगाहों से दोबारा दे दो जो न मंज़ूर मोहब्बत हो तुम्हारे दिल को तो कभी तुमने लिया दिल वो हमारा दे दो मैंने तोहमत ही उठायीं हैं ख़लिश आज तलक जो उलाहना हो बचा कोई तुम्हारा दे दो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९२९. तुम जो आयीं दिल को मेरे आज रोना आ गया--RAS तुम जो आयीं दिल को मेरे आज रोना आ गया ख़्याल तुम देवी वफ़ा की वो ही हो ना आ गया जब तुम्हें देखा लगा इक पैकरे-उल्फ़त हो तुम कौन सा सपना था मेरे दिल में जो ना आ गया वो भी क्या दिन थे बसाया था कभी दिल में तुम्हें आज उन यादों से मुझको दूर होना आ गया पर भुलाऊँ किस तरह जो ग़म दिया तुमने मुझे रात की तनहाइयों में चैन खोना आ गया आज आखिर असलियत से रू-ब-रू मैं हो गया ग़म ख़लिश दिल को मेरे इक और ढोना आ गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३०. जो प्यार में ताकत है बंदूक में क्या होगी--RAS जो प्यार में ताकत है बंदूक में क्या होगी एक शम्म है छोटी सी जल-जल के फ़ना होगी पूछोगे अग़र कितनी है प्यार में शिद्दत तो परवाना कहेगा न बिन जले बयां होगी मज़हब को बुराई तो देता है ज़माना ये मज़हब के बिना दुनिया सहरा का निशां होगी है कहना बहुत आसां है हस्ती है नहीं रब की हो पाक नज़र, हस्ती कण-कण में अयां होगी इंसान ग़ुरूर न कर तू अपनी ताकत पर ताकत उस मौला की सौ लाख गुना होगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३१. राहों में मोहब्बत की हम जान लुटा देंगे--RAS राहों में मोहब्बत की हम जान लुटा देंगे होते हैं फ़ना कैसे दुनिया को दिखा देंगे दिल दे कर के वापस लेना है नहीं मुमकिन सह लेंगे हम इसकी जो हमें सज़ा देंगे यूँ तो सच्ची राह पर ही चलना सीखा है पर प्यार बचाने को ईमान गंवा देंगे हमने तो बगावत का परचम लहराया है देखें हम भी इसका क्या आप सिला देंगे है ख़लिश गलतफ़हमी ग़र आपने समझा है कि डर के मारे हम यह शीश झुका देंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३२. जब ग़म की हो बरसात तो क्यूँ न दिल रोये--RAS जब ग़म की हो बरसात तो क्यूँ न दिल रोये तनहा बीते हर रात तो क्यूँ न दिल रोये पहले तो सताने के, रूठें तो मनाने के याद आयें हसीं हालात तो क्यूँ न दिल रोये हम भूल न पायेंगे उन प्यार के लमहों को रह-रह उभरे हर बात तो क्यूँ न दिल रोये मौसम हो सुहाना जब, और मेरे तसव्वुर में जब छलक पड़ें जज़्बात तो क्यूँ न दिल रोये बादल भी गरज़ते हों, बिजली भी चमकती हो मन में हो झंझावात तो क्यूँ न दिल रोये मतवाली आंखों की और काली ज़ुल्फ़ों की जब लुट जाये सौगात तो क्यूँ न दिल रोये जब पायें ख़लिश ज़फ़ा, न कायम रहे वफ़ा, जब प्यार करे आघात तो क्यूँ न दिल रोये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३३. लाख की बात सेठ का बेटा गांव के पार करने चला बड़ा व्यापार किया सेठ ने उसे विदा चार लाख रुपयों के साथ रस्ते मिला सयाना एक बातें लच्छेदार अनेक बोला पैसा दो तो लो एक लाख में शिक्षा एक पहले रुपया लाख दिया फिर उससे यह प्राप्त किया “एकला न