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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
१९५१. हम जीते थे जिनके दम पर वो ही अब दुश्मन बन बैठे--RAS हम जीते थे जिनके दम पर वो ही अब दुश्मन बन बैठे जो प्यार से आंख मिलाते थे वो भी अब कैसे तन बैठे हमने तो पूछा था इतना अब जाते हो कब आओगे जाने क्या इसमें ख़ता हुयी, वो हम पर आज उफ़न बैठे जबसे दुनिया ने दिल तोड़ा इक तनहाई का आलम है अब रास न कुछ भी आता है, किस शय पर जाने मन बैठे अब ख़्वाहिश उनसे कोई भी ज़ाहिर न करेंगे मरने तक जितनी मन में इच्छाएं थीं सारी कर आज हवन बैठे माँगे से मौत न मिले ख़लिश, है मौत का आलम मिल जाता जीते भी तो मुर्दा से हैं, हम ओढ़ के आज कफ़न बैठे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९५२. रहते थे कभी उनके दिल में अब फ़ुटपाथों में रहते हैं—RAS-- ईकविता २४ नवंबर २००८ रहते थे कभी उनके दिल में अब फ़ुटपाथों में रहते हैं हर शाम कभी रंगीं थी अब तनहा रातों में रहते हैं साकी भी है, मयखाना भी, मय मिलती नहीं उधार मग़र अब तो केवल खाली प्याले ही इन हाथों में रहते हैं क्या कहिये उनकी फ़ितरत को, चित भी उनकी, पट भी उनकी हर बात में सौ-सौ मतलब ज्यों उनकी बातों में रहते हैं है कभी लड़ाई उल्फ़त की और कभी लड़ाई रंजिश की दिल में शिकवे ले कर लाखों, दोनों घातों में रहते हैं मन में तो ख़लिश दरारें हैं पर दुनियादारी की ख़ातिर कच्चे धागों से बंधे हुये, झूठे नातों में रहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९५३. क्या लिखें, किसको लिखें, कैसे लिखें, क्योंकर लिखें--RAS क्या लिखें, किसको लिखें, कैसे लिखें, क्योंकर लिखें आज उनको हाले-दिल मायूस से हो कर लिखें रह के दिल के पास दिल की बात न समझे, उन्हें खत कलम को आंसुओं में आज डुबो कर लिखें हम न यक्का, बादशाह, न हो सके उनके ग़ुलाम उनको हम बेगम लिखें और खुद को बस जोकर लिखें वो दिलों पर राज करने के लिये पैदा हुये आज दिल कहता है अपने को फ़कत नौकर लिखें छान रखते हैं जिसे वो चीज़ है कुछ और ही हम तो अपने को ख़लिश मानिन्द-ए- चोकर लिखें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९५४. मैं तो मन में जो भी आये बिन झिझक वही लिख देता हूँ--RAS मैं तो मन में जो भी आये बिन झिझक वही लिख देता हूँ न रुचे किसी को तो अपना लिखा वापस ले लेता हूँ मैं क्योंकर पड़ूँ विवादों में, क्यों अपने को मैं श्रेष्ठ कहूँ मैं क्यों समझूँ कि किसी नयी विद्या का नया प्रणेता हूँ मैं तो पिछलग्गू हूँ शब्दों के पीछे-पीछे चलता हूँ मैं वैयाकरण नहीं न मैं भाषाविज्ञानी नेता हूँ काव्य लिखने में आलोचक अक्षम चाहे ठहरायें मुझे हैं पाठक ऐसे बहुतेरे जिनका मैं बहुत चहेता हूँ है उन्हें मुबारक ख़लिश सफ़र जो बड़े जहाज़ों में करते इक छोटी सी मैं नाव गज़ल की ताल-तलैय्या खेता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ नवंबर २००८ १९५५. मुझसे कहते हैं लोग बहुत उनके संग क्यों न चलता हूँ--RAS-- ईकविता २३ नवंबर २००८ मुझसे कहते हैं लोग बहुत उनके संग क्यों न चलता हूँ मैं कहूँ कि मैं आज़ादी से मन-चाहे डग पग धरता हूँ तकलीफ़ किसी को क्यों हो यदि अपनी इच्छा-अनुसार चलूँ मंज़िल मेरी, रस्ता मेरा, अपने पांवों से चलता हूँ जो मैं लिखता हूँ उसको भी चाहने वाले कुछ पाठक हैं कोई क्यों रोके मुझको यदि मैं कुछ उलटा-सीधा लिखता हूँ मेरी भी कुछ सीमाएं