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Book 4 of my collection of Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script, 1776 onward. |
२०२६. हमने अश्कों से लिखी गज़ल उनको न बहर मिले उसमें--RAS, २६ दिसंबर २००८ हमने अश्कों से लिखी गज़ल उनको न बहर मिले उसमें बेवफ़ा हमें वो कहते हैं पर याद नहीं अपनी कसमें हैं सिर्फ़ लिखावट के माहिर मज़बून से उनको काम नहीं एहसासों से नावाकिफ़ हैं उनको बस दिखतीं हैं रस्में है सोच बहुत उनकी भोली, नाराज़ नहीं हैं हम उनसे रंगीन अदा ही काफ़ी है उनको तो करने को बस में कैसी बेजोड़ मिली जोड़ी, इक शोला है इक शबनम है वो पूरब हैं हम पश्चिम हैं, कैसे निभ पाये आपस में अब ख़लिश उपाय क्या कीजे है धूप कहीं और छाँह कहीं हम श्रंगारी रस के कायल वो जीते है करुणा रस में. तर्ज़—वो पास रहें या दूर रहें…………… महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ दिसंबर २००८ ०००००००००००० Friday, 26 December, 2008 2:20 PM From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com ख़लिश जी प्रणाम, अब भरी महफ़िल में मुझे रुला कर ही छोड़ेंगे क्या..... एक गाना याद आया है :) सन्नी जी की एक फ़िल्म का है.... बात निकली थी, इस ज़माने की जिस को आदत है, भूल जाने की आप क्यूं हम से, ख़फ़ा होते हैं जब रुला लेते हैं, जी भर के हमें जब सता लेते हैं, जी भर के हमें तब कहीं खुश वो, ज़रा होते हैं आपकी ग़ज़ल पढी और मुस्कुरा रहा हूँ। इसबार क्षमा करें, आगे से बस बहारों की ही बात करूँगा। सादर ....रिपुदमन पचौरी 00000000 २०२७. झुकी-झुकी निगाह ने कमाल का किया असर—RAS—ईकविता, २९ दिसंबर २००८ झुकी-झुकी निगाह ने कमाल का किया असर अब तो जी न पायेंगे, आप न मिले अग़र हर तरफ़ बहार ही बहार आज छा रही देखिये कि आज तो झूमता है हर बशर थी अधूरी ज़िंदगी, आप आये शुक्रिया जी रहे थे जैसे हम आपकी ही आस पर. प्यास जो छिपी रही आज दब न पायेगी आइये कि प्यार में रहे न कोई भी कसर ख़ास आपके लिये गज़ल लिखी है ये ख़लिश हौंठ से लगा के कर दीजिये इसे अमर. तर्ज़—आपकी निगाह ने कहा तो कुछ ज़रूर है महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ दिसंबर २००८ २०२८. यहाँ बनी है हमारी जां पे, वो मुँह छिपा मुस्कुरा रहे हैं—RAS, ई-कविता, २७ दिसंबर २००८ यहाँ बनी है हमारी जां पे, वो मुँह छिपा मुस्कुरा रहे हैं हमें सताने में ख़ूब उनको मज़े मोहब्बत के आ रहे हैं यही अग़र सिलसिला रहा तो न जाने फिर क्या अंज़ाम होगा नये सितम की फ़िराक में वो नये बहाने बना रहे हैं निभाएंगे वो वफ़ाएं कैसे, उन्होंने की हैं सदा ज़फ़ाएं रची है साज़िश कोई तो दिल में हमें जो इतना मना रहे हैं कभी न वादा किया है पूरा, ज़ुबां पे उनकी नहीं भरोसा जो देर हमको हुयी है थोड़ी हमें उलाहना सुना रहे हैं हसीन हैं वो बहुत मिलेंगे जो उनके कहने पे जान दे दें ख़लिश करें क्या है गर्ज़ अपनी मासूमियत हम दिखा रहे हैं. तर्ज़-- वो हम से चुप हैं, हम उनसे चुप हैं, मनाने वाले, मना रहें हैं महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ दिसंबर २००८ २०२९. कोई पास आ गया, चार पल बिता गया—RAS—ईकविता, २७ दिसंबर २००८ कोई पास आ गया, चार पल बिता गया और भी तन्हाई को दोगुनी बढ़ा गया जा रही थी बेवज़ह ज़िंदगी बहुत मेरी कोई था जो राह इक नयी मुझे दिखा गया न कोई उम्मीद है न ही इंतज़ार है है अजब मुकाम ये दिल जहां पे आ गया यूँ तो ज़ख़्म भर गये, टीस है अभी मग़र ख़्याल कोई आ गया, रात भर रुला गया था नसीब में यही, बस गज़ल लिखा करूँ जाने क्यों दिमाग़ में ख़ब्त ये समा गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसंबर २००८ ००००००००० Sunday, 28 December, 2008 12:26 PM "aasthamanthan" <aasthamanthan@yahoo.co.in> आदरणीय खलिश जी, यह गजल बहुत खूबसूरत है ...यह शेर बहुत अच्छे लगे न कोई उम्मीद है न ही इंतज़ार है है अजब मुकाम ये दिल जहां पे आ गया यूँ तो ज़ख़्म भर गये, टीस है अभी मग़र ख़्याल कोई आ गया, रात भर रुला गया सादर , सुजाता दुआ ००००००००००००० २०३०. ज़िंदगी में काम कुछ अब मुझे बचा नहीं--RAS—ईकविता, ९ जनवरी २००९ ज़िंदगी में काम कुछ अब मुझे बचा नहीं और जीऊँ किसलिये ख़ुद मुझे पता नहीं ग़म नहीं जो न मिला, जो मिला बहुत मिला क़ामयाब न हुआ तो कोई ख़ता नहीं लोग पूछते हैं क्या काम आजकल मुझे क्या बताऊँ मैं उन्हें काम का रहा नहीं अब ज़ईफ़ हो चुका, ला-इलाज़ मर्ज़ है फ़िक्र क्यों करूँ अग़र कोई भी दवा नहीं कम नहीं जो साठ और सात साल जी चुका सौ बरस जिऊँ ख़लिश, चाहिये दुआ नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसंबर २००८ ०००००००००००००० Friday, 9 January, 2009 11:52 AM From: "gopal verma" gopalverma786@yahoo.co.in महेश सर, आपकी कविता ने मुझे बहुत उदास कर दिया है. भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि आप शत वर्ष जिएं और यावत जीवेत्त् सुखम जीवेत्त् और आपका जीवन प्रदीप्त हो और हमेशा सुखमय हो ०००००००००००० Saturday, 10 January, 2009 8:57 AM gopalverma786@yahoo.co.in Sir, Just read these following lines and thought should share with you: Mein ne khuda se ik dua mangi Dua mein apni maut mangi Khuda ne kaha kaash mein de sakta maut tujhe per uss ka kya karon jis ne teri lambi umer ki dua mangi. ०००००००००००००००० २०३१. ज़िंदगी की दौड़ में कोई तो भटक गया--RAS—ईकविता, ५ जनवरी २००९ ज़िंदगी की दौड़ में कोई तो भटक गया कोई थम गया मग़र कोई हो अलग गया कोई मंज़िलों को पा गया मग़र कोई-कोई है जो बन त्रिशंकु सा बीच में लटक गया कोई हार सज रहा,कोई हाथ मल रहा कोई हार जीत को एक सा समझ गया मंज़िलों को पा सका वो ही सूरमा नहीं सूरमा जो चाह की राह से पलट गया है शज़र बना ख़लिश, मिल गया जो खाक में छा सका वही जो ख़ुद आप में सिमट गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ दिसंबर २००८ [Rough tune, not exact-- दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा] २०३२. मैं जहाँ से चला फिर वहाँ आ गया—RAS—ईकविता, ३० दिसंबर २००८ मैं जहाँ से चला फिर वहाँ आ गया राह वर्तुल मिलीं और भरमा गया मंज़िलों को क़दम न कभी छू सके रास्तों के अंधेरों से घबरा गया भोर की इक किरण ने इशारा किया किंतु दिल ने न उठना गवारा किया दिन गया ग़फ़लतों में बिखर इस तरह साँझ तक राह का न नज़ारा किया वक्त रुकता नहीं, था सभी ने कहा किंतु मैं बेख़बर, बेवज़ह सो रहा शाम ढलती रही, भोर होती रही रात को स्वप्न देखा, सुबह को ढहा दिन गुज़रते रहे उम्र बढ़ती रही चाह दिल की दबी सी मचलती रही अंत में एक दिन आ गया वो ख़लिश दम निकलता रहा, सांस थमती रही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० दिसंबर २००८ २०३३. मैं यहाँ खड़ा रहा, वो वहाँ खड़ा रहा—RAS—ईकविता, ३० दिसंबर २००८ मैं यहाँ खड़ा रहा, वो वहाँ खड़ा रहा बीच में दिवार बन पर अहम् अड़ा रहा दिल के एहसास न निकल सके कि तर्क का पहरा भावनाओं पर हर समय कड़ा रहा झुक सके न प्यार में, इक लकीर खिंच गयी स्वाभिमान का नशा व्यर्थ ही चढ़ा रहा एक ने कहा मग़र दूसरे ने न सुना दो दिलों का फ़ासला ख़ाम-ख़्वाह बढ़ा रहा मैं अलग, वो अलग, हो सके न हम कभी प्यार पस्त सा ख़लिश इक तरफ़ पड़ा रहा. तर्ज़— दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० दिसंबर २००८ ०००००००००००००००००० Wednesday, 31 December, 2008 6:36 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश जी , बेहतरीन लगीं यह पंक्तियाँ ...... ... एक ने कहा मग़र दूसरे ने न सुना दो दिलों का फ़ासला ख़ाम-ख़्वाह बढ़ा रहा सादर, सुजता दुआ ००००००००००००००००० Wednesday, 31 December, 2008 8:56 AM From: kusumsinha2000@yahoo.com Aderniy Maheshji namaskar Bahut bahut badhai ho naya varsh aur ye sundar si gazal ke liye bhi bahut bhub kusum ००००००००००००० २०३४. उम्र भर मेरा अहम् इस तरह तना रहा--RAS—ईकविता, ३१ दिसंबर २००८ उम्र भर मेरा अहम् इस तरह तना रहा ज़िंदगी गुज़र गयी, फ़ासला बना रहा हमसफ़र बने मग़र जुदा-जुदा सफ़र रहे भावना सहम गयी, तर्क सरगना रहा आपसी निबाह की दफ़्न रस्म हो गयी कोई ख़्याल ना रहा, कोई प्यार ना रहा एक दूसरे के दिल में झाँक न सके कभी बदहवास प्यार की तलाश भागना रहा सोचते हैं अब ख़लिश उम्र ख़त्म हो गयी दरमियान किसलिये युद्ध सा ठना रहा. तर्ज़— दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३० दिसंबर २००८ २०३५. यूँ तो सब कहते हैं जीवन है केवल चलने का नाम—RAS—ईकविता, १ जनवरी २००९ यूँ तो सब कहते हैं जीवन है केवल चलने का नाम किंतु ज़रूरी होता है करना कार्य के संग आराम हृदय धड़कता है जीवन भर, पर हर इक धड़कन के बाद उसको भी लाज़िम है लेना कुछ पल पूर्ण विराम साँसों की ग़र बात करें तो काम करे है अंत:श्वास छोडे़ं जब हम श्वास हमारी पेशी करतीं तब विश्राम छोटे बच्चे जगते में तो करते हैं उत्पात बहुत उनको भी निद्रा आवश्यक, खो जाते सपनों के धाम अपलक नयनों से भी करतब नहीं ख़लिश संभव होते पल-पल में झपकें पलकों को, यही विधि का बना निज़ाम. • मकता निम्न से प्रेरित है-- " Rest belongs to Work As eyelids to the eye" --Rabindranath Tagore महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ जनवरी २००९ ००००००००००००० Thursday, 1 January, 2009 11:46 PM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! आप की कल्पनाशक्ति और प्रतिभा को देख कर मैं दंग रह जाता हूं। सस्नेह सीताराम चंदावरकर ००००००००००० Friday, 2 January, 2009 2:36 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश साहब, अपलक नयनों के करतब भी ख़लिश नहीं संभव होते झपकें पलकों को कुछ पल में, इसी वज़ह से बना निज़ाम. ..आपकी प्रतिभा के कायल हैं हम सभी ... सादर , सुजाता दुआ २०३६. आये वो अंजुमन में और ऐसे चले गये--RAS—ईकविता, २ जनवरी २००९ आये वो अंजुमन में और ऐसे चले गये जैसे बहार आयी और गुंचे चले गये हमने तो उनको आँख भर देखा न एक बार जाने वो हमसे किसलिये खिंचते चले गये वो वक्ते-रुखसत आयेंगे ये थी हमें उम्मीद पर ग़ैर के संग बिन मिले हमसे चले गये क्या हो गयी हमसे ख़ता कि ज़ुल्फ़ झटक के न आयेंगे ये हमको जता के चले गये मुड़ कर कभी तो आयेंगे वो इस तरफ़ ख़लिश हम आस दिल में फिर भी संजोये चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी २००९ तर्ज़—उनके ख़याल आये तो आते चले गये ०००००००००००००००० Saturday, 3 January, 2009 12:58 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! कुछ इसी माहौल की एक ग़ज़ल सुनी थी। याद नहीं किस की थी। "मेरे घर उन का आना जाना था क्या मुहब्बत क्या जमाना था थक गये थे तो रुक गये होते रासते में ग़रीबखाना था" (ग़रीबखाना = मेरा घर) सस्नेह सीताराम चंदावरकर ============= Saturday, 3 January, 2009 1:06 AM From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in आदरणीय खलिश साहब , बहुत प्यारी हैं यह पंक्तियाँ .... क्या हो गयी हमसे ख़ता कि ज़ुल्फ़ झटक के न आयेंगे ये हमको जता के चले गये मुड़ कर कभी तो आयेंगे वो इस तरफ़ ख़लिश हम आस दिल में फिर भी संजोये चले गय सादर , सुजाता दुआ ००००००००००००००००० २०३७. मेरे मन को अकसर दुविधा ने घेरा--RAS—ईकविता, २ जनवरी २००९ मेरे मन को अकसर दुविधा ने घेरा जो है मेरा नहीं, जगत समझे मेरा खाली हाथों, कोरा जग में आया था पर माया ने जमा लिया मन में डेरा माया-वश हो कर मैं मोह-कलिल में यूँ भरमाया, वो मिला नहीं, कितना टेरा आखिर उसको मन के ही भीतर पाया जब थक कर निज अंतर में उसको हेरा मुस्का कर उसने यह मुझको समझाया मेरा था आभास, नहीं था कुछ तेरा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ जनवरी २००९ ००००००००००० Saturday, 3 January, 2009 12:38 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com खलिश साहब, बहुत सुन्दर कविता है। बधाई! तब ख़लिश मुझे मुस्का कर उसने समझाया मेरा था सब आभास, नहीं था कुछ तेरा. सत्य है। सस्नेह सीताराम चंदावरकर ००००००००००००००० २०३८. उनका तो मुस्काना भर था पर मेरा जीवन महका--RAS—ईकविता, २ जनवरी २००९ उनका तो मुस्काना भर था पर मेरा जीवन महका उनका पलक झुकाना था और इधर मेरा तन-मन बहका नज़रों से इक हुआ इशारा, मन ने ली इक अंगड़ाई जिस दिल में था घना अंधेरा एक वहां शोला दहका जाने क्या संदेसा भेजा, जाने क्या मैं सुन पाया वीरानी का आलम गुज़रा और दिल का उपवन चहका नया समां, अहसास नया, नव सपनों के अंकुर फूटे चली पवन बासंती ऐसी फूल मेरे मन का लहका डर लगता है ख़लिश कहीं इकतरफ़ा प्रेम न हो मेरा जाने दिल में क्या हो उनके, पता नहीं मन की तह का. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००९ २०३९. कान, आंख इंसां को ख़ुदा से जब मिलें दो-दो--RAS—ईकविता, २ जनवरी २००९ कान, आंख इंसां को ख़ुदा से जब मिलें दो-दो तो दिल, ज़ुबाँ भी जिस्म में क्यों न रहें दो- दो दिल एक है पर दर्द उसमें भर दिया इतना एक बार में दो आँख से आँसू बहें दो-दो है एक ज़ुबाँ काफ़ी उन्हें कहने को दास्तां हर लफ़्ज़ से इशारतन मतलब कहें दो-दो है शुक्रिया उनका बहुत दो पाँव तोड़ कर बैसाखियाँ इक ही नहीं दे दीं हमें दो-दो न जान पाया कोई राज़े-इश्क आज तक है प्यार की शय एक लेकिन दिल जलें दो-दो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ जनवरी २००९ २०४०. दुनिया में क्यों रमता है, पंछी इक दिन उड़ जायेगा--RAS—ईकविता, ७ जनवरी २००९ दुनिया में क्यों रमता है, पंछी इक दिन उड़ जायेगा जो तू सपना देख रहा है हाथ कभी न आयेगा रोज़ नयी आशाएं कितनी, रोज़ नयी चिंता पाले जितना इन्हें बढ़ायेगा, उतना ख़ुद को उलझायेगा मिल जाये जो ख़ुश रह उस में, मन से इच्छा त्याग सभी ख़्वाहिश पूरी कभी न होंगी, नाहक फिर पछतायेगा मालिक का दर्शन पाने को क्यों भटके मंदिर-मस्जिद अपने मन में झाँक ज़रा तू, नूर उसी का पायेगा दो दिन का जीवन है तेरा, मत कर तू बरबाद ख़लिश मान रज़ा रब की हो जो भी, तब ज्ञानी कहलायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ जनवरी २००९ २०४१. यह मत सोचो कल क्या होगा--RAS—ईकविता, ८ जनवरी २००९ यह मत सोचो कल क्या होगा जो भी होगा अच्छा होगा अच्छा क्या है और बुरा क्या सब अपने मन पर निर्भर है मन की इच्छाओं से ऊपर उठने में ही सुख निर्झर है अपनी इच्छा पूरी होने को हम अच्छा कह देते हैं शूल अग़र चुभ जाये तो हम झट दो आँसू रो लेते हैं क्या यह संभव नहीं हमें जो नहीं रुचे बहु-कल्याणी हो? संभव है जो हमको सुख दे जनता को उससे हानि हो हित का और अहित का जग के मत तुम ख़ुद को माप बनाओ अपने मन का दमन करो और परहित में ही ध्यान लगाओ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जनवरी २००९ ०००००००००००००० Thursday, 8 January, 2009 5:39 AM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com ख़लिश जी, वाह, कितनी अच्छी बात कही है, कितने अच्छे छन्दों में ! बहुत धन्यवाद ! "अपनी इच्छा पूरी होने को हम अच्छा कह देते हैं शूल अग़र चुभ जाये तो हम झट दो आँसू रो लेते हैं " "क्या यह संभव नहीं हमें जो नहीं रुचे बहु-कल्याणी हो?" सादर शार्दुला ०००००००००००००००० Thursday, 8 January, 2009 1:40 PM From: "Laxmi N. Gupta" lngsma@rit.edu खलिश जी, धन्यवाद। "यह मत सोचो कल क्या होगा जो भी होगा अच्छा होगा" यदि मेरी याददाश्त धोखा नहीं दे रही है तो ये किसी सिनेमा के गाने की पंक्तिया हैं। आपका उत्तर उत्तम है। लक्ष्मीनारायण ०००००००००००००००००००००००० २०४२. तुमने ही न साथ निभाया, औरों से क्या आस करूँ मैं--RAS तुमने ही न साथ निभाया, औरों से क्या आस करूँ मैं मैंने भी औरों की भांति मन में निश्छल स्वप्न सजाये ख्यालों की क्यारी में मैंने रंग-बिरंगे फूल खिलाये सींच न पायी उनको लेकिन, आँसू भी दिन-रात बहाये मुरझाये पुष्प और उजड़ गयी मन की क्यारी, देख डरूँ मैं तुमने ही न साथ निभाया, ….. सोचा था बलिदान करूँगी निज अस्तित्व तुम्हारी खातिर किंतु समय बलवान बहुत था, तुम निकले पाखंडी, शातिर भाग्य लुटा ऐसा मेरा कि सम्हल नहीं पाया जीवन फिर शूल भरे हैं अब तो केवल, चाहे पग जिस ओर धरूँ मैं तुमने ही न साथ निभाया, ….. नहीं पता था जीवन मेरा इतनी जल्दी कुम्हलायेगा भूल गति सीधे पूरब से सूरज पच्छिम आ जायेगा पंख कटेंगे ऐसे पंछी नभ में न फिर उड़ पायेगा मंडप सूना, वर माला है हाथ, ख़लिश पर जौन वरूँ मैं तुमने ही न साथ निभाया, औरों से क्या आस करूँ मैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ८ जनवरी २००९ २०४३. मन में यह विश्वास रखो कि जो भी होगा अच्छा होगा--RAS—ईकविता, १२ जनवरी २००९ मन में यह विश्वास रखो कि जो भी होगा अच्छा होगा अग़र फँसे हो बीच भंवर में, ईश्वर करता रक्षा होगा हाथ हमारे बस इक पल है, यह भी बीता ही जाता है जो बीते पल में उलझा वह सिर धुन-धुन कर पछताता है चल न पाये साथ समय के तो फिर चलना कच्चा होगा मन में यह विश्वास रखो कि जो भी होगा अच्छा होगा दुनिया तो है एक सराय लोग यहाँ पर आते रहते अपनी-अपनी तान सुनाते, अपनी- अपनी रौ में बहते इस कोरस में कौन कहे, किसका सुर है जो सच्चा होगा मन में यह विश्वास रखो कि जो भी होगा अच्छा होगा नहीं रुके है चक्र समय का, जो जन्मा है मृत्यु वरेगा पश्चिम में ग़र डूबा सूरज, पूरब में वह फिर उभरेगा नियम यही है ख़लिश पुरातन, बूढ़ा ही कल बच्चा होगा मन में यह विश्वास रखो कि जो भी होगा अच्छा होगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जनवरी २००९ 000000000 Sunday, 11 January, 2009 11:46 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com ख़लिश जी, "इस कोरस में कौन कहे, किसका सुर है जो सच्चा होगा "सुन्दर बात ! सादर शार्दुला 0000000000 Sunday, 11 January, 2009 10:31 PM pachauriripu@yahoo.com View contact details To: "Mahesh Gupta" <mcgupta44@yahoo.com>वाह ! क्या बात है ख़लिश जी! बहुत बढिया ....मन प्रसन्न हो गया.... रिपुदमन पचौरी -------------------------------------------------------------------------------- २०४४. वादे तो हैं लंबे हैं लेकिन उनमें कोई सत्य नहीं है--RAS—ईकविता, १० जनवरी २००९ वादे तो हैं लंबे हैं लेकिन उनमें कोई सत्य नहीं है ग्रंथ बहुत मोटे हैं लेकिन उनमें कोई तथ्य नहीं है हमने भी चाहा था छोटा सा दीवान कभी लिख जाते ख़्वाब न पूरा हो पाया ये, कुछ हममें सामर्थ्य नहीं है कमर हिलाना, हाथ डुलाना सब हीरोइन कर लेतीं हैं वैजयन्तीमाला सा लेकिन करती कोई नृत्य नहीं है घर वाली जब बोली इक दिन चाय बना कर ले आओ तो हमने कहा तुनक कर बंदा शौहर है कोई भृत्य नहीं है बात हुयी असलम भाई से ख़लिश मेरी मुम्बई के बारे वे बोले सच्चे मुस्लिम का हो सकता यह कृत्य नहीं है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जनवरी २००९ ०००००००००० Saturday, 10 January, 2009 3:18 PM From: "Ghanshyam Gupta" gcgupta56@yahoo.com बहुत खूब! ०००००००००००० २०४५. मेरी ज़िंदगी पुरग़म सही, उदास न हो—RAS—ईकविता, ९ जनवरी २००९ मेरी ज़िंदगी पुरग़म सही, उदास न हो मेरी उम्र न बाकी रही, उदास न हो मैं कह सका न तुमसे मीठी बात इक सब भूलना कड़वी कही, उदास न हो मैं आ गया धरती पे जिस जहान से दुनिया मेरी तो है वही, उदास न हो करने थे जिसमें दर्ज़ नेक काम कुछ कोरी रही अब तक बही, उदास न हो अब और न मुझको सता पायेगी ये गु़रबत ख़लिश मैंने सही, उदास न हो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ९ जनवरी २००९ |