जाइये बाट” फिर आगे प्रस्थान किया शिक्षा अच्छी उसे लगी लौटा लेने और तभी “आसन झाड़ बिछाइये खाट” और लाख दे दिये जभी आधे पैसे रह गये पास व्यापारी की जागी प्यास “जगते को न मारे कोय” शिक्षा तीजी ली ये खास रुपये लाख ही बाकी थे मानो जेब में भारी थे “गुस्सा मार रसायन होय” चौथी बात पे वारे वे थोड़ा रस्ता पार हुआ प्रथम बात को याद किया “एकला न जाइये बाट” मिला नेवला, साथ लिया पांव थके और भूख सताय मिली बटोही-मार सराय नीचे गड्ढा ऊपर खाट चद्दर खाली खाट बिछाय दूजी बात करी फिर याद “आसन झाड़ बिछाइये खाट” चादर नीचे गड्ढा पाया धरती सोय बितायी रात आगे चला शहर की ओर सुना मुनादी का इक शोर: राजकुमारी ब्याहै तो आधा राज मिलेगा भोर मालूम उसे हुयी यह बात जो भी सोता है इक रात सुबह मरा वह मिलता है ऐसे संगीं थे हालात व्यापारी झट मान गया राजा के वह पास गया शयनगृह में ब्याह के बाद मित्र नेवला साथ गया राजकुमारी, व्यापारी थके नींद सोये भारी “जगते को न मारे कोय” नेवले ने यह बात रखी बीत चुकी जब आधी रात राजकुमारी की फिर नाक से इक काल सांप आया नेवले ने मारा वो नाग व्यापारी की जान बची राजा के मन हुयी ख़ुशी सुनी नेवले की जब बात मन में गंदी चाल जगी राजा ने मन में सोचा व्यापारी ने किया है क्या साँप नेवले ने मारा क्यों यह आधा राज दिया राजा बात का झूठा था व्यापारी को गुस्सा था “गुस्सा मार रसायन होय” सोच के गुस्सा थूका था बंदी उसको बना लिया जनता ने न साथ दिया राजकुमारी भी नाराज़ राजा ने फिर राज दिया सुन लो बच्चो तुम भी आज व्यापारी का क्या था राज़ तुम भी सफल बनोगे यदि याद रखो यह चारों बात: “एकला न जाइये बाट आसन झाड़ बिछाइये खाट जगते को न मारे कोय गुस्सा मार रसायन होय”. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३४. आज मैं कुछ थका-थका सा हूँ--RAS आज मैं कुछ थका-थका सा हूँ साज टूटा मैं बेसुरा सा हूँ कभी देखे थे दिन ख़ुशी के भी आज नग़मा बुझा-बुझा सा हूँ मेरी आंखों से अश्क बहने दो मुझे किस्मत के दाग़ सहने दो जो छिपा कर रखे ज़माने से दर्द नज़रों से आज कहने दो मेरी आंखों में आज पानी है आज रोती मेरी जवानी है प्यार दे के भी न मिला मुझको मेरी छोटी सी ये कहानी है कोई अब मेरे पास न आये मुझसे दूर हो गये मेरे साये ज़िंदगी की उदास राहों पर मेरी खातिर है कौन रुक पाये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३५. हम क्या से क्या हो गये सनम, कुछ तो है आपकी नज़रों में--RAS—ईकविता, १८ नवंबर २००८ हम क्या से क्या हो गये सनम, कुछ तो है आपकी नज़रों में काम और धन्धा सब छूट गया, फिरते आवारा सड़कों में है कारस्तानी उल्फ़त की या जाने करम तुम्हारा है ग़ुमनाम कभी जीते थे हम, अब हैं महफ़िल के चरचों में अब घर का रस्ता भूल गये काफ़ी हाउस में रहते हैं कालिज से घर को आते थे, हम थे ऐसे ही लड़कों में कक्षा का रुख जब किया नहीं तो दोष किसी को क्या दीजे ज़ीरो-ज़ीरो नम्बर पाये हैं हमने सारे परचों में क्या कहिये क्या है किस्मत में, इतना तो ख़लिश बता दीजे क्या प्यार हमें भी करते हैं, ज़ाहिर कर दें दो हरफ़ों में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ ०००००००००००० Tuesday, 18 November, 2008 9:39 PM From: pachauriripu@yahoo.com हाँ जी ०००००००००००० >>"हाँ जी" ....