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Ghazals 61-120 (Part two of my first poetry book), due 10 September 2009. |
६१. थाम दामन उन्हें हम बिठाते रहे थाम दामन उन्हें हम बिठाते रहे ज़ुल्फ़ झटकाये वो दूर जाते रहे जो तल्ख़ तबीयत हो गयी तो गुनाहगार हमें बतलाते रहे बारहा तोड़ना प्यार के वायदे एक ये ही रसम वो निभाते रहे एक हम थे भरोसा उन पे किये ख़्वाब मन में हज़ार सजाते रहे हम मिल तो सके न ख़लिश उनसे गो तसव्वुर में वो रोज़ आते रहे. ६२. अश्कों के जाम अनगिनत पीता रहा हूँ मैं अश्कों के जाम अनगिनत पीता रहा हूँ मैं भीतर तलक पर आज भी रीता रहा हूँ मैं कब जाने मेरी ज़िन्दगी में आयेगी बहार सूखे दरख्त की तरह जीता रहा हूँ मैं कुर्ता मेरा बदरंग इक पहचान बन गया पैबन्द-दर-पैबन्द बस सीता रहा हूँ मैं दो लफ़्ज़ प्यार के कभी न हो सके नसीब हर साँस में गोया ज़हर पीता रहा हूँ मैं जो आयेगा कल कुछ खबर उसकी मुझे नहीं ता- ज़िन्दगी बस एक कल बीता रहा हूँ मैं अल्लाह मिला ख़लिश न मुझे राम ही मिला पढ़ता सदा कुरान और गीता रहा हूँ मैं. ६३. सभी कहते थे तुम को देखने वाला फ़िदा होगा सभी कहते थे तुम को देखने वाला फ़िदा होगा बसर एक ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर में उस का सदा होगा न था मालूम फ़ितरत ज़ुल्फ़ की होगी मगर ऐसी कभी करना मुहब्बत तर्क क़िस्मत में बदा होगा बयाँ क्योंकर करूँ मैं सिलसिला तेरी जफ़ाओं का सुनेगा जो भी मेरा हाल नाहक ग़मशुदा होगा बहाओ अश्क अब तनहाइयों में रात भर जितने मुहब्बत और वफ़ा का फ़र्ज़ क्या इससे अदा होगा न तुम मुझको कभी आवाज़ देना दूर से हमदम बिछुड़ कर याद करने से भला क्या फ़ायदा होगा जो हम कहते हैं करते हैं तुम्हारे मुल्क में शायद कसम खा के मुकरने का भी कोई क़ायदा होगा किताब-ए-इश्क़ का पन्ना पलट दो क्यों झिझकते हो यही शायद नई इक ज़िन्दगी का इब्तिदा होगा अग़र खाली है पैमाना तो क्यों न तोड़ दो उसको ख़लिश तुम को तो हासिल हर गली में मैकदा होगा. इब्तिदा = प्रारम्भ, शुरुआत मैकद: = मैख़ान: = मधुशाला, मदिरालय, जहाँ शराब बिकती है ६४. याद उन की जब कभी आने लगी याद उनकी जब कभी आने लगी तीरगी दिल पर मेरे छाने लगी कट गयीं रातें बदलते करवटें वो न आये आस भी जाने लगी एक सूरज से चली आयी किरण लौ की नाकामी पे मुस्काने लगी शम्म को खुद पे हुआ ऐसा ग़ुरूर कहर परवानों पे वो ढाने लगी जब पतंगों के जले पर तो ख़लिश लौ अजब सा इक सुकूँ पाने लगी. ६५. हर शाम मेरे दिल में ग़म लेकर आती है हर शाम मेरे दिल में ग़म लेकर आती है तनहाई में दिल को साथी दे जाती है रूह रहती है अक़्सर कोई नज़्दीक मेरे माज़ी की यादों से दिल को तड़पाती है वो दूर नहीं हमसे पर पास नहीं आते इज़हार से क्यों उनकी फ़ितरत कतराती है रहती है तसव्वुर में परछाईं तो उनकी नज़रों में आने से सूरत शर्माती है वो ख़लिश खफ़ा हैं या करते हैं मुहब्बत वो दिल समझ न पाता है रहता जज़्बाती है. ६६. इन प्यार की राहों में ग़म ही तो सहारा है इन प्यार की राहों में ग़म ही तो सहारा है जब ग़म ही नहीं होगा तो कौन हमारा है ये राज़ मुहब्बत का बिरला ही कोई जाने रुक जाये नाव जहाँ बस वही किनारा है हर अदा का मतलब है, नादान न जाने है जो गुज़र गया लमहा आता न दोबारा है ग़म उनकी धरोहर है इस दिल में संजोयी है उनसे भी अधिक हम को ग़म उनका दुलारा है कुछ ख़लिश हसीं मंज़र माज़ी से चुराये हैं पलकों के झरोखों में यादों को संवारा है. ६७. इन प्यार की मीठी राहों में कुछ तल्ख ज़माने देखे हैं इन प्यार की मीठी राहों में कुछ तल्ख ज़माने देखे हैं रहने के गै़र की बाहों में रंगीन बहाने देखे हैं खाते हैं कसम वफ़ाओं की और जफ़ा भरी है फ़ितरत में रातों को रहने के उनके नापाक ठिकाने देखे हैं गो आज गिरे हैं धरती पर, थे कभी फ़लक के बाशिन्दे ज़ोरे-उल्फ़त में हमने भी कुछ ख्वाब सुहाने देखे हैं कुछ नग़्मे सुन कर अश्कों का थमना मुश्किल हो जाता है जो दुखिया दिल को बहला दें, पुरसुकूँ तराने देखे हैं जब कश्ती डूबी ख़लिश मुझे अनजान बचाने वाले थे अपने भी वक़्ते-ज़रूरत पर होते बेगाने देखे हैं. ६८. भूल जाओ वो कसम जो प्यार में ली थी कभी भूल जाओ वो कसम जो प्यार में ली थी कभी अब नशा बाकी नहीं उस मय का जो पी थी कभी उस खता की क्यों सज़ा अब उम्र भर हम को मिले जो भला नादान