Inspire from true incident |
" अपना बैग यहाँ रख ले बेटा, मुझे कोई दिक्कत नहीं ", उस व्यक्ति ने मेरा बैग अपनी गोद में रखते हुए कहा. वह नीचे ही बैठा हुआ था. ट्रेन में भीड़ तो इतनी थी कि ठीक से खड़े होने की जगह भी न बने फिर बैग रखना तो दूर की बात थी. मैंने अपना एक बैग पीठ पर तो दूसरा हाथ पर रखा हुआ था.पीठ के बैग तक तो ठीक था पर हाथ का बैग ज्यादा देर तक संभाल पाना मुश्किल था दिवाली मना कर घर से लौट रहा था तो घर में माँ ने बहुत सारा सामान रख दिया था. कुछ नए पुराने कपड़ो के साथ साथ घी, नमकीन, फल और पता नहीं क्या क्या. कितनी बार मना किया था की इंतना सामान मत रखो पर माँ तो बस थोडा और थोडा और कहकर, इतना रख दिया था कि मेरे हाथो ने भी उसे ज्यादा देर सँभालने से मना कर दिया था. फिर भी मै उस बैग को १५ - २० मिनट संभाले रखा था . शायद उस व्यक्ति ने मेरी परेशानी समझ ली थी और इसलिये बैग खुद ही ले लिया. बैग बड़ा था और भारी भी, पहले तो मुझे लगा की उसे परेशानी होगी पर जैसे तैसे उसने भीड को यहाँ वहा सरकाते हुए उसे नीचे रख दिया तो मुझे भी शांति मिली की चलो मै अपना बैग किसी और से तो नहीं उठवा रहा हु. ट्रेन में भीड बहुत थी तो सभी एक दुसरे से टिक कर या एक दुसरे के सहारे बैठे हुए थे. मै भी एक पैर पर खड़ा हुआ था दूसरा पैर तो सिर्फ पहले को सहारा देने के लिए किसी और के पैर पर रखा हुआ था. मन में बस इतनी शांति थी की चलो एक बैग का वजन तो कम हुआ. ट्रेन में भीड के साथ अन्दर ढकलते हुए एक बच्ची बीच में फ़स सी गई तो उसी व्यक्ति ने उसे सहारा दिया और आगे बढ़ने में मदद की, उसकी माँ आगे बढ़ चुकी थी पर वो पीछे ही छुट गई थी उसकी माँ भी सामान और एक गोद में रखे बच्चे को सँभालने के चक्कर में भीड में कब अपनी बेटी से जुदा हो चुकी थी कह पाना मुश्किल था पर उस व्यक्ति के कारण वह जुदाई वही खत्म हो चुकी थी | धीरे धीरे समय बीता. एक स्टेशन आया और चला गया कुछ लोग उस स्टेशन में उतरे तो उतने ही फिर से चढ़ गए. पर तब तक मै अपने बैठने के लिया जगह बना चूका था. जैसे तैसे मै बैठ गया पर बात वही खत्म नहीं हुआ था मै बाथरूम के पास ही बैठा हुआ था उस भीड में अगर किसी को बाथरूम जाना होता तो या तो मुझे उठना पड़ता या फिर उन्हें मेरे ऊपर से होकर गुजरना पड़ता. और हुआ भी ऐसा ही पर मेरे और आने वालो की सहमति से हमने पहला रास्ता ही चुना. हर ५-१० मिनट मै कोइ आता और मुझे वहां से उठना पड़ता. उठने में परेशानी तो होती थी पर मै कर भी क्या सकता था उस समय मै था तो रास्ते पर ही. ये तो बस छोटी सी परेशानी थी. जो उस बुजुर्ग को देख कर आराम लगी. उसे देख कर समझ में आया की इस देश में लोग त्योहारों में क्या क्या नहीं करते है क्या मै खड़ा भी नहीं हो सकता था. ठीक मेरे बाजू में वो बुजुर्ग खड़ा हुआ था उसे उसका बेटा ट्रेन तक छोड़ने आया था ट्रेन छुटने से पहले वो कह रहा था की बाबूजी इस बार आपने आकर बहुत अच्छा किया हमने साथ में दिवाली मना ली, हो सका तो अगली बार जरूर आऊंगा. बुजुर्ग के चेहेरे में हल्की सी मुस्कराहट थी जो सायद ये कह रही थी बेटा ठीक है तू ना सका कोई बात नहीं मैंने आकर तुझे और अपनी बहु बेटो को देख लिया इतना ही बहुत है. सायद वो समझ गया था कि उसका बेटा अब इन शहर की रौशनी भरी गलियों में गुम हो चूका है जिनसे निकल कर सायद वो गाव की अँधेरी गलियों को न ढूढ़ पा रहा हो या फिर उस अन्धकार में दिवाली के दीपक न जलना चाहता हो. फिर भी वो बुजुर्ग खुश दिख रहा था की जो भी हो इस बार की दिवाली बेटे के साथ तो मना सका. अगला बरस किसने देखा है पता नहीं किस बीमारी को ये कमजोर शरीर भा जाये और वो इसे अपना घर बना ले. कोई पश्चिमी देश होता तो शायद एक फ़ोन करना ही अच्छा समझता वजाय इतनी भीड में आने जाने के. वो व्यक्ति जिसने मेरे बैग लिया था अभी भी उसे पकड़ कर बैठा हुआ था. मै ठीक उसके सामने ही बैठा हुआ था उसकी उम्र ४५ के लगभग की लग रहा थी दिखने में वो काफी सामान्य परिवार से लग रहा था. एक सफ़ेद सामान्य सी शर्ट और पेंट पहना हुआ था पर बातो से बहुत ही समझदार लग रहा था काफी देर से वो अपने आस पास बैठे लोगो से बात कर रहा था मै ठीक उसके सामने होने के कारण सब कुछ चुपचाप सुन रहा था कुछ ही समय में वो ऐसे मित्र बन गए थे जैसे बचपन के दोस्त हो धीरे धीरे बाते होती रही तो फिर उस व्यक्ति ने जिसने मेरा बैग लिया था मुझसे पूछा 'तुम कहा जा रहे हो'. 'वर्धा' मैंने उसे जवाब दिया . अच्छा फिर धीरे धीरे बात होते होते हमारा परिचय हुआ. उसने बताया कि उसका नाम बनवारी है और वो मुंबई जा रहा है रात के १० बज चुके थे पर सफ़र अभी लम्बा था बातो बातो में मै भी उनसे घुल मिल गया . बाजु में बैठे हुए एक सज्जन ने मेरे बारे में पूछाः तो मैंने बताया की मै अभी job कर रहा हु, सुन कर उन्हें अच्छा लगा | धीरे धीरे सफ़र कटता रहा और बाते होती रही| इसी बीच कई लोग आये और गए जिनकी वजह से मुझे उठना पड़ा उनमे से एक व्यक्ति हर 10 -15 में आता, तो एक ने उसे देख कर ये भी कह डाला कि भारतीय रेल में तुम्हे हर तरह के लोग मिलेंगे. मेरे आस पास सभी लोगो की उम्र शायद ४० के पार ही रही होगी. बातो बातो में बनबारी ने मुझे समझया की बेटा अभी तुम्हारी उम्र है संभल कर चलना, प्यार के नाम पर कभी किसी को धोखा मत देना, नदी की दिशा में तो सभी तैरते है पर असली तैराक तो वही होता है जो उसकी उलटी दिशा मई तैर कर भी पार कर जाय. मै उनकी बाते सुन मन ही मन मुस्कुरा रहा था उसी समय एक महिला का वहा आगमन हुआ अचानक सभी लोगो की निगाहे उसी की और मुड गई वह साधारण सी साडी पहनी हुई थी जिसे देख कर कोई भी कह सकता था की वह एक गाव की महिला है उम्र उसकी लगभर ३० से ३२ के लगभग थी रंग सावला था पर दिखने में खूबसूरत थी वह इसी ओर आ रही शायद उसे बाथरूम की ओर जाना था पर आदमियों की भीड होने के कारण रास्ता मिलने की उम्मीद में वही खड़ी हो गई ! मेरे सामने एक आदमी था और उसके बाद वह महिला खड़ी हुई थी सभी मर्दों की नज़र अभी भी उस पर ही थी जैसे तैसे मेरे सामने वाले व्यक्ति ने उसे आने का रास्ता दिया और वह महिला आगे बढ़ी और मैंने भी खड़े होकर उसे जगह देने की कोशिश की पर अचानक ही मै ये देख कर आश्चर्य चकित रह गया की बनबारी ने मेरी शर्ट पकड़ कर मुझे रोकने की कोशिश की. वो नहीं चाहता था की मै वहा से हटू और वो महिला आराम से जा सके. एक पल के लिए ऐसा लगा जैसे अभी अभी मैंने एक पल में सतयुग से कलयुग बदलते देखा है जो व्यक्ति अभी देश, प्रेम, सम्मान की बड़ी बड़ी बाते कर रहा था वही अब एक महिला को परेशान करके मज़े ले रहा था फिर भी मैंने फिर से कोशिश की और उठा. उस महिला ने जगह पाकर तुरंत अपना रास्ता पकड़ा और आगे बढ़ गई. लौटते हुए भी कुछ ऐसा ही नजारा रहा जहा कुछ आदमियों की नजरो ने उसका तब तक पीछा किया जहा तक वो कर सकती थी उसके जाने के बाद सब कुछ वैसा ही हो गया जैसा पहले था लोग फिर से अपनी अपनी बड़ी बड़ी बातो को बड़े ही गर्व के साथ बात रहे थे और मै अभी भी उसी घटना में अटका हुआ था बस उनकी एक बात समझने की कोशिश कर रहा था कि क्या सचमुच यहाँ हर तरह के अलग अलग लोग है या फिर एक ही तरह के है. Written by Vikas Rajak |