यह उत्तर है आपकी ग़ज़ल के अंतिम शेर का ( दो हर्फ़ में ) 00000000 Wednesday, 19 November, 2008 12:36 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com हम क्या से क्या हो गये सनम तुम्हारे लिए फिर लेंगे जनम! ००००००००००००००००० Wednesday, 19 November, 2008 12:36 AM From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com हम क्या से क्या हो गये सनम तुम्हारे लिए फिर लेंगे जनम! ०००००००००० १९३६. वो हमको भूले बैठे हैं, कहते हैं हम ही भूल गये—RAS—ईकविता, १७ नवंबर २००८ वो हमको भूले बैठे हैं, कहते हैं हम ही भूल गये जो ख़ता फ़कत मामूली थी, दे नाहक उसको तूल गये जब पहले-पहले मिले हमें तो कितने कमसिन लगते थे कितने ही रंगीं सपने थे जो इन आंखों में झूल गये हमने तो उनके कदमों में चुन-चुन कर फूल बिछाये थे कुछ फ़ितरत थी ऐसी उनकी दे कर वो हमको शूल गये भोला सा दिल था बेचारा जो बिन कारण बरबाद हुआ हमने तो सूद न मांगा था, पर वो तो ले कर मूल गये सोचा था ख़लिश कभी सच्चे दिल से वो वफ़ा निभायेंगे दे गये वफ़ा ग़ैरों को इन आंखों में दे कर धूल गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ नवंबर २००८ १९३७. आपने हमें जो तोहफ़ा दिया हुज़ूर है—RAS—ईकविता, १९ नवंबर २००८ आपने हमें जो तोहफ़ा दिया हुज़ूर है इसको पा के ख़ुद पे आज हो रहा ग़ुरूर है आपने इशारतन जता दिया है आज ये बिन वज़ह हमारे दिल में नहीं सरूर है आपकी निगाह ने जाने क्या असर किया दिल में छा रहा सनम आप ही का नूर है गो कि वादा आप माँगते नहीं हैं फिर भी हम दिल से आप से निभायेंगे वफ़ा, शऊर है आज तोहफ़ा मिला, ख़लिश मिलेंगे आप कल है यकीन उसपे जो जहान का ग़फ़ूर है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ नवंबर २००८ ग़फ़ूर = मोक्षदाता; बख़्शने वाला; ईश्वर १९३८. क्यों पूछ रहे हो तुम हमसे कि कब तक साथ निभाओगे—RAS—ईकविता, १९ नवंबर २००८ क्यों पूछ रहे हो तुम हमसे कि कब तक साथ निभाओगे ये जनम-जनम का रिश्ता है तुम सदा हमें ही पाओगे अब राह बची है एक हमें और मंज़िल भी है एक सिरफ़ हमको ही हर सू देखोगे तुम जब भी नज़र उठाओगे है सिर्फ़ तुम्हीं से प्यार नहीं हमको है प्यार से प्यार हुआ ये प्यार जो हमसे छीनोगे इक दिन तुम भी पछताओगे छोड़ो ये नखरे-नाज़ सनम अब समय न तुम बरबाद करो ग़र पता चला घर वालों को तो सिर धुनते रह जाओगे हम ख़लिश सिविल मैरिज कर लें या मंदिर में जा फेरे लें नाराज़ सभी हैं घर वाले, घर गये न वापस आओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ नवंबर २००८ १९३९. क्यों आंख नम सी हो रही है आज शाम से--RAS क्यों आंख नम सी हो रही है आज शाम से ये रात फिर आयी है आज उनके नाम से वो तो चले गये हमें ग़म दे गये हज़ार कैसे भुला सकेंगे फ़कत एक जाम से फिर एक तूफ़ां सा उठा है आज माज़ी में फिर उनकी सदा आ रही है दर-ओ-बाम से गुज़रे हैं उसी प्यार के मंज़र से हो के फिर देखा है उसे आज बड़े एहतराम से वादा किया हर बार लेकिन आये न ख़लिश उम्मीद न रही है अब उनके पयाम से. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ नवंबर २००८ एहतराम = सम्मान, आदर, इज़्ज़त एद १९४०. इन निगाहों को सनम हमसे चुराया न करो--RAS—ईकविता २० नवंबर २००८ इन निगाहों को सनम हमसे चुराया न करो ग़ैर से दिल को सनम आप लगाया न करो बिन हमारे भी तन्हा आप तो जी लेते हैं नाम करने के लिये हमको बुलाया न करो हमपे यूँ भी हैं ज़माने ने किये लाख सितम आप बिन बात हमें ऐसे सताया न करो आपके दिल में न परवाह है हमारी कुछ भी दिल जलाने के लिये हमको मनाया न करो आपके हुस्न के हम तो हैं शुरू से कायल नाज़ो-अंदाज़ मेरी जान दिखाया न करो बाद बरसों के हमें मिलने को आते हो कभी आप आओ तो ख़लिश रात ठहर जाया करो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ नवंबर २००८ १९४१. विद्या ददाति विनयम्—RAS—ईकविता १९ नवंबर २००८ शास्त्र का है नियम बिद्या ददाति विनयम् विनयाद्याति पात्रताम् पात्रत्वा धनमाप्नोति धनात् धर्मम् ततो सुखम् विद्या से विनय मिले विनय से पात्रता मिले (अथवा योज्ञता मिले) पात्र को धनप्राप्ति हो धन लगाये धर्म में तो धर्म वह कमायेगा साथ सुख भी आयेगा किंतु बिद्या प्राप्त करते हैं महज़ धन के लिये? धर्म और सुख के लिये? धन कमाने के बहुत हैं और साधन और विद्या से भला धन क्या मिलेगा? आइये ये प्रश्न जो मन को परेशां कर रहे हैं आज हल ढूढें इन्हीं का योज्ञता मिलती है विद्या प्राप्त करके योज्ञता किस बात की? योज्ञता के कई रूप धर्मेच्छु के लिये धर्म कमाने की अर्थेच्छु के लिये अर्थ कमाने की कामेच्छु के लिये काम कमाने की मुमुक्षु के लिये मोक्ष कमाने की तथ्य पर है व्यावहारिक आम जो विद्यार्थी है पूर्ण करके वह पढ़ाई काम-धन्धा ढूँढता है ताकि गृहस्थी जमाये कोई भी ऐसा न होगा जो निकल के स्कूल कालिज से कहे कि अब कमाने धर्म-मोक्ष जा रहा हूँ धन कमाने के तरीके तो बहुत हैं धन कमायें जो न सच्चे रास्तों से धर्म की राह न कभी वह धन चलेगा किंतु जो विद्या कमा कर धन कमाये धन रहेगा सात्विक वह धर्म में यदि व्यय करें तो धर्म को बढ़ायेगा वह धर्म-राह दिखलायेगा वह धार्मिक बनायेगा वह धर्म की राह जो मनुष्य चल पड़ेगा फिर दुखी वह क्यों रहेगा सुख सदा उसको मिलेगा कौन सा सुख? वह नहीं जो स्वर्ण महलों में विराजे या रसिक, कामुक हृदय को रास आये वरन् सुख जो शाश्वत है आंतरिक है आत्मिक है आत्मा में बस गया तो फिर न जाता धर्म से सुख इस तरह का मनुज पाता धर्म की राह तामसिक धन न दिखाता सात्विक धन योज्ञता से ही है आता योज्ञता या पात्रता विद्या से मिलते हैं इसी कारण मनीषी कह गये कि विद्या पाओ विनीत बनो योग्य बनो धन कमाओ किंतु रहे ध्यान न हो अभिमान धन में न हों प्राण लिप्त धन में हो न जाओ धर्म में धन को लगाओ धर्म को धन से कमाओ धर्म से फिर सुख मिलेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ नवंबर २००८ ०००००००००००००००० Wednesday, 19 November, 2008 11:19 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com ख़लिश जी,उत्तर पढा, सारगर्भित है! बहुत धन्यवाद !!सादर, शार्दुला १९४२. जब पास में तुम न होओगे, हम कैसे दिल बहलायेंगे--RAS जब पास में तुम न होओगे, हम कैसे दिल बहलायेंगे टकरा के दिवारों से सिर को हम तनहा ही मर जायेंगे न मौत ही हमको आयेगी माहौल कयामत का होगा दिन तो कट जायेंगे लेकिन रातों को अश्क बहायेंगे अपने ग़म औरों को बतलाने से कुछ हासिल न होगा कोई पूछे आंखें क्यों नम हैं सुन कर हम चुप रह जायेंगे जब याद सतायेगी उनकी माज़ी के वरके खोलेंगे उनका दीदार तभी होगा सपनों में जब वो आयेंगे जीने को तो हम जी लेंगे, ये जीना भी क्या जीना है जो कमी रहेगी ख़लिश उसे हम पूरा न कर पायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० नवंबर २००८ १९४३. वे हम पे ख़फ़ा हैं, बेहतर है, गुस्से से ही, कुछ तो बोले--RAS—ईकविता २० नवंबर २००८ वे हम पे ख़फ़ा हैं, बेहतर है, गुस्से से ही, कुछ तो बोले चुप्पी उनकी टूटी, गाली मिसरी सी कानों में घोले जब सामने उनके आते थे वो नज़र बचाये जाते थे जैसे कि हमें देखा ही नहीं, बनते थे वो नाहक भोले जब पड़ ही गया पाला हमसे, अब कुछ तो याद करेंगे वो नादान समझते थे हमको, हम पहन चुके कितने चोले ठन ही जो गयी दिल की दिल से, न कदम हटायेंगे पीछे परवाह नहीं है दुनिया की, अब जो भी हो चाहे हो ले हम तरतीबें कर हार गये हमसे न मुख़ातिब होते थे हमसे बतियाये आज ख़लिश, मन ख़ुशियों से इत-उत डोले. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० नवंबर २००८ ००००००००००० Thursday, 20 November, 2008 11:16 AM From: "Ghanshyam Gupta" gcgupta56@yahoo.com अच्छी ग़ज़ल है। ०००००००००००० एद अधिकार न फल पर रखो मग़र कर्तव्य कर्मों को कीजे न स्थितप्रज्ञ बन पाओगे यदि इच्छाओं पर तुम रीझे एक तुम हो एक परमात्मा है, दोनों का संबंध है गहरा दोनों का मिलना न होगा ग़र मन में हों बंधन तीजे यदि विषयों को हम न भोगें पर विषयासक्ति नहीं जाये तो विषयों के चिंतन से मानव नाहक भोग बिना खीजे गीता का ज्ञान विलक्षण है कामना उपजती चिंतन से उससे फिर क्रोध उपजता है और क्रोध से फिर सम्मोह बीजे सम्मोह से होता बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश जब सर्वनाश हे हो जाये क्या बाकी रहा समझ लीजे है गीता का उपदेश त्याग इच्छा मन को कर लो ऐसा शुभ मिले तुम्हें या अशुभ ख़लिश, आनन्द नहीं आत्मिक छीजे. १९४४. अधिकार न फल पर रखो मग़र कर्तव्य कर्मों को कीजे—RAS-- ईकविता २१ नवंबर २००८ अधिकार न फल पर रखो मग़र कर्तव्य कर्मों को कीजे न स्थितप्रज्ञ बन पाओगे यदि इच्छाओं पर तुम रीझे एक तुम हो एक परमात्मा है, दोनों का संबंध है गहरा दोनों का मिलना न होगा ग़र मन में हों बंधन तीजे यदि विषयों को हम न भोगें पर विषयासक्ति नहीं जाये तो विषयों के चिंतन से मानव नाहक भोग बिना खीजे गीता का ज्ञान विलक्षण है कामना उपजती चिंतन से उससे फिर क्रोध उपजता है और क्रोध से फिर सम्मोह बीजे सम्मोह से होता बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश जब सर्वनाश ही हो जाये क्या बाकी रहा समझ लीजे है गीता का उपदेश, त्याग इच्छा, मन को कर लो ऐसा शुभ मिले तुम्हें या अशुभ ख़लिश, आनन्द नहीं आत्मिक छीजे. गीता के निम्न श्लोकों पर आधारित-- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२-४७॥ विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२-५९॥ ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२-६२॥ क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२-६३॥ महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ नवंबर २००८ ०००००००००००००० Friday, 21 November, 2008 12:54 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" डॉ महश जी,अति सुंदर बधाई! किन्तु क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२-६३॥ क्यौं छोड दिया? मेरा एक प्रयास क्रोध से मोह, मोह से संभ्रम, संभ्रम से बुद्धिनाश बुद्धिनाश से होता सर्वनाश निश्चित समझ लीजे सस्नेहसीताराम चंदावरकर 0000000000000 Friday, 21 November, 2008 10:25 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com अति सुन्दर ख़लिश जी ! === सुन्दरकाण्ड से - सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ।। समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ।। ०००००००००००० १९४५. हम प्यार में थे नादान बहुत बेकार मोहब्बत कर बैठे--RAS हम प्यार में थे नादान बहुत बेकार मोहब्बत कर बैठे जब प्यार में धोखा खाया तो सिर अपना आज पकड़ बैठे हम भूल गये थे प्यार की राहों में फिसलन और कांटे हैं गुलशन में गुल से खिलते थे, आन्धी आयी और झर बैठे था एक समां ऐसा भी वो आये थे हमारे दर पे जब अपने को अफ़लातून समझ हम उनसे ज़रा अकड़ बैठे उन दिनों हमारा जोश बहुत था, ख़ुद से सम्हल न पाता था अब कुछ ऐसे बरबाद हुये, आंखों में आंसू भर बैठे न ख़लिश रहम हम पर करना, अपनी किस्मत है, सह लेंगे बेवफ़ा कोई था, हम उस पर दिल-जान लुटा कर मर बैठे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ नवंबर २००८ १९४६. रहना नहीं देस बेगाना है—RAS—रिपुदमन जी को प्रेषित, २३ नवंबर २००८ रहना नहीं देस बेगाना है ये दो दिन का अफ़साना है ये भी पा लूँ, वो भी पा लूँ बस वो ही राग पुराना है सब यहीं पड़ा रह जायेगा कब तक इस को समझाना है न समझेगा तो रोयेगा खाली हाथों ही जाना है मत भूल ख़लिश इस पुतले का आखिर श्मसान ठिकाना है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ नवंबर २००८ १९४७. इलज़ाम किसी को क्या दीजे हमको अब तक समझा न कोई—RAS-- ईकविता २२ नवंबर २००८ इलज़ाम किसी को क्या दीजे हमको अब तक समझा न कोई हम दोस्त बना बैठे यूँ ही और पहले से परखा न कोई है तनहाई का आलम और बरपा है गहरी खामोशी तूफ़ान भी आया तो ऐसे कि बादल तक गरजा न कोई यूँ तो बरसात का मौसम है सब ओर बहार और रिमझिम है मेरे आंगन भी मेघ घने आये तो पर बरसा न कोई जब प्यार में धोखा खाया तो मैं मारा-मारा फिरता था पर देख के मेरी हालत को मुस्काये सभी, तरसा न कोई एतबार किसी का क्या कीजे, ख़ुदगर्ज़ सभी हैं दुनिया में लिखी थी गज़ल खूने-दिल से, पढ़ ख़लिश इसे तड़पा न कोई. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ नवंबर २००८ १९४८. ग़र मुझे मालूम होता तुम कभी न आओगे—RAS ग़र मुझे मालूम होता तुम कभी न आओगे एक झलक अपनी दिखा कर फिर कहीं छिप जाओगे याद आ कर उम्र भर तनहाई में तड़पाओगे तो मैं क्यों सपने संजोता एक मीठे प्यार के ख़्वाब क्यों मैं देखता नाज़ुक हसीं दिलदार के क्यों ख़यालों में सदा रहता भला दीदार के तुम न थे जब सोचता था क्यों अकेला रह गया तुम जो आये तो लगा जैसे मुझे सब मिल गया तुम न हो अब तो लगे संसार मेरा छिन गया आज जीता हूँ मग़र दुनिया परायी हो गयी ज़िंदगी से मेरी ख़ुशियों की विदाई हो गयी तुम न हो पाये मेरे बस जग हंसाई हो गयी आज आलम है कि मंज़िल भी नहीं, राहें नहीं बह चुके हैं अश्क सारे, सर्द अब आहें नहीं और ज़ानिब मेरे किसी की भी निगाहें नहीं चल रहा हूँ पर न जाने मैं किधर को जाऊँगा चलते-चलते एक दिन मैं राह में खो जाऊँगा एक लंबी रात होगी और मैं सो जाऊँगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९४९. जब ग़र्दिश में हों तारे तो इंसां को क्योंकर राह मिले---RAS जब ग़र्दिश में हों तारे तो इंसां को क्योंकर राह मिले क्यों वफ़ा किसी की मिले उसे, क्यों उसको सच्ची चाह मिले इस दुनिया में आये हैं तो जैसे भी हो जीना होगा चाहे ख़ुशियों का आलम हो या चाहे ठण्डी आह मिले हर चीज़ यहां मिल जाती है दिल ही न मिलता माँगे से बिरला ही होता है जिसको प्यारी सी कोई निगाह मिले जाने क्यों दुनिया भर के ग़म आ बैठे मेरी झोली में मैंने कब चाहा जीवन में मुझको चिंता-परवाह मिले ता-उम्र मिली है धूप मुझे दुनिया के सूखे सहरा में अब ख़्वाहिश ही न रही ख़लिश गुलशन की मुझको छाँह मिले. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९५०. ख़ूने-दिल से हम लिखें या रूह की मय से लिखें--RAS-- ईकविता २२ नवंबर २००८ ख़ूने-दिल से हम लिखें या रूह की मय से लिखें दिल कहे जैसे अमर ज्योति लिखें वैसे लिखें उनके लिखने में छिपी है दास्ताने-ज़िंदगी काश हो पाता कभी मुमकिन कि उन जैसे लिखें इस हुनर को सीखने की कोशिशें हरचन्द कीं चाह कर भी न समझ पाये गज़ल कैसे लिखें जो हैं शायर वो तो लिखते हैं दिली अहसास से एक हम हैं रोज़मर्रा की फ़कत शय से लिखें है ये बेहतर ख़्वाब न देखें कभी ज़न्नत के हम जैसे लिखते आ रहे हैं हम ख़लिश तैसे लिखें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ ००००००००००००० Saturday, 22 November, 2008 4:10 PM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com ख़लिश जी, बहुत संकोच में डाल दिया है आपने। आपकी आलोचना शिक्षा और प्रशंसा प्रोत्साहन सदैव ही देती है। आप तो बस स्नेह बनाये रखिये। सादर, अमर |