बचपन के दिनों की थी कभी याद मेरे दिल में उसकी आज भी महफ़ूज़ है चन्द लमहों की फ़कत जो ज़िन्दगी जी थी कभी गो बहुत मशहूर हूँ मैं संगदिल के नाम से प्यार की मेरे भी दिल में हूक उठी थी कभी वो ही मेरी मौत का बाइस बना है अब ख़लिश जिसको मैंने ज़िन्दगी सौगात में दी थी कभी. ६९. मेरी नीलामी पर बोली आये लगाने सारे लोग मेरी नीलामी पर बोली आये लगाने सारे लोग लूट मेरा घर अपने घर को आये बचाने सारे लोग पहला पत्थर मारें मुझको हक़ ये सभी जताते थे रिश्ता नहीं कभी था मुझसे आये बताने सारे लोग अपने हाथों को सेकेंगे, रात ज़रा होगी रौशन सोच यही बस मेरे घर को आये जलाने सारे लोग कोई ज़माना था जब मैं सबका मोहसिन कहलाता था मेरी बदकारी के किस्से आये सुनाने सारे लोग जिसने प्यार मुहब्बत का दुनिया भर को पैग़ाम दिया ख़लिश उसी ईसा को सूली आये चढ़ाने सारे लोग. मोहसिन = परोपकारी ७०. उठता है दिल में दर्द मेरे तो ग़म के नग़्मे गाता हूँ उठता है दिल में दर्द मेरे तो ग़म के नग़्मे गाता हूँ जो दर्द भरा है गीतों में, उससे दिल को बहलाता हूँ दिल की बर्बादी के किस्से ज़ाहिर सब पर कैसे कर दूँ ये नग़्मे गाकर ही सबको मैं दिल का हाल सुनाता हूँ जब याद मुझे कोई उनकी महफ़िल में कभी दिलाता है दिल तो रोता है भीतर से मैं बाहर से मुस्काता हूँ अक़्सर वो दिन याद आते हैं जो हँसकर साथ बिताये थे रो लेता हूँ तनहाई में और एक सुकूँ-सा पाता हूँ तुमने भी क्या कभी मुहब्बत में चोट ज़िगर पे खायी है जब कोई मुझसे पूछे है खा़मोश ख़लिश रह जाता हूँ. ७१. दिल टूट गया, कैसे टूटा कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता इससे दिल टूट गया, कैसे टूटा, कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता इससे तुम चले गये ना आने को अब पूछें भला सबब किससे रुस्वा तुमको कैसे कर दें, क्या बात हुई कैसे कह दें इल्ज़ाम लगेगा हम पर ही हम दिल का हाल कहें जिससे खुद आग लगायी है हमने, रोने से क्या हासिल होगा समझाया सबने दूर रहो जल जाओगे इस आतिश से अनजानी राहें चाहत कीं, इक क़दम उठाया, फ़िसल गये जो बोसे तुमसे पाये थे वो निकले भरे हुए विष से निकले हम प्यार के तूफ़ाँ में, क्यों ख़लिश करी ये नादानी दिल तो बुझ जाता है ग़म की इक हल्की-सी भी बारिश से. ७२. चुपके- चुपके वो मेरे दिल के क़रीब आता रहा चुपके- चुपके वो मेरे दिल के क़रीब आता रहा पास आ कर प्यार का नग़्मा कोई गाता रहा वो मुलाक़ातों का मौसम इस तरह रंगीन था रोज़ जूड़े में लगाने गुल नये लाता रहा दौर साकी और मय का चल रहा था बेझिझक जाम पर वो जाम मुझसे इश्क़ में पाता रहा यूँ नहीं कि शक मुझे फ़ितरत पे उसकी न हुआ हँस के, मैं नादान हूँ, वो मुझको समझाता रहा एक दिन आँखें खुलीं तो जा चुका था पास से तब हुआ मालूम मुझको झूठ वो नाता रहा अब ये आलम है ख़लिश उल्फ़त गयी, चाहत गयी चोट वो दिल पे लगी सारा नशा जाता रहा. ७३. तेरी सूरत को निगाहों से चुराया मैंने तेरी सूरत को निगाहों से चुराया मैंने तुझे नग़्मा भी तसव्वुर में सुनाया मैंने मुझे एहसास हुआ तू ही मेरे दिल में है तुझे सपनों में सरेशाम ही पाया मैंने मैंने महसूस किया रेशमी ज़ुल्फ़ों को तेरी तेरे रुखसार से सपनों को सजाया मैंने मैंने चाहा कि तेरे ख़्वाब मैं पूरे कर दूँ तू जो रूठी तो बहुत बार मनाया मैंने मुझे रह- रह के यही ख्याल सदा आता था कहीं भूले से न हो तुझको सताया मैंने न मैं फिसला हूँ कभी राहे-वफ़ा से अपनी है मुहब्बत को असूलों से निभाया मैंने ख्याल आता है मुझे प्यार में क्या पाया है सिर्फ़ तनहाई में अश्कों को बहाया मैंने आज आगोश में ग़ैरों के तुझे देखा है क्या इसी दिन को ख़लिश दिल था लगाया मैंने. ७४. अकेला हूँ मैं दुनिया में सहारा कोई तो होता अकेला हूँ मैं दुनिया में सहारा कोई तो होता दिखाता राह जो मुझको, सितारा कोई तो होता ज़रा सी बात पर मुँह फेर कर उनका वो चल देना बुला लेता मुझे दिल से दोबारा कोई तो होता इधर कूआँ, उधर खाई, भंवर में फंस गया हूँ मैं नज़र आता धुंधलके में, किनारा कोई तो होता गये जो दूर बन बैठे पराये देस के वासी तरीक़ा फिर से मिलने का ख़ुदारा कोई तो होता गये आते नहीं फिर से, पलट के अब न आओगे ख़लिश दिल से भुलाता ग़म तुम्हारा, कोई तो होता. ७५. सब रास्ते बिखर गये मैं भी बिखर गया सब रास्ते बिखर गये मैं भी बिखर गया मंज़िल का मेरी रास्ता जाने किधर गया मैं जिस मुक़ाम से चला वहीं पे आ गया बेकार ज़िंदगी का आज तक सफ़र गया ना यार से मिलना मेरा इक बार हो सका करने को मैं दीदार जहाँ से गुज़र गया सोचा था मेरी है वो मेरे पास आयेगी पहलू में देख ग़ैर के उसको सिहर गया जब मयक़दे से न मिली उधार की शराब कहते हैं लोग लो ख़लिश भी अब सुधर गया. ७६. ज़िंदगी शमशान बन के रह गयी ज़िंदगी शमशान बनके रह गयी मौत का सामान बनके रह गयी जो भरी रहती थी रंगो-नूर से ज़ीस्त अब वीरान बनके रह गयी जिसका बर्बादी ही बस अंज़ाम है उम्र वो तूफ़ान बनके रह गयी एक शय जो हुस्न से भरपूर थी बेहिसो-बेजान बनके रह गयी क्यों जिऊँ अब रूह भी मेरी ख़लिश फ़ालतू मेहमान बनके रह गयी. ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी बेहिस = चेतनाशून्य, गाफ़िल, सुन्न, जड़ीभूत ७७. मैंने सांसों से कभी दम को निकलते देखा मैंने सांसों से कभी दम को निकलते देखा कभी टूटी हुई सांसों को सम्हलते देखा मैंने जज़्बात छिपाने का हुनर देखा है मैंने अश्कों में ग़मेदिल को पिघलते देखा मैंने रंगीन तमन्ना की नुमाइश देखी चूर अरमान को सीने में मचलते देखा मैंने देखा है बुढ़ापे को झुका बोझों से मैंने पुरजोश जवानी को उछलते देखा मैंने ख़्वाहिश के बहुत रूप ख़लिश देखे हैं मैंने बूढ़ों को खिलौनों से बहलते देखा. ७८. मैं न मैं हूँ तुम न तुम हो दोनों ही कुछ बदल गये हैं मैं न मैं हूँ, तुम न तुम हो, दोनों ही कुछ बदल गये हैं राहे-मंज़िल से लगता है दोनों ही कुछ फिसल गये हैं हम थे, तुम थे, परवाह हमको नहीं ज़माने की थी कोई पर क़िस्मत की ठोकर खा कर दोनों ही कुछ संभल गये हैं कभी बिताते थे हम दोनों बांहों ही बांहों में रातें बातों ही बातों में अब तो बरछी भाले निकल गये हैं ज़हर ज़ुबाँ से यूँ बरसेगा ये मुझको मालूम नहीं था लफ़्ज़ों की चोटों से मानो दोनों के दिल कुचल गये हैं ये मत सोचो ख़लिश तुम्हारी करने चला शिकायत सबसे दिल के ख़्याल दबा न पाया अशआरों में मचल गये हैं. ७९. हासिल मुझे है सब मगर मज्बूर हूँ यारो हासिल मुझे है सब मगर मज्बूर हूँ यारो दुनिया में नेमतों से बहुत दूर हूँ यारो किससे कहूँ दिल की कोई अपना नहीं लगता ज़माना कहता है बहुत मग़रूर हूँ यारो मुझ को सुने बगै़र तुम आलिम समझते हो ज़र्रानवाज़ी का बहुत मश्कूर हूँ यारो मुझ में, मेरे कलाम में तल्ख़ी है इस क़दर इक शख़्सियत दुनिया को नामंज़ूर हूँ यारो नये दौर के माफ़िक नहीं मैं अब रहा ख़लिश गुज़रे ज़माने का कोई दस्तूर हूँ यारो. नेमत = ईश्वर का दिया हुआ धन-दौलत, अच्छी-अच्छी चीज़ें ज़र्रानवाज़ी = छोटों पर दया करना (ज़र्र:नवाज़ = दीनदयालु, दीनबन्धु) मश्कूर = जिसका शुक्रिया अदा किया जाय कलाम = शब्द, वाणी, बोली, मीमांसा, गुफ़्तगू ८०. ज़िन्दगी लगने लगी दुश्वार है ज़िन्दगी लगने लगी दुश्वार है मौत का सामान भी तैय्यार है ढूँढते हो क्यों मुहब्बत को यहाँ सिर्फ़ धोखे से भरा संसार है बोलने के कोई जु्म्ला पेशतर सोचना पड़ता यहाँ सौ बार है भाई-भाई के दिलों के दरमियाँ अब घरों में खिंच चुकी दीवार है मर्ज़े-तनहाई से हर स्त्री-पुरुष लग रहा ख़लिश यहाँ बीमार है. जुम्ल: / जुम्ला = वाक्य, शब्द-समूह ८१. चल रहा हूँ राह बिन, मेरी कोई मंज़िल नहीं चल रहा हूँ राह बिन, मेरी कोई मंज़िल नहीं नाव है मझधार में दिखता कोई साहिल नहीं दोस्त दुश्मन बन गये, दुश्मन किसी के कब हुये है तनहाई ज़िंदगी में, अब कोई महफ़िल नहीं आज पत्थर मारने को आये हैं जो दोस्त ये एक भी कहता नहीं, “मैं भीड़ में शामिल नहीं” फ़ैसला मुंसिफ़ करेगा क्या, मुझे मालूम है बिक गये हैं सब गवाह, पहचानते कातिल नहीं दर्द सहने की मिली है सिफ़्त मौला से मुझे चोट खा के चुप रहे ऐसा ख़लिश हर दिल नहीं. ८२. मौत का करता रहा मैं इंतज़ार मौत का करता रहा मैं इंतज़ार वादा करके भी ना आयी एक बार ज़िंदगी की असलियत भी देख ली हर खुशी में ग़म छिपे मानो हज़ार प्यार की दुनिया में ऐसा खो गया मैं खिज़ां को ही समझ बैठा बहार देख कर यूँ हुस्न को चकरा गया हो गया मैं एक ज़ालिम का शिकार बेवफ़ाई को न पहचाना ख़लिश इश्क़ का जब तक रहा मुझ पे खुमार. ८३. अब तो हमने तुम बिन भी दुनिया में जीना सीख लिया अब तो हमने तुम बिन भी दुनिया में जीना सीख लिया होठों पीना छूट गया और प्यालों पीना सीख लिया पूछे हमसे कोई अग़र क्यों अश्क हमारे बहते हैं चुप रहते हैं महफ़िल में हमने लब सीना सीख लिया दिल के तारों को यूँ छेड़ा, हाथ लगा और टूट गये दर्द भरे सुर में किस कारण रोती वीणा सीख लिया जान लिया कि आशिक़ की दुनिया में बस ग़म ही ग़म हैं दर्द मुहब्बत में मिलता है झीना-झीना सीख लिया नाहक तुमने हमें ख़लिश क्यों झूठे ख्वा़ब दिखाये थे हमने चैने-दिल कैसे जाता है छीना सीख लिया. ८४. नींद ऐसी एक दिन सो जाऊँगा नींद ऐसी एक दिन सो जाऊँगा इस जहाँ से दूर मैं हो जाऊँगा पाप दुनिया में किये लेकिन उन्हें पेशतर जाने के मैं धो जाऊँगा मैं सदा खोया रहा संसार में अब कहीं पर और मैं खो जाऊँगा छोड़ जाऊँगा निशाँ मैं इस तरह बीज गज़लों के यहाँ बो जाऊँगा फ़िक्र दुनिया की ख़लिश क्योंकर करूँ एक दिन मैं भी कभी तो जाऊँगा. ८५. क्या हुआ मुझको समझ आता नहीं क्या हुआ मुझको समझ आता नहीं और ग़म मुझसे सहा जाता नहीं हैं सभी हासिल मुझे रंगीनियाँ दिल मेरा लेकिन सुकूँ पाता नहीं क्यों कहूँ मैं प्यार से परहेज़ है प्यार मेरे पास ही आता नहीं चश्म खाली हो चुके हैं अब मेरे ग़म भी आँखों में नमी लाता नहीं जा रहा हूँ छोड़ कर सबको ख़लिश अब रहा दुनिया से कुछ नाता नहीं. ८६. अब मेरी आँखों में कोई ख़्वाब मंडराते नहीं अब मेरी आँखों में कोई ख़्वाब मंडराते नहीं खै़रख्वाह अपने मुझे कोई नज़र आते नहीं ख़्वाहिशें मेरे भी दिल में थीं कभी बेइंतिहा दिल में भूले से भी अब अरमान मुस्काते नहीं जानते थे हमसे मिलने के बहाने जो हज़ार अब गुज़र के भी हमारे पास से जाते नहीं वायदों का दम भरा करते थे जो हर साँस में प्यार की कसमें कभी भूल कर खाते नहीं किसलिये नादान बनते हो मुहब्बत में ख़लिश लिख कर ना बतायेंगे वो तुम उन्हें भाते नहीं. खै़रख्वाह = भलाई चाहने वाला, शुभचिन्तक, शुभेच्छु बेइंतिहा = अपार, असीम, बेहद ८७. जी रहा हूँ ज़िंदगी बिन आस के जी रहा हूँ ज़िंदगी बिन आस के ढाँपता हूँ तन बिना लिबास के ज़ीस्त में बरपा घुटन है इस तरह जिस तरह कोई जिये बिन श्वास के राह काँटों से मेरी भरपूर थी देखता सपने रहा मधुमास के प्रेम की सरिता निकट बहती रही होंठ थे सूखे सताये प्यास के राह प्रीतम की तकेंगे ये ख़लिश काग, मत चुगना नयन तुम लाश के. ८८. क्या खबर थी कोई दिल के पास इतना आयेगा क्या खबर थी कोई दिल के पास इतना आयेगा जायेगा तो उम्र भर का ग़म मुझे दे जायेगा था बहुत पुरनूर मौसम जब मिले थे तुम मुझे जानता था कौन यूँ इक दिन अंधेरा छायेगा देखते ही देखते अपने पराये हो गये बस यही ग़म ज़िन्दगी भर को मुझे तड़पायेगा शक्ल दिल के आईने में फिर तुम्हारी आयेगी नाम कोई बेवफ़ाई का जो लब पे लायेगा यूँ वफ़ा तो प्यार में लाज़िम नहीं होती ख़लिश बेवफ़ा तुम क्यों हुये ये सोच दिल भरमायेगा. पुरनूर = प्रकाशमान्, रोशन ८९. ज़िन्दगी एक आस बन कर रह गयी ज़िन्दगी एक आस बनकर रह गयी खोखला एहसास बनकर रह गयी याद थी इक बेवफ़ा के प्यार की इक ठगा विश्वास बनकर रह गयी रात तो आयी मिलन की थी मगर सिर्फ़ इक नि:श्वास बनकर रह गयी कैफ़ियत क्या कैस की कीजे बयाँ इक फटा लिबास बनकर रह गयी मौत जब आयी ख़लिश उसकी शकल आखिरी इक साँस बनकर रह गयी. ९०. हमें मत देखिये ऐसे कभी हम भी तुम्हारे थे हमें मत देखिये ऐसे कभी हम भी तुम्हारे थे हमारा नाम होंठों से कभी तुम भी पुकारे थे नहीं अब रूप पहले की तरह बाकी बचा मेरा कभी अपनी नज़र से रूप को ख़ुद ही संवारे थे हक़ारत से हमें न देखिये न टूट जाये दिल कभी मरते थे तुम हम पे, कभी दिल हम पे वारे थे नहीं पहले सरीखी अब रही है आप में जोशी कभी आगोश में लमहे बहुत हँस के गुज़ारे थे ख़लिश क्या कीजिये कि लौट आये वक़्त वो बीता कहा करते थे जीते सिर्फ़ इक मेरे सहारे थे. हक़ारत = अपमान, तिरस्कार, बेइज्ज़ती आगोश = अंक, गोद, बगल ९१. ढूँढता हूँ आज वो परछाइयाँ ढूँढता हूँ आज वो परछाइयाँ खो गयीं जो, रह गयीं तनहाइयाँ बज रहीं हैं ज़िंदगी में सब तरफ़ सिर्फ़ सन्नाटों भरी शहनाइयाँ ग़म मुझे इतना मिला है बेहिसाब भर गयीं दिल की सभी गहराइयाँ मैं खिज़ाँ के फूल की मानिन्द था रास न आयीं मुझे रा’नाइयाँ राहे-उल्फ़त चल दिया लेकिन ख़लिश थीं लिखीं तक़्दीर में रुस्वाइयाँ. रा’नाई = हुस्न, सुन्दरता, छटा रुस्वाई = बदनामी ९२. बुलाया बहुत वो न इक बार आये बुलाया बहुत वो न इक बार आये चले जा रहे है वो नज़रें चुराये इशारे किये और भेजे संदेसे प्यार की राह पर ला नहीं पाये दिल से न उनके आवाज़ आयी कई राग छेड़े, कई गीत गाये चेहरे पे उनके शिकन भी न देखी दाग़ हज़ारों उनको दिखाये कोई ख़लिश उनको ये बता दे जी न सकेंगे ग़र वो न आये. ९३. मैं ज़माने को नहीं मंज़ूर हूँ मैं ज़माने को नहीं मंज़ूर हूँ किंतु जीने के लिये मज्बूर हूँ ना किसी की राह का मैं हूँ चराग़ न किसी की आँख का मैं नूर हूँ ज़ालिमों के ज़ुल्म से जब तक डरा मैं उन्हें कहता रहा मश्कूर हूँ आज जब परवाह उनकी छोड़ दी लोग कहते हैं बहुत मग़्रूर हूँ किसलिये दिल में करूँ मैं ग़म ख़लिश आ गया ग़म और ख़ुशी से दूर हूँ. मश्कूर = शुक्रगुज़ार, आभारी मग़्रूर = अहंकारी, घमंडी ९४. अब कोई दिल में लहर आती नहीं अब कोई दिल में लहर आती नहीं इक उदासी है कि अब जाती नहीं दोस्ती जब से खिज़ाओं से हुई अब फ़ज़ा दिल में खुशी लाती नहीं दिल मेरा तनहाई में लगने लगा शय कोई रंगीन अब भाती नहीं हैं पिया परदेस, मैं तड़पूँ यहाँ कोई सन्देसा नहीं, पाती नहीं यूँ ख़लिश दिल में अन्धेरे छा गये रोशनी दिल में जगह पाती नहीं. ९५. मेरे दिल में कहीं से आज ये आवाज़ आती है मेरे दिल में कहीं से आज ये आवाज़ आती है बहुत जी ली, ये तेरी ज़िंदगी बीती ही जाती है मुझे ये ज़िंदगी अपनी लगे है अब परायी सी हक़ारत से लगे है आज मुझ पर मुस्कुराती है नहीं लगता है मेरा दिल ज़माने की बहारों में कमी कोई ज़हन में रात-दिन ज्यों कसमसाती है जिया मैं जिसके दम पे वो नहीं हमदम रहा मेरा मुझे पैग़ामे-रुख़्सत अब सदा कोई सुनाती है ख़लिश ये छोड़कर दुनिया वहीं पर जाऊँगा मैं भी जहाँ पर बस गया जाकर मेरे जीवन का साथी है. पैग़ामे-रुख़्सत = विदाई का संदेश ९६. ग़मे-दुनिया ने कई बार रुलाया हमको ग़मे-दुनिया ने कई बार रुलाया हमको ख़्वाब झूठा ही कई बार दिखाया हमको राह जो हमने चुनी वो ही बनी है दुश्मन ज़िंदगी छोड़ चलें ख़्याल भी आया हमको यूँ ही तनहाई में अक्सर वो चला आता है बड़ा दिलकश है लगे मौत का साया हमको दिल जो टूटा था कभी आज तलक डरता है हुस्न ने यूँ तो कई बार बुलाया हमको कोई तो राज़ है दिल में जो निहाँ रखा है बस इशारों की ज़ुबाँ में ही बताया हमको है वज़्ह कुछ तो ख़लिश ख़ुद ही हमारी रूह ने आज पैग़ाम है रुख़्सत का सुनाया हमको. दिलकश = मनोहर, चित्ताकर्षक, दिल को अपनी ओर खींचने वाला ९७. वो वादा कर के भूल गये मैं प्रीत निभा कर हार गया वो वादा करके भूल गये मैं प्रीत निभाकर हार गया वो मेरे दर पे आ न सके मैं उनके दर सौ बार गया क्या कहिये उनसे मिलने की कुछ ऐसी अजब कहानी है एक चितवन ने मारा उनकी, खाली मेरा हर वार गया आये तो थे वो मिलने को पर मिलने के पल यूँ बीते वो ज़ुल्फ़ झटक के हुये अलग, रोना मेरा बेकार गया ये इश्क़ बला है बहुत अजब, मत इस चक्कर में पड़ना तुम दर-दर की ठोकर खाते हैं, सब साख गयी, व्यापार गया न सनम मिला न सरमाया, ये जीना भी कुछ जीना है यूँ जीवन ख़लिश कटा मेरा, इक-इक लमहा दुश्वार गया. ९८. रिश्ता तो है वही न वो गहराइयाँ रहीं रिश्ता तो है वही न वो गहराइयाँ रहीं तुम साथ हो मेरे मगर तनहाइयाँ रहीं इस क़द्र मेरी ज़िन्दगी में इक उठा सैलाब ना प्यार का मंज़र रहा ना वादियाँ रहीं चाहा था रंगो-नूर की दुनिया मुझे मिले क़िस्मत में चार सू मगर बरबादियाँ रहीं दो गाम चल के खो गया मेरा वो हमसफ़र सौगा़त में उसकी मगर रुस्वाइयाँ रहीं साकी ने बुलाया तो था क्या कीजिये ख़लिश खाली रहा प्याला भरी सुराहियाँ रहीं. सैलाब = बाढ़ चार सू = चारों ओर गाम = डग, क़दम, पग ९९. मत सुनाओ तुम मुझे पुर-दर्द अपनी दास्ताँ मत सुनाओ तुम मुझे पुर-दर्द अपनी दास्ताँ आँसुओं के छोड़ जायेगी मेरे दिल पे निशाँ और का ग़म देखकर ये याद आया है मुझे जल गया था एक मेरा भी पुराना आशियाँ मैं कभी मचला किया रंगीं इशारे देख कर अब नहीं दिल में रहीं वो हसरतें मेरी जवाँ संगदिल हैं लोग क्योंकर आँख नम होगी भला साथ मेरे आज लेकिन रो रहा है आसमाँ दिल मेरा छलनी हुआ है दाग़ लाखों लग चुके सह न पाऊँगा ख़लिश अब और ये ग़मगीं समाँ. पुर-दर्द = दर्द से भरी १००. प्यार कर के न कुछ भी मिला प्यार में प्यार करके न कुछ भी मिला प्यार में है वफ़ा ही जफ़ा का सिला प्यार में रोकने से न आँधी रुकी इश्क़ की क़ाफ़िला धड़कनों का चला प्यार में दिल जो टकराये तो थी नहीं दुश्मनी जीत और हार का क्या गिला प्यार में प्रश्न कितने उठे पर न उत्तर मिला न खुला ये सवाली किला प्यार में इश्क़ के रास्ते हैं नुकीले ख़लिश दिल सभी का यहाँ पे छिला प्यार में. १०१. हम भुलाते ही गये वो याद आते ही गये हम भुलाते ही गये वो याद आते ही गये शाम को वो और भी पुरग़म बनाते ही गये गो कि दीवारों से टकरा के पलट आयी सदा रात की तनहाइयों में हम बुलाते ही गये वो न आये पर तसव्वुर में उन्हें ले आये हम दास्ताने-ग़म उन्हें अपनी सुनाते ही गये जानते थे लौटकर आते नहीं जो जा चुके एक झूठी आस हम ख़ुद को दिलाते ही गये क्या जुदाई का सबब है किस तरह कहते ख़लिश आ रहे हैं रोज़ ख़त सबको बताते ही गये. १०२. इश्क़ के अंज़ाम से घबरा गया हूँ इश्क़ के अंज़ाम से घबरा गया हूँ ज़िन्दगी से मैं बहुत तंग आ गया हूँ याद इतनी दे गये, इनको संजोते आज लगता है बहुत थक सा गया हूँ हैं अभी भी वो तसव्वुर में नज़ारे देख कर जिनको तनिक शर्मा गया हूँ याद के मोती पिरोते नम नज़र से प्यार का इक और नग़्मा गा गया हूँ लौट कर आते नहीं जो जा चुके हैं इस हकी़क़त से ख़लिश टकरा गया हूँ. १०३. मुझे क्या इस जहाँ से वास्ता मैं तो अकेला हूँ मुझे क्या इस जहाँ से वास्ता मैं तो अकेला हूँ ग़मों के साये से ही आज तक दुनिया में खेला हूँ खु़शी अब खु़श नहीं करती असर ग़म का नहीं होता न अब दिल ही धड़कता है अजब कोई झमेला हूँ नहीं कुछ पास देने को सिवा इन चन्द ग़ज़लों के कमा पाया न दुनिया में, बचा पाया न धेला हूँ न रंगो-बू है कुछ मुझ में, न घर है न ठिकाना है, लहर हूँ इक समन्दर की, हवा का एक रेला हूँ वुजूद इतना ख़लिश है राग हूँ मैं सिर्फ़ दो सुर का कभी भी ख़त्म हो जाये, फ़कत साँसों का मेला हूँ. वुजूद = अस्तित्व, हस्ती १०४. दिल ही न हो सीने में तो क्या अश्कों का काम यहाँ दिल ही न हो सीने में तो क्या अश्कों का काम यहाँ रुस्वाई से क्या डरना जब जीना है गु़मनाम यहाँ चप्पे-चप्पे काँटे हैं और अंगारे हैं राहों में क्या इनसे बच कर चलना, दुख सहना है हर गाम यहाँ मीठा बोलो चाहे सबसे चाहे सबके काम आओ ना मिल पायेगा ढूँढे से नेकी का अंज़ाम यहाँ ज़रा बुज़ुर्गों से पूछो कि बेक़द्री क्या होती है उम्र बढ़े है तो अपने ही घर में गिरता दाम यहाँ ना ख़ुशियाँ ना ग़म है कोई, मुस्कानें ना आहें हैं दिल में धड़कन नहीं ख़लिश अब हर दम है आराम यहाँ. १०५. हर तरफ़ अब गर्दिशों का राज है हर तरफ़ अब गर्दिशों का राज है बेसुरा सा ज़िंदगी का साज़ है रह गयी है सिर्फ़ ये हस्ती मेरी ज्यों बिना ऊँचाई का परवाज़ है झाँक ले दिल में कोई आ के मेरे ज़िंदगी मेरी खुला इक राज़ है है फटा दामन मगर है पाक ये ज़िंदगी, अपने किये पर नाज़ है जी चुका काफ़ी ख़लिश अब लौट आ आ रही इक दूर से आवाज़ है. परवाज़ = उड़ान, उड़ना १०६. हमने जफ़ाएं प्यार में कितनी सनम सहीं हमने जफ़ाएं प्यार में कितनी सनम सहीं नित भीगतीं पलकें तुम्हारी याद में रहीं तुमने नहीं देखा कभी भी दर्द इस दिल का मतलब नहीं इसका कि मुझे दर्द ही नहीं कम फ़ासला न हो सका दोनों के दरमियाँ हम भी रहे वहीं तुम भी खड़े रहे वहीं यूँ प्यार की राहें बनीं इक भूल-भुलैय्याँ हम ढूँढते ही रह गये दिल खो गया कहीं मंज़र पुराना आज फिर से पूछता है क्यों तुम बढ़ गये आगे ख़लिश हम रह गये यहीं. १०७. चला जाता हूँ सबसे दूर अब वापस न आऊंगा चला जाता हूँ सबसे दूर अब वापस न आऊँगा गले मिल लो न लौटूँगा न फिर सूरत दिखाऊँगा बिताऊँगा मैं तनहाई में अपने रात-दिन सारे लबों पर कोई नग़्मा अब खुशी का मैं न लाऊँगा ख़िजाँ से हो चुकी इस क़द्र है अब दोस्ती मेरी बहारें देख कर अब मैं कभी न मुस्कुराऊँगा कोई जब हाल पूछेगा ज़ुबाँ पे होगी खा़मोशी कहूँगा कुछ नहीं मैं सिर्फ़ दो आँसू बहाऊँगा रहूँ चुप ही तो है बेहतर वरन् कैसे ख़लिश सबको जुदाई क्यों हुई इसका सबब नाहक सुनाऊँगा. १०८. ज़िंदगी थी एक नर्गिस के लिये ज़िंदगी थी एक नर्गिस के लिये और जीना है मुझे किसके लिये है तमन्ना सिर्फ़ बाकी मौत की क्यों जियूँ बेकार ग़र्दिश के लिये है मुझे मरना उसी के वास्ते अब तलक जीता रहा जिसके लिये भूल जाओ आलमे-रंग और बू मुंतज़िर कोई नहीं इसके लिये याद माज़ी की ख़लिश अब फूँक दो है ये अच्छी चीज़ आतिश के लिये. नर्गिस = एक फूल मुंतज़िर = प्रतीक्षा करने वाला (मुंतज़र = जिसकी प्रतीक्षा की जा रही हो) आतिश = आतश = आग १०९. अब मुझे कोई भी शै संसार में भाती नहीं अब मुझे कोई भी शै संसार में भाती नहीं कूच करने के सिवा सूरत नज़र आती नहीं सर्द तनहाई अन्धेरी इस तरह दिल में बसी लाख समझाया इसे घर छोड़कर जाती नहीं आलमे-मनहूसियत कुछ इस तरह बरपा हुआ कोई भूले से हँसी होंठों पे मुसकाती नहीं है बहुत ज़ालिम ये दुनिया, कीजिये क्या एतबार छोड़ दे दामन अग़र तो फिर ये अपनाती नहीं बात कुछ तो है ख़लिश क्यों थम गई तेरी ज़ुबाँ ज़िन्दगी की रंगतों का गीत क्यूँ गाती नहीं. शै = वस्तु, पदार्थ, द्रव्य, चीज़ बरपा = उपस्थित, काइम ११०. न भूले हम कसम जो प्यार में खायी कभी हमने न भूले हम कसम जो प्यार में खायी कभी हमने मगर बनके रहे वादे सभी उनके फ़कत सपने नहीं है चैन दिल को, थक गयीं आँखें न वो आये नहीं आसान हैं ग़म से भरे ये रात दिन कटने भरोसा कीजिये किस पे, निभाता कौन है वादे पराये हो गये हैं वो समझते थे जिन्हें अपने अजब दीवानगी छायी है दिल पे क्या बयाँ कीजे लगे हैं याद में उनकी कभी रोने कभी हँसने लगायी आग है ख़ुद ही, शिकायत कीजिये किससे करो मत प्यार समझाया बहुत हमको ख़लिश सबने. १११. वो दिन अब क्यों नहीं आते जो इस दिल के सहारे थे वो दिन अब क्यों नहीं आते जो इस दिल के सहारे थे कभी जब हम तुम्हारे थे कभी जब तुम हमारे थे समायी थी नज़र में प्यार की मस्ती भरी दुनिया फ़लक पे प्यार के हम दो कभी रंगीं सितारे थे जिये जिन वायदों पर हम बड़े वो खोखले निकले किसे होगा यक़ीं हम एक दिन केवल तुम्हारे थे बहुत तक्लीफ़ होती है ये जब भी ख्याल आता है तुम्हीं थे जो मुहब्बत में वफ़ा का दाँव हारे थे न ये मालूम था अंज़ाम उल्फ़त का जुदाई है ख़लिश न मिल सके मानो नदी के दो किनारे थे. फ़लक = आकाश, आस्मान ११२. मेरे हुये न तुम यही दिल में मलाल है मेरे हुये न तुम यही दिल में मलाल है क्या थी ख़ता मेरी यही दिल में सवाल है कुछ ग़ैर में होगा नहीं जो मिल सका मुझमें दिल में मेरे उठता रहा ये ही ख़याल है धोखा मिलेगा प्यार में सबने कहा था ये महफ़िल में हर ज़ुबान पर मेरी मिसाल है ना होश है अपना ना कुछ दुनिया की है ख़बर दिल पे हुआ कुछ प्यार का ऐसा कमाल है मर जायें लेकिन किस तरह हों आपसे अलग जीयें ख़लिश तो आपसे मिलना मुहाल है. मुहाल = असंभव, मुश्किल, कठिन ११३. रो रो कर हमने रातों को उल्फ़त की रसम निभायी है रो रो कर हमने रातों को उल्फ़त की रसम निभायी है बिन मिले हमारी आँखों में उनकी ही सूरत छायी है जीने को तो हम जीते हैं पर मरने का दम भरते हैं पर उनको क्या मालूम भला कैसे ये रात बितायी है हम उनके ग़म में रोते हैं और उनको फ़र्क़ नहीं पड़ता है इश्क़ भला ये कैसा जिसमें मिलना नहीं, जुदाई है माना हम मुफ़लिस हैं उनको कुछ भी देने को पास नहीं पर अश्कों की ज़ागीर बहुत उन पर बेतरह लुटायी है वो आयें चाहे ना आयें, मिलने को तो हम मिल लेंगे उनके संग ख़लिश तसव्वुर में इक दुनिया नयी बसायी है. ११४. ग़र प्यार नहीं था दिल में तो क्यों झूठी कसम खिलायी थी--RAMAS ग़र प्यार नहीं था दिल में तो क्यों झूठी कसम खिलायी थी आगाह कभी तो कर देते कि क़िस्मत में रुस्वाई थी सब प्यार वफ़ा झूठे निकले, पायीं हैं सिर्फ़ जफ़ाएं ही गो हमने तो सच्चे दिल से उल्फ़त की रीत निभायी थी दो गाम चले फिर छोड़ दिया तनहा हमको क्यों राहों में हम समझे थे कि जनमों की तुम ने तो प्रीत लगायी थी इस दिल की सुनते कभी तुम्हें इतनी तो फ़ुर्सत नहीं मिली कानों में गूंजे धुन अब तक जो तुमने कभी सुनायी थी तुम भूल गये हमको लेकिन मुम्किन है नहीं भुला दें हम वो सूरत जो अरमानों से इस दिल में कभी बसायी थी. ११५. दिल में किसी का दर्द लेके चल रहा हूँ मैं दिल में किसी का दर्द लेके चल रहा हूँ मैं लब पे है जो मुस्कान, केवल छल रहा हूँ मैं वो दिन न आयेगा कभी पाऊँगा जब क़रार खुद अपने दिल की आग से ही जल रहा हूँ मैं उम्मीदे-वफ़ा है मुझे यूँ बेवफ़ा से एक सीने पे खु़द अपने ही मूँग दल रहा हूँ मैं न दिल में हैं जज़्बात न होंठों पे कोई बात एक बुते-बेज़ुबान में ज्यों ढल रहा हूँ मैं दिन-रात ग़म ने खोखला यूँ कर दिया ख़लिश ज़र्रा-ज़र्रा करके भीतर से गल रहा हूँ मैं. ११६. आज क्या मुझ को हुआ कुछ भी समझ आता नहीं आज क्या मुझको हुआ कुछ भी समझ आता नहीं था सभी रंगीन कल तक आज कुछ भाता नहीं भूख भी लगती नहीं न नींद आती पास है क्या बीमारी है मुझे ये कोई बतलाता नहीं दिल ही दिल में