हैं, मेरी भी अभिलाषाएं हैं टूटा-फूटा ही सही मग़र लिखने की इच्छा रखता हूँ इस शय का माहिर नहीं मग़र जब याराना है गज़लों से काफ़िया, रदीफ़ और मत्ले की दुनिया में विचरा करता हूँ मन कहे ख़लिश हर बात गज़ल की तर्ज़ बना कर किया करूँ इक ख़ब्त ज़हन पर बरपा है सौदाई बन कर रहता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ नवंबर २००८ ख़ब्त = बुद्धि में पागलपन की मिलावट; बुद्धि-विकार बरपा =उपस्थित, कायम ०००००००० १९५६. यूँ तो कोई उम्मीद नहीं पर आस लगाये रहते हैं—RAS-- ईकविता २४ नवंबर २००८ यूँ तो कोई उम्मीद नहीं पर आस लगाये रहते हैं वो हमसे दूर रहें चाहे, हम उनको अपना कहते हैं क्या दिन थे जब वो एक झलक पाने को मारे फिरते थे वो लमहे याद आते हैं तो आंखों से आंसू बहते हैं लोगों ने तो समझाया था मत सपनों को पालो ज़्यादा दिल सुबक-सुबक क्यों रोता है जब किले हवाई ढहते हैं अब प्यार की दौलत खो करके सब सूना-सूना लगता है ये बातें हैं पोशीदा हम अपना ग़म ख़ुद ही सहते हैं अब दोष ख़लिश किसको दीजे किस्मत ही हमसे रूठ गयी बाहर तो ठंडी आहें हैं, दिल में अंगारे दहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ नवंबर २००८ ०००००००००००० Monday, 24 November, 2008 8:57 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश साहब , मैं आपकी प्रतिभा की तहे दिल से कायल हूँ और उसी का अनुसरण करना चाहती हूँ ....आप जितनी तत्परता से नयी रचना को जनम देते हैं वह अक्सर हम सभी को चकित कर देता है ....मैने हमेशा आपकी हाजिर जवाबी को प्रशंसा के तौर पर ही लिया है ....आपकी रचनाएं अक्सर ताजी फुहार की तरह आती हैं ..यह गुण मुझ में नहीं है ..इसलिए एक कोशिश की थी ..देखिये आपनें एक उपहार भी दे दिया ...शुक्रिया सादर , सुजाता ००००००००००००० १९५७. सुन मेरे बेटे दुआ देता हूँ तुझको--RAS-- ईकविता --२५ नवंबर २००८ सुन मेरे बेटे दुआ देता हूँ तुझको आज तू आया धरा पर इक नया जीवन बिताने तू बहुत रंगीन सपनों का सृजन कर और फिर उनको सफल कर है तुझे आशीष मेरा तू बड़ा बन हर ख़ुशी तेरे कदम की खाक चूमे ने’मतें सारी करें तेरी गुलामी तू किसी की मेहर का मोहताज़ न हो हर बुलन्दी हो तेरी लंबी पहुँच में शोहरतें तेरी लिखीं हों आसमां तक किंतु ग़र तू आसमां छू ले कभी तो भूलना मत एक दिन सौ हसरतें दिल में लिये तुझको सिखाया था कभी पैरों पे चलना उन ग़रीबों ने जिन्हें दो जून रोटी तक न हासिल हो सकी खूं को बहा कर सुन, तेरे माँ-बाप थे वो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ ००००००००००० Monday, 24 November, 2008 11:35 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com "तू बड़ा बन हर ख़ुशी तेरे कदम की खाक चूमे ने’मतें सारी करें तेरी गुलामी तू किसी की मेहर का मोहताज़ न हो हर बुलन्दी हो तेरी लंबी पहुँच में शोहरतें तेरी लिखीं हों आसमां तक " वाह खलिश जी ! सादर शार्दुला 000000000000 Monday, 24 November, 2008 11:49 PM From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com मर्मस्पर्शी कविता। बधाई,वाह-वाह जैसे शब्द पर्याप्त नहीं हैं प्रशंसा के लिये। क्या कहूं? words are beggars. सादर, अमर 0000000000000 १९५८. मौसम हसीन और बेहद ख़ुशगवार था --RAS मौसम हसीन और बेहद ख़ुशगवार था वो साथ थे दिल पे मेरे छाया खुमार था रह-रह के कनखियों से उन्हें देखता था मैं वो ख़ुश बहुत होंगे मुझे ये एतबार था बातों ही बातों में सुना रहा था दिल का हाल लंबी जुदाई से भरा दिल में गुबार था वो चुप रहे और मैं इधर सोचा किया यही शायद मेरी बातों में तवज्जो- खयाल था देखा ख़लिश उनकी तरफ़ तो राज़ ये खुला थे नीन्द में बता रहा आंखों का हाल था. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ १९५९. मन चाहता है छोटी सी तुमको इक सलाह सुनानी--RAS मन चाहता है छोटी सी तुमको इक सलाह सुनानी पल भर को बैठो, सुन लो, चाहे न लगे सुहानी सीधे रस्ते पर चलना अकसर मुश्किल होता है आसान बहुत होता है राहें चलना मनमानी सौ तरह लुभायेंगे सब, अपने भी और पराये तुम मत बातों में आना, मत करना तुम नादानी फिर सम्हल न पाओगे तुम गलती ग़र हो गयी तुमसे इक बार शुरू होने पर न होगी ख़त्म कहानी दो पल की है ये लज़्ज़त और इल्लत है सदियों की फिर कभी नहीं सम्हलेगी हो कर बरबाद जवानी मत वक्त गंवाओ अपना, हर दिन ये उम्र ढले है ये जीवन तर जायेगा, रस्ता चुन लो रुहानी है सार ख़लिश धरमों का, इंसां से करो मोहब्बत बाकी बातें मज़हब की हो जायेंगी बेमानी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ १९६०. तुमने जो सताया है हम तुम्हें सज़ा देंगे--RAS तुमने जो सताया है हम तुम्हें सज़ा देंगे रातों को जगायेंगे, हम नीन्द उड़ा देंगे तुमसे वादा करके पूरा न करेंगे हम आंखों से तुम्हारी भी हम अश्क बहा देंगे इक बार जिसे सुन कर तुम भूल न पाओगे हम साज़े-मोहब्बत पर वो राग सुना देंगे नादान अभी हो तुम राहों में मोहब्बत की उल्फ़त की अदा दिलवर तुमको समझा देंगे इक बार सनम मेरी बाहों में आ जाओ सौ बार ख़लिश दिल से हम तुम्हें दुआ देंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ १९६१. दोस्त मेरा चल दिया अब फिर कभी न आयेगा--RAS-- ईकविता --२ दिसंबर २००८ दोस्त मेरा चल दिया अब फिर कभी न आयेगा दे गया जो ग़म मुझे ता-ज़िंदगी तड़पायेगा ये वो रस्ता है जहां से कोई भी लौटा नहीं वक्त जाने किस तरह तनहाई में कट पायेगा एक राह पर जब चले थे तब न ये मालूम था चार दिन के बाद ये रस्ता अलग़ हो जायेगा अश्क रुकते ही नहीं दिल को तो समझाया बहुत अब नहीं मुमकिन किसी भी हाल में मुस्कायेगा कोई लमहा चैन का अब तो गुज़रता ही नहीं किस तरह ये ग़म जुदाई का ख़लिश सह पायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ १९६२. दिल भोला था नादान बहुत, अब इसकी हालत क्या कहिये--RAS-- ईकविता --२६ नवंबर २००८ दिल भोला था नादान बहुत, अब इसकी हालत क्या कहिये धोखा दे के नम होती हैं, आंखों की शरारत क्या कहिये पहले तो उनकी आंखों से बिन बात उलझ बैठीं इक दिन रातों को ख़्वाब दिखाये फिर, यूँ ढायी आफ़त क्या कहिये ख़ुद ही तो आग लगा बैठीं अब रिमझिम-रिमझिम बहतीं हैं रातों को सोना भूल गयीं, दिल की है शामत क्या कहिये दो आंख उठीं, दो आंख झुकीं, दो दिल दो पल में कत्ल हुये इन आंखों-आंखों ने मिल कर क्या की है कयामत क्या कहिये दो दिन की कहानी है संगीं, अंज़ाम ख़लिश क्या हो आगे मेरे पहलू से जा कर अब दिल रहे सलामत क्या कहिये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवंबर २००८ ०००००००००० Wednesday, 26 November, 2008 6:47 AM From: pachauriripu@yahoo.com ek baar phir.. bahut badiyaaa rachanaa ke liye badhaai ००००००००००००० १९६३. ये सांस कभी तो जाती है फिर लौट के वापस आती है--RAS-- ईकविता --२७ नवंबर २००८ ये सांस कभी तो जाती है फिर लौट के वापस आती है जाने डरती है क्योंकर ये, जाने क्योंकर घबराती है मन में ये सोचे है शायद नाराज़ न हो जाऊँ इससे कहने में ये अलविदा मुझे नाहक इतना कतराती है अब तक तो साथ ज़माने में कोई भी निभा नहीं पाया छोड़ेगी मेरा साथ अग़र, सह लूँगा, क्यों शरमाती है मालूम नहीं इसको लाखों सदमे इस दिल ने झेले हैं ग़र जायेगी, न रोयेगा, दिल रहा न अब जज़्बाती है मरने से पहले ख़लिश मुझे दम निकले तो बतला देना मैं नाम ख़ुदा का ले लूँगा, ये चाह न मन से जाती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ नवंबर २००८ ०००००००००००००० Thursday, 27 November, 2008 11:57 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! अब तक तो साथ ज़माने में कोई भी निभा नहीं पाया छोड़ेगी मेरा साथ अग़र, सह लूँगा, क्यों शरमाती है वाह! क्या कहने! सस्नेह सीताराम चंदावरकर १९६४. हमने भी कभी चाहा था कि सपनों के महल सजायें हम—RAS-- ईकविता --२८ नवंबर २००८ हमने भी कभी चाहा था कि सपनों के महल सजायें हम तकदीर मग़र न थी अपनी, अब क्यों अफ़सोस मनायें हम इंसान करे कोशिश कितनी पर कुदरत नहीं बदल सकती जो गये, न वापस आते हैं, क्यों झूठी आस लगायें हम है दुनिया का दस्तूर यही कि वक्त नहीं लौटा करता जब उजड़ चुकी दिल की बस्ती फिर कैसे इसे बसायें हम वो भी तो ग़म के मारे हैं, क्यों न उनके आंसू पौंछें क्यों हाल सुना कर के अपना उनको अब और रुलायें हम है असली बात ख़लिश इतनी किस्मत दोनों से रूठी है उनकी तो कोई ख़ता नहीं, फिर क्यों इलज़ाम लगायें हम. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ नवंबर २००८ १९६५. जवानी मेरी जा चुकी है मग़र--RAS जवानी मेरी जा चुकी है मग़र चखना बुढ़ापे का है अब समर देनी है छाया अभी तो मुझे मेरी ज़िंदगी का है कायम शज़र बैठा रहूँ क्यों थका मोड़ पर है ज़िंदगी का अभी तो सफ़र मंज़िल मिले न मिले ग़म नहीं पर मैं चलूँगा बराबर डगर डरूँ मैं ख़लिश किसलिये मौत से है कौन जो हो के आया अमर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ नवंबर २००८ १९६६. जब वक्त विदा का आयेगा, छोटा न कोई बड़ा होगा--RAS—ईकविता, २९ नवंबर २००८ जब वक्त विदा का आयेगा, छोटा न कोई बड़ा होगा सबका ही तन धरती ऊपर इक चादर तले पड़ा होगा साबुन, पानी, उबटन, चन्दन से जिसे निखारा करते हो वह सोने में न चान्दी में, मिट्टी में बदन गड़ा होगा जो फिरता था राजा बन कर ललकार रहा था सब जग को उसका भी जिस्म किसी दिन तो कीड़ों से भरा सड़ा होगा जिसके आगे-पीछे कितने दरबान-मुसाहिब रहते थे तनहाई कम करने उसके सिर पत्थर एक खड़ा होगा तुम रहो झुका कर अपना सिर रब की ही ख़लिश इबादत में मिट्टी की बाँहों में इक दिन मिट्टी का बना घड़ा होगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवंबर २००८ १९६७. जो दिया बहुत कुछ दिया मुझे, शुक्रिया बहुत मेरे दिलवर—RAS—ईकविता, २८ नवंबर २००८ जो दिया बहुत कुछ दिया मुझे, शुक्रिया बहुत मेरे दिलवर एहसास मुझे हर लमहा है एहसान बहुत हैं मेरे पर अनजान बहुत था मैं दुनियादारी के रस्मो-रिवाज़ों से तुम साथ चले, मैं भूल गया दुनिया के सारे रंजो-फ़िकर जब से तुम मुझे मिले हो मैं तुम में ही खोया रहता हूँ अब महफ़िल को मैं भूल गया, इलज़ाम है ये मेरे ऊपर अब तक तनहा ही जीता था, अपना न मेरा कोई भी था अपने दिल की सारी बातें कह पाऊँगा मैं अब खुल कर माँगा तो नहीं तुम से कुछ भी और कभी न कुछ भी माँगूंगा तुम तो हो ऐसा शज़र ख़लिश जो बिन मांगे बरसाये समर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवंबर २००८ १९६८. मैं किसी भूले हुए नग़मे की बस झंकार हूँ--RAS—ईकविता, १ दिसंबर २००८ मैं किसी भूले हुए नग़मे की बस झंकार हूँ सिर्फ़ अब रद्दी, पुराना कोई मैं अख़बार हूँ घुड़सवारी मैं भी शाहराहों पे करता था कभी ज़िंदगी की दौड़ में अब हो गया बेकार हूँ रंग है न रूप है न हूँ किसी के काम का जब कभी गिनती हुयी भूला गया हर बार हूँ भूल बैठा है ज़माना तो करूँ अफ़सोस क्यों जंग जिसमें लग गया मैं उस छुरी की धार हूँ वो बढ़ा आता है देखो ग़र्दिशों का इक हुज़ूम आज मैं कितना अकेला हो गया लाचार हूँ क्या ज़रूरत है मुझे ठोकर लगाने की भला मैं तो वैसे भी महज़ गिरती हुयी दीवार हूँ आसमां से लो बुलावा आ गया मुझको ख़लिश अलविदा ऐ दोस्त चलने के लिये तैय्यार हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ नवंबर २००८ १९६९. क्या कहिये उनकी फ़ितरत को पल में तोला, पल में माशा--RAS क्या कहिये उनकी फ़ितरत को पल में तोला, पल में माशा वादे उनके सब झूठे हैं, क्यों नाहक ही पालें आशा हमने उनसे दिल के बदले दिल ही तो केवल माँगा था इतना सुनना था जाने क्यों पल में बदली उनकी भाषा हम कहते हैं कि प्यार अग़र सच्चा है कभी न मरता है वो कहते रात भरी मस्ती से है चाहत की परिभाषा बेवफ़ा कभी हो जायेंगे न हमने ऐसा सोचा था न जाने क्यों समझे उनसे इक रिश्ता है अच्छा-ख़ासा जो कसम वफ़ा की खाते थे और प्यार अमर बतलाते थे वो बैठे हैं ग़ैरों के संग, दे रहे ख़लिश हमको झांसा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० नवंबर २००८ १९७०. युद्ध पर्व --RAS—ईकविता, ३० नवंबर २००८ डर शुतुरमुर्ग की भाँति भला कब तक डर से अपनी आंखों पर पर्दा डाल रहोगे छुप हाथों की चूड़ी फोड़, उठाओ खड्ग ख़लिश अति हुयी बहुत अब जनता नहीं रहेगी चुप. *** शान्ति प्रस्ताव प्रस्ताव शांति के तो पाँडव तुम भेज चुके प्रस्ताव युद्ध का कौरव तक अब पहुँचाओ अब पाँच गांव की भीख न तुम उनसे माँगो अब उन्हें धराशायी करके तुम दिखलाओ. *** हिंसा हिंसा के राक्षस आज खुले ललकार रहे तुम आज अहिंसा-व्रत ऐसे में धार रहे पांडव-कौरव के धर्मयुद्ध की भांति हमें क्यों न धार्मिक हिंसा करना स्वीकार रहे. *** युद्ध क्या युद्ध स्वयं में हेय, घृणा का द्योतक है? यह सोच बहुत मँहगी है इसे बदल डालो जो कदम तुम्हारी ओर बढ़े आतंकी का तुम उसका शीश बिना संकोच कुचल डालो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० नवंबर २००८ *** १९७१. क्यों ज़िंदगी में आये, तुमको अग़र था जाना--RAS क्यों ज़िंदगी में आये, तुमको अग़र था जाना क्यों दे गये हो हमको मरने का इक बहाना कैसे रहेंगे तनहा, इतने बड़े जहां में सोचा कभी तो होता, सोचेगा क्या ज़माना फिरते थे शाद ले कर आंखों में रंग तुम्हारा मालूम न था ग़म का गायेंगे हम तराना कोई हमें बता दे अब किस तरह जियें हम बरबाद दिल का जा कर किससे कहें फ़साना उल्फ़त के नाम से यूँ नफ़रत सी हो गयी है मुमकिन नहीं किसी से अब दिल ख़लिश लगाना. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० नवंबर २००८ १९७२. ग़म से भरे जहां में कोई ग़मगुसार होता--RAS ग़म से भरे जहां में कोई ग़मगुसार होता कोई तो दोस्त होता, कोई तो यार होता हमसे ही जाने क्योंकर दुनिया को दुश्मनी थी तीरेनज़र किसी का इस दिल के पार होता है आग इस तरफ़ तो पर बर्फ़ उस तरफ़ है न दिल लगाते उनसे, न यूँ खुमार होता कूचे में उनके जा कर हम हो चुके हैं रुसवा काश उनके दर पे जाना न बार-बार होता कदमों में उनके हम भी दिल तो ख़लिश लुटाते लेकिन वफ़ा पे उनकी कुछ ऐतबार होता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० नवंबर २००८ १९७३. माया ने कितने रूप धरे, मेरा मन कितना भरमाया—RAS--ई-कविता, ४ दिसंबर २००८ माया ने कितने रूप धरे, मेरा मन कितना भरमाया सत्ज्ञान दिया प्रभु ने मुझको, आनंद मेरे मन भर आया भाई न बेटा, बाप कोई, सब झूठे केवल नाते हैं जो आत्मा को पहचान सका वो ही कलिमल को तज पाया इच्छायें पूरी करने को जग धन-संचय में लगा हुआ जिसने अपना मन जीत लिया उसने पाया सब सरमाया औरों के अवगुण-अन्वेषण को तत्पर रहती है दुनिया मैंने अपने मन में झांका तो ख़ुद पर कितना शरमाया इच्छा न रही, अब भ्रम न रहा, कुछ खोने का अब ग़म न रहा दिल में मस्ती का आलम है जब से ईश्वर को अपनाया. सरमाया = धन, ख़ज़ाना महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ ००००००००० Thursday, 4 December, 2008 7:30 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com "औरों के अवगुण-अन्वेषण को तत्पर रहती है दुनिया मैंने अपने मन में झांका तो ख़ुद पर कितना शरमाया" In panktiyon ko naman ! sadar shardula ०००००००००००० Thursday, 4 December, 2008 10:30 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" महेश जी बहुत सुन्दर! बधाई! औरों के अवगुण-अन्वेषण को तत्पर रहती है दुनिया मैंने अपने मन में झांका तो ख़ुद पर कितना शरमाया सच है। कबीर का वचन भी यही कहता है। "बुरा ढूंढन मैं चला बुरा न मिलिया कोय । जो देखा आप को मुझ सा बुरा न कोय ॥" ज़ौक़ का नज़रिया भी देख लीजिए— "तू भला है तो बुरा नहीं हो सकता ऐ ज़ौक़ बुरा वो है जो तुझ को बुरा मानता है ’गर तू ही बुरा है तो वो सच कहता है क्यौं उस के बुरा कहनेसे बुरा मानता है?" सस्नेह सीताराम चंदावरकर १९७४. अहसास जो निकले हैं गज़लों की ज़ुबानी से—RAS—ई-कविता, ३ दिसंबर २००८ अहसास जो निकले हैं गज़लों की ज़ुबानी से लिखा है उन्हें हमने अश्कों की रवानी से हाथों की लकीरों में जो था वो ही पाया अब क्या लेना-देना इक ख़त्म कहानी से जैसे-तैसे बीती, अब उम्र हुयी पूरी हमको न कोई शिकवा नाकाम जवानी से बेहतर है भुला दें हम ग़म की तस्वीरों को क्यों न जोड़ें दिल को इक याद सुहानी से जो ख़लिश गया वो अब न लौट के आयेगा दिल बहलायें कब तक बस एक निशानी से. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ 0000000000 Thursday, 4 December, 2008 1:51 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! मक्ते से मेहदी हसन की गाई हुई ग़ज़ल का शेर याद आता है। ’शोला था जल बुझा हूं अब हवाएं न दो मैं कभी का जा चुका सदाएं मुझे न दो "सस्नेहसीताराम चंदावरकर १९७५. तुम हमें बुलाओगे हम लौट न पायेंगे--RAS तुम हमें बुलाओगे हम लौट न पायेंगे ये कदम कभी मुड़ के वापस न आयेंगे जितने दिन साथ रहे उतना ही मिलना था कुछ याद मग़र फिर भी दे कर हम जायेंगे तनहाई का आलम जब तुमको तड़पाये हम ख़्वाबों में आ कर दिल को बहलायेंगे इस ग़मे-जुदाई को दिल पर मत ले लेना होगा जो अंधेरा तो हम राह दिखायेंगे तुम ख़लिश हमारी भी दुनिया में आओगे उस दिन की राह तकते हम वक्त बितायेंगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ |