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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
२००१. दिन जा रहे हैं यूँ ही गुज़रते—RAS—ईकविता, १४ दिसंबर २००८ दिन जा रहे हैं यूँ ही गुज़रते दिल में हैं अनगिन अहसास पलते ख़्वाब में उनको देखा है अकसर लमहे तन्हाई के यूँ ही गुज़रते जो भी लिखा था याद में उनकी अरमां आज पढ़ा तो मचलते हमने लिखा है दिल के सुकूं को फ़िक्र नहीं ग़र लोग न पढ़ते दाद हमें कोई दे जो सुखनवर मिल जाये छांह है धूप में चलते शुक्र ख़लिश है बज़्म तुम्हारा क्यों लिखते ग़र आप न सुनते. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ दिसंबर २००८ Sunday, 14 December, 2008 11:47 AM From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com आप गिन रहे तीन मगर हम बिन्दी चार देख पाते हैंएक गज़ल के अश आरों की संख्या पांच अजी पाते हैंतो फिर दस हज़ार शेरों को सिरजा है अजीम शायर नेउसकी अद्भुत कलम देख हम सादर शीश नवा जाये हैं. राकेश २००२. इस दिल की तमन्ना थी अपना भी कोई होता--RAS इस दिल की तमन्ना थी अपना भी कोई होता बाहों में किसी की ये सुख सपनों में सोता चाहा था कभी इसने इक साथी मिल जाये कोई मिल जाता तो भी ये दिल यूँ ही रोता अपनी तो किस्मत है ख़ुश रह ही नहीं सकते ग़म ये न अग़र होता कोई और सितम होता न दिल ही लगाते हम, न वो ही ठुकराते न ठेस कोई लगती, अफ़सोस कोई होता समझाया था दिल को, चाहत न करो कोई ख़्वाहिश न कोई होती, न चैन ख़लिश खोता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ दिसंबर २००८ २००३. याद की उनकी सतायी रात भर--RAS याद की उनकी सतायी रात भर एक पल मैं सो न पायी रात भर ग़म मेरे दिल में उमड़ते ही रहे मैं गयी फिर-फिर रुलायी रात भर कह गये थे वो पलट के आयेंगे मैं रही सहती जुदाई रात भर आंसुओं की सर्द रिमझिम के तले दर्द ने महफ़िल जमायी रात भर ख़्वाब कुछ आते रहे, जाते रहे चाह दिल की कसमसायी रात भर आंख में आयी नमी जो एक बार तो ख़लिश फिर जा न पायी रात भर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १३ दिसंबर २००८ २००४. ये मसला है न पीछे का, ये मसला है न आगे का—RAS—has bee posted to e kavita ये मसला है न पीछे का, ये मसला है न आगे का ये मसला तो असल में सिर्फ़ है कच्चे से धागे का इसी धागे की कुव्वत है कि नाता ज़िंदगी भर का निभाता है कोई सब ख्याल कर पीछे-ओ-आगे का जो अपने पास है उसको भी रखना पास है मुश्किल गया दामन छुड़ा कर जो, करें क्या ज़िक्र भागे का कोई सोया ही बेहतर है, भरोसा कीजिये कैसे पलक मूँदे हुये सोये किसी इंसान जागे का ख़लिश यूँ तो बिना रदीफ़ भी लिखते हैं गज़ल लोग रदीफ़ हो काफ़िये का साथ, संग सोने-सुहागे का. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ दिसंबर २००८ २००५. आप आये तो दिल में ख़याल आ गया--RAS आप आये तो दिल में ख़याल आ गया याद हमको पुराना मलाल आ गया जब हमारी नज़र आप पर पड़ गयी आपके रुख पे यकदम गुलाल आ गया प्यार का यूँ असर कुछ हुआ आप पर आपके रुख पे नूरो-जमाल आ गया दिल में ख़्वाहिश थी सुनते रहें आपको आपकी गुफ़्तगू में कमाल आ गया राहे-उल्फ़त को मंज़िल न हासिल हुयी बीच में इक वफ़ा का सवाल आ गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ दिसंबर २००८ २००६. मैं बूढ़ा बरगद बेचारा—RAS—ई-कविता, १७ दिसंबर २००८ मैं बूढ़ा बरगद बेचारा अब काल गति से हूँ हारा छाया बहुतों को दी लेकिन अब सबने मुझको धिक्कारा पथ चौड़ा करने की ख़ातिर काटेगा आज लकड़हारा मेरे अंगों-प्रत्यंगों को फिर राख करेगा भटियारा सब भूलेंगे मुझको इक दिन कल तक था मैं जिनका प्यारा है मुझको सब मंज़ूर ख़लिश लूँ जनम यहीं मैं दोबारा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ दिसंबर २००८ २००७. क्या कहूँ तुम्हें यही सोचता रहा मग़र--RAS क्या कहूँ तुम्हें यही सोचता रहा मग़र रात भी गुज़र गयी, न हुयी मुझे ख़बर क्या मेरी ख़ता हुयी, किसलिये अलग हुये सोचते ही सोचते दिल में पड़ गये भंवर वक्त बीतता रहा, और बीत जायेगा पर ज़ुबाँ के घाव का मिट सकेगा न असर अब नहीं ख़ुशी कोई, ग़म नहीं, हंसी नहीं जाने कब चुकेगी ये ज़िंदगी की रहगुज़र यूँ तो एक दिन ख़लिश न रहेंगे तुम व मैं कौन है ख़लिश यहाँ जो हुआ कभी अमर. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ दिसंबर २००८ २००८. जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये—RAS—ईकविता, १७ दिसंबर २००८ जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये उत्तरों के चिह्न त्रिशंकु से लटक गये मन की भावनाओं का कोई मोल न रहा स्वप्न के समक्ष आंसुओं का तोल न रहा जीभ मौन हो गयी, कोई बोल न रहा तूतियों के सामने कोई ढोल न रहा राह जान के भी हम अजान से भटक गये जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये सांस जो भी आयी निश्वास में बदल गयी चाल जो चली वही राह से फिसल गयी प्यार की कली खिली, दी मग़र मसल गयी योजना पे योजना हो सभी विफल गयी कर्म तो किये मग़र फल कहीं छिटक गये जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये आज निस्सहाय सा रह गया हूँ मैं खड़ा ज्यों समय से पूर्व ही पुष्प डाल से झड़ा सोचता हूँ भाग्य से किसलिये ख़लिश लड़ा हो सकेगा कौन और मुझसा पातकी बड़ा स्वप्नफल से पूर्व ही स्वप्न सब चटक गये जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये उत्तरों के चिह्न त्रिशंकु से लटक गये राह जान के भी हम अजान से भटक गये कर्म तो किये मग़र फल कहीं छिटक गये स्वप्नफल से पूर्व ही स्वप्न सब चटक गये जो भी प्रश्न थे उठे, कंठ में अटक गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ दिसंबर २००८ २००९. हर पग पर खाता गच्चा हूँ—RAS-- ईकविता, १७ दिसंबर २००८ हर पग पर खाता गच्चा हूँ पर जैसा भी हूँ अच्छा हूँ दुनियादारी से काम नहीं मानो इक भोला बच्चा हूँ चिकनी-चुपड़ी तो शक्ल नहीं लेकिन मैं दिल का सच्चा हूँ सीधा-सादा लगता हूँ पर मैं नहीं अकल का कच्चा हूँ लिखता हूँ ख़लिश बहुत थोड़ा न मैं बातों का लच्छा हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १७ दिसंबर २००८ २०१०. भरोसा क्या है ख़्यालों का कभी आते, कभी जाते—RAS—ई-कविता, २१ दिसंबर २००८ भरोसा क्या है ख़्यालों का कभी आते, कभी जाते कभी लब को हंसाते हैं, कभी पलकों को रुलाते कभी माज़ी से भूली याद कोई ढूंढ लाते हैं कभी मुस्तकबिलों की सैर हैं इक पल में हैं करवाते न होते ख़्याल ग़र दिल में तो जीने का मज़ा क्या था ये जब आते हैं तो तनहाई में हैं रंग भर जाते गज़ल होती न मुमकिन ग़र मेरी यादों के ये पंछी मुझे बचपन, जवानी की न अकसर सैर करवाते बहुत है शुक्रिया इनका, यही हैं दौलते-शायर ये न होते ख़लिश शायद तो जीते जी ही मर जाते. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १९ दिसंबर २००८ माज़ी = भूत मुस्तकबिल = भविष्य ००००००००००००००० Monday, 22 December, 2008 8:21 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश जी , यह शेर बहुत अच्छा लगा ........ बहुत है शुक्रिया इनका, यही हैं दौलते-शायर ये न होते ख़लिश शायद तो जीते जी ही मर जाते. ===================== सादर सुजाता दुआ २०११. जो आये हैं इक दिन—RAS—ई-कविता, २० दिसंबर २००८ जो आये हैं इक दिन सबको ही जाना है दुनिया में जीना तो बस एक बहाना है इस एक बहाने को कर्तव्य समझना है जीवन पथ में हर दिन आगे ही बढ़ना है कुछ लोग हैं जो सबको नयी राह दिखाते हैं नये शब्द, नये सपने यादें दे जाते हैं उन राहों पर हमको चलते ही रहना है और दूजों की ख़ातिर हमको दुख सहना है दुख-सुख तो इस जग में आते और जाते हैं पर ज्ञानी पुरुष नहीं इनमें रम जाते हैं जो पहले गुज़रे हैं उनका अनुसरण करें धारें उनके गुण को हम उनका नमन करें. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २० दिसंबर २००८ २०१२. दामन फटा है सिये जा रहा हूँ—RAS—ईकविता, २२ दिसंबर २००८ दामन फटा है सिये जा रहा हूँ था पास जो भी दिये जा रहा हूँ हासिल नहीं है ख़ुशी कोई मुझको जामे- ज़हर मैं पिये जा रहा हूँ मंज़िल की उम्मीद कोई नहीं है मायूस हो कर जिये जा रहा हूँ सौदाई दिल ने लिखीं थीं कभी जो गज़ल कुछ हवाले किये जा रहा हूँ तुम न मिले पर चुरा कर तुम्हीं से ख़लिश चंद यादें लिये जा रहा हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ दिसंबर २००८ २०१३. तुम्हें हम कभी भूल सकते नहीं, तुमने है चाहे भुलाया हुआ--RAS तुम्हें हम कभी भूल सकते नहीं, तुमने है चाहे भुलाया हुआ दिल से कभी ख़त्म होगा नहीं, तुम पे है जो प्यार आया हुआ चाहे नज़र भर न देखो हमें, हमको सितम तुम भले लाख दो अपना बना कर रहेंगे तुम्हें, दिल को भरोसा दिलाया हुआ तमन्ना है तुम पास आओ कभी, झुक के तुम्हारे कदम चूम लें न दरमियाँ हों कोई दूरियाँ, यही ख़्याल मन में समाया हुआ सूरत तुम्हारी नज़र में बसी, रखा है जतन से छिपा कर तुम्हें ज़ुल्फ़ों की छाँहों में पलकों तले, छोटा सा घर है बनाया हुआ रुसवाई का अब कोई डर नहीं, सभी जानते हैं नज़र की ज़ुबां तुमसे मोहब्बत करते हैं हम, ज़माने में अहसास छाया हुआ कब तक हमें और तड़पाओगे, आना पड़ेगा तुम्हें एक दिन टूटे न जो पाक दिल में ख़लिश, विश्वास गहरा बिठाया हुआ. तर्ज़—ये वादा करो चांद के सामने……. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ दिसंबर २००८ २०१४. कुछ पास आओ—RAS—नग़मा—ई-कविता, २४ दिसंबर २००८ कुछ पास आओ, पल बैठ जाओ, इतना न हमको सताओ छोड़ो बहाना, छेड़ो तराना, धुन कोई हमको सुनाओ वो आसमां से, रंगीन कैसे, होते हैं देखो इशारे आओ कसम लें, तुम हो हमारे, हम तो हैं कब से तुम्हारे भोंरों की गुनगुन, बारिश की रिमझिम, है ये नया राग कैसा बहका हुआ सा, आलम है सारा, मेरे ही जज़्बात जैसा पास आओ साजन, बांहों में भर लो, ये दिल है कब से तुम्हारा मौसम जवां है, फिर ये न कहना, हमने तुम्हें न पुकारा. 0000000000 बोल -- कुछ पास आओ, पल बैठ जाओ, इतना न हमको सताओ छोड़ो बहाना, छेड़ो तराना, धुन कोई हमको सुनाओ वो आसमां से, रंगीन कैसे, होते हैं देखो इशारे आओ कसम लें, तुम हो हमारे, हम तो हैं कब से तुम्हारे भोंरों की गुनगुन, बारिश की रिमझिम, है ये नया राग कैसा बहका हुआ सा, आलम है सारा, मेरे ही जज़्बात जैसा पास आओ साजन, बांहों में भर लो, ये दिल है कब से तुम्हारा मौसम जवां है, फिर ये न कहना, हमने तुम्हें न पुकारा. तर्ज़—दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से…….. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ दिसंबर २००८ ०००००००००००००००० Thursday, 25 December, 2008 8:40 AM From: "सिद्धार्थ शंकर त्रि" ekavita.sst@gmail.com ख़लिश जी, इस क्लासिक गीत की धुन पर आपकी रचना बिल्कुल फिट बैठती है। बधाई। बहुत अच्छा बन पड़ा है। (सिद्धार्थ) ००००००००००००००० २०१५. यूँ तो हम उनके ग़म दिल में दिन रात बसाये रहते हैं---RAS—ई-कविता, २४ दिसंबर २००८ यूँ तो हम उनके ग़म दिल में दिन रात बसाये रहते हैं पर औरों से क्यों कहें भला, दिल में ही छिपाये रहते हैं मन में तो उनसे मिलने की ख़्वाहिश उठती ही रहती है राहों में ग़र मिल जायें तो हम कुछ घबराये रहते हैं क्या बात है ये मालूम नहीं जब भी मिलते हैं तो ऐसे कुछ वो शरमाये रहते हैं, कुछ हम शरमाये रहते हैं तनहा रहना अब मुश्किल है, वो वादा करके न आयें तो ग़म के सौ काले साये इस दिल पर छाये रहते हैं दिल की है हालत अज़ब ख़लिश, कुछ समझ न आये क्या कीजे उनके ही ख़्याल हमें क्योंकर हर दम भरमाये रहते हैं. तर्ज़—वो पास रहें या दूर रहें…………… महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ दिसंबर २००८ २०१६. झुकी हुयी निगाह से मिला पयाम आज है झुकी हुयी निगाह से मिला पयाम आज है आज कुछ अयाँ हुआ प्यार का ये राज़ है धड़कनों में आ गयीं अज़ीब सी रवानियाँ मेरे दिल का बज रहा बिन बजाये साज है रुख से आपने नकाब जो हटायी यूँ लगा ज्यों हसीन रात में कोई माहताब है याख़ुदा तुम्हारे आसरे है शाम आज की दिल की नीयतों पे आज कुछ असर ख़राब है जाने कीजिये ख़लिश क्या समझ न आये है इस ज़नूने-इश्क का न कोई इलाज़ है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ दिसंबर २००८ २०१७. जाने वाला गया मग़र ये यादें कभी न जाती हैं--RAS जाने वाला गया मग़र ये यादें कभी न जाती हैं रातों की तनहाई में आ कर दिल को तड़पाती हैं यादों के फूलों का दिल में हार बना कर रखा है कांटों सी चुभती हैं ये ही ख़ुशबू भी फैलाती हैं तड़पा लें ये एक दफ़ा जितना मुझको तड़पाना है जब चाहे राहों में जाने क्यों मुड़-मुड़ कर आतीं हैं ये यादें जो बाकी हैं, मेरे जीवन का हिस्सा हैं ख़ुद भी रोती हैं मुझको भी अपने संग रुलाती हैं असली क्या है नकली क्या है, ख़लिश नहीं कहना आसां जाने वाला झूठा, हम असली हैं ये बतलाती हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ दिसंबर २००८ २०१८. जब प्यार न हो नज़रों में मिलने की रातों का मतलब क्या—RAS 1 जब प्यार न हो नज़रों में मिलने की रातों का मतलब क्या जब भाव न हों कविता में फिर खाली बातों का मतलब क्या जब प्यार की राह में कदम रखे तो तीर भी चलते हैं लेकिन ग़र तीर न पहुँचें दिल तक तो खाली घातों का मतलब क्या बीवी और शौहर के दरम्यां है प्यार कभी तकरार कभी पर बात ज़ुबां से न करके, घूँसे-लातों का मतलब क्या वो कहते हैं तनख़्वाह उनकी बस पेट भरे को पूरी है फिर वो बतला दें ये हमको काले खातों का मतलब क्या जब बाजी है शतरंजी तो फिर हार कभी और जीत कभी शह मिली नहीं ग़र कभी ख़लिश, खाली मातों का मतलब क्या. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ दिसंबर २००८ २०१९. आज दिल अज़ीब सा बेकरार है—RAS—ई-कविता, २५ दिसंबर २००८ आज दिल अज़ीब सा बेकरार है मस्तियां फ़िज़ां में हैं, क्या बहार है हर कली को आज कुछ इन्तज़ार है संग चलें कि आइये, क्या ख़याल है ज़िंदगी के चार दिन का सवाल है यूँ ही बीत जायें न, ये मलाल है ज़ुल्फ़ न झटक के दूर आप जाइये एक बार तो जरा मुस्कुराइये बात मानिये हुज़ूर, लौट आइये दिल की ये पुकार है, कुछ तो बोलिये पंखुड़ी गुलाब की कुछ तो खोलिये हम तो आपके हुज़ूर साथ हो लिये. तर्ज़— तू नहीं तो ये बहार क्या बहार है गुल नहीं खिले कि तेरा इन्तज़ार है--शैलेन्द्र महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ दिसंबर २००८ २०२०. मुझे गु़रबत का तो अहसास सदा रहता है--RAS मुझे गु़रबत का तो अहसास सदा रहता है छोड़ दूँ शौक सभी दिल तो यही कहता है मुझे आराम ज़माने के सभी हासिल हैं कोई भूख और बिमारी के ज़ुलम सहता है मेरी आंखों में चमक और लबों पे है हँसी किसी दुखिया की निगाहों से लहू बहता है मैं नहीं पौंछ सका अश्क किसी के अब तक मेरे दिल में ये मलाल आज तलक रहता है मैं ग़रीबों की सुधारूँगा कभी किस्मत ये ख़्वाब देखा था मग़र आज ख़लिश ढहता है. ग़ुरबत = ग़रीबी महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ दिसंबर २००८ २०२१. तारीफ़ करना नहीं है मुमकिन, समझ लें दिल की ज़ुबां, नज़र से—RAS--ई-कविता, २५ दिसंबर २००८ तारीफ़ करना नहीं है मुमकिन, समझ लें दिल की ज़ुबां, नज़र से क़लम में जादूगरी है कोई, लगे है अमृत की धार बरसे बहुत सुखनवर मिले हैं अब तक नज़्म और गज़लें पढ़ीं हैं काफ़ी पर आपके हैं अशआर कातिल, टपक रहा है लहू ज़िगर से कोई है घायल, कोई अमर है, कोई है मरहम लगा रहा है ये मंच खिलता हुआ चमन है, न रंगो-बू को है कोई तरसे ऐ साहिबानो लिखे चलो तुम बेबाक हो कर कलामो-नग़मे अभी तो दीवान आयेंगे कितने, उम्मीद हमको है इस हुनर से कैसा हसीं है आलम ख़लिश ये, शायर गज़ब ढाते जा रहे हैं हर कोई नग़मे सुना रहा है, चाहे निकल जायें हम किधर से. तर्ज़—बड़ी वफ़ा से निभाई तुमने, हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ दिसंबर २००८ ००००००००००० mouli pershad <cmpershad@yahoo.com> बहुत सुखनवर मिले हैं अब तक नज़्म और गज़लें पढ़ीं हैं काफ़ी पर आपके हैं अशआर कातिल, टपक रहा है लहू ज़िगर से भाई गुप्ताजी आप तो कभी न खत्म होनेवाली कविता के स्त्रोत हो। कभी गालिब ने आंख से तो आप ने जिगर से खूनाखून कर दिया। बहुत बढिया॥ ०००००००० २०२२. न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाती तुम न ग़र आते--RAS न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाती तुम न ग़र आते अग़र आ ही गये तो चार पल तो प्यार कर जाते बड़ी उम्मीद से ख़्वाबों की इक महफ़िल सजायी थी कोई इक ख़्वाब तो होता सचाई तक जिसे लाते बहुत अहसान है हम पर ग़मों की दे गये दौलत अग़र न तोड़ते जो दिल तुम्हारा दर्द न पाते बड़ी दिल में तमन्ना थी करें कुर्बान हम ख़ुद को कसम से कत्ल जो करते तुम्हें क़ातिल न ठहराते ख़लिश हम हार बैठे हैं बहुत हम कर चुके कोशिश ये दिल समझा नहीं अब तक हुयी मुद्दत है समझाते. तर्ज़—न होते ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ दिसंबर २००८ २०२३. बड़ी दिल में तमन्ना थी कि ऐसा काम कर जाते--RAS बड़ी दिल में तमन्ना थी कि ऐसा काम कर जाते ज़माने की ज़ुबां पर काश अपना नाम कर जाते बहुत हैं रहनुमा यूँ तो लुटाते हैं बहुत दौलत हमारे नाम न उनसे हुआ इक शाम कर जाते उन्हें भी कुछ सुकूँ मिलता हमें भी चैन पड़ जाता हमारी ज़ुल्फ़ के साये में कुछ आराम कर जाते ख़ुदा भी न मिला शैतान की भी न इबादत की वरन दौलत कमा लेते, बहुत ईनाम कर जाते अग़र होते ख़लिश बदनाम तो क्या नाम न होता न ये भी हो सका कि नाम तक बदनाम कर जाते. तर्ज़—न होते ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ दिसंबर २००८ २०२४. दुनिया में तनहा रहता हूँ न साथ न कोई साया है--RAS--ई-कविता, २६ दिसंबर २००८ दुनिया में तनहा रहता हूँ न साथ न कोई साया है इस एकाकीपन में मेरा शब्दों ने साथ निभाया है अश्कों को पौंछे कौन मेरे बस यूँ ही बहते रहते हैं जब भी मेरा दिल तड़पा है, मैंने कुछ लिखा, गाया है इन शब्दों में जो ताकत है उससे दुनिया झुक जाती है ढाई अक्षर का शब्द मग़र कबिरा ने मंत्र बताया है जितना छोटा हो शब्द प्रभावी होता है वह उतना ही दो अक्षर का है नाम जगत का बेड़ा पार लगाया है जितना हो सूक्ष्म ख़लिश जो भी वह उतना गुण से भरा हुआ इक अक्षर का स्वर है केवल, ओंकार, जगत पर छाया है. तर्ज़—वो पास रहें या दूर रहें…………… महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ दिसंबर २००८ ००००००००००००००० Saturday, 27 December, 2008 12:59 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश जी , मुझे याद है जब मैं इ कविता से जुडी थी तो सबसे पहले आपकी प्रतिक्रिया मुझे प्राप्त हुई थी उसी दिन मैनें यह मान लिया था कि आपनें अपना आशीर्वाद मुझे दे दिया ......तो आप कि प्रतिक्रिया चाहे न भी मिले ...मैं आपकी शुब्काम्नाओं के साए मैं हमेशा ही रहती हूँ ...आपका आशीर्वाद सदेव बहुत मीठा सा होता है ..... केवल इक अक्षर का स्वर है ओंकार ख़लिश कहलाता है साक्षात ईश्वर का रूप वही जो सारे जग पर छाया है. सादर , सुजाता दुआ ०००००००००००००००००००० २०२५. न टूटता ग़र ये दिल हमारा, कदम हमारे न लड़खड़ाते—RAS—ईकविता, ३० दिसंबर २००८ न टूटता ग़र ये दिल हमारा, कदम हमारे न लड़खड़ाते हमारा भी होता कुछ सहारा, पल एक हम भी तो मुस्कुराते किसी को काँटे किसी को गुल हैं, सभी की अपनी बनी है किस्मत कोई सिसकते तन्हाई में हैं, महफ़िल में कोई हैं गुनगुनाते न जाने क्यों हमको ज़िंदगी में मिलीं शिकस्तें क़दम-क़दम पे न प्यार करते, न होते रुसवा, न अश्क तनहाई में बहाते हमारी ज़ानिब कभी तो उनकी निगाह उठेगी ख़ुदा करम से न दिल में होती उम्मीद तो हम कभी के दुनिया को छोड़ जाते मग़र न हो जाये यूँ कि उनको वादे मोहब्बत के भूल जायें तसव्वुरों में रह जायें उनको ख़लिश यहाँ दम-ब-दम सजाते. तर्ज़--उन्हें ये ज़िद थी कि हम बुलाते हमें ये उम्मीद वो पुकारें ... महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ दिसंबर २००८ |