घुल रहा हूँ ना कोई तदबीर है दोस्तों को हाल दिल का मैं बता पाता नहीं हो गयी मुद्दत बहुत मैं कर चुका हूँ इन्तज़ार खत मेरे दिलबर का कोई डाकिया लाता नहीं ना इधर और ना उधर कैसा मु्क़ामे-इश्क़ है कुछ जवाब आये ख़लिश अब तो सहा जाता नहीं. मुक़ाम = देर तक ठहराव ११७. एक मैं हूँ एक मेरी ज़िन्दगी बदनाम है एक मैं हूँ एक मेरी ज़िन्दगी बदनाम है है सफ़र सहरा का, मुश्किल एक चलना गाम है हर क़दम पे ज़िन्दगी लेती रही है इम्तिहाँ ना कभी फ़ुर्सत मुझे और ना कभी आराम है क्यों तमन्ना हो कि जियूँ, क्यों कोई अरमान हो उम्र का हर एक लमहा हो चुका नीलाम है टूटकर इक फूल जूड़े से जनाज़े पे गिरा वक़्ते-रुख़्सत पा लिया कैसा हसीं ईनाम है आलमे-रंग और बू के हम कभी थे मुंतज़िर अब बहारों में झलकता मौत का पैगा़म है न मिली दौलत ख़लिश और न मिला मुझ को खु़दा इस जहाँ में हो गया जीना मेरा नाकाम है. ११८. मेरे इन उजड़े ख़्वाबों को तुमने कभी जगाया था मेरे इन उजड़े ख़्वाबों को तुमने कभी जगाया था छोड़ अग़र जाना था इक दिन, क्यों मुझको भरमाया था सच है मैं ग़फ़लत में था, ना तुमने वादा कोई किया तुमने तो कच्चे रस्ते पर मुझको नहीं चलाया था दुनिया एक हकी़क़त है, क्या सपनों का है मोल यहाँ ख़्वाब सुहाना जो देखा था केवल झूठा साया था धरती पर ले आये फ़लक से, हूँ मश्कूर तुम्हारा मैं गलती मेरी थी उड़ कर मैं क्यों इतना इतराया था ख़लिश दिलों की बातें हैं ये ज़ोर नहीं चलता इन पर फिर भी दिल पूछे है क्यों तुम पर यूँ प्यार लुटाया था. ११९. दोस्ती के नाम पर वो दुश्मनी करता रहा दोस्ती के नाम पर वो दुश्मनी करता रहा उम्र भर वो ख़ैरख्वाह होने का दम भरता रहा मुस्कुराता मैं रहा उसको दिखाने के लिये पर कलेजा रात- दिन मेरा बहुत जलता रहा ना जफ़ाओं की शिकायत कर सका उससे कभी ज़ुल्म वो ज्यादा करेगा सोच कर डरता रहा आये हैं मंज़र बहुत ऐसे सफ़र में बारहा वो बचाने की जगह बर्बाद ही करता रहा था अजब रिश्ता निहाँ मेरे व उसके दरमियाँ वो सितम करता रहा और प्यार भी पलता रहा ज़िंदगी की शाम है अब ख्याल आता है ख़लिश, वक़्त सारा चुक गया मैं हाथ ही मलता रहा. बारहा = बार बार १२०. गुज़र जाऊँगा दुनिया से क़लम ये ठहर जायेगी गुज़र जाऊँगा दुनिया से क़लम ये ठहर जायेगी बिखर मेरी गज़ल-ए-ज़िंदगी की बहर जायेगी सुनाऊँ क्या तुम्हें नग़्मा कि मेरा साज़ है टूटा रहेगा राग क्या जब साँस की ये लहर जायेगी मेरी आँखों में ना झाँको भरे हैं अश्क-अंगारे नज़र ये एक दिन मेरी ढहाकर कहर जायेगी न होंगे रात-दिन वो और न रंगीनी-ए-महफ़िल किसी वीरान तनहाई में शाम-ओ-सहर जायेगी ख़लिश वो चन्द लमहे उम्र भर मुझको न भूलेंगे न सोचा था कि शबे-वस्ल दे के ज़हर जायेगी. शबे-वस्ल = मिलन की रात ================================================================= BACK FLAP Photo—Hard copy to be given महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ जन्म :२३ जनवरी १९४२ शिक्षा: : एम० बी० बी० एस० एवं एम० डी० (मेडिसिन) --अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली से; एम०पी०एच० --सान कार्लोस विश्वविद्यालय, ग्वाटेमाला, मध्य अमरीका से एल०एल०बी० (दिल्ली विश्वविद्यालय) एल०एल०एम० (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय) कार्यक्षेत्र : अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में अतिरिक्त प्रोफ़ेसर राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संस्थान, दिल्ली में प्रोफ़ेसर व डीन नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात सन् २००१से अधिवक्ता के रूप में कार्यरत सम्मान : “राष्ट्रीय नागरिक” सम्मान, १९९२ विदेश : अनेक बार अमरीका, कनाडा, ब्राज़ील, जापान, जेनेवा (स्विटज़रलैंड), फ़िलिपीन्स आदि देशों में अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान गोष्ठियों में भागीदारी प्रकाशन : हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्वास्थ्य विज्ञान एवं कानून संबंधी लगभग २५ पुस्तकें (दो को भारत सरकार द्वारा प्रथम पुरस्कार); लगभग ७५ वैज्ञानिक शोध प्रबंध एवं लेख; विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग १२५ लेख सम्पर्क : जी-१७/९, मालवीय नगर, दिल्ली—११००१७ दूरभाष : ९१-११-२६६८१३४२; ९९९९३३३८०१ ई-मेल : mcgupta44@gmail.com |