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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
१९७६. यूँ तो न कहो मुझसे अब प्यार नहीं तुमको--RAS यूँ तो न कहो मुझसे अब प्यार नहीं तुमको क्या मेरी वफ़ाओं का कुछ ख़्याल नहीं तुमको माना कि ख़ुशी तुमको हम दे न सके लेकिन जो अश्क बहाये हैं अंदाज़ नहीं तुमको अपने तो ग़मों की तुम फ़हरिस्त सम्हाले हो अहसास मेरे ग़म का कुछ खास नहीं तुमको न गिला न शिकवा है इन सबसे क्या हासिल जब मेरी मोहब्बत का एतबार नहीं तुमको न ख़लिश कहेंगे कुछ अपने लब सी लेंगे कुछ माँग करेंगे अब नाशाद नहीं तुमको. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ १९७७. ये जां भी तुम्हारी है ये दिल भी तुम्हारा है--RAS ये जां भी तुम्हारी है ये दिल भी तुम्हारा है इस दिल को तुम्हारा ही अब एक सहारा है झाँको जो मेरे दिल में इक प्यार का सागर है न थाह कोई जिसकी न कोई किनारा है इस प्यार के सागर में डूबें ये तमन्ना है कश्ती की ज़रूरत क्या तुमने जो पुकारा है जो ख़्वाब दिखाये हैं उनको पूरा करना आंखों में मेरी हरदम रंगीन नज़ारा है तुम ख़लिश न खो जाना दुनिया के फ़रेबों में हम साथ निभायेंगे वादा ये हमारा है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ १९७८. ग़र मुझे मालूम होता तुम कभी न आओगे—RAS ग़र मुझे मालूम होता तुम कभी न आओगे एक झलक अपनी दिखा कर फिर कहीं छिप जाओगे याद आ कर उम्र भर तनहाई में तड़पाओगे तो मैं क्यों सपने संजोता एक मीठे प्यार के ख़्वाब क्यों मैं देखता नाज़ुक हसीं दिलदार के क्यों ख़यालों में सदा रहता भला दीदार के तुम न थे जब सोचता था क्यों अकेला रह गया तुम जो आये तो लगा जैसे मुझे सब मिल गया तुम न हो अब तो लगे संसार मेरा छिन गया आज जीता हूँ मग़र दुनिया परायी हो गयी हर खुशी की ज़िंदगी से अब विदाई हो गयी तुम न हो पाये मेरे बस जग हंसाई हो गयी आज आलम है कि मंज़िल भी नहीं, राहें नहीं बह चुके हैं अश्क सारे, अब कोई आहें नहीं और ज़ानिब मेरे किसी की भी निगाहें नहीं चल रहा हूँ पर न जाने मैं किधर को जाऊँगा चलते-चलते एक दिन मैं राह में खो जाऊँगा एक लंबी रात होगी और मैं सो जाऊँगा. अलविदा ऐ दोस्त मेरे, आखिरी है अलविदा शुक्रिया तुमने निभाया साथ मेरा, अलविदा फिर ख़लिश न हम कभी मिल पायेंगे, अब अलविदा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ दिसंबर २००८ १९७९. बात भी आपकी मान ली, देख लो—RAS—ई-कविता, ५ दिसंबर २००८ बात भी आपकी मान ली, देख लो राह भी प्यार की जान ली, देख लो एक लमहा मिले और असर ये हुआ पायेंगे आपको, ठान ली, देख लो चाह के भी छुपा न सके आप तो राज़ की बात पहचान ली, देख लो है कटी ज़िंदगी मुफ़लिसी में मग़र कोई शय न कभी दान ली, देख लो दे चले हैं उलाहना मग़र प्यार में ये शिकायत ख़लिश सान ली, देख लो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८०. भरोसा संगदिल का क्या, दुआ कीजे या न कीजे--RAS भरोसा संगदिल का क्या, दुआ कीजे या न कीजे फ़रक उसको नहीं पड़ता, वफ़ा कीजे या न कीजे ये जज़्बे ग़र न होंगे कल तो इनको आज चुकने दो बिना बरसात की खेती भला कीजे या न कीजे उन्होंने बेरहम हो कर हमारे दिल को तोड़ा है मग़र दिल सोचता है हम दग़ा कीजे या न कीजे ये माना मर्ज़ का मेरे मदावा कुछ नहीं लेकिन बता तू ही ऐ चारागर दवा कीजे या न कीजे मोहब्बत एकतरफ़ा है, ख़लिश हम जानते हैं ये भला ऐसे में हम उनसे गिला कीजे या न कीजे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८१. इक इशारा कर दिया है, सरे-राह चलते-चलते--RAS ई-कविता, ५ दिसंबर २००८ इक इशारा कर दिया है, सरे-राह चलते-चलते एक टिप्पणी-सी की है, बिन बात चलते-चलते जो न कह सका क़लम से, मेरे अश्क कह रहे हैं ये छलक पड़े हैं मेरे जज़्बात चलते-चलते बतलाऊँ मैं तुम्हें क्या है प्यार की हक़ीकत इस दिल में लग गयी है इक आग चलते-चलते किससे करें शिकायत, दीजे किसे उलाहना पहले से न रहे अब हालात चलते-चलते सो जायेंगे ख़लिश हम और फिर सहर न होगा आयेगी आखिरी भी वो रात चलते-चलते. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८२. आज हम पे निगाहे-करम पड़ी – RAS—ईकविता, १० दिसंबर २००८ आज हम पे निगाहे-करम पड़ी है प्यार की कैसी जादूगरी छांह हमको मिली है ज़ुल्फ़ों की हम पे है इनायत बहुत बड़ी एक रंग नया है जीवन में हर ओर अज़ब मस्ती है भरी वो पहलू में, शब है, मय भी हम आज अमर कर लें ये घड़ी क्यों फ़िक्र ख़लिश कल की हो अब फ़िक्रों को सारी उम्र पड़ी. तर्ज़— कोई प्यार की देखे जादूगरी गुलफ़ाम को मिल गई सब्ज़परी महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८३. आतंकी आलम छायेगा--RAS आतंकी आलम छायेगा तो मेरा मन भर आयेगा इंसां पर गोली बरसेंगी बच्चा कोई मर जायेगा दुष्कर्म ज़िहादी होगा तो नेता ऐलान सुनायेगा हिंसावादी तत्वों को वो डरपोक महा बतलायेगा पर अपनी जान बचाने को संग बीस कमांडो लायेगा हम नहीं किसी को बख्शेंगे कह कर सबको धमकायेगा भाषण से थक कर वह घर में मदिरा पी कर सो जायेगा है असहाय नागरिक ख़लिश फिर दे कर वोट जितायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८३. मैं भला न सही, हूँ बुरा है सही—RAS—ई-कविता, ६ दिसंबर २००८ मैं भला न सही, हूँ बुरा है सही आपसे जो मिली हर सज़ा है सही असलियत तो छिपी ही रही आपकी आपको पर हमेशा कहा है सही जानता हूँ गलत आप ठहरायेंगे पर किया है वही जो लगा है सही दिल है मेरा दिमाग़ी हुकूमत तले आपने ग़र सुना तो सुना है सही अब न लूटेगा इसको ख़लिश कोई भी आशियाँ कब्र का ये मिला है सही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८४. अशआर शमा परवाने के अब लिखना शायर बंद करो—RAS—ई-कविता, ५ दिसंबर २००८ अशआर शमा परवाने के अब लिखना शायर बंद करो कब तक रोऒगे, चलन बने रहने का कायर बंद करो हर मौके पर हर बार उड़ाना सहमे तायर बंद करो अब शुरू करो तलवार हाथ में ले कर रण में आ जाना दुश्मन का सीना चीर, कलेजा भूनो और फिर खा जाना यदि शाकाहारी हो तो कौऒं को फिर बांट खिला जाना मत राह तको कोई शंकर बम भोले कह कर आयेगा तुम उसका नमन करोगे वह फिर ताण्डव नृत्य दिखायेगा! ग़र हाथ पे हाथ धरोगे तो जग खिल्ली और उड़ायेगा जब पाक चुभाये काँटे तुमको, क्यों अमरीका गुर्राये? तुम बैठे आंसू पौंछ रहो, कोई और सुरक्षा दे जाये! है नियम यही जो डरे उसे दुनिया भी दिल से ठुकराये अब उठो लजाओ दूध नहीं तुम अपनी भारत माता का तुम अपने भाग्य विधाता हो अब मत लो नाम विधाता का तुम हो सिंह शावक, ख़लिश नहीं अब ढूँढो दामन दाता का. तायर = पंछी महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ ००००००००००० Sunday, 7 December, 2008 11:38 AM From: "Mathura Dutt Kalauny" kalauny@yahoo.com ख़लिश जी बहुत धन्यवाद। कविता के लिए बधाई मथुरा कलौनी ०००००००००००००० १९८५. कब तलक मैं ज़िंदगी की ठोकरें खाता रहूँ--RAS कब तलक मैं ज़िंदगी की ठोकरें खाता रहूँ जो हैं मेरे तंग उनसे ही हुआ जाता रहूँ और जो दें त्रास उनके गीत मैं गाता रहूँ इस ज़माने में रही ग़ुमनाम मेरी ज़िंदगी अब तलक बीती बहुत बदनाम मेरी ज़िंदगी काश दे दे मौत का ईनाम मेरी ज़िंदगी अब न जीना चाहता हूँ, बात है सच्ची, सही सह चुका इस ज़िंदगी को जब तलक जाती सही अलविदा ऐ दोस्तो, यह आखिरी पाती सही कल सुबह होगी मग़र मुझको नहीं पाओगे तुम जानता हूँ बिन मेरे बिल्कुल न पछताओगे तुम पर सितम करने ख़लिश अब कौन सा लाओगे तुम. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ दिसंबर २००८ १९८६. जायेंगे जहां से जब तुमको न ख़बर होगी—RAS—ई-कविता, ११ दिसंबर २००८ जायेंगे जहां से जब तुमको न ख़बर होगी वो रात भरी ग़म से, पर शाद सहर होगी ये गज़ल है जीवन की लिखता तो जाता हूँ पर क्या जाने इसकी किस तरह बहर होगी वक्त एक समंदर है लहरें तो आती हैं जाने मेरी किस्मत में कौन लहर होगी अपनी ताक़त पर तुम इतराते हो लेकिन कल तूफ़ां आयेगा, हर तरफ़ कहर होगी न नाम ज़ुबां पर है, तस्बीह न हाथों में और सोचते हो तुम पर अल्ला की मेहर होगी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ दिसंबर २००८ Friday, 12 December, 2008 1:11 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com खलिश साहब, बहुत खूब! न नाम ज़ुबां पर है, तस्बीह न हाथों में और सोचते हो तुम पर अल्ला की मेहर होगी. पता नहीं किस ने कहा है " क्या मज़ा आएगा अगर नाम सनम का गिन गिन के लिया" सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००० १९८७. नाशाद हूँ पहले ही अब दिल न दुखाओ तुम--RAS नाशाद हूँ पहले ही अब दिल न दुखाओ तुम इस रक्से-मोहब्बत से मत और रिझाओ तुम अंज़ाम मोहब्बत का मैं भूल नहीं सकता नग़मा-ए-वफ़ा अब न गा-गा के सुनाओ तुम जो बीत गयीं बातें बीती ही रहने दो माज़ी के तसव्वुर न अब और दिखाओ तुम सब सह लूँगा मुझको छोड़ो अब किस्मत पर ख़्वाबों से मुझे खाली अब न बहलाओ तुम है ख़लिश अंधेरा तो मैं दिन कैसे कह दूँ सच नहीं बदल सकता, कितना झुठलाओ तुम. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ दिसंबर २००८ १९८८. जाने क्यों मेरा दिल इतना जज़्बाती है--RAS जाने क्यों मेरा दिल इतना जज़्बाती है हर याद मेरे ग़म का बायस बन जाती है आसान है कह देना माज़ी को भुला दीजे तस्वीर कोई हर दम नज़रों में समाती है रातों की तन्हाई में जब नींद नहीं आती शय कोई मुझे दे कर आवाज़ बुलाती है जब रिमझिम होती है सावन के महीने में ज्यों तन-मन में मेरे इक आग लगाती है लगता है ये दिन अब ऐसे ही बीतेंगे वो ख़लिश न आयेंगे, संदेस न पाती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ दिसंबर २००८ १९८९. मालूम नहीं क्यों है सब दुश्मन से मेरे--RAS मालूम नहीं क्यों है सब दुश्मन से मेरे जो ग़ैर हैं उनकी क्या, अपने न रहे मेरे मैंने तो मोहब्बत ही इस दिल में बसायी थी कुछ बात है बन के भी वो हो न सके मेरे तन साथ नहीं देता और मन भी घायल है मंज़िल भी नहीं मिलती, जज़्बात थके मेरे इस दिल की फ़ितरत को ये दिल ही जाने है इक बार जो बह निकले आंसू न रुके मेरे यूँ ख़लिश सफ़ाई तो दी थी मैंने लेकिन मुंसिफ़ था ज़ालिम न इलज़ाम मिटे मेरे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ दिसंबर २००८ १९९०. अब क़लम त्याग हाथों में खड्ग उठाओ तुम—RAS—ई-कविता, ७ दिसंबर २००८ अब त्याग क़लम हाथों में खड्ग उठाओ तुम है काल सामने महाकाल बन जाओ तुम छोड़ो कत्थक अब तांडव नृत्य मचाओ तुम लिख चुके बहुत तुम कुंडलियाँ, वरदावलियाँ कब तक देखोगे तुम रौंदी जाती कलियाँ अब दुश्मन की लाशों से तुम भर दो गलियाँ मत याद रखो कुछ धर्म अहिंसा का भी है वैरी आया है द्वार यही बस काफ़ी है हमला करना अब अंतिम और ज़वाबी है रावण पर रघुपति ने भी वाण चलाया था शिशुपाल प्रति माधव ने चक्र उठाया था फिर मत कहना कि नहीं तुम्हें चेताया था. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ दिसंबर २००८ १९९१. जब मैं गुज़र जाऊँ तो मुझे याद न करना—RAS—ई-कविता, १० दिसंबर २००८ जब मैं गुज़र जाऊँ तो मुझे याद न करना अफ़सोस का झूठा कोई इज़हार न करना अनमोल दौलत को लुटाया यूँ नहीं करते ख़ातिर मेरी अश्कों को तुम बरबाद न करना मैंने ज़कात तो कभी न दी है उम्र भर मरने पे मेरे नाम पर ख़ैरात न करना पेंशन ज़मा है बैंक में दो-चार माह की पाने को वो दावा मेरी औलाद न करना मेरी तो कोई बात नहीं सह लिया ख़लिश अम्मी को अपनी बेवज़ह नाशाद न करना. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ दिसंबर २००८ ०००००००००००० Wednesday, 10 December, 2008 4:49 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश साहब , आप कि गजल इतनी उदास क्यों हो रही है आज कल ...आप तो हमारी प्रेरणा हैं ...जीवन के हर रस को आपकी कलम बखूबी कागज पर उतारती है .... करुण रस कि यह पंक्तियाँ तो आँखें नम कर देती है ........ मेरी तो कोई बात नहीं सह लिया ख़लिश अम्मी को अपनी बेवज़ह नाशाद न करना. सादर ,सुजाता दुआ ००००००००००००० Wednesday, 10 December, 2008 3:08 PM From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com महेशजी पिछले कई दिनों से आपकी सुन्दर रचनायें पढ़ रहा हूँ. जीवन दर्शन की विविधता को आप भली भांति चितेर रहे हैं. सादर नमन राकेश ००००००००००००००० एद १९९२. हम से क्यों पूछे है कोई क्यों अश्क बहाये रहते हैं--RAS हम से क्यों पूछे है कोई क्यों अश्क बहाये रहते हैं क्या बतलायें हम सीने में ग़म कौन छिपाये रहते हैं यूँ तो दुनिया को लगता है हम रहते हैं तनहा-तनहा न जाने कोई वो दिल में हर वक्त समाये रहते हैं हमको तो उनकी सूरत ही सब ओर दिखायी देती है इन आंखों से वो सभी नज़ारे और चुराये रहते हैं दिल में तो चाहते हैं उनसे हम बातें लाख हज़ार करें वो सामने आ जाते हैं तो हम कुछ शरमाये रहते हैं वो भूल गये रस्ता मेरा और पता नहीं देते अपना हम शमा ख़लिश उम्मीदों की दिन-रात जलाये रहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ दिसंबर २००८ १९९३. इरादा हमारा बहुत नेक था, मग़र ख़ामख़्याली क्या हो गयी—RAS—ई-कविता, १० दिसंबर २००८ इरादा हमारा बहुत नेक था, मग़र ख़ामख़्याली क्या हो गयी हमने कबूली भेजी मग़र, जाने कहाँ वो हवा हो गयी वो आप तक जो पहुँचती सनम, कैसे दोबारा यूँ लिख लेते हम इनायत ख़ुदा की ये नज़रे-गिला गज़ल का नयी मशविरा हो गयी मिलने का बस इक बहाना ही था, नज़दीक तो हमें आना ही था एक पल की थी मुलाकात पर, कितना हसीं हादसा हो गयी राह ज़िंदगी की रही बेवज़ह, कल का भरोसा न अब की ख़बर ख़त जो मिला आपका ताज़गी, नस-नस में जैसे रवाँ हो गयी चारागरों से न उम्मीद थी, ख़लिश मेरे ग़म का मदावा न था बहुत है करम हाल पूछा हुज़ूर, नज़र आपकी ख़ुद दवा हो गयी. ख़ामख़्याली = गलतफ़हमी मदावा = इलाज़ महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १० दिसंबर २००८ ००००००००००० Wednesday, 10 December, 2008 1:59 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! चारागरों से न उम्मीद थी, ख़लिश मेरे ग़म का मदावा न था बहुत है करम हाल पूछा हुज़ूर, नज़र आपकी ख़ुद दवा हो गयी. जवाब नहीं! सस्नेह, सीताराम चंदावरकर १९९४. यादों के झरोखों से जुगनू से चमकते हैं--RAS यादों के झरोखों से जुगनू से चमकते हैं कोई पास नहीं आता हम हाथ लपकते हैं कोई बात नहीं यादो तुम दूर से मंडराओ तुमसे ही दो दिल दो सीनों में धड़कते हैं अपने संग यादो तुम अरमान भी ले जाओ इस दिल से निकलने को नादान मचलते हैं हैं दबे हुये जब तक तब तक ही जीते हैं खो रहेंगे पूरे हो, ये भी न समझते हैं यादें भी ख़लिश होंगी, अरमान भी होंगे ये कुछ आंसू संग होंगे, बिन बात बरसते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ दिसंबर २००८ १९९५. सूने पथ पर चलते-चलते--RAS सूने पथ पर चलते-चलते जलती धरती पर पग धरते ओलों से शोलों से डरते जब मेरा मन घबराता है, तब याद तुम्हारी आती है. जब फूल खिले हों उपवन में अभिलाषा जगती हो मन में सिहरन सी उठती हो तन में हों प्राण अज़ब इक उलझन में, तब याद तुम्हारी आती है. हो दूर मग़र यूँ पास हो तुम इस बिरहा मन की आस हो तुम दिल की धड़कन हो श्वास हो तुम मन का निश्छल विश्वास हो तुम, जब ख्याल मुझे यह आता है तब याद तुम्हारी आती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ दिसंबर २००८ १९९६. शहीदों की याद--RAS ध्यान रहे तुम जिस धरती पर आज़ादी से चलते हो ख़ुश रहते हो मस्ती में तुम गाते और मचलते हो क्रीड़ा करते हो, अधिकार जमाने तत्पर रहते हो वह धरती है कुछ दीवानों के शोणित से रंगी हुयी उस पर उनकी तलवारों की धारों रेखा खिंची हुयी शत्रु के लोहू से मातृभूमि तुम्हारी सिंची हुयी आज मग़र दीवानों को समझा दीवाना, भूल गये जान लुटाने वालों को समझा बेगाना, भूल गये बरसी पर तुम उनको अपना शीश झुकाना भूल गये किन्तु वतन पर मरने वाला मर कर नहीं मरा करता भूल गये उनको, मत सोचो इससे फ़र्क नहीं पड़ता कृतघ्नों की आज़ादी को बचा नहीं कोई सकता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ दिसंबर २००८ १९९७. जो बीत गयी सो बात गयी—RAS—ईकविता, ११ दिसंबर २००८ जो बीत गयी सो बात गयी भूलो जो काली रात गयी न रहा अंधेरा कभी सदा मत समझो कर बरबाद गयी कल और सवेरा आयेगा दे रात नयी सौगात गयी दुनिया है अज़ब सियासत की छिन गयी कुर्सी, औकात गयी मत है अछूत मानो कोई छूने से कैसे जात गयी क्या ख़लिश मिलेगा रोने से जब विदा हुयी, बारात गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ११ दिसंबर २००८ १९९८. जब चाहा कुछ कह देता हूँ—RAS—ई-कविता, १५ दिसंबर २००८ जब चाहा कुछ कह देता हूँ जब चाहा कुछ लिख लेता हूँ स्वर की सरिता में जब चाहे शब्दों की नैय्या खेता हूँ लेखनी स्वयं चल पड़ती है मैं कैसे कहूँ रचेता हूँ सबकी वाणी है मुखर यहाँ न विजित न कोई विजेता हूँ मत सोचो छोड़ूँगा कुर्सी मैं घुटा हुआ इक नेता हूँ नित चेहरे नये बदलता हूँ मैं सिर्फ़ ख़लिश अभिनेता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ दिसंबर २००८ ०००००००००००० Sunday, 14 December, 2008 7:36 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com ख़लिश जी, दिन की शुरुआत, इतने मँजी हुई गजल के साथ! धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद :) सादर, शार्दुला १९९९. कब मुझसे प्रीत लगाओगे--RAS कब मुझसे प्रीत लगाओगे कब प्रेमसुधा बरसाओगे मैं कब से पंथ निहार रही न जाने तुम कब आओगे ये दुनिया सूनी-सूनी है कब राहों को महकाओगे मन में है घना अंधेरा तुम कब आ कर दीप जलाओगे जो ख़लिश छुए अंतरघट को कब ऐसा गीत सुनाओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ दिसंबर २००८ ०००००००००००० Saturday, 13 December, 2008 11:41 AM From: "kusum sinha" kusumsinha2000@yahoo.com Aderniy maheshji namaskar Aapki kalam me jadu hai mai ye manti hun.Bahut sundar kavita .Sach to ye hai ki ek umra gujar jane ke bad man ko bahlana hi sabse bada kam ho jata hai jhuthe jhuthe bahane se hum dil ko bahlate rahte hain.Bas yahi bat hai. Kusum ०००००००००००० २०००. इस दिल से उनकी ही ख़ातिर निकली है आह—RAS—ईकविता १२ दिसंबर २००८ इस दिल से उनकी ही ख़ातिर निकली है आह क्या गिला ज़माने से जब उन्हें नहीं परवाह कब करम करें हम पर मर्ज़ी है ये उनकी कदमों में उनके ही झुकती है रही निगाह वो हैं कि नहीं पड़ती हम पे है नज़र उनकी हम हैं कि तमन्ना है उनसे हो जाये निकाह हम राज़ मोहब्बत का दिल में ही रखते हैं है और नहीं कोई जिससे कर पायें सलाह आखिर दो के आगे अब तीन लगीं बिंदी ये देख ख़लिश मेरा दिल कर बैठा है, वाह! महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ दिसंबर २००८ ००००००००००००००००० Friday, 12 December, 2008 4:37 PM From: "Manoshi Chatterjee" khallopapa@yahoo.com आखिर दो के आगे अब तीन लगीं बिंदी ये देख ख़लिश मेरा दिल कर बैठा है, वाह! इसे समझाइये खलिश जी। मानोशी >>> After the figure of two now, Three zeros have, at last, been placed. Two thousand ghazals written now, I have by my own heart been praised. -- (abcb, 8-8-8-8) ०००००००००००००००००० Saturday, 13 December, 2008 12:01 AM From: "Manoshi Chatterjee" khallopapa@yahoo.com ओहो! अब समझ आया। बधाई महेश जी। ४ शून्य भी लगें आगे यही कामना है... मानोशी ०००००००००० Saturday, 13 December, 2008 4:54 AM From: "Vinay k Joshi" vinaykantjoshi@yahoo.co.in आखिर दो के आगे अब तीन लगीं बिंदी ये देख ख़लिश मेरा दिल कर बैठा है, वाह! . साहित्य सृजन कर आपने समृध्द करी हिन्दी साधनारत रहे आप सदा एक और लगे बिन्दी. सादर विनय के जोशी ०००००००००००